प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण | Praakrtik Sansaadhanon Ka Sanrakshan | Read this article to learn about the Conservation of Natural Resources: Forest, Soil, Water, Wild Life, Mineral, Power and Oil in Hindi Language.

1. वन संसाधन संरक्षण (Conservation of Forest Resources):

प्राकृतिक वनस्पति अथवा वन प्रकृति प्रदत्त संपदा हैं जो एक ओर मानव के अनेक उपयोग में आते हैं तो दूसरी ओर पर्यावरण के संतुलन को बनाये रखने में सहायक होते हैं ।

वनों से अनेक प्रकार की उपयोगी वस्तुएँ जैसे- इमारती लकड़ी, जलाऊ लकड़ी, लकड़ी का कोयला, प्लाईवुड, बाँस, बेंत, लुग्दी, सेल्योलाज, पशुओं का चारा, गोंद, रबर, लाख, कत्था, रेशेदार पदार्थ, अनेक प्रकार की औषधियाँ आदि तो प्राप्त होती ही हैं साथ में ये अनेक जीव-जंतुओं एवं वनस्पति समूहों को प्रश्रय देकर उनकी अनेक प्रजातियों को नष्ट होने से बचाते हैं ।

विश्व के अनेक उद्योगों को कच्चा माल भी इन्हीं से प्राप्त होता है जैसे- कागज, लाख, दियासलाई, पेंट, वार्निश, कत्था, फर्नीचर, जलयान आदि । वनों में अनेक आदिवासी जातियाँ प्रश्रय पा रही हैं । वनों के उत्पादों की माँग में निरंतर वृद्धि हो रही है ।

आज वृद्धि तथा लाभ की अत्यधिक प्रवृत्ति के कारण विश्व की वन संपदा में निरंतर कमी आ रही है । एक समय था जब पृथ्वी के 70 प्रतिशत भू-भाग अर्थात् 12 अरब 80 करोड़ हेक्टेयर भूमि पर वन थे जो वर्तमान में 16 प्रतिशत भू-भाग अर्थात् लगभग 2 अरब हेक्टेयर भूमि पर रह गये हैं ।

अधिकांश रूप से अशोषित वनों के क्षेत्र ऐसे भागों में हैं जहाँ आसानी से मनुष्य नहीं पहुँच पा रहा है फिर भी वह निरंतर प्रयत्नशील है और वनोन्मूलन में निरंतर वृद्धि हो रही है । वन यद्यपि पुन: उपयोगी होते हैं, यदि उनका नियोजित समयानुसार शोषण किया जाये तो उनका उपयोग निरंतर संभव है, किंतु हमारी स्वार्थपरता उन्हें समूल नष्ट करने की दिशा में प्रवृत्त है ।

संक्षेप में वनों के विनाश से होने वाली हानियाँ हैं:

i. पारिस्थितिक असंतुलन उत्पन्न होना,

ii. वायुमण्डल में नमी धारण करने की क्षमता में कमी,

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iii. तापमान में वृद्धि,

iv. वर्षा की कमी,

v. मृदा अपरदन में वृद्धि,

vi. बाढ़ के प्रकोप में वृद्धि,

vii. पर्यावरण प्रदूषण में वृद्धि,

viii. भूमि की उर्वरता में कमी,

ix. वन्य जीव-जंतुओं की प्रजातियों का नष्ट होना,

x. अंत में वनों से उपलब्ध उपयोगी पदार्थों का उपलब्ध न होना आदि ।

उपर्युक्त हानियाँ साधारण न होकर इतनी अधिक गंभीर हैं कि यदि इन पर समुचित ध्यान नहीं दिया गया तो मानव जाति का भविष्य संकट में आ सकता है । इसी तथ्य को दृष्टिगत रखते हुए आज विश्व के सभी देश वन संरक्षण की ओर ध्यान देने लगे हैं ।

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वन संरक्षण के उपाय:

वन संरक्षण आज विश्व की प्राथमिक आवश्यकता है क्योंकि उपजाऊ मिट्टी का कटाव, भयंकर, भूस्खलन, प्रलयंकारी बाएं भयावह सूखे, वर्षा में कमी, पर्यावरण प्रदूषण से आज सभी त्रस्त हैं जो वन उन्मूलन का परिणाम है ।

इस दिशा में सभी प्रयत्नशील हैं, किंतु वन निरंतर कटते जा रहे हैं अत: उनका संरक्षण अति आवश्यक है । इसके लिये नियोजित प्रयास न केवल सरकारी स्तर पर अपितु सामाजिक तथा व्यक्तिगत स्तर पर भी करने होंगे ।

वन संरक्षण से भी संबंधित कतिपय उपाय निम्नांकित है:

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i. नियंत्रित एवं उचित विधि से कटाई:

वनोन्मूलन का एक प्रमुख कारण विभिन्न उपयोगों हेतु लकड़ी की कटाई है । संपूर्ण विश्व में प्रतिवर्ष लगभग 1600 मिलियन घन मीटर लकड़ी का उपयोग विविध कार्यों में किया जाता है । ईंधन के अतिरिक्त लकड़ी के व्यापारिक एवं व्यावसायिक उपयोग में निरंतर वृद्धि हो रही है, फलस्वरूप वनों का तीव्र गति से विनाश हो रहा है । अत: वन संरक्षण हेतु प्राथमिक उपाय नियंत्रित एवं उचित विधि से कटाई करना है, जिससे उनका अनवरत उपयोग संभव हो सके ।

सामान्यतया लकड़ी की कटाई की तीन विधियों का प्रयोग उचित प्रबंधन हेतु किया जाता है:

(1) निर्वृक्षीकरण,

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(2) वरणात्मक कटाई,

(3) परिरक्षित कटाई ।

निर्वृक्षीकरण उन क्षेत्रों में किया जाता है जहाँ एक ही प्रकार की लकड़ी का विस्तृत क्षेत्र में विस्तार होता है । एक समान आयु के वृक्षों को व्यावसायिक दृष्टि से एक खण्ड विशेष में काटा लिया जाता है, तत्पश्चात् उन्हें पुन: अंकुरित होने से छोड़ दिया जाता है ।

वरणात्मक कटाई में परिपक्व वृक्षों का चयन कर उन्हें क्रमानुसार काटा जाता है अर्थात् इन वनों में सदैव वृक्ष रहते हैं और क्रमिक रूप से चयनित वृक्ष समूहों का उपयोग किया जाता है । जबकि परिरक्षित कटाई में निकृष्ट गुणवत्ता वाले वृक्षों को पहले काटा जाता है, जिससे उत्तम काष्ठ प्रदान करने वाले वृक्षों की वृद्धि हो सके ।

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तत्पश्चात् द्वितीय श्रेणी के वृक्षों को काटा जाता है और अंत में उत्तम श्रेणी के । इसके मध्य काल में वृक्षों को पुन: विकसित होने का समय उपलब्ध हो जाता है । नियंत्रित एवं नियोजित कटाई से तात्पर्य यह है कि क्षेत्र वन रहित न हों और आवश्यकतानुरूप उनका उपयोग भी होता रहे ।

इसके लिये एक क्रमबद्ध कटाई कार्यक्रम अपनाना होगा जैसे 100 वर्ग कि.मी. वन का क्षेत्र है तो प्रतिवर्ष यदि 1/10 या 10 वर्ग कि.मी. के क्षेत्र से वन काट लिये जाएँ तो जो क्षेत्र वनरहित होगा वह पुन: इस काल में वन युक्त हो जायेगा । वनों को विकसित होने में यदि हम पर्याप्त समय दें तो कोई कारण नहीं कि हमारी वन संपदा समाप्त हो । अत: नियंत्रित एवं नियोजित कटाई वन संरक्षण की प्रथम आवश्यकता है ।

ii. वनों का आग से बचाव:

वनों में यदा-कदा लगने वाली आग भी कभी-कभी अत्यधिक विनाशकारी रूप ग्रहण कर लेती है, जिससे सैकड़ों वर्ग कि.मी. का क्षेत्र वृक्ष रहित हो जाता है । वनों में प्रचंड आग के कारणों में प्राकृतिक रूप से घर्षण द्वारा उत्पन्न चिनगारियां प्रमुख होती हैं ।

गर्म, शुष्क एवं हवा युक्त मौसम में अनेक वृक्षों की शाखाएँ या बाँस जैसे वृक्ष आपसी घर्षण से आग का कारण बन जाते हैं । साथ ही मानव की लापरवाही जैसे वन में केम्प फायर के पश्चात् लकड़ी जलती छोड़ना, जलती तीली, सिगरेट आदि को फेंकना या कभी-कभी जान-बूझ कर किसी वृक्ष को जलाना वन में आग लगने के कारण बनते हैं ।

वन में प्रारंभ हुई आग शुष्क घास, झाड़ियों एवं वृक्षों के जलने से इतनी तेजी से फैलती है कि उसको नियंत्रित करना संभव नहीं होता । एक अनुमान के अनुसार अकेले संयुक्त राज्य अमेरिका में 1955 में 1964 के मध्य वनों में आग लगने की 322 घटनायें हुईं ।

वनों को आग से बचाने के लिये जो सावधानी रखनी आवश्यक है उसमें वन क्षेत्र में जलती वस्तुओं को न छोड़ना प्रमुख है क्योंकि जरा-सी असावधानी संपूर्ण क्षेत्र के वनों को समाप्त कर सकती है । साथ ही आग पर नियंत्रण करने वाले दस्तों की व्यवस्था होनी चाहिये । वनों की आग को हैलीकोप्टर से किये छिड़काव की सहायता से ही बुझाया जा सकता है । अत: आग की तुरत सूचना प्राप्त हो तथा उसे बुझाने की व्यवस्था करना वन संरक्षण के लिये आवश्यक है ।

iii. कृषि एवं आवास हेतु वनों के विनाश पर रोक:

कृषि क्षेत्रों के विस्तार एवं विकास हेतु वनों को काटना एक सामान्य प्रक्रिया रही है और प्रारम्भ में यह आवश्यक भी था । किन्तु आज हम एक ऐसे सोपान पर हैं कि अब इस प्रवृत्ति पर रोक लगाना आवश्यक है क्योंकि अब वनों का क्षेत्र इतना सीमित रह गया है कि यदि इसे और अधिक सीमित किया गया तो पारिस्थितिक-संकट गहरा जायेगा ।

