Here is an essay on the Indian agriculture system especially written for school and college students in Hindi language.
भारतीय व्यवस्था की रीढ कहे जाने वाले किसान और मजदूर जिनके विषय में ऐसे कोई कानून नहीं है जो देश की किस्मत को बनाने, जो देश के महलों को बनाने वाले, जो इस देश के किसानों के बल पर अपना चूल्हा जलाते हैं जो इस देश के मजदूरों के बल पर अपनी इमारत बनाते हैं अपनी कम्पनी, कारखानों में उत्पादन कराते हैं जिन किसानों के बल पर भारत देश कृषि प्रधान देश कहलाता है लेकिन विड़म्बना इस देश की कही जा सकती है कि इस देश के किसानों को रक्षित करने के लिए तो कोई कानून आज आजादी के तिरेसठ वर्ष बाद भी नहीं बन पाया है जबकि इस देश के नीतिकार उन किसानों द्वारा उगाये गये अनाज से ही अपना पेट भरते हैं ।
लेकिन क्षणिक भी विचार इन नीतिकारों को नहीं आता कि जिस अनाज को किसान उगाकर आपके महलों तक पहुंचाते हैं उन किसानों के विषय में कोई कानून बनाया जाना चाहिए अफसोस है देश की नीतियों पर और देश के नीतिकारों पर और धन्य है भारतीय व्यवस्था जो कमाये कोई और खाये कोई और, लेकिन कम से कम इतना तो नीतिकारों को सोचना ही चाहिए था कि इस देश के अन्नदाताओं को भी कोई कानून होना चाहिए था जो इस देश के अन्नदाता कानून की सुरक्षा में अपना व अपने परिवार का पालन-पोषण अच्छे ढंग से कर सकते लेकिन शुक्र हो भारतीय व्यवस्था का और उससे भी अधिक शुक्रगुजार है भारतीय नीतिकारों का जो किसी का भी ध्यान भारतीय कृषि पर नहीं गया ।
जबकि समस्त दुनिया जानती है कि भारत एक कृषि प्रधानदेश है लेकिन हो सकता है ये बहुत ही कम लोग जानते हों कि भारत बेशक कृषि प्रधान देश है लेकिन भारत में कृषि के प्रोत्साहन या लाभ के लिए क्या-क्या कार्य सरकार द्वारा किये गये उनका विवरण तो मिलना बहुत ही कठिन है आज आजादी के तिरेसठ वर्ष बाद भी भारतीय किसान का भविष्य असुरक्षित है ।
तभी तो वर्तमान समय में किसान परिवारों के युवक-युवतियां कृषि पर ध्यान न देकर फैक्ट्रीयों में मजदूरी करना पसंद करते हैं लेकिन धन्य हो भारतीय व्यवस्था का कि वहां पर भी मजदूरों के लिए कानून तो बहुत कुछ हैं लेकिन उनका पालन होना तो मुश्किल ही नहीं असंभव सा है । अधिकतर फैक्ट्रीयों में श्रम कानूनों का उल्लंघन आम बात है ।
अर्थात भारतीय व्यवस्था को आगे बढाने में अग्रणी भूमिका निभाने वाले किसान और मजदूर ही इस देशमें असुरक्षित हैं अन्यथा इस देश के किसान परिवारों के युवक-युवतियां कृषि आधारित पढाई ही करते । कृषि में और अधिक शोध विशेषज्ञता हासिल करते और अपने परिवारों की पुश्तैनी जमीन पर अधिक उपयोगी कृषि कर आधुनिक किसान कहलवाना पसंद करते न कि फैक्ट्रीयों में मजदूरी कर अपनी उदरपूर्ति करते ।
