समग्र कृषि नीति की आवश्यकता पर निबंध | Essay on The Requirement of Overall Agricultural Policy in Hindi!
क्या कुछेक किसानों के बैंक कर्जो को माफ करने से सरकार की कृषि नीति में कोई परिवर्तन का संकेत मिल रहा है । सरकारें जब किसी पैकेज की घोषणा करती है तो उसे अपनी नीतियों को अमली जामा पहनाने की उसकी योजना होती है ।
यहां दो बातें ध्यान में रखी जा सकती है । पहला तो यह कि प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने हैदराबाद में एक समारोह में दूसरी हरित क्रांति पर जोर दिया था । पहली हरित क्रांति के क्या परिणाम सामने आए । सरकारी नजरिये से अनाज के मामलें में देश आत्मनिर्भर बना ।
अब सरकार ने बाजारवाद की नीति अपना ली तो दूसरी हरित क्रांति की जरूरत महसूस हो रही है । लेकिन दूसरा नजरिया यह है कि पहली हरित क्रांति के बावजूद किसान खुद आत्मनिर्भर नही बना और दूसरी हरित क्रांति के नारे तक लाखों की तादाद में या तो अपनी जान गंवा चुका और उससे बचा किसान कुर्जे के जाल में फंसा है । किसान और कर्ज अंग्रेजों की सरकार की तरह ही जारी है ।
पहले तो स्थिति पर एक नजर डालनी चाहिए । राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के अनुसार देश में 1987-88 में भूमिहीन और सीमांत किसानों के परिवारों की तादाद 35.4 फीसदी और 19.1 फीसदी थी जो 1999-2000 में बढ़कर 40.9 फीसदी और 22.3 फीसदी हो गई । ये बढ़त जारी है । फसलों में विविधता लाने के नारे का परिणाम हरित क्रांति के सघन क्षेत्र पंजाब में तो साफतौर पर दिखाई दे रहा है । पंजाब में जोतों का क्षेत्रफल बढ़ गया है ।
कारण है कि छोटे और सीमांत किसान भूमि से बेदखल हो गए हैं और उनकी जमीने या तो बड़े किसानों के पास चली गई है या फिर नए पूंजीपतियों के पास चली गई । सारे देश में जोतों का औसत क्षेत्रफल 85-86 में 1.69 हेक्टेयर था जो दस सालों में कम होकर 1.41 हो गयी और उसके बाद दस सालों में अनुमान है कि 1 हेक्टेयर के पास पहुंच गया । पर पंजाब में 85-86 में जोतों का क्षेत्रफल 3.77 हेक्टेयर था, जो दस सालों के बाद 3.79 हेक्टेयर हो गया है तथा जो दस सालों से बढ्कर 4 हेक्टेयर के आसपास हो गया है ।
कृषि देश में रोजगार का सबसे बड़ा स्रोत भी है । लेकिन हरित क्रांति और खेती में तकनीकीकरण के बढ़ने के साथ कृषि में रोजगार के अवसर लगातार कम होते चले गए । खेती और उससे जुड़े कामधंधों में रोजगार के अवसरों में विकास का दर 2.17 फीसदी प्रति वर्ष था ।
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राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के अनुसार 1988 से 2010 में ये अवसर इतने कम हो गए कि 1 फीसदी से कम के स्तर पर आ गया है । आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, राजस्थान में तो रोजगार के नये अवसर बिल्कुल समाप्त हो गए हैं ।
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स्थिति यह हो गई है कि लोग खेती करना ही नहीं चाहते । 2003 में 6638 गांवों के 51770 घरों के सर्वेक्षण में पाया गया कि चालीस फीसदी किसान खेती छोड़ने का इरादा रखते हैं । देश के 48.60 फीसदी किसान कर्जें में फंसे हुए हैं और हर किसान पर औसतन 12585 रूपये का कर्ज है ।
पंजाब से शुरू होकर गंगा पट्टी में खाद्यान्न की उत्पादकता में 1990 से प्रतिवर्ष लगातार दो फीसदी कमी होती चली गई । इसने भी रोजगार के अवसरों में बेहद कमी कर दी । 1971 में कृषि का चालीस फीसदी काम बिजली और तकनीकी स्रोतों के जरिये होता था अब 2009-10 में 85 प्रतिशत से ज्यादा हो गया है ।
दूसरा पहलू यह है कि कृषि मंत्री शरद पवार के राजनीतिक क्षेत्र विदर्भ में कृषि क्षेत्र के पैकेज और उनके द्वारा देश के किसानों को दी जाने वाली कीमत पर विदेशी कंपनियों से गेहूं की खरीद साथ साथ चलती है । इस तरह पैकेज से आयात की इस स्थिति में रोक नहीं लगने जा रहा है बल्कि खाद्यान्नों के आयात बड़ेमें । खाद्यान्नों की उपज में तेजी से कमी आ रही है और गैर खाद्यान्नों के लिए खेती के क्षेत्र लगातार विकसित हो रहे हैं । गैर खाद्यान्न का उपयोग करने वाले वर्ग के बाजार को ध्यान में रखा जा रहा है ।