अत: वन भूमि की कीमत पर कृषि विस्तार नहीं किया जाना चाहिए । इस सन्दर्भ में एक विचारणीय तथ्य यह है कि स्थानान्तरण कृषि को नियंत्रित एवं सम्भव हो तो समाप्त किया जाना चाहिए । आज भी एशिया, अफ्रीका एवं दक्षिण अमेरिका के आदिवासी वनों को जलाकर कृषि योग्य भूमि प्राप्त करते हैं वहां दो-तीन वर्ष कृषि कर यही प्रक्रिया अन्यत्र दोहराते हैं ।

एक अनुमान के अनुसार विश्व में 4 करोड़ वर्ग कि.मी. क्षेत्र में विस्तृत लगभग 20 करोड़ आदिवासी इसी प्रकार की कृषि करते हैं । अकेले आइवरी कोस्ट में 1956 से 1966 के मध्य वहाँ का 40 प्रतिशत वन क्षेत्र नष्ट हो गया ।

भारत के उत्तरी-पूर्वी राज्यों में भी यह प्रथा प्रचलित है । अत: आवश्यकता है कि वन संरक्षण हेतु इस प्रथा को समाप्त कर, इन्हें स्थाई कृषि की ओर प्रवृत्त किया जाये । कृषि के साथ-साथ अधिवासों के विस्तार के लिए भी वनों को साफ कर दिया जाता है ।

अनेक बार नये नगरों के विकास से विशाल क्षेत्र में वनों का विनाश हो जाता है । इस प्रवृत्ति को समाप्त किया जाना चाहिए, क्योंकि वन व्यर्थ न होकर प्राकृतिक संपदा है जिसका संरक्षण हमारे जीवन को सुखद बनाने एवं पर्यावरण को सन्तुलित रखने हेतु आवश्यक है ।

iv. वन रक्षण:

वन संरक्षण हेतु वन रक्षण करना आवश्यक है क्योंकि अनेक बार पर्यावरणीय कारकों से वनों का विनाश हो जाता है । इसमें जंगली आग का विवेचन किया जा चुका है इसके अतिरिक्त बाढ़, चक्रवातीय तीव्र हवा अथवा आंधियाँ, सूखा आदि से भी वनों को हानि होती है ।

अनियंत्रित पशुचारण भी वन विनाश का कारण होता है । अत: वनों में पशुचारण नियंत्रित किया जाना आवश्यक है । इसके लिये क्षेत्र निर्धारण होना आवश्यक है जिससे वे वृक्ष बन सकें । इसी प्रकार अनेक प्रकार के पादप रोगों से भी वनों की रक्षा आवश्यक है ।

इनमें अधिकांश रोग परजीवी फफूँदी के द्वारा होते हैं । रोग ग्रस्त वृक्ष समूहों का पता लगाना तथा उन्हें नष्ट करना या रोगाणुओं को फैलने से रोकना आवश्यक है । यह कार्य सीमित क्षेत्रों में ही संभव है, फिर भी जहाँ संभव हो सके पादप रोगों से रक्षा आवश्यक है ।

v. बाँधों से वनों के जल-मग्न होने से बचाव:

विश्व में जहाँ कहीं भी नदियों पर बाँध बनाये जाते हैं, उसके अंतर्गत विशाल क्षेत्र के वन जल-मग्न हो जाते हैं । भारत के विशाल बाँध जैसे भाखड़ा नांगल, गाँधी सागर, तुंगभद्रा, नागार्जुन सागर, दामोदर, हीराकुण्ड, रिहन्द आदि से हजारों वर्ग कि.मी. का वन क्षेत्र जल-मग्न हो गया है ।

टिहरी बाँध एवं साइलैन्ट वैली प्रोजेक्ट के विरोध का एक कारण वनों के विनाश से पर्यावरण पर विपरीत प्रभाव है । किंतु इसका तात्पर्य यह नहीं कि बाँध नहीं बनाये जावें, अपितु बाँध स्थलों का चयन इस प्रकार किया जाये कि उनसे कम से कम वन जल-मग्न हों । साथ ही बाँध निर्माण के पश्चात् अन्य विकास कार्यों के साथ इस बात पर भी बल दिया जाये कि उस क्षेत्र में पुन: वृक्षारोपण किया जाये जिससे पारिस्थितिक संतुलन बना रह सके ।

vi. वनों का पर्यटन स्थलों के रूप में विकास:

वन संरक्षण का एक सफल उपाय इनका पर्यटन स्थलों के रूप में विकास है । वन प्राकृतिक सुंदरता एवं सुरम्यता से युक्त होते हैं जो सहज ही में पर्यटकों को आकर्षित करते हैं । इससे वन संरक्षण तो होता ही है साथ में विदेशी मुद्रा भी प्राप्त होती है ।

इस दिशा में अनेक देशों में राष्ट्रीय पार्क एवं अभयारण्यों के विकास के प्रयत्न किये जा रहे हैं । भारत में ही अब तक 20 राष्ट्रीय उद्यान एवं प्रत्येक राज्य में कुछ अभयारण्य विकसित किये जा चुके हैं । इनके विकास से विभिन्न पादप प्रजातियों की रक्षा के साथ-साथ वन्य जीवों का भी संरक्षण होता है । वन प्रदेशों की सुरक्षा हेतु इनका पर्यटन स्थलों के रूप में विकसित करना दोहरा लाभप्रद होता है ।

vii. पुन: वन लगाना- वृक्षारोपण:

वन संरक्षण हेतु जहाँ एक ओर वनों की रक्षा करना आवश्यक है वहीं दूसरी ओर वृक्षारोपण की भी आवश्यकता है । यह एक नियमित प्रक्रिया के रूप में होना चाहिये, क्योंकि एक ओर विविध उपयोगों हेतु वन को जिस अनुपात में काटा जाता है उसके साथ ही यदि उसी अनुपात में नये वृक्ष लगा दिये जायें तो वनोन्मूलन की समस्या से बचा जा सकता है ।

भारत में वृक्षारोपण कार्यक्रम राष्ट्रीय स्तर पर चलाया जा सकता है । इस कार्यक्रम की सफलता के लिए आवश्यक है कि वृक्ष लगाने के साथ-साथ यह भी ध्यान रखा जाये कि वे विकसित हों अन्यथा मात्र आँकडों में ही वे अंकित रहते हैं ।

एक अन्य ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि वृक्षों का चयन उपयोगिता एवं स्थानीय पर्यावरण को दृष्टिगत रख कर किया जाये । हमारे यहाँ वृक्षारोपण में अधिकांशत: यूकलिप्ट्स के शीघ्र पनपने वाले वृक्षों का रोपण हो रहा है, यह प्रवृत्ति समाप्त कर उपयोगी लकड़ी प्रदान करने वाले वृक्षों के रोपण पर ध्यान देना आवश्यक है ।

viii. वन संरक्षण में प्रशासनिक भूमिका:

वनों के संरक्षण में सरकार एवं स्थानीय प्रशासन की महती भूमिका है क्योंकि सरकारी नियमों के अंतर्गत ही वन संरक्षण संभव है । विश्व के प्रत्येक देश में वन संरक्षण हेतु नियम हैं तथा सरकारें उपयोगिता एवं अर्थव्यवस्था की आवश्यकता के अनुरूप नियम बना कर उन्हें संरक्षित करने का प्रयास करती हैं । इसके लिये प्राथमिक आवश्यकता यह है कि नियमों के अंतर्गत वनों का संरक्षण हो किंतु स्वार्थी तत्वों द्वारा नियमों के विरुद्ध कार्य से वनोन्मूलन की प्रवृत्ति में निरंतर वृद्धि हो रही है ।

प्रशासन वन संरक्षण हेतु निम्न प्रमुख कार्य संपादित कर सकता है:

(a) वनों के संरक्षण कानून (एक्ट) बनाना,

(b) देश के वनों का सर्वेक्षण करवाना,

(c) वनों के विभिन्न प्रकारों या श्रेणियों को सूचीबद्ध करना एवं सुरक्षित वन क्षेत्रों का निर्धारण करना,

(d) ऐसे क्षेत्रों का पता लगाना जहाँ वन विकास की आवश्यकता है और जहाँ वृक्षारोपण संभव है,

(e) आर्थिक दृष्टि से उपयोगी वनों का निर्धारण एवं संचालन,

(f) वनों की अग्नि या अन्य प्राकृतिक कारणों से रक्षा करना,

(g) वन अनुसंधान हेतु प्रयोगशालाओं की स्थापना,

(h) राष्ट्रीय पार्क एवं अभयारण्यों की स्थापना,

(i) वृक्षारोपण कार्यक्रम का क्रियान्वयन,

(j) सतत् निरीक्षण द्वारा वनोन्मूलन को बचाना तथा नियम विरुद्ध कार्य करने पर सजा दिलाना,

(k) वन संरक्षण हेतु प्रोत्साहन एवं पुरस्कार देना,

(l) वन उत्पादनों पर सरकारी नियंत्रण,

(m) देश के वन विकास हेतु राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय योजनाओं को तैयार करना ।

वास्तव में प्रशासन की सक्रिय भूमिका वनों के विनाश को रोक सकती है तथा वन संरक्षण कार्यक्रम को सफल बना सकती है ।

ix. सामाजिक एवं स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा वन संरक्षण:

वन संरक्षण एवं वृक्षारोपण जैसे कार्यक्रम मात्र सरकारी नियमों अथवा प्रशासन से ही सफल हों यह संभव नहीं है अपितु इसके लिये जन चेतना या सामाजिक चेतना जाग्रत करना आवश्यक है । जब समाज का प्रत्येक व्यक्ति यह अनुभव करें कि वह उसके तथा भविष्य की पीढ़ियों के लिये आवश्यक है तो संरक्षण स्वत: होने लगेगा । भारत में वन संरक्षण की स्वस्थ सामाजिक परंपरा रही है और वन यहाँ की संस्कृति का अभिन्न अंग रहे हैं ।

हमारे यहाँ अनेक वृक्षों जैसे पीपल, बरगद आदि की पूजा की जाती है, यह वृक्षों के संरक्षण का अपूर्व उदाहरण है । भारत में विश्नोई जाति के धर्म का एक प्रमुख सिद्धांत वनों की रक्षा है । वन संरक्षण में स्वयंसेवी अथवा गैर प्रशासनिक संस्थाओं की भी महती भूमिका होती है और आज विश्व में अनेक ऐसी संस्थायें विद्यमान हैं । ‘ग्रीन पीस’ नामक संस्था जैसी अनेक संस्थायें अनेक देशों में कार्यरत हैं ।

भारत में ‘चिपको’ आंदोलन इसका अपूर्व उदाहरण है जो वन संरक्षण हेतु जन जागृति में लगा है । इसी प्रकार दक्षिणी भारत में ‘अप्पिको’ है जो पर्यावरण संरक्षण के कार्य में संलग्न है । विगत दशक से स्थानीय स्तर पर भारत में अनेक स्वयंसेवी संस्थायें कार्यरत हैं ।