लेकिन यह तभी सम्भव होता जब देश की नीतियां किसानों के हित में बनायी जाती और हरित क्रांति के साथ शुरू हुई कृषि क्रांति को आगे बढ़ाते लेकिन दुर्भाग्य इस देश के किसानों का कि आज तक कोई ऐसे कानून नहीं बन पाये जो इस देश के किसानों का हित कर सके ।
देश के नीतिकार सत्ता पक्ष हो या विपक्ष सभी किसान हितों की भाषणबाजी करते हैं और चुनाव जीत जाते हैं लेकिन चुनाव जीतने के बाद फिर किसी भी नीतिकार को किसानहित दिखायी नहीं देते हैं बल्कि किसानों की मेहनत की कमाई का एक बड़ा हिस्सा कृषि मंडियों में बैठे कमीशन ऐजेंट कृषि फसलों की बिक्री के समय प्राप्त करते हैं और बेचारा किसान अपने आपको ठगा सा महसूस करता है ।
जबकि दुनिया की किसी भी वस्तु के उत्पादनकर्ता अपनी वस्तु की कीमत स्वयं तय करते हैं लेकिन भारतवर्ष में केवल किसान ही एकमात्र ऐसा उत्पादनकर्ता है जो अपनी उत्पादित वस्तु (फसल) का मूल्य स्वयं निर्धारित नहीं कर सकता क्योंकि भारत देश में यदि सर्वाधिक असुरक्षित कोई वर्ग है तो वह है किसान, मजदूर वर्ग ।
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मजदूर वर्ग के लिए वैसे कानून तो बने हुए हैं लेकिन उनका पालन कराना सरकार के बूते की बात नहीं है क्योंकि देश में एक ऐसा वर्ग पनप आया है जिन पर नियंत्रण करना तो दूर उन तक पहुंचना भी टेढी खीर है और यदि पहुंच भी गये तो कार्यवाही करने के विषय में विचार करना भी बेईमानी होगा ।
भारतवर्ष का किसान वर्तमान समय में राजनेताओं की नेतागिरी करने का एकमात्र माध्यम बन गया है जिनके बल पर अच्छी खासी राजनीतिक पृष्ठभूमि तैयार की जा रही है । समाधान नहीं सूझ रहा केवल विरोध कर रहे हैं क्योंकि विरोध करना विपक्षी दलों का राजनीतिक कर्त्तव्य है ।
उ॰प्र॰ विधान सभा चुनावों से पहले देश के एक राष्ट्रीय नेता द्वारा पश्चिमी उ॰प्र॰ में किसानों के नाम पर अच्छी खासी राजनीति, जमीन अधिगृहण को लेकर की गयी । काफी हल्ला हुआ कई किसान घायल हुए कुछ के विरूध मुकदमें पंजीकृत हुए कई घर से बेघर हो गये समस्त पश्चिमी उ॰प्र॰ एक दिन के लिए रूक सा गया । लेकिन कोई स्थायी समाधान आज तक नहीं हुआ ।
ऐसे ही एक और आन्दोलन की जमीन तैयार करने में देश प्रदेश के कुछ नेता लगे जिनका एकमात्र उद्देश्य विरोध करना है कुछ समय पहले उ॰प्र॰ सरकार द्वारा घोषित महत्वाकांक्षी परियोजना गंगा एक्सप्रेस वे के विषय में देश के एक पूर्व प्रधानमंत्री द्वारा यह कहना हास्यप्रद लगा है कि 40,000 करोड़ रूपये को इस परियोजना में लगाने के स्थान पर किसानों की फसल व सिंचाई में लगाया जाये तो अधिक अनाज का उत्पादन होगा और प्रदेश दूसरे प्रदेशों से आगे निकल जायेगा ।
पता नहीं क्यों ऐसे नेता ऐसी योजनाओं के लाभ-हानि का गणित लगाने के स्थान पर अपनी राजनीति का गणित लगाकर मुददे तलाशते रहते हैं । परियोजना का अपना अलग महत्व है अगर समझा जाये तो उक्त गंगा एक्सप्रेस वे परियोजना से समस्त उ॰प्र एक परिवार की तरह बध जायेगा उसमें बताया जा रहा है कि दिल्ली से इलाहाबद की दूरी मात्र छ: घंटे में सम्भव हो जायेगी ।
