लुप्त होते बाघ एवं संरक्षण के प्रयास पर निबंध | Essay on Disappearing Tigers and their Conservation Efforts in Hindi!
देश के वन्य प्राणी विशेषज्ञ जो आंशका बार-बार जता रहे थे उसकी आखिरकार सरकारी तौर पर भी पुष्टि हो गयी है ।
पिछले साल देश में हुई बाघों की गणना के बारे में राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण द्वारा जारी रिपोर्ट इस हकीकत की स्वीकारोक्ति सी है कि सत्तर के दशक में शुरू किया गया महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट टाइगर अपने लक्ष्य हासिल नहीं कर पाया है और देश में बाघों की संख्या अब तक के न्यूनतम स्तर पर पहुँच गयी है ।
2002 में की गयी गणना में जहां देश के विभिन्न अभयारण्यों में कुल 3,642 बाघ पाये गये थे वहीं वर्तमान में यह संख्या महज 1,411 है और उदार अनुमानों को भी शामिल कर लें, तो यह हद-से-हद 1,657 हो सकती है जो 1960 के दशक में की गयी पहली गणना में पाये गये 1,800 बाघों से भी कम है ।
साफ है कि तेजी से विलुप्त हो रहे बाघों को बचाने के हमारे प्रयासों और तरीकों में कहीं कोई बड़ी खामी है जिसकी वजह से दो दर्जन से ज्यादा टाइगर रिजर्व बनाने और उनकी देख- रेख के लिए भारी-भरकम ताम-झाम खड़ा करने के बावजूद ये प्रयास परवान नहीं चढ़ पाये ।
वैसे तो बाघों की संख्या में गिरावट के लिए मोटे तौर पर उनका अवैध शिकार करके उनके अंगों का व्यापार करने वाले गिरोहों को जिम्मेदार ठहराया जाता है, पर प्रश्न यह है कि ये गिरोह क्यों और किसकी शह या मिलीभगत से पनपते हैं ।
क्या बाघों के संरक्षण के लिए खड़े किये गये हमारे तंत्र की भी इन गिरोहों से मिलीभगत है या यह तंत्र ऐसे गिरोहों की गतिविधियों पर काबू पा सकने के लिए पर्याप्त नहीं है? कहीं मनुष्य और पशुओं के बीच युगों से चलने वाला द्वंद्व तो इसकी वजह नहीं है या फिर प्राकृतिक रहवास नहीं मिलने से बाघों की सख्या घट रही है? निश्चित ही मौजूदा हालात के लिये ये सभी कारण कमोबेश जिम्मेदार हैं और इन्हें दूर करने के लिए हमें बाघों के संरक्षण की अपनी रणनीति में व्यापक बदलाव लाने की जरूरत है ।
विशेषज्ञों का एक वर्ग टाइगर रिजर्वो और अभयारण्यों को अरसे से मानव गतिविधियों से पूरी तरह मुक्त रखने की जरूरत बताता रहा है । अब इस पर अमल करने का समय आ गया है । मानव और वन्य पशुओं के सह-अस्तित्व का विचार कितना ही आदर्श क्यों नहीं हो, पर व्यावहारिक कतई नहीं है । यदि हमनें इस दिशा में कदम बढ़ाने में और देर की तो फिर देश में बाघों के ढूंढते रह जाने की नौबत ज्यादा दिन दूर नहीं है ।
बाघों की सुरक्षा को लेकर राज्य गंभीर नहीं:
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देश में बाघों की घटती संख्या के बावजूद राज्य सरकारों ने इस संकटग्रस्त प्रजाति को बचाने के लिए केंद्र की ओर से निर्देशित उपाय करने में कम रूचि दिखाई है । राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (एनटीसीए) के सदस्य सचिव के मुताबिक यह चिंता की बात है कि राज्य सरकारें बाघों के संरक्षण को लेकर चिंतित नहीं है, जबकि बाघों की संख्या तेजी से घटती जा रही है ।
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करीब दो साल पहले राज्यों से बाघों की सुरक्षा के मामले में निगरानी और समन्वय के लिए निगरानी समिति का गठन करने के लिए कहा गया था, लेकिन ज्यादातर राज्यों ने इस दिशा में कोई कदम नहीं उठाया । अब तक केवल असम, अरूणाचल प्रदेश और मिजोरम में ऐसी समिति का गठन किया गया है ।
2006 मे संशोधित वन्यजीव (सुरक्षा) कानून 1972 की धारा 38यू के तहत निगरानी समिति का गठन जरूरी है । इतना ही नहीं, केरल, कर्नाटक और अरूणाचल प्रदेश को छोड़कर किसी भी राज्य ने टाइगर कंजर्वेशन फाउंडेशन की स्थापना नहीं की है ।
इस संबंध में प्रक्रिया में तेजी लाने को लेकर राज्यों को कई स्मरण पत्र भेजे जा चुके हैं । ज्ञातव्य है कि कानून की धारा 38 एक्स के तहत प्रत्येक बाघ आरक्षित क्षेत्र में टाइगर कंजर्वेशन फाउंडेशन की स्थापना करना जरूरी हैं । इसका मकसद बाघ आरक्षित क्षेत्र और बाघों के प्रबंधन में मदद पहुंचाना है ।