इनमें कुछ वन संरक्षण एवं वन विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं । प्रशासन द्वारा प्रारंभ किया गया ‘सामाजिक वानिकी’ कार्यक्रम कुछ प्रदेशों में पर्याप्त सफल हो रहा है । इसमें स्थानीय ग्रामीणों के माध्यम से वानिकी कार्यक्रम इस प्रकार चलाया जाता है कि उनको लाभ भी प्राप्त हो और वन विकास भी हो सके ।

x. वन प्रबंधन द्वारा वन संरक्षण:

वन संरक्षण हेतु वन प्रबंधन का अत्यधिक महत्व है । आज के युग में प्रत्येक तथ्य का सुनियोजित उपयोग एवं नियोजन उचित प्रबंधन द्वारा ही संभव है । यह तथ्य वन संरक्षण एवं वृक्षारोपण पर भी सत्य है । वन प्रबंधन के अंतर्गत अनेक तथ्य विचारणीय हैं ।

जैसे:

(a) वन सर्वेक्षण,

(b) वनों का वर्गीकरण,

(c) वनों का आर्थिक उपयोग,

(d) वनों की प्रशासनिक व्यवस्था,

(e) पर्यटन हेतु वन क्षेत्रों का उपयोग,

(f) सामाजिक वानिकी,

(g) वन उपयोगिता के अवबोध कार्यक्रम/सामाजिक चेतना जाग्रत करना,

(h) वन संरक्षण हेतु नवीन विधियों का विकास,

(i) वन अनुसंधान,

(j) भविष्य की वानिकी योजना तैयार करना एवं उनका क्रियान्वयन ।

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि वन संरक्षण वर्तमान युग की प्राथमिक आवश्यकता है, क्योंकि इसका संबंध न केवल वर्तमान से ही अपितु भविष्य से भी है । वन संरक्षण, पर्यावरण संरक्षण का प्रमुख अंग है क्योंकि वन पारिस्थितिक-तंत्र को नियंत्रित रखते हैं ।

संपूर्ण विश्व के देश वनोन्मूलन की समस्या के प्रति सचेष्ट हैं और अनेक देशों ने इस संबंध में कठोर नियम भी बनाये हैं । वास्तव में यह मात्र प्रशासनिक समस्या नहीं अपितु सामान्य जन की समस्या है, अत: सामाजिक चेतना एवं अधिकतम व्यक्तियों को इससे संबंधित कर ही इसका निदान निकाला जा सकता है ।

2. मृदा संरक्षण (Conservation of Soil):

भूमि की ऊपरी परत-मृदा, एक प्राकृतिक संसाधन है, जिसका निर्माण खनिज एवं कार्बनिक पदार्थों से होता है । मृदा सभी प्रकार की वनस्पति एवं कृषि के विकास का आधार है । मृदा की उत्पादन क्षमता में निरंतर परिवर्तन होता रहता है, यद्यपि इसकी रासायनिक बनावट मूल शैलों की संरचना पर निर्भर करती है ।

सामान्यतया यह माना जाता है कि मृदा एक ऐसा संसाधन है जो कभी समाप्त नहीं होता और प्रकृति इसे संरक्षित करती रहती है, किंतु वास्तविक सत्य इससे भिन्न है अर्थात् मृदा का भी निरंतर विनाश हो रहा है । प्राकृतिक एवं मानवीय कारणों से मृदा नष्ट होती जा रही है जो एक ऐसे संकट को जन्म दे सकती है जिसका निराकरण संभव नहीं हो ।

इसी कारण मृदा संरक्षण की विचारधारा का प्रारंभ हुआ और आज मृदा विशेषज्ञों के अतिरिक्त किसान एवं अन्य व्यक्ति तथा प्रशासन भी इसके प्रति सचेष्ट है । मृदा संरक्षण से पूर्व संक्षेप में उन तथ्यों का विवेचन अपेक्षित है जिनसे मृदा विनाश होता है, क्योंकि इनका ज्ञान संरक्षण में सहायक होता है । मृदा के विनाश का मूलभूत कारण मृदा अपरदन है । मृदा अपरदन अनेक प्रकार से होता है ।

ये हैं:

(i) सामान्य मृदा अपरदन,

(ii) जलीय मृदा अपरदन,

(iii) वायु द्वारा मृदा अपरदन,

(iv) त्वरित मृदा अपरदन ।

(i) सामान्य मृदा अपरदन:

सामान्य मृदा अपरदन एक मंद गति से चलने वाली प्राकृतिक क्रिया है जिससे मृदा का नवीनीकरण होता रहता है तथा मृदा स्थानांतरित होती रहती है । यह प्रक्रिया इतनी मंद होती है कि इससे मृदा की हानि अधिक नहीं होती और यह अनादि काल से चली आ रही प्रक्रिया है, जिससे कि मृदा का निर्माण हुआ है ।

(ii) जलीय मृदा अपरदन:

जलीय मृदा अपरदन अर्थात् जल द्वारा मिट्टी को काटना और बहाना सर्वाधिक विनाशकारी है । विश्व के अनेक भागों में इसके द्वारा भूमि विनाश होता जा रहा है । भारत के अनेक क्षेत्र जलीय अपरदन द्वारा नष्ट हो रहे हैं ।

जलीय मृदा अपरदन के चार प्रकार होते हैं:

i. परत अपरदन,

ii. रिल या क्षुद्र सरिता अपरदन,

iii. अवनालिका अपरदन एवं

iv. तटवर्ती अपरदन ।

a. परत मृदा अपरदन वनस्पति विहीन, ढलवाँ प्रदेशों में होता है जहाँ भूमि की संपूर्ण परत ही मृदा विहीन हो जाती है ।

b. रिल मृदा अपरदन में भूमि पर छोटी-छोटी नालियाँ जल के प्रवाह से बन जाती हैं जो क्रमश: भूमि अपरदन से चौड़ी होती जाती हैं ।

c. अवनालिका मृदा अपरदन रिल अपरदन का विशाल रूप है अर्थात् जब जल द्वारा बनी नालियाँ मृदा को काटती हुई कठोर शैलों तक पहुँच जाती हैं तथा स्थाई रूप से अपरदित करती रहती हैं ।

d. तटवर्ती अपरदन से तात्पर्य है बहते जल द्वारा अपनी सतह की ऊँचाई तक मिट्टी को काटना, विशेष कर नदियों के किनारों पर । इससे ऊपर की मिट्टी ढहती रहती है ।

(iii) वायु द्वारा मृदा अपरदन:

वायु द्वारा मृदा अपरदन शुष्क, वनस्पति रहित एवं असंगठित क्षेत्रों में अधिक होता है । तीव्र प्रवाहित वायु एक स्थान से मृदा को प्रवाहित कर दूसरे स्थान पर जमा करती है । इससे उस स्थान की हानि अधिक होती है जहाँ से अपरदन होता है क्योंकि यह क्रम निरंतर चलता रहता है जो मृदा विनाश का कारण होता है । भूमि की उपजाऊ परत इसके द्वारा समाप्त होती जाती है ।

(iv) त्वरित मृदा अपरदन:

त्वरित मृदा अपरदन कोई पृथक प्रकार नहीं अपितु उपर्युक्त प्रकारों का तीव्र गति से होना है । वनस्पति विहीन प्रदेशों में तथा अनेक मानवीय क्रियाओं द्वारा मृदा अपरदन में तीव्रता आ जाती है । यह मानवीय या कृत्रिम मृदा अपरदन है जो मृदा विनाश का सबसे प्रमुख कारण है ।

विस्तृत क्षेत्रों में मानव द्वारा किये गये वनोन्मूलन के फलस्वरूप आज विश्व के विस्तृत क्षेत्र त्वरित मृदा अपरदन की चपेट में हैं । भूमि स्खलन एवं निक्षालन द्वारा भी भूमि का विनाश होता है । भू-स्खलन में भूमि का एक खण्ड अलग हो विखण्डित हो जाता है ।

यह प्रक्रिया पर्वतीय ढ़ालों पर या अवैज्ञानिक भूमि खुदाई के परिणामस्वरूप होती है । जबकि निक्षालन में घुलनशील लवण आदि अंत: स्राव क्रिया द्वारा भूमि के नीचे चले जाते हैं जिससे मृदा में खनिज लवणों की कमी हो जाती है और वह अनुपजाऊ हो जाती है । मृदा अपरदन के फलस्वरूप भूमि का विनाश होता जाता है ।

इससे भूमि का उपजाऊपन नष्ट होता रहता है और अंत में भूमि बंजर हो जाती है । मृदा के सूक्ष्म कणों के बह जाने अथवा उड़ जाने से कंकरीली भूमि शेष रह जाती है । मृदा अपरदन अधिक होने से वनस्पति विनाश तो होता ही है साथ में पुन: वृक्षारोपण भी संभव नहीं होता ।

भारत में भूमि अपरदन का एक उदाहरण चम्बल के बीहड़ हैं जहाँ हजारों वर्ग कि.मी. का क्षेत्र मृदा अपरदन की चपेट में है और बीहड़ों में परिणत हो गया है । मानवीय गतिविधियाँ जैसे वनस्पति का विनाश, अवैज्ञानिक भूमि उपयोग भी इस क्रिया को त्वरित करती हैं । अत: भूमि संरक्षण आज की एक प्रमुख आवश्यकता है ।

मृदा संरक्षण की विधियाँ:

मृदा संरक्षण का प्रमुख उद्देश्य मिट्टी के कटाव को रोकना तथा उसके उपजाऊपन को बनाये रखना है जिससे कि भूमि बंजर न होने पाये । अधिकांश रूप में मानवीय क्रियाओं से मृदा अपरदन में वृद्धि हो जाती है । अत: मृदा के संरक्षण के अंतर्गत अपरदन की गति को कम करना तथा उर्वरा शक्ति को संचित रखने का प्रयत्न किया जाता है ।

मृदा संरक्षण की प्रमुख विधियाँ निम्नलिखित हैं:

I. वनस्पति आवरण का विकास एवं संरक्षी वृक्षारोपण:

मृदा के कटाव को रोकने तथा भूमि को संगठित रखने का सहज एवं सार्थक उपाय वृक्षारोपण है क्योंकि वृक्षों की जड़ें भूमि को जकड़े रहती हैं जिससे कि वह प्रवाहित नहीं होती । साथ ही वृक्ष पानी की एक निश्चित मात्रा भी सोख लेते हैं, जिससे भूमि नम हो जाती है इससे भूमि क्षरण कम होता है ।