तो एक्सप्रेस वे के आस पास उद्योगों, रिहायशी कालोनियों, शिक्षण संस्थानों आदि की प्रबल सम्भावनाएं होंगी जिससे उ॰प्र॰ के पूर्वोत्तर जिलों से लोगों को रोजगार के लिए दिल्ली, नोएडा नहीं भागना पड़ेगा और उनको अपने पास ही रोजगार मिल सकेगा ।
तो क्या उक्त परियोजना किसान विरोधी होगी जब एक्सप्रेस वे के पास इंजीनियरिंग कालिज, मेडिकल कालेज, मैनेजमेन्ट कालेज व उद्योग लग सकेगें और उनका लाभ किसानों के बच्चों को भी मिलेगा । रही बात किसानों की जमीन छीनने की तो जमीन के बदले उनको वाजिब मुआवजा भी मिलेगा और एक किसान को क्या आमदनी इन खेतों से होती है इसका अंदाजा तो केवल किसान ही लगा सकता है नेता नहीं, दो हैक्टैयर जमीन पर खेती करने वाला किसान जो एन.सी.आर क्षेत्र में रहता है बैंक का लाखों रूपये का कर्जदार है पूर्वोत्तर या असिंचित क्षेत्रों में खेती करने वाले किसानों की तो हालत ही क्या होगी ।
इसका तो केवल अंदाजा ही लगा सकते हैं कि जब राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र किसान परिवारों के बच्चे अब खेती छोड़कर फैक्ट्रीयों में मजदूरी करना पसंद करते हैं । बेशक कहा जाये कि भारत कृषि प्रधान देश है लेकिन आंकड़े और सच्चाई कुछ अलग ही बयां करती है ।
वर्तमान में छोटे किसानों का खेती करना केवल मजबूरी वश हैं कि वो और कुछ कर ही नहीं सकते वरना खेती करना अब केवल घाटे का सौदा है आज का जागरूक युवा वर्ग खेती करना बिल्कुल नापसंद करता है । एन.सी.आर. के एक गांव के शत प्रतिशत किसानों ने इस बात को स्वीकार किया है कि वो केवल इस कारण परम्परागत खेती कर रहे हैं कि वो और कुछ कर नहीं सकते हैं वरना अब इस खेती में कुछ नहीं बचता है । तो क्या ऐसे किसानों के नाम पर राजनीति करना जो स्वयं खेती करना मजबूरी मानते हैं ? उचित है ।
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अगर ऐसे किसानों के नाम पर आंदोलन करना है तो उनकी फसल का ऊंचा मूल्य दिलाने के लिए आंदोलन करो, उनकी परम्परागत खेती के स्थान पर आधुनिक औषधिय खेती, फूलों की खेती को प्रोत्साहित करने के लिए आंदोलन करो उनको सस्ती दर पर उच्च गुणवत्ता वाले बीज दिलाने के लिए आंदोलन करो, उनको सस्ती दर पर रसायनिक खाद दिलाने के लिए आंदोलन करो, उनके बच्चों को आधुनिक इंगलिस मीडियम शिक्षा दिलाने के लिए आंदोलन करो उनको सस्ती से सस्ती दर पर ऋण दिलाने के लिए आंदोलन करो न कि केवल अपने राजनीतिक लाभ के लिए ओर जनता का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए ।