कृषि क्षेत्र में सरकार की लगभग वही नीति है जो शासन व्यवस्था के दूसरे क्षेत्रों में देखी जा रही है । सरकारें दमन की नीति को खत्म नहीं करना चाहती । विपक्ष उसके खिलाफ आदोलन नहीं करना चाहता और दोनों सरकारी गोलियों से पीड़ित परिवारों को मुआवजा देने पहुंच जाते हैं । भूमंडलीकरण की परियोजना को पूरा करने वाली नीतियों को जारी रखने के लिए दो तरह के चेहरे जरूरी हो गए हैं ।
पहले किसानों को ऊंची दर पर कर्ज देने का प्रावधान था जिसे सात फीसदी कर सरकार ने वाहवाही लूटनी चाही । ब्याज की दर घटाने के समय तो सरकार यह कहती है कि निजी साहूकारों से किसान ऊंचे ब्याज दर पर रकम लेता है और विभिन्न वजहों से जब उसकी फसल नष्ट हो जाती है तो वह कर्ज नहीं चुका पाता है और वह आत्महत्या पर मजबूर होता है । लेकिन जब कर्ज माफ करना होता है तो वह सरकारी बैंकों द्वारा लेने वाले कर्ज के एक हिरसे की माफी तक ही खुद को समेट लेता है ।
दूसरी बात यह भी है कि दर कम होने के बावजूद सरकार कृषि क्षेत्र के बड़े हिस्से को कर्ज मुहैया नहीं करा सकती है । शरद पवार के अनुसार उनके शासनकाल के पहले वर्ष में मात्र 125309 किसानों को कर्ज दिया गया । इनमें एक से दो एकड़ जमीन वाले किसान कितने हैं?
बाजारवादी नीतियों के कारण किसानों को फसल की कीमत नहीं मिल पाती । सरकार के एक जवाब के मुताबिक विदर्भ में कपास की खेती में प्रति क्विंटल 1795 रूपये से लेकर 2181 रूपये तक का खर्च आता है । जबकि एच-4 किस्म के कपास की बाजार में कीमत 1960 से 2130 रूपये मिलता है । एक तो सरकार जो बाजार दर बताती है वह किसानों के घर तक पहुंच पाता है ।
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गेहूं और धान के समर्थन मूल्य के संदर्भ में तो यह बात साफ हो गई है । दूसरे कपास के इस उत्पादन और बिक्री दर में अंतर की भी गणना करें तो किसान परिवार कभी आत्मनिर्भरता की स्थिति में नहीं आता है । फिर इस तरह के जितने भी कड़े सरकार बताती है उसके दायरे में छोटे, मझोले, सीमांत और भूमिहीन किसान तो कतई नहीं आते हैं जिनकी तादाद अस्सी प्रतिशत है ।
कुल किसानों में महज पांच प्रतिशत ही बड़े किसान है । पंजाब में प्रकाश सिंह बादल केन्द्र सरकार के कर्ज माफी से अपने राज्य के किसानों को लाभ नहीं होने की घड़ियाली आंसू बहाते हैं लेकिन उन्होंने खुद भूमिहीन किसानों के अस्सी करोड़ के कृषि कर्जों को माफ करने से मना कर दिया । सत्ता विपक्ष सब अपनी तरह खेलते हैं ।
कृषि नीति के तहत बाजार समितियों को छोटे और सीमांत किसानों के अनुकूल बनाने के बजाय उसे पूंजी बाजार के हवाले कर दिया गया है । बीज अधिनियम को ठंडे बस्ते में डालकर बड़ी कंपनियों के यहीं बीजों को बंधक बना दिया गया है । किसानों को ठेके पर अपनी जमीन बड़ी कंपनियों को देनी पड़े इसकी व्यवस्था कर दी गई है । भूमि सुधार कानूनों का चक्र उल्टा कर दिया गया है । महाराष्ट्र में सरकार के पैकेज के बाजार के लिए फसलें लगाने की योजना घोषित की गई थी ।
कृषि नीति में देश का आम किसान कैसे आत्मनिर्भर बने जरूरत इसकी है । दूसरी हरित क्रांति तो उसी तर्ज पर होगी जिस तर्ज पर पहली हरित क्रांति हुई और उसके अंजाम के रूप में आत्महत्याओं की बढ़ती तादाद को देखा जा रहा है । जरूरत देश के स्रोतों और अपने समान को कृषि नीति का आधार बनाने की है ।
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यूपीए की कर्ज माफी की यह योजना एनडीए की शाइनिंग इंडिया दिखाने की नकल है । फर्क यह है कि इस शाइनिंग इंडिया पर आम आदमी का मुखौटा दिखाने की कोशिश की जा रही है । भूमंडलीकरण के दौर में शाइनिंग इंडिया का फंडा है । इससे किसान और किसानी कर्ज से मुका नहीं हो सकती है । जब नीति ही कर्जे में किसानों को रखने की है ।