जल प्रवाह की गति भी वृक्षों द्वारा कम होती है । मृदा संरक्षण हेतु वनस्पति का विकास संरक्षी वनरोपण पेटियों के रूप में किया जाना चाहिये । इस प्रकार का वनारोपण दो प्रकार का होता है- प्रथम, जल नियंत्रित करने हेतु एवं द्वितीय, वायु अवरोधित करने हेतु ।

जल अवरोधित करने हेतु संरक्षी पट्टियाँ ढाल के आर-पार उगायी जाती हैं । ये पर्याप्त सघन वृक्षों की कतारें होती हैं, जिनके मध्य झाड़ियाँ आदि लगा दी जाती हैं इससे जल प्रवाह नियंत्रित रहता है । वायु अवरोधी के रूप में हरित पट्टियों का विकास पर्याप्त प्रचलित है ।

यह अनेक वृक्षों की पट्टियाँ होती हैं जिन्हें कतारों के रूप में आवश्यकतानुरूप लगाया जाता है, जो वायु के मार्ग में अवरोधक का कार्य कर वायु की गति को कम कर, मिट्टी को उड़ने से बचाती है । मरुस्थल के सीमावर्ती प्रदेशों में, खेतों के वायु दिशान्मुख भागों में यहाँ तक कि नगरों के चारों ओर भी इन पट्टियों का विकास किया जाता है । इनसे मृदा अपरदन तो नियंत्रित होता ही है साथ में पर्यावरण भी शुद्ध होता और नियमित रूप से लकड़ी भी उपलब्ध हो जाती है ।

II. पट्टीदार कृषि:

इस विधि में अपरदन रोकने वाली तथा अपरदन-रोधी फसलों को समोच्च रेखाओं पर पंक्तियों के क्रम में बोया जाता है, जिससे प्रवाहित जल का वेग कम हो जाता है तथा सिल्ट अपरदन-रोधी पट्टियों में एकत्र हो जाती है जिससे मृदा अपरदन की मात्रा कम हो जाती है । विभिन्न फसलों के बोये जाने से भूमि के रासायनिक तत्वों का अनुपात सही रहता है । इस प्रकार की सघन पट्टियों से सीधी वर्षा से जो मृदा क्षय होता है उससे भी बचाव हो जाता है ।

III. वेदिकाकरण:

पर्वतीय ढालों पर भूमि का कटान अपेक्षाकृत अधिक होता है । अत: इन ढालों पर यदि सीढ़ीदार खेत बनाये जायें तो एक ओर कृषि उत्तम होती है तो दूसरी ओर मृदा अपरदन में कमी आ जाती है । इसका उत्तम उदाहरण चाय के सीढ़ीनुमा बागान हैं जो पर्वतीय ढालों पर सफलतापूर्वक लगाये जाते हैं ।

IV. शस्यावर्तन या फसल चक्रीकरण:

भूमि पर यदि निरंतर समान प्रकार की फसल उगाई जाती है तो उससे अनेक लवणों एवं रासायनिक तथा जैविक तत्वों की कमी हो जाती है और अंत में उसकी उर्वरा शक्ति समाप्त हो जाती है । मृदा में विभिन्न तत्वों के संतुलन को बनाये रखने के लिये फसलों का चक्रीकरण आवश्यक है ।

उचित फसल आवर्तन से भूमि प्रदूषण नहीं हो पाता और मिट्टी पर्याप्त समय तक उपजाऊ बनी रहती है । अन्य फसलों के साथ दालों या घनी उगने वाली फसलों को उगाने से मृदा नाइट्रोजन की वृद्धि होती है । इससे मृदा को सुरक्षा प्राप्त होती है अर्थात् उसका अपरदन कम होता है ।

V. अवनालिका नियंत्रण:

अधिक समय तक मृदा अपरदन होते रहने से वहाँ अवनालिकायें बन जाती हैं जिनसे अपरदन और अधिक तीव्र हो जाता है जो अत्यंत हानिकारक होता है । अत: इसे नियंत्रित करना आवश्यक है ।

इसको नियंत्रित करने की विधियाँ हैं:

(i) अपवाह जल को रोकना,

(ii) अपवाह का पथ परिवर्तित करना,

(iii) वनस्पति आवरण में वृद्धि एवं

(iv) नवीन संरचनायें बना कर अपरदन रोकना ।

VI. समोच्च कृषि:

इसमें खेतों की जुताई विशेष प्रकार से की जाती है जिससे खेत की मृदा बह कर न चली जाये । जहाँ भी खेतों में ढलान है वहाँ समोच्च कृषि की जानी चाहिये जिससे मृदा कणों का ढाल से प्रवाह न हो । जब खातिका ढलान के समोच्च के अनुरूप होगी तो प्रत्येक खातिका ढलान की ओर बहने से रोकने के लिये अवरोध बंध का कार्य करेगी ।

VII. पशुचारण पर नियंत्रण:

अनियंत्रित पशु चारण मृदा अपरदन यहाँ तक कि मरुस्थल निर्माण एवं विस्तार का एक कारण है । पशुओं के पैरों से मृदा असंगठित होकर निरंतर अपरदित होती जाती है । साथ ही पशु वनस्पति आवरण को समाप्त कर मृदा अपरदन में वृद्धि करते हैं । अत: मृदा संरक्षण हेतु पशुचारण क्षेत्रों को सीमित करना आवश्यक है अर्थात् उनके चारण का क्षेत्र निर्धारित होना चाहिये ।

VIII. बाढ़ नियंत्रण:

बाढ़ द्वारा भूमि की ऊपरी परत की मिट्टी बह जाती है । यद्यपि जहाँ इसका जमाव होता है वहाँ उपजाऊपन में वृद्धि हो जाती है । फिर भी विस्तृत क्षेत्रों में इससे मृदा क्षरण होता है । नदियों पर बाँध बना कर नदी जल को उपयोग में लाकर इसमें कमी की जा सकती है । बाढ़ क्षेत्र में शाद्वल भी भूमि रक्षा का कार्य करती है ।

IX. स्थानांतरित कृषि पर प्रतिबंध:

आदिवासी जातियों द्वारा स्थानांतरित कृषि से भूमि वनस्पति विहीन हो जाती है । कृषि के पश्चात् जब इस भूमि को वे छोड़ देते हैं तो वहाँ मृदा अपरदन अधिक होने लगता है, अत: स्थानांतरित कृषि पर प्रतिबंध लगाना आवश्यक है ।

X. उर्वरकों एवं खादों का प्रयोग:

मृदा में उर्वरकों एवं खाद मिलाने से न केवल भूमि की उर्वरता में वृद्धि होती है अपितु उसके गठन, संरचना और जल धारण करने की क्षमता में भी सुधार होने से भूमि अपरदन कम होता है । जैविक अपशिष्टों, जैसे- पत्तियों, डण्ठलों आदि का प्रयोग भी लाभकारी होता है ।

XI. उचित भूमि उपयोग:

मृदा संरक्षण हेतु उचित भूमि उपयोग अत्यंत आवश्यक है । प्रत्येक क्षेत्र का भू-सर्वेक्षण किया जाना चाहिये । तत्पश्चात् भूमि को विविध उपयोगों हेतु श्रेणीबद्ध किया जाना चाहिये । विभिन्न प्रकार के क्षेत्रों का उपयोग निर्धारित होना चाहिये, जैसे- वनीय क्षेत्र, चरागाह, कृषि क्षेत्र, अधिवासीय क्षेत्र, पशुचारण क्षेत्र आदि । इसी प्रकार मृदाओं का भी उनकी रासायनिक संरचना के आधार पर वर्गीकरण कर, उनके उचित उपयोग का निर्धारण आवश्यक है ।

XII. मृदा की उर्वरता का अनुरक्षण:

मृदा संरक्षण का एक महत्वपूर्ण पक्ष मृदा की उर्वरता को बनाये रखना है, क्योंकि इसी पर कृषि की प्रगति संभव है तथा अन्य वनस्पति विकास भी इसी के माध्यम से होता है । इसके लिये जहाँ भूमि की रासायनिक संरचना का ज्ञान आवश्यक है, वहीं फसलों का उचित चयन, चक्रीकरण, मृदा की ऊपरी परत का बहाव रोकना, वनस्पति तत्वों (ह्यूमस) को बनाये रखना भी आवश्यक है ।

अधिक सिंचाई से भूमि में क्षारीयता का विकास होने से उपजाऊ भूमि भी व्यर्थ हो जाती है । भूमि में बंजरता न हो तथा बंजर भूमि का उचित उपयोग होना आवश्यक है । संक्षेप में मृदा संरक्षण मृदा संसाधन के समुचित उपयोग हेतु आवश्यक है । इसके लिये मृदा प्रबंधन की आवश्यकता है ।

भूमि विशेषज्ञ, मृदा विशेषज्ञ, भूमि उपयोग के ज्ञाता और स्वयं भूमि उपयोगकर्त्ता अर्थात् किसान सामूहिक रूप से इस कार्य को संपन्न कर सकते हैं । प्रशासन की सहायता भी इसके लिये आवश्यक है जैसे भारत में अनेक भूमि सुधार कार्यक्रम सरकारी रूप से चल रहे हैं । इनमें जनता की भागीदारी होने से ये और अधिक प्रभावशाली हो सकते हैं ।

3. जल संरक्षण (Conservation of Water):

जल एक ऐसा प्राकृतिक संसाधन है जिस पर न केवल मानव अपितु वनस्पति एवं संपूर्ण जीव जगत निर्भर है । संसार में जल का प्रति व्यक्ति प्रतिदिन औसत उपभोग ग्रामीण क्षेत्रों में 50 लीटर और नगरों में 150 लीटर होता है ।

पेयजल एवं घरेलू उपयोग के अतिरिक्त कृषि की सिंचाई एवं उद्योगों में भी जल का प्रयोग पर्याप्त होता है । अनेक उद्योगों में जल की अत्यधिक आवश्यकता होती है जैसे एक टन निकल के लिये 4000 मी3 जल की, एक टन इस्पात के पिघलाने में 200 मी3 जल तथा एक टन कागज बनाने में 100 मी3 जल आवश्यक होता है ।

यही नहीं, अपितु प्रति टन संश्लिष्ट रेशा बनाने के लिये 2500 से 5000 मी3 जल चाहिये । कृषि हेतु जल का प्रयोग सर्वविदित है । सिंचाई हेतु आज एक हेक्टेयर भूमि को प्रतिवर्ष 12,000 में 14,000 मी3 जल दिया जाता है ।