ऐसा करते रहने से हम कदापि विश्व महाशक्ति नहीं बन पायेंगे और सदैव दूसरे राष्ट्रों की ओर मुंह ताकते रहेगें । इस देश के अन्नदाता की आर्थिक व सामाजिक स्थिति का यदि आंकलन किया जाये तो पाया जाता है कि किसी किसान ने यदि कोई छोटा सा भी ऋण बैंक से ले लिया तो उसे भी चुकाने के लिए जमीनें बेंचनी पड़ती है और यदि कोई ऋण शाहूकार से ले लिया तो उसको तो चुकाते-चुकाते सम्पूर्ण जीवन ही निकल जाता है लेकिन ऋण चुकता नहीं हो पाता और अन्तत: किसान आत्महत्या करने को विवश हो जाता है तो क्या हम कह सकते हैं कि भारतवर्ष में किसानहित सुरक्षित है कदापि नहीं विश्व के अन्य देशों में किसानों को खाद्य, बीज, बिजली पानी में तो रियायत मिलती ही है साथ ही वहां की सरकारें किसानों से फसलों को ऊंचे दामों में खरीदकर जनता के लिए रियायत दर पर उपलब्ध कराती है ताकि उस देश का किसान आर्थिक रूप से कमजोर न हो ।
वहां की सरकारें किसानों के हितों को सर्वोपरी मानती है लेकिन भारतवर्ष के सम्बन्ध में यदि देखा जाये तो यहां का किसान आपको फटे हाल मिल जायेगा उसके पैरों में न तो जूते-चप्पल होंगी न ही साफ-सुथरें कपड़े । केवल एक धोती और एक ही कुर्ता कच्चा मकान, खेतों की जुताई करने के लिए दो बैल चारा काटने के लिए एक ही हाथ से चलाने वाली मशीन, यही भारतीय किसान की तकदीर है ।
यदि कोई ऋण किसान ने ले लिया तो उसके ऐवज में उठायी गई फसल शाहूकार ले जाता है और भारतीय किसान अपने मुकद्दर को कोसता हुआ अपनी जिंदगी की गाडी को यू ही धकेलता रहता है और जब गाडी को धकेलने की सामर्थ्य समाप्त हो जाती है तब अपने जीवन का अंत कर इस दुनिया से अलविदा हो जाता है ।
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उक्त परिस्थिति के लिए हम किसको जिम्मेदार ठहरायेंगे । उस किसान को या उस किसान की परिस्थिति को या किसान के प्रबन्धन को या देश की सरकारों को या प्रदेश की सरकारों को । क्योंकि कुछ न कछ और कहीं न कहीं तो त्रुटि है अन्यथा अमीरों के पेट के लिए अन्न उत्पन्न करने वाला किसान स्वयं गरीब नहीं होता ।
वास्तविकता यह है कि वर्तमान समय किसानों के लिए अनुकूल नहीं है । अब किसानों के पशुपालन की ही बात करें तो एक भैंस की कीमत आमतौर पर पचास हजार रूपये है जो प्रतिदिन दस किलो दूध देती है यदि कोई किसान एक भैंस भी कर्ज लेकर खरीदता है तो उस कर्ज को चुकाने में भी तीन वर्ष का समय लग जाता है और यदि भैंस बीमार हो गई या मर गई तो निश्चित रूप से जमीन बेचकर ही कर्जा चुकता होता है और भैंस के दूध का आंकड़ा लगाया जाए तो चौकाने वाले तथ्य उजागर होते हैं एक किसान अपने दूध की वास्तविक कीमत भी वसूल नहीं कर पाता ।
अपनी फसल की वास्तविक कीमत के लिए भी उसको मन मशोशकर ही रहना पड़ता है जिसके लिए उत्तरदायी है भारतीय कानून, जो किसानों के लिए तो बिल्कुल ही मौन है या यूं कहा जा सकता है कि भारतीय नीतिकार किसानों के हित की बात करना अपनी शान के विरूद्ध समझते हैं । इस देश के किसान कभी आत्महत्या नहीं करता यदि इस देश की कृषि नीति किसान हितों के विपरीत नहीं होती ।