राज्यों की ओर से बाघों की सुरक्षा के लिए बफर क्षेत्र की रूपरेखा तैयार नहीं किये जाने से प्रस्तावित बाध संरक्षण योजना अभी भी अधर में लटकी है । योजना को लागू करने में विलंब से बाघों की संख्या में और कमी आएगी । राज्यों को यह याद रखना चाहिए कि इस निमित्त धन की कमी नहीं है ।
प्रत्येक बाघ आरक्षित क्षेत्र के लिए बाघ संरक्षण योजना के तहत बफर क्षेत्र की रूपरेखा तैयार की जानी है । बहरहाल, अब तक 17 बाघ आरक्षित क्षेत्र से संबंधित राज्यों में से किसी ने भी बफर क्षेत्र के बारे में अधिसूचना जारी नहीं की है ।
लुप्त होते बाघ:
तमाम उपायों के बावजूद बाघ बचने के बजाय खत्म हो रहे हैं और वह भी इस तेजी से कि उनके लुप्त होने का खतरा मंडराने लगना बाघ बचाओ अभियान की विफलता का सूचक है । सबसे अधिक निराशाजनक यह है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की विशेष दिलचस्पी भी बाघों को बचाने में सहायक नहीं सिद्ध हो सकी । सरिस्का में बाघों का सफाया होने के बाद प्रधानमंत्री ने एक विशेष कार्यदल बनाया था । इस कार्यदल का एकमात्र उद्देश्य बाघों के संरक्षण के लिए कारगर उपाय करना था ।
क्या यह अजीबोगरीब नहीं कि सीधे प्रधानमंत्री के तहत काम करने वाला कार्यदल भी अपने दायित्व निर्वहन में नकारा सिद्ध हुआ? खामी चाहे इस कार्यदल की रही हो अथवा उसके निर्देशों के हिसाब से काम करने वाले सरकारी अमले की या फिर राज्य सरकारों की बाघों के बारे में जो सूचना सार्वजनिक हुई है वह प्रधानमंत्री की साख को प्रभावित करने वाली है ।
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देश यह जानना चाहेगा कि जिस मामले में स्वयं प्रधानमंत्री रूचि ले रहे थे उसमें भी नतीजा ढाक के तीन पात वाला क्यों रहा? कहीं ऐसा ही हाल अन्य अनेक मामलों में तो नहीं है? आखिर ऐसे सवालों के उठने से कैसे रोका जा सकता है? प्रधानमंत्री के हस्तक्षेप के बाद यदि बाघों की संख्या बढ़ती नहीं तो कम-से-कम उसमें कमी भी नहीं आनी चाहिए थी । दुर्भाग्य से ऐसा ही हुआ ।
बाघों की संख्या में अभूतपूर्व गिरावट एक ओर जहां यह बताती है कि बाघ बचाने के नाम पर करोड़ों रूपये इधर-उधर किये जा रहे हैं, वहीं दूसरी ओर यह भी पता चला है कि हमारी वन नीति में कोई गंभीर खामी है । यह भी एक विडंबना है कि बाघों की संख्या में कमी आने के साथ ही यह भी उजागर हो रहा है कि हमारा वन क्षेत्र सिमटता जा रहा है । यानी न हम जंगल बचा पा रहे है और ना ही वहां बसने वाले प्राणी.
क्या अब हमारे नीति-नियंता यह समझेंगे कि वनों में मनुष्य और वन्य जीव साथ-साथ रहेंगे तो वे एक-दूसरे के लिए प्रतिकूल परिस्थितियों का निर्माण करेंगे? जब अति संरक्षित बाघ की जान के लाले पड़े हुए हैं तो फिर अन्य वन्य प्राणियों की दशा का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है । वैसे भी एक तथ्य है कि बाघ की तरह से कुछ और वन्य प्राणी शिकारियों के शिकार बन रहे हैं ।
यदि बाघ एवं अन्य संरक्षित वन्य जीव नहीं बच पा रहे है तो इससे एक निष्कर्ष यह भी निकलता है कि उनके शिकारी और जानवरों की खालों के तस्कर पहले की तरह सक्रिय हैं । ऐसा नहीं है कि हम केवल अपनी वन्य संपदा की रक्षा कर पाने में ही असमर्थ हों । कुछ ऐसी ही स्थिति ऐतिहासिक धरोहरों की भी है और ऐसा इसलिए है, क्योंकि उनके संरक्षण के मामले में नीति निर्माण के स्तर पर भी खामियां है और साथ ही उनके अमल के स्तर पर भी ।
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यह अपेक्षित है कि बाघों को लुप्त होने से बचाने के लिए केंद्रीय सत्ता एक बार फिर सक्रिय होंगी, लेकिन यदि वह भविष्य में विफलता का सामना करने से बचना चाहती है तो उसे अपनी पिछली भूलों से वास्तव में सबक सीखना होगा । यदि ऐसा नहीं किया जाता तो फिर हाथ मलने के अलावा और कुछ नहीं रह जायेगा ।