जैसे-जैसे जनसंख्या की वृद्धि हो रही है, आर्थिक क्रियाओं का विकास और विस्तार हो रहा है जल की और अधिक आवश्यकता होगी । यद्यपि जल प्राकृतिक रूप से उपलब्ध है और प्रकृति में जलीय चक्र का क्रम चलता रहता है, किंतु अन्य पर्यावरणीय व्यतिक्रम एवं प्रदूषण से इस चक्र में भी व्यवधान आने की संभावना है ।

यही नहीं अपितु जल का जो तीव्र गति से प्रदूषण हो रहा है वह चिंता का विषय है । भूमिगत जल का स्तर निरंतर कम होता जा रहा है तथा अनेक देशों में आज पेयजल की समस्या है । इन्हीं तथ्यों को दृष्टिगत रखते हुए जल संरक्षण की आवश्यकता अनुभव की जाने लगी है ।

जल अर्थात् उपयोग लेने हेतु जल के विभिन्न स्रोत नदियाँ, झीलें, जलाशय एवं तालाब तथा भूमिगत जल स्रोत जैसे झरने तथा सोते, कुएँ, पातालतोड़ कुएँ प्रमुख हैं । महासागरीय एवं सागरीय जल अत्यधिक विस्तृत है किंतु खारेपन के कारण उसका सीधा उपयोग संभव नहीं है । वर्तमान में सीमित रूप से इसे विभिन्न तकनीकों से शुद्ध कर उपयोगी बनाने का कार्य कुछ क्षेत्रों में हो रहा है पर यह नगण्य है । प्रस्तुत विवेचन का उद्देश्य मात्र जल के संरक्षण तक सीमित है ।

जल संरक्षण की विधियाँ:

जल एक प्राथमिक आवश्यकता है । वर्षा से प्राप्त जल हो अथवा भूमिगत जल उसकी उपलब्धि पर्याप्त न हो तथा वह शुद्ध हो अर्थात् उसमें हानिकारक खनिज तथा रसायनों का समावेश न हो तथा प्रदूषण रहित हो । विश्व में उपलब्ध जल स्रोतों का समुचित उपयोग हो और यह उपलब्धि भविष्य में भी चलती रहे इसके लिये जल संरक्षण की विधियों को अपनाया जाना आवश्यक है ।

इसकी कुछ विधियाँ निम्नलिखित हैं:

I. जल की उचित वितरण व्यवस्था:

संसार में जल की उपलब्धि अत्यधिक असमान है, यह तथ्य प्रत्येक देश एवं प्रदेश के लिए भी सही है अर्थात् जल कुछ क्षेत्रों में अतिरिक्त मात्रा में उपलब्ध है तो अन्य क्षेत्रों में अपर्याप्त । इस कारण उचित जल वितरण आवश्यक होता है ।

जल वितरण में महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि वितरण व्यवस्था इस प्रकार की विकसित की जाये कि उसमें जल-हानि न हो तथा जल प्रदूषित होने से बच जाये । नदी, तालाब, झील एवं कुंओं के जल वितरण की उचित व्यवस्था एक मूल तथ्य है ।

जल वितरण एवं उसके संरक्षण से संबंधित कतिपय तथ्य हैं:

(i) जहाँ तक संभव हो जल वितरण पाइपों की सहायता से किया जाना चाहिए, जिससे भूमि जल को न सोखे तथा बाहरी गन्दगी का समावेश न हो ।

(ii) जल संचय हेतु जहाँ जलाशयों का निर्माण किया जाए वह यदि सीमित हो तो उसे पक्का बना दिया जाए एवं वृहत्त हो तो चयन इस प्रकार किया जाये जहाँ चट्टानें सरन्ध्र न हों ।

(iii) नहरें और वितरिकाओं को पक्का बनाकर भूमि द्वारा सोखे जाने वाले जल को बचाया जा सकता है । जिसकी मात्रा 10 से 30 प्रतिशत तक हो जाती है ।

(iv) खेतों में सिंचाई के नालों को पक्का बनाकर भी जल संरक्षित किया जा सकता है ।

(v) खेतों में पाइप द्वारा या बौछार सिंचाई द्वारा जल बचाया जा सकता है तथा उसका अधिकतम उपयोग हो सकता है ।

(vi) जल के टैंकों को जहाँ तक संभव हो ढकने की व्यवस्था करनी चाहिए, जिससे वाष्पीकरण से होने वाली जल की हानि नहीं होगी और जल भी शुद्ध रहेगा ।

II. भूमिगत जल का विवेकपूर्ण प्रयोग:

भूमिगत, जल, जल आपूर्ति का महत्वपूर्ण स्रोत है जिसका उचित उपयोग एवं संरक्षण आवश्यक है । विशेष रूप से शुष्क एवं अर्द्ध-शुष्क प्रदेशों में जहाँ वर्षा नाम मात्र की होती है, वहाँ भूमिगत जल पर ही जीवन आश्रित रहता है । अनेक देशों में इसका प्रयोग सिंचाई हेतु भी होता है ।

जल की माँग में निरन्तर वृद्धि से भूमिगत जल का शोषण अत्यधिक होने लगा है । फलस्वरूप अनेक समस्याएँ जैसे भूमिगत जल स्तर का निरन्तर नीचा होना, लवण युक्त जल का अन्तर्वेधन, भूमितल का अवनमन जैसी समस्याओं का जन्म हो रहा है, तो दूसरी ओर इस जल की आपूर्ति में कमी आ रही है और इसका प्रभाव पर्यावरण के अन्य तत्त्वों पर पड़ रहा है ।

अत: भूमिगत जल का सुनियोजित एवं विवेकपूर्ण उपयोग आवश्यक है, जिसका आसान तरीका है सीमित मात्रा में इसका प्रयोग किया जाये, जिससे स्वत: आपूर्ति हो सके और जल स्तर नीचे नहीं गिरे ।

III. वनस्पति विनाश पर नियन्त्रण:

प्राकृतिक वनस्पति जहाँ एक ओर जल का उपयोग करती हैं वहीं जलीय चक्र को सम्पादित करने में सहायक होती है । निरन्तर वनों के विनाश से सूखा पड़ता है वनस्पति वायुमण्डल में नमी बनाये रखती है, तापमान में वृद्धि को रोकती है, वर्षा में सहायक होती है तथा वाष्पीकरण द्वारा जल हानि को रोकती है वनस्पति एवं जल को अन्योन्याश्रित माना जाता है । अत: वनस्पति विनाश को रोकना जल संरक्षण के लिए आवश्यक है ।

IV. जल प्रदूषण से बचाव:

जल उपलब्ध हो यह तो आवश्यक है ही किन्तु साथ में शुद्ध जल उपलब्ध हो यह और भी अधिक आवश्यक है । जल प्रदूषण में आज इतनी अधिक वृद्धि हो गई है कि न केवल जल मानव उपयोग अपितु वनस्पति एवं अन्य जीवों के लिये भी हानिकारक हो गया है । वर्तमान विश्व की प्रमुख आवश्यकता जल प्रदूषण रोकना है ।

इसके लिये भौतिक-रासायनिक शोधन विधियों, जैसे- जल-अपघटन, विद्युत अपघटन, आयन-विनिमय, अवशोषण, स्कंदन, क्लोरीनीकरण, ओजोनीकरण आदि से जल शुद्ध करना आवश्यक है । जैविक शोधन विधि द्वारा जल के सूक्ष्म जीवों को नष्ट किया जाता है । तात्पर्य यह है कि जल को प्रदूषण से रोकना एवं प्रदूषण रहित करना आवश्यक है ।

V. अपशिष्ट जल शोधन:

प्रदूषित एवं अपशिष्ट जल का शोधन कर उसे पुन: उपयोग के लिये उपयोगी बना कर जल की कमी को कुछ कम किया जा सकता है । यद्यपि अपशिष्ट जल का शोधन पर्यास खर्चीला होता है तथा इसके लिये उच्च तकनीक की आवश्यकता होती है । अपशिष्ट जल को शोधित कर उसे विभिन्न उपयोगों में जैसे उद्योगों, कृषि आदि में काम लिया जा सकता है क्योंकि वह मानव उपयोग हेतु उचित नहीं होता ।

संक्षेप में, हम कह सकते हैं कि जल संरक्षण वर्तमान विश्व की आवश्यकता है । भविष्य में जल का उपयोग और अधिक होगा अत: जल की व्यर्थता रोक कर उसका विवेकपूर्ण उपयोग कर भविष्य में जल प्राप्ति को सुनिश्चित किया जा सकता है ।

4. वन्य जीव संरक्षण (Conservation of Wild Life):

वन्य जीव हमारे जैव परिमण्डल का एक अंग हैं । अत: उनकी उपस्थिति तथा अनुपस्थिति का वही महत्व होता है जो जैव परिमण्डल की अन्य इकाइयों या कारकों का होता है ।

वनों में निवास करने वाले जंगली जानवर तथा अन्य जीव-जंतु क्षेत्रीय पारिस्थितिकी की उपज होते हैं और प्राकृतिक पर्यावरण से सामंजस्य स्थापित न कर केवल स्वयं का अस्तित्व बनाये रखते हैं अपितु पारिस्थितिक-तंत्र को परिचालित रखने में भी सहायक होते हैं ।

एक समय था जब वन्य जीव स्वच्छंदता से विचरण कर प्राकृतिक वातावरण का आनंद लेते थे किंतु जनसंख्या वृद्धि, औद्योगिकीकरण, शहरीकरण एवं मानव की स्वार्थपरता ने आज इनके अस्तित्व को संकट में डाल दिया है । यही नहीं, अपितु वनों के कटने एवं पर्यावरण के प्रदूषित होने के कारण इनके आवासीय परिवेश परिवर्तित हो रहे हैं या समाप्त हो रहे हैं जिससे इनके अस्तित्व को खतरा उत्पन्न हो गया है ।

वन्य जीवों के विनाश में मानव का हाथ सर्वाधिक है, विशेषकर जबसे इनसे प्राप्त वस्तुओं का व्यवसायीकरण होने लगा है, अनेक वन्य प्रजातियों का अस्तित्व संकट में आ गया है । वन्य जीवों का शिकार कर माँस, खाल, दाँत, हड्डियाँ, पसर, बाल आदि का उपयोग अधिकाधिक होने लगा है ।