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निम्नांकित विवरणे से किसानहित उजागर होता है :
फसल सम्बन्धी विवरण धान के सम्बन्ध में प्रति हैक्टेअर:
बीज पौध तैयारी- 1000 रू॰, मजदूरी पौध लगाई- 5000 रू॰, खाद- 5000 रू॰, जुताई लागत- 4000 रू॰, पानी- 10,000 रू॰, कीटनाशक- 500 रू॰, मजदूरी फसल कटाई- 5000 रू॰, किराया फसल का मंडी तक पहुंचाना- 500 रू॰, अनुमानित उत्पादन- 40 क्विंटल,
बिक्री = 4 x 900 = 3600 रूपये
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लागत- 31000, बिक्री- 36000, लाभ- 5000 रू॰
फसल सम्बंधी विवरण गेंहू के सम्बन्ध में प्रति हैक्टेयर:
बीज- 2700 रू॰, जुताई लागत- 5000 रू॰ खाद- 4000 रू॰, पानी- 4000 रू॰, कीटनाशक- 500 रू॰, मजदूरी फसल कटाई- 5500 रू॰, फसल थ्रेशर निकासी-
6000 रू॰, किराया- 500 रू॰, अनुमानित उत्पादन- 36 क्विंटल, बिक्री- 36000
लागत = 28200 – बिक्री 31600 लाभ – 3400
दूध उत्पादन सम्बन्धी विवरण प्रति पशु / प्रतिदिन:
पशु कीमत – 50000 रू॰, पशु कीमत ब्याज- 1500 प्रति माह, चारा 10 किग्राम-50 रूपये, खल 10 किलोग्राम = 150 रूपये, बिक्री / किलो- 20 रू॰ बिक्री से आय- 200
लागत प्रतिदिन- 250, आय- 200, हानि- 50 प्रतिदिन
भारतीय कृषि व्यवस्था की स्थिति का अंदाजा तो उपयुक्त आंकड़ों से ही हो जाता है जिनसे पता चलता है कि भारतवर्ष कृषि प्रधान देश होने के बाद भी कृषि कितना लाभ का व्यवसाय है ।
इतना अवश्य है कि कृषि बेशक लाभ का व्यवसाय न हो लेकिन कृषि व पशुपालन से जुड़े लोगों को मनरेगा जैसी योजनाओं से जुड़ने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि कृषि में कम से कम उनकी मजदूरी तो निकल ही आती है । माना कि कोई लाभ न हो लेकिन मजदूरी तो निकल ही जाती है ।
उपरोक्त स्थिति से पता चलता है कि भारतीय कृषि व्यवस्था विश्व की सबसे अव्यवस्थित कृषि व्यवस्था है जिसमें न तो किसान का हित सुरक्षित है और न ही कृषि से जुड़े मजदूरों का क्योंकि भारतीय किसान ने यदि किसी वर्ष आलू अधिक उगा लिया तो सम्भव है उस वर्ष आलू सर्वाधिक कम दर पर बाजार में उपलब्ध है और किसी वर्ष यदि आलू की पैदावार कम हुई या बुवाई कम हुई तो निश्चित ही उस वर्ष दर बहुत अधिक होगी । ऐसी भिन्नता क्यों ? इस भिन्नता के लिए कौन जिम्मेदार है ।
भारतीय कृषि व्यवस्था ही तो है जो किसी भी फसल का मूल्य बुवाई से पहले निर्धारित नहीं करती जिसका नुकसान भुगतना पड़ता है भारतीय किसानों को यदि प्रत्येक वर्ष किसी भी फसल का मूल्य उसकी बुवाई से पहले निर्धारित कर दिया जाए तो निश्चित ही इस देश के किसानों को उसका लाभ मिलेगा साथ ही मूल्य निर्धारण करने मे किसानों की भी भागीदारी हो और मंडियों में कमीशन एजेन्टों के स्थान पर सीधे सरकार किसानों से अनाज खरीदे ।
दूध के विषय में जो सत्यता है वह भी कुछ कम दिलचस्प नहीं है जिसमे पशुपालक और ग्राहक के बीच का अन्तर भी चौकाने वाला है । पशुपालक से शुद्ध दूध दूधिया द्वारा बीरन रूपये प्रति किलो खरीदा जाता है लेकिन उसी दूध में पानी मिलाकर दूधिया ग्राहक को तीस रूपये में बेच रहा है इतना भारी अन्तर दूध उत्पादक और पशुपालक के बीच है तो क्या हम कल्पना कर सकते हैं कि इस देश का किसान पशुपालक लाभ का व्यवसाय कर रहा है और वह कृषि व पशुपालन के व्यवसाय में अपने आप को गौरवान्वित महसूस करता है कदापि नहीं ।
भारतीय कृषि व्यवस्था से आजिज आकर अब भारतीय किसान कृषि व्यवसाय को छोड़कर अन्य व्यवसायों में लग रहे हैं न तो भारतीय कृषि व्यवस्था किसानों की आवश्यकताओं की पूर्ति कर पा रही है और न ही उनका भविष्य सुरक्षित कर पा रही है तभी तो किसानों का खेती से मोहभंग हो रहा है और वे अन्य व्यवसायों की ओर रूख कर रहे हैं जो किसान व्यवसाय करने की स्थिति में है वे तो अन्य व्यवसाय कर रहे हैं और जो कोई दूसरा व्यवसाय नहीं कर सकते वे मजदूरी कर रहे हैं ये स्थिति वर्तमान भारत में किसानों की है जिसके लिए जिम्मेदार है भारतीय कृषि नीति और देश के नीतिकार, जो देश की पिच्छेत्तर प्रतिशत आबादी की जीविका के साधन और देश की जी॰डी॰पी॰ में समुचित भागीदारी रखने वाले कृषि क्षेत्र जो देश की आजादी के तिरेसठ वर्ष बाद भी आज अपने आपको असहाय व असुरक्षित पाता है साथ ही पाता है अपने आपको कमीशन एजेन्टों से घिरा हुआ जो कृषि मंडियों में तैनात हैं और किसानों की फसलों का एक हिरसा उनकी तिजोरियों में जाता है । लेकिन बेचारा किसान करे भी तो क्या ? जब देश की कृषि नीति ही ऐसी है ।
भारतीय किसान कर्ज से दबा हुआ है किसानों की यह स्थिति किसी राज्य विशेष में नहीं है बल्कि ऐसी स्थिति समस्त भारतवर्ष में है वह उत्तर प्रदेश का विशेष क्षेत्र बुन्देलखण्ड हो या महाराष्ट्र का विदर्भ क्षेत्र जहा किसानों की स्थिति दयनीय लै ऐसा नहीं है कि उक्त दोनों क्षेत्रों के अलावा भारतीय किसान सम्पन्न समृद्ध और खुशहाल हैं बल्कि सम्पूर्ण भारतीय किसान दरिद्रता, गरीबी, भुखमरी, कर्जदार जैसी गम्भीर बीमारियों से ग्रसित हैं लेकिन फिर भी अपना जीवन जी रहे हैं जो ऐसे जीवन को जीने में थकान महसूस करते हैं वे अपनी इह लीला समाप्त कर दुनिया से रूखसत हो जाते हैं ।