हाथी दाँत के बाजार मूल्य के कारण उनका भविष्य ही खतरे में पड़ गया है । गैंडा के सींग की बढ़ती मांग ने उनकी संख्या में अत्यधिक कमी कर दी है । फर की बढ़ती माँग एवं विभिन्न जंगली जंतुओं की सुंदर खाल तथा पक्षियों का उनके पंखों के लिये विनाश किया जा रहा है ।

वन्य जीव प्राकृतिक धरोहर हैं तथा पारिस्थितिक दृष्टि से उनका अत्यधिक महत्व है । प्रत्येक वन्य प्रजाति आनुवांशिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है तथा अप्रतिस्थापनीय है जो यदि एक बार लुप्त हो गई तो उसे पुन: उत्पन्न करना असंभव है ।

वन्य प्राणियों के विलुप्त होने का संकट आज गहराता जा रहा है, जिसके प्रति न केवल जीव शास्त्री अपितु सभी चिंतित हैं । विश्व भर में इनको संरक्षित करने के उपाय किये जा रहे हैं जिससे न केवल दुर्लभ प्रजातियों की अपितु सभी की रक्षा की जा सके ।

अनेक अंतर्राष्ट्रीय संगठन इस दिशा में पर्याप्त प्रयास कर रहे हैं, इनमें विश्व वन्य प्राणीकोश अग्रणी है । प्रत्येक देश भी अपने-अपने क्षेत्रों के वन्य जीवों को संरक्षित करने में प्रयत्नशील हैं । इसके लिये अनेक नियम भी बनाये गये हैं तथा दण्ड की भी व्यवस्था है, फिर भी यह समस्या दिन-प्रतिदिन अधिक होती जा रही है । राष्ट्रीय उद्यानों एवं अभयारण्यों की स्थापना इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है ।

वन्य जीवों के संरक्षण हेतु कतिपय कदम निम्नलिखित हैं:

(i) वन्य जीवों संबंधी संपूर्ण जानकारी एकत्र करना, विशेषकर उनकी संख्या एवं वृद्धि की ।

(ii) वनों के विनाश को रोकना जो वन्य जीवों के आश्रय स्थल हैं ।

(iii) सुरक्षित एवं अनुकूल आवासीय स्थल को बनाये रखना ।

(iv) प्रदूषण तथा अन्य प्राकृतिक आपदा से वन्य जीवों की रक्षा ।

(v) वन्य जीवों के शिकार पर पूरी तरह रोक लगाना ।

(vi) क्षेत्रीय, राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर वन्य जीवों से प्राप्त वस्तुओं के क्रय-विक्रय पर प्रतिबंध लगाना तथा दोषी व्यक्ति को कठोर दण्ड की व्यवस्था करना ।

(vii) अभयारण्यों की स्थापना कर वन्य जीवों को उनके प्राकृतिक वातावरण में रहने की सुविधा प्रदान करना और साथ में उन्हें पर्यटन स्थलों के रूप में विकसित करना ।

(viii) वन्य जीवों की विलुप्त होती प्रजातियों का समुचित ज्ञान प्राप्त करना तथा उनके विशेष संरक्षण की व्यवस्था करना ।

(ix) अंतर्राष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय स्तर पर वन्य जीवों के संरक्षण हेतु जन चेतना जाग्रत करना ।

(x) वन्य जीवों का उचित प्रबंधन करना आदि ।

इस संदर्भ में भारतीय परिवेश में विवेचन करना उचित होगा क्योंकि भारत में वन्य जीव संरक्षण हेतु विगत वर्षों से अनेक उपाय किये जा रहे हैं । भारत में वन्य जीवों का महत्व प्राचीन काल से स्वीकार किया गया है ।

यहाँ विभिन्न प्राकृतिक प्रदेशों में विशिष्ट जीव-जंतु पाये जाते हैं । भारत में 500 से अधिक प्रकार के वन्य जीव 2,100 प्रकार के पक्षी तथा लगभग 20,000 प्रकार की मछलियाँ तथा रेंगने वाले जानवर पाये जाते हैं । हिमालय क्षेत्र कस्तुरी मृग और मोनाल पक्षी के लिये प्रसिद्ध है तो पं. बंगाल में गैंडा, असम में हाथी और जंगली भैंसे, मध्य प्रदेश व दक्षिणी भारत के वनों से शेर आदि प्रसिद्ध हैं ।

राजस्थान के भरतपुर में स्थित ‘घना’ पक्षी विहार साइबेरिया से आने वाले पक्षियों के लिये प्रसिद्ध है । तात्पर्य यह है कि भारत में अनेकानेक प्रकार के वन्य जीव जंतु हैं जो आज संरक्षण की अपेक्षा करते हैं ।  एक अध्ययन के अनुसार ईसा संवत् के प्रारंभ से अब तक भारत में लगभग 200 जंतु तथा पक्षी प्रजातियाँ नष्ट हो चुकी हैं और लगभग 2500 अन्य विनाश के कगार पर हैं ।

विलुप्त होने के संकट से ग्रस्त कुछ प्रजातियाँ हैं- कृष्ण सार, चीतल, भेड़िया, अनूपमृग, नीलगाय, भारतीय कुरंग, बारहसिंगा, चीता, गैंडा, गिर सिंह, मगर, हसावर, हवासिल, सारंग, श्वेत सारस, धूसर बगला, पर्वतीय बटेर आदि । वन्य प्राणियों के संरक्षण के प्रति भारत में अनेक प्रयत्न किये जा रहे हैं । यद्यपि स्वार्थी तत्वों के कारण वन्य जीवों की संख्या में निरंतर कमी हो रही है ।

हमारे देश में केन्द्र तथा राज्य सरकारें वन्य जीव संरक्षण को समुचित महत्व दे रही हैं । इस संबंध में वन्य प्राणी संरक्षण अधिनियम, 1972 लागू किया जा चुका है । वन्य प्राणियों तथा उनके आवासों को संरक्षण देने हेतु देश भर में 165 अभयारण्य तथा 21 राष्ट्रीय उद्यानों की स्थापना की जा चुकी है ।

वन्य प्राणियों से संबंधित शोध को प्रोत्साहन दिया जा रहा है । यह कार्य वन विभाग एवं पर्यावरण विभाग के तत्वावधान में संपन्न किया जाता है । राष्ट्रीय उद्यानों की स्थापना से वन जीव संरक्षण तथा वनस्पति की दुर्लभ प्रजातियों के संरक्षण को नई दिशा मिली है ।

राष्ट्रीय उद्यानों के अतिरिक्त अभयारण्यों की स्थापना इस दिशा में विशेष महत्व रखती है । देश में प्रतिवर्ष एक से सात अक्टूबर तक वन्य जीव संरक्षण सप्ताह मनाया जाता है । इसके माध्यम से वन्य जीवों के प्रति जन-जागृति उत्पन्न करने का प्रयास किया जाता है । वास्तव में वन संरक्षण का एक प्रभावशाली जन-चेतना का तरीका है । सामान्य जन वन्य जीवों की रक्षा के प्रति सचेष्ट हो जायें तो सहज ही यह कार्य हो सकता है ।

हमारे देश में इसकी परंपरा भी रही है जिसका उदाहरण विश्नोई समाज की परंपरा है जो वृक्ष एवं वन्य जीवों की रक्षा को एक धार्मिक तथा सामाजिक कृत्य मानते हैं । अन्य धर्मों में भी जीव हिंसा निषेध है, आवश्यकता है इस दिशा में वास्तविक कार्य करने की । वन्य जीव संरक्षण आज की आवश्यकता है और सामूहिक प्रयास ही इसे सफल बना सकते हैं ।

5. खनिज का संरक्षण (Conservation of Mineral):

मानव सभ्यता के विकास के साथ ही खनिजों का उपयोग करने लगा था तथा जैसे-जैसे वह विकास के क्रम में आगे जाता जा रहा है खनिज उपयोग में भी वृद्धि हो रही है । औद्योगिकीकरण ने खनिजों के उपयोग में अत्यधिक वृद्धि कर दी है, फलस्वरूप वर्तमान आर्थिक विकास एवं राष्ट्रों की प्रगति खनिजों पर निर्भर हो गई ।

सभ्यता के प्रारंभिक काल में पत्थर का उपयोग औजार एवं हथियारों के रूप में होता था, तत्पश्चात् धातुओं के प्रयोग का प्रारंभ हुआ ताम्रयुग, कांस्य युग आदि के नाम से जाना जाता है जबकि औद्योगिक क्रांति काल को इस्पात युग कहा जाता है ।

प्रारंभ में धातुओं का ज्ञान सीमित था, आवश्यकता सीमित थी अत: उपभोग भी सीमित था । किंतु वर्तमान शताब्दी के मध्य से इस दिशा में ऐसा परिवर्तन आया है कि खनिज खनन की होड़ मची हुई है । आज प्रत्येक देश न केवल स्वयं के अपितु अन्य क्षेत्रों के खनिजों को भी उपयोग में लेना चाहता है ।

विगत 50 वर्षों में सारे विश्व में जितना खनिज उपयोग में आया है वह मात्रा उससे पूर्व के समस्त युगों में खपत हुए खनिज की मात्रा से कहीं अधिक है । विज्ञान और टेक्नोलॉजी का उपयोग आज खनिजों के अनुसंधान, परिशोधन एवं वस्तु निर्माण में अत्यधिक लगा हुआ है ।

वर्तमान मानव अपनी विविध आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु विभिन्न खनिजों का शोषण कर रहा है जबकि वह इस तथ्य से परिचित है कि खनिज संसाधन अनवीनीकरण संसाधन हैं जिनका निर्माण भू-गर्भिक क्रियाओं द्वारा करोड़ों वर्षों में संभव होता है ।

यदि खनिजों का अनियोजित शोषण होता रहा तो भविष्य में इनकी पूर्ति संभव नहीं हो सकेगी । अत: खनिजों की आपूर्ति सुनिश्चित करने हेतु यह आवश्यक है कि न केवल उनके उपयोग में मितव्ययता की जाये अपितु उनके संरक्षण हेतु समुचित कदम उठाये जाएँ ।

खनिजों के तीन वर्ग होते हैं:

(i) धात्विक खनिज,

(ii) अधात्विक खनिज,

(iii) खनिज ईंधन ।

विश्व में खनिजों का वितरण अत्यधिक असमान है जो वहाँ की भू-गर्भिक बनावट पर निर्भर है । धात्विक खनिज प्राचीन आग्नेय शैलों में उपलब्ध होते हैं तो दूसरी ओर कोयला तथा पेट्रोलियम परतदार शैलों में उपलब्ध होते हैं ।

अनेक क्षेत्रों में कतिपय खनिजों का भण्डार है जैसे विश्व का आधा टिन इण्डोनेशिया मलाया और थाईलैंड में उपलब्ध है, तो उत्तरी अमेरिका में यह उपलब्ध नहीं, किंतु वहाँ मोलिब्डेनम पर्याप्त मात्रा में हैं । दक्षिणी अफ्रीका सोना और हीरों का प्रमुख स्रोत है तो विश्व का अधिकांश पारा इटली, स्पेन तथा रूस में है । पेट्रोलियम के प्रमुख भण्डार पश्चिमी एशिया में केन्द्रित हैं ।

तात्पर्य यह है कि खनिजों का वितरण असमान है तथा उपयोग कभी क्षेत्रीय एवं राष्ट्रीय आवश्यकताओं के लिये होता है तो कभी निर्यात हेतु । इस संदर्भ में मूल विचारणीय तथ्य यह है कि खनिज संपदा (जिसमें ऊर्जा स्रोत कोयला एवं पेट्रोलियम सम्मिलित हैं) का संरक्षण अति आवश्यक है ।

खनिज संरक्षण हेतु प्रमुख उपाय निम्नांकित हैं:

i. भूगर्भिक सर्वेक्षण एवं नये खनिजों की खोज:

वर्तमान खनिज संपदा के उपयोग के साथ-साथ नवीन क्षेत्रों की खोज कार्य नियमित रूप से किया जाना आवश्यक है क्योंकि आज भी अनेक प्रदेश जैसे पर्वतीय क्षेत्र, मरुस्थलीय क्षेत्र, ध्रुवीय प्रदेश, समुद्री तल आदि ऐसे हैं जहाँ खनिज उपलब्ध हो सकते हैं । यह अनुसंधान का ही परिणाम है कि सागर तल से आज अनेक प्रकार के खनिज, पेट्रोलियम, गैसें आदि निकाली जा रही हैं । इनको उचित सर्वेक्षण एवं तकनीकी विकास से और अधिक किया जा सकता है ।

एंटार्कटिका क्षेत्र में अनेक प्रकार के खनिज उपलब्ध हैं । अफ्रीका, एशिया एवं दक्षिणी अमेरिका के अनेक क्षेत्रों में खनिज उपलब्धि की पर्याप्त संभावना है । इन क्षेत्रों का भू-रासायनिक एवं भू-भौतिकी विधियों से सर्वेक्षण किया जाना चाहिये जिससे नवीन खनिज उपलब्ध हो सकें ।

ii. खनिजों का बहुउद्देश्यीय उपयोग:

खनिजों का विविध प्रकार से उपयोग करते हुए सीमित मात्रा में उपलब्ध खनिजों का भी पर्याप्त लाभ उठाया जा सकता है । ताँबा का उपयोग सोने के साथ करके रोल्ड गोल्ड, काँसे के साथ जर्मन सिल्वर, लोहे के साथ स्टेनलेस स्टील, टिन के साथ काँसा, जस्ता के साथ पीतल बनाने में किया जा सकता है ।

इस प्रकार अन्य खनिजों के सम्मिश्रण से मिश्रित धातुएँ प्राप्त होती हैं जो अत्यधिक उपयोगी होती हैं । इसी प्रकार एल्युमीनियम का उपयोग विद्युत उद्योग में, तार और केबिल, रेडियो, संचार माध्यमों में, टेलीविजन एन्टेना, वायुयान उद्योग, परिवहन के ढांचों तथा घरेलू उपयोग की अनेक वस्तुओं को बनाने में किया जाता है ।

इसको मिश्रित धातु के रूप में प्रयुक्त कर हिण्डोलियम जैसी मिश्रित धातु बना कर उसके उपयोग में वृद्धि की जा रही है । तात्पर्य यह है कि खनिजों के बहुउद्देश्यीय उपयोग द्वारा उनके उपयोग में वृद्धि होगी किंतु सीमित मात्रा में उपलब्ध खनिजों का संरक्षण भी होगा । आज वैज्ञानिकों ने अनेकानेक मिश्रित धातुओं का उपयोग कर इसके प्रयोग में वृद्धि की है ।

iii. उत्खनित खनिजों से अधिकतम धातु प्राप्त करना:

विभिन्न प्रकार की तकनीकों का विकास हो जाने के पश्चात् भी आज खोदे गये खनिज से धातु तत्व की पूर्ण मात्रा को निकालना संभव नहीं हो पाया है । खानों से प्राप्त खनिजों को परिष्कृत कर उनकी अशुद्धियाँ दूर की जाती हैं तत्पश्चात् वास्तविक खनिज प्राप्त होता है ।

इसकी मात्रा सामान्यतया 40 से 60 प्रतिशत ही होती है । इसे तकनीकी विकास एवं उन्नत शोधन विधि द्वारा अधिकतम अर्थात् 90 प्रतिशत तक पहुँचाया जाना चाहिये, जिससे खनिज तत्व अधिकतम प्राप्त हो सकें और जो धातु व्यर्थ चली जाती है उसका उपयोग हो सके ।

इसके साथ ही उपजात पदार्थों को प्राप्त करने तथा उनके उचित उपयोग की व्यवस्था की जानी चाहिये । बचे हुए अपशिष्ट पदार्थ का उपयोग अनेक प्रकार से लाभकारी हो सकता है जैसे कोयले के चूरे का उपयोग तापीय विद्युत उत्पादन में किया जा सकता है ।

iv. सुरक्षित भण्डार-गृहों की स्थापना:

खनिजों को खनन के पश्चात् सामान्यतया लंबे समय तक खुले में छोड़ दिया जाता है, इससे एक ओर खनिजों के अनेक गुण समाप्त होते हैं, तो दूसरी ओर कुछ खनिज सक्रिय होने से नष्ट भी होने लगते हैं । अत: खनिजों के उचित भण्डारण की व्यवस्था की जानी चाहिये, जिससे आवश्यकतानुसार उनका उपयोग संभव हो सके ।

v. खनिजों के विकल्पों की खोज:

खनिजों की तीव्र गति से उपयोग में वृद्धि एवं भण्डारों में कमी को देखते हुए यह आवश्यक है कि उनके विकल्पों हेतु अनुसंधान किया जाये । इस दिशा में पर्याप्त प्रयोग हो रहे हैं तथा कुछ विकल्पों का पता भी लगा है । अनेक स्थितियों में धातुओं के स्थान पर प्लास्टिक के प्रयोग में वृद्धि हुई है । फिर भी इस दिशा में पर्याप्त अनुसंधान किया जाना शेष है जिससे खनिजों का भविष्य में उपयोग सुनिश्चित हो सके ।

vi. खनिजों का नियोजित खनन:

खनिज संरक्षण हेतु खनिज खनन को नियोजित करना आवश्यक है अन्यथा अनियंत्रित खनन से न केवल खनिज समाप्त होते हैं अपितु पर्यावरण पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है । अनेक बार विदेशी दबाव अथवा व्यापार हेतु खनिजों का अंधाधुंध खनन किया जाने लगता है और उन्हें सस्ते मूल्य पर विदेशों में बेचा जाता है जिससे खनिजों के शीघ्र समास होने का संकट आ जाता है ।

अत: खनिज खनन पर प्रतिबंध लगाना आवश्यक है । प्रतिबंध से तात्पर्य यह है कि अनियंत्रित खनन न हो, सुरक्षित भण्डार को दृष्टिगत रखते हुए और देश की आवश्यकतानुसार नियोजित रूप से खनन किया जाये सामरिक दृष्टि से उपयोगी खनिजों का संरक्षण अत्यधिक आवश्यक है ।

vii. धातु का बारम्बार प्रयोग:

खनिजों से बने उपकरण एवं अन्य वस्तुओं का उपयोग सीमित समय तक होता है किंतु उसमें प्रयुक्त धातु को पुन: उपयोग में लाया जा सकता है । धातु को बार-बार प्रयोग में लाकर उसका अधिकतम उपयोग संभव है । इसी प्रकार धातु छीलन (स्क्रेप) का भी समुचित उपयोग आवश्यक है जिससे धातु उपयोग में वृद्धि हो सके और अतिरिक्त धातु की आवश्यकता भी न हो ।

viii. गहराई तक खनन:

सामान्यतया खनिजों को ऊपरी सतह या सीमित गहराई तक खोद कर छोड़ दिया जाता है, क्योंकि जैसे-जैसे गहराई में वृद्धि होती है खर्च अधिक आता है, उच्च तकनीक की आवश्यकता होती है और जोखिम भी अधिक होता है ।

किंतु यह प्रवृत्ति खनिजों के उपयोग एवं संरक्षण के लिए हानिकारक है, क्योंकि बचा हुआ खनिज वहाँ अनुपयोगी रह जाता है और उसे पुन: प्राप्त करने में अधिक खर्च आता है । अत: जहाँ भी खनिज खनन किया जाये, जहाँ तक संभव हो, उसे गहराई तक खनन कर अधिक से अधिक धातु प्राप्त करना चाहिये ।

ix. उचित प्रबंधन:

खनिज संरक्षण हेतु उचित खनिज प्रबंधन अत्यधिक आवश्यक है जिससे वर्तमान में खनिजों का उचित उपयोग और साथ में भविष्य के लिये भी उनका उपयोग सुनिश्चित हो सके ।

इसके लिये कतिपय बिंदु निम्नांकित हैं:

(i) खनिज संसाधनों के सर्वेक्षण की व्यवस्था,

(ii) खनिजों के उपयोग का निर्धारण प्राथमिकता के आधार पर,

(iii) खनिज क्षेत्रों का निर्धारण एवं अनियंत्रित खनिज खनन पर रोक,

(iv) उपलब्ध खनिजों का विवेकपूर्ण एवं वैज्ञानिक रीति से उपयोग,

(v) खनिजों के प्रतिस्थापित पदार्थों की खोज,

(vi) खनन में आधुनिक विधियों का उपयोग,

(vii) सामरिक एवं अल्प मात्रा में उपलब्ध खनिजों के संरक्षण की उपयुक्त व्यवस्था,

(viii) खनिजों का उपयुक्त वर्गीकरण,

(ix) व्यापार हेतु खनिजों के खनन पर नियंत्रण,

(x) खनिजों के सुरक्षित भण्डार एवं उपयोग को दृष्टिगत रखते हुए दीर्घकालीन योजना का निर्माण आदि ।

6. ऊर्जा संसाधनों का संरक्षण (Conservation of Power Resources):

शक्ति के वर्तमान संसाधनों में कोयला, खनिज तेल, जल विद्युत एवं अणु शक्ति का प्रचलन है, जिन पर वर्तमान सभ्यता का विकास निर्भर है । परिवहन के विभिन्न साधनों से लेकर उद्योगों को परिचालित करने तक तथा घरेलू उपयोग से अंतरिक्ष उड़ान तक के लिये शक्ति की आवश्यकता होती है ।