भारतवर्ष में किसानों की आर्थिक स्थिति में कुछ स्थानों पर सुधार आ रहा है जहां उनकी जमीनों का अधिग्रहण कर विशेष आर्थिक क्षेत्र (एस.ई.जेड.) बनाकर औद्योगिकरण को बढ़ावा दिया जा रहा है लेकिन अज्ञानता, अशिक्षा व दूरद्रष्टिता के अभाव में ऐसे किसानों की स्थिति पहले से भी बदतर होती जा रही है क्योंकि सरकारें जमीन का अधिग्रहण कर अच्छा खासा मुआवजा भी दे रही हैं लेकिन किसानों को कुछ व्यवसाय करने, भविष्य की योजना बनाने या कोई व्यवसायिक प्रशिक्षण देने का कार्य सरकारें नहीं कर रही हैं जबकि यहां सरकारों का नैतिक व सामाजिक कर्तव्य बनता था कि वह अशिक्षित व गरीब किसानो को भविष्य के सपने दिखाकर कुछ व्यवसाय करने का प्रशिक्षण दिलाती और मुआवजे में मिलने वाली भारी भरकम राशि को उचित स्थान पर उचित व्यवसाय में लगाया जाता ताकि उन किसानों की स्थिति बद से बदतर ना होती ।
उदाहरण के रूप में उत्तर प्रदेश के गौतमबुद्ध नगर का ग्रेटर नोएडा क्षेत्र को ही ले जहाँ एक-एक किसान को कम से कम दो-दो करोड़ रूपये तक जमीन के मुआवजे के रूप में मिले लेकिन अशिक्षा, अज्ञानता व सरकार के सही दिशा निर्देश के न होने के कारण किसानों द्वारा करोड़ों रूपये का दुरूपयोग किया गया और जिसके परिणाम स्वरूप उन किसानों की स्थिति बद से बदतर हो गई । माना किसी किसान को एक करोड़ रूपये मुआवजा मिला तो उसने किस प्रकार उस पैसे को खर्च किया :
लकजरी गाडी – पन्द्रह लाख
कोठी – पचास लाख
लड़की की शादी – बीस लाख
पुराना कर्ज – लगभग आठ लाख
अन्य खर्च लकजरी सामान – तीन लाख
एक साल का खर्च (शराब आदि) – लगभग चार लाख
एक करोड़ प्राप्त – एक करोड खर्च
जितना पैसा किसान को मिला उतना ही उसने खर्च कर दिया अब वह पहले जैसा भी न रहा तो क्या हम आशा कर सकते हैं कि वह किसान अपना बाकी जीवन अच्छे से व्यतीत कर पायेगा, कदापि नहीं । क्योंकि न तो वह अपना कोई व्यवसाय कर पाया न ही कोई जमीन खरीद पाया वह तो केवल अपनी झूठी शान की खातिर अपने लकजरी शौक पूरा करने की खातिर अपनी जमीन का सम्पूर्ण मुआवजे को खर्च कर गया ।
जिसका एक कारण सरकार द्वारा गरीब व अशिक्षित किसान को जगरूक न करना भी है जो केवल जमीन का पैसा देकर सरकार ने अपना कर्त्तव्य पूरा कर लिया ओर उस पैसे के कारण रिश्ते-नाते तक के भी कत्ल हो रहे हैं । भाई-भाई को मार रहा है । पुत्र पिता की हत्या कर रहा है । सामाजिक मूल्यों का पतन हो गया अर्थात पैसा ही सर्वोपरि हो गया है कुछ इस तरह – पैसा
चोरों की चोरी अब पैसे से हो रही
कानून की मार पैसे से बेकार
बच्चों की पढाई पैसे की लड़ाई
यार की यारी पैसे से प्यारी
गरीब की हिमायत पैसे की किफायत
बुद्धों का सहारा पैसा ही बेचारा
दुनिया का नजारा पैसा ही दिखा रहा
नलके की जगह बिसलरी पिला रहा
घोड़े के दम पर लोहा दौडा रहा
घर बैठे पढाई पैसे ने करायी
पत्नी जी घर पर पैसे ने रूलायी
गर्लफ्रेण्ड तो पैसे ने बनाई
पैसे की कमी में पत्नी भी पराई
बेवकूफों को बुद्धिमान पैसे ने बनाया
बुद्धिमानों को तो घर में बिठाया
बदमाशों को शरीफ पैसे ने बनाया
शरीफों को बदमाश भी पैसे ने बनाया
ईमानदारों की ईमानदारी पैसे ने छुड़ायी
बेइमानों को भी ईमानदारी सिखायी