ऊर्जा के प्रयोग में इतनी अधिक वृद्धि हो गई है कि उसके अभाव में आधुनिक जीवन की कल्पना भी संभव नहीं है । ऊर्जा उपयोग में वृद्धि के फलस्वरूप उसके संरक्षण की समस्या गंभीर होती जा रही है क्योंकि ऊर्जा के स्रोत समाप्त होने वाले होते हैं विशेष कर कोयला एवं पेट्रोलियम पर यह अधिक सत्य है ।

जल विद्युत का संबंध जल प्रवाह से है अत: वहाँ यह समस्या इस रूप में नहीं है । इसी प्रकार अणु शक्ति का स्रोत यूरेनियम, थोरियत आदि अणु शक्ति प्रदायक धातुएँ हैं जो अन्य खनिजों के समान समाप्त हो सकती हैं । वास्तविक ऊर्जा संरक्षण की समस्या कोयला एवं खनिज तेल की है, जिनका तीव्र गति से उपयोग चिंता का विषय है ।

कोयला एवं पेट्रोलियम दोनों ही अनवीनीकरण वाले खनिज हैं जिनका अधिकतम प्रयोग उन्हें समाप्त कर सकता है । अन्य खनिजों के संरक्षण की उपर्युक्त वर्णित विधियों से इनका भी संरक्षण किया जा सकता है । उनके अतिरिक्त कुछ विशेष उपाय इनके संरक्षण हेतु आवश्यक हैं ।

जो निम्नलिखित हैं:

कोयला संरक्षण के विशेष उपाय:

i. कोयला साफ करने के कारखानों की स्थापना:

खदानों से निकला कोयला अशुद्ध होता है । इसके उचित उपयोग हेतु आवश्यक है कि उसे साफ करने वाले कारखाने खानों के निकट ही स्थापित किए जायें । इसके द्वारा कोयला संरक्षण में सहायता मिलती है । भारत में दूसरी योजना में चार केन्द्रीय कोयला धुलाई कारखानों की स्थापना की गई तथा एक अन्य 64 लाख टन धुलाई की क्षमता वाला कारखाना दुर्गापुरा इस्पात हेतु स्थापित किया गया । इसी प्रकार तीन अन्य कोयला धुलाई संयंत्र तीसरी योजना में खोले गये । इस प्रकार संयंत्रों की स्थापना सभी प्रमुख कोयला क्षेत्रों में आवश्यक है ।

ii. कोयला खनन हेतु आधुनिक मशीनों का प्रयोग:

यदि कोयला खनन में आधुनिक, अच्छे उपयुक्त उपकरणों का प्रयोग किया जाए तो खनन के समय होने वाली क्षति को न्यूनतम किया जा सकता है । आधुनिक मशीनों का एक और लाभ यह है कि इनसे अधिक गहराई तक कोयला निकाला जा सकता है, साथ में दुर्घटना का भय कम रहता है, कोयला नष्ट होने से बच जाता है तथा उत्तम प्रकार का कोयला उपलब्ध होता है ।

विकसित तकनीक के प्रयोग द्वारा उन खानों से भी कोयला उपलब्ध हो सकता है जिन्हें तकनीक के अभाव में बंद कर दिया जाता है । कोयला खदान में वातीकरण विधि से जो कोयला अधिक गहराई तक स्थित है उसे निकाला जाता है ।

कोयला खानों में विद्युत तरंगों को प्रवाहित कर कोयला गैसीय अवस्था में परिवर्तित कर दिया जाता है । जब वह गैस ऊपर आती है तो यंत्रों द्वारा उसे पिंडों में बदल दिया जाता है । यह संरक्षण की सर्वोत्तम विधि है ।

iii. गौण उत्पादनों में कोयले का प्रयोग:

कोयले के आसवन द्वारा अनेक कार्बनिक गौण पदार्थ प्राप्त किये जाते हैं जिनका समुचित उपयोग होना चाहिये ।

कोयले के गौण उत्पादनों के पाँच समूह हैं:

(a) कोलतार एवं उससे प्राप्त अन्य वस्तुएं,

(b) अमोनिया सल्फेट और तरल अमोनिया,

(c) गैस,

(d) हल्का तेल व अन्य वस्तुएँ, जैसे- मैला तेल, वेनजोल, मोटर वेनजोल, टुलोन, जैलोल आदि ।

(e) विविध वस्तुएँ गंधक आदि ।

उपर्युक्त वस्तुओं के उत्पादन द्वारा कोयले से अधिक लाभ प्राप्त किया जा सकता है ।

कोयले की ईंटें:

कोयले की ईंट बना कर उसका उचित उपयोग संभव है । इस प्रकार की ईंटें घटिया कोयले तथा कोयले के चूरे से बनाई जा सकती हैं । जर्मनी, फ्रांस, बेल्जियम, संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका पर्याप्त प्रचलन है । इसके अतिरिक्त न्यून मोटाई वाले स्तरों पर कोयले का खनन, कोयले का उचित प्रयोग, अंतर्राष्ट्रीय बाजार में क्रय-विक्रय का उचित प्रबंध, कोयले से सस्ती विद्युत का उत्पादन करना आदि कदम कोयला संरक्षण में सहायक हो सकते हैं ।

कोयला अनुसंधान में निरंतर प्रगति हो रही है । नियोजित ढंग से कोयले का उत्पादन, नवीन क्षेत्रों में कोयले के स्रोत का पता लगाना आदि कार्य कोयला संरक्षण की दिशा में सहायक होंगे ।

7. खनिज तेल (पेट्रोलियम) का संरक्षण [Conservation of Mineral Oil (Petroleum)]:

आज संरक्षण की सर्वाधिक आवश्यकता खनिज तेल के संरक्षण की है क्योंकि परिवहन क्रांति के पश्चात् पेट्रोलियम का उपयोग इतना अधिक होने लगा है कि आज सभी देश इस बात से चिंतित हैं कि किस प्रकार इस ऊर्जा के स्रोत को अधिक समय तक चलाया जा सके ।

खनिज तेल विश्व में सीमित स्थानों पर उपलब्ध है जिसकी उत्पत्ति पृथ्वी की आंतरिक परतों के मध्य दबे जीवावशेषों से होती है । यह एक ऐसा पदार्थ है जिसे निकालने से समाप्त हो जाता है और पुन: निर्माण संभव नहीं ।

पेट्रोलियम का उपयोग विभिन्न प्रकार के वाहनों, इंजनों को चलाने में तो होता ही है साथ में इसकी अनेक गौण उपजें, जैसे- मिट्टी का तेल, डीजल, बेन्जीन, ग्रीज आदि उत्पादन भी महत्वपूर्ण हैं । इसी पर अनेक पैट्रो-रसायन उद्योग जैसे- उर्वरक, कीटनाशक दवायें, प्लास्टिक, कृत्रिम रबर, रंजन पदार्थ, क्रीम, नाइलोन आदि निर्भर हैं ।

खनिज तेल के साथ मिलने वाली गैस ईंधन का प्रधान स्रोत हैं । तात्पर्य यह है कि आधुनिक सभ्यता में खनिज तेल का महत्व इतना अधिक हो गया है कि इसके समाप्त होने की कल्पना ही भयावह लगती है । यही कारण है कि पेट्रोलियम संरक्षण के प्रति आज विश्व के देश सचेष्ट हैं ।

ADVERTISEMENTS:

खनिज तेल संरक्षण हेतु निम्न कदम उठाना आवश्यक रहेगा:

(i) पेट्रोलियम पदार्थों की खपत को कम करना,

(ii) इस प्रकार के इंजनों का विकास करना जिनसे पेट्रोल, डीजल की खपत न्यूनतम हो,

(iii) खनिज तेल के नये स्रोतों हेतु सर्वेक्षण करना,

(iv) सागरीय क्षेत्रों में जहाँ वर्तमान में कम तेल उपलब्ध हो रहा है उसके उत्पादन में वृद्धि करना,

(v) वर्तमान खनिज तेल के भण्डारों का सही अनुमान लगा कर उत्पादन नियंत्रित करना,

(vi) तेल निकालने एवं तेल शोधन में नवीनतम तकनीकों का प्रयोग,

(vii) पैट्रो-रसायन के क्षेत्र में वर्तमान में अत्यधिक अनुसंधान हो रहे हैं, इसे और अधिक करना,

(viii) अनुत्पादक कार्यों में पेट्रोलियम की खपत को कम करना । एक ऐसा ही क्षेत्र सेना का है । विश्व में सैनिक कार्यों में हो रहे पेट्रोलियम को यदि कम कर दिया जाये तो पर्याप्त बचत हो सकती है ।

ADVERTISEMENTS:

(ix) अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर खनिज तेल की खपत में कमी करना,

(x) ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों के विकास द्वारा पेट्रोलियम का प्रयोग सीमित क्षेत्रों में करना आदि ।

कोयला तथा पेट्रोलियम के अतिरिक्त जल शक्ति एवं परमाणु शक्ति का प्रयोग वर्तमान में पर्याप्त होने लगा है । इसी के साथ गैर परंपरागत ऊर्जा स्रोतों का विकास भी आवश्यक है जैसे सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, ज्वार ऊर्जा आदि । यदि इनका पर्याप्त विकास हो सके तो नि:संदेह ऊर्जा की समस्या एक सीमा तक हल हो जायेगी । उपर्युक्त संपूर्ण विवरण से स्पष्ट है कि प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण वर्तमान विश्व की प्रमुख आवश्यकता है ।

इस उत्तरदायित्व को विश्व संगठित प्रयास द्वारा ही निभा सकता है । विकासशील देशों में जहाँ संसाधन विकास की आवश्यकता है वहीं यह भी ध्यान रखना आवश्यक है कि उनका शोषण न हो, विशेषकर विकसित देशों द्वारा ।

ज्ञान-विज्ञान और तकनीकी विकास के माध्यम से संसाधनों का अधिकतम उपयोग किया जा सकता है किंतु साथ में यह भी ध्यान रखना है कि ये संसाधन मात्र वर्तमान हेतु ही नहीं है अपितु भविष्य में भी इनकी आवश्यकता होगी । अत: संरक्षण के प्रति हमें सदैव सचेष्ट होना आवश्यक है । संसाधनों के उचित उपयोग द्वारा हम वर्तमान के साथ-साथ भविष्य को भी सुंदर और सुखद बना सकते हैं ।

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