कुरूपों को सुन्दर पैसे ने बनाया
सुन्दर को कुरूप भी पैसे ने बनाया
चोरों को शाहूकार पैसे ने बनाया
शाहूकार को भी चोरी पैसे ने सिखलायी
गूंडो को राजा पैसे ने बनाया
सच्चाई को जमीन में दबाया
झूठों के सिर पर ताज पहनाया
सच्चो को पानी दाने को तरसाया
स्वाभिमानी को नीचा पैसे ने दिखाया
चापलूसों को आगे पैसे ने बढ़ाया
बेटी को जिन्दा पैसे ने जलाया
बेटे को बाप से पैसे ने लडाया
इंसान को जानवर पैसे ने बनाया
पैसे को भगवान भी पैसे ने बनाया
हम जैसों को भीड़ में मिलाया
दुनिया को प्यार पैसे ने कराया
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रिश्तेदारों को भी अलग पैसे इने कराया
गैरों को भी अपना, पैसे ने बनाया
भाई को भाई से, अलग पैसे ने कराया
माँ को बेटे से, बेगाना पैसे ने बनाया
बहन को भुलैया पैसे ने करायी
पैसे के दम पर तो अपनी भी पराई
पैसा ही सब कुछ पैसा ही माई
पैसा ही प्रेरणा पैसा ही कमाई
पैसा ही बहन और पैसा ही भाई ।।
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जिसके लिए जिम्मेदार है भारतीय व्यवस्था । भारतीय कृषि व्यवस्था पूरी तरह चौपट है किसान हित कृषि नीति से नदारद है । कृषि नीति भी उद्योग नीति के लिए लाभकारी सिद्ध हो रही है जबकि किसानों के लिए कृषि नीति अलाभकारी ही सिद्ध हो रही है ।
भारतीय राजनीति में पिछले कुछ समय से एक परम्परा सी बन गई है कि सरकार कोई भी कार्य कोई भी नीति या कोई भी कार्यक्रम बनाये विपक्ष का एकमात्र उद्देश्य उसका विरोध करना मात्र है वो उस कार्यक्रम के गुणों या अवगुणों को अध्ययन करने के स्थान पर उसका विरोध करना अपना कर्त्तव्य समझते हैं ऐसा वो अपनी राजनीति मजबूरियां या राजनीतिक वजूद तैयार करने या राजनीति चमकाने के लिए करते हैं देशहित के विषय में चिंतन करने का उनके पास समय कहां ?
मुझे अच्छी तरह स्मरण है कि जब संचार घोटाले को लेकर देश के एक राजनीतिक दल द्वारा कई दिनों तक संसद की कार्यवाही नहीं चलने दी थी लेकिन कुछ ही महीनों बाद उसी राजनीतिक दल द्वारा उसी व्यक्ति को एक राज्य में कैबिनेट मंत्री बनाया गया था ।
क्या ये देशहित था कि एक तरफ तो आपने उसी व्यक्ति के विरोध में देश के नागरिको की खून पसीने की करोडो रूपये की कमाई को संसद की कार्यवाही रोक कर उसकी भेंट चढा दिया दूसरी तरफ आपने अपने राजनीतिक लाभ के लिए उसी व्यक्ति को मंत्री बनवा दिया ऐसा दो मुहा दृष्टि कौण क्यों ?
एक सरकार विशेष आर्थिक क्षेत्र बनाकर देश का विकास करना चाहती है तो विपक्ष या कोई क्षेत्रीय दल उसका विरोध कर रहा है किसानों को भड़का रहा है केवल अपने राजनीतिक लाभ के लिए किसान मर रहे हैं । लेकिन कोई भी राजनीतिक दल समस्या का समाधान नही सुलझा रहा केवल विरोध कर रहे हैं क्योंकि विरोध करना विपक्षी दलों का राजनीतिक कर्त्तव्य है ।