पूंजीवाद से पहले लोकतंत्र की दुर्गति पर निबंध | Essay on Misery of Democracy Before Capitalism in Hindi!

वर्तमान सरकार यह अब तक की सबसे कमजोर सरकारों में एक है और कई लोग दृढ़ एवं निर्णयात्मक नेतृत्व की कामना कर रहे हैं । प्रसिद्ध सुधारकों के नेतृत्व वाली इस सरकार ने लगभग कोई नया सुधार लागू नहीं किया है जबकि वर्तमान समय में इसे किसी सहयोगी दल का दबाव भी नहीं झेलना पड़ रहा है ।

5 साल का कार्यकाल पूरा करके यह सरकार दोबारा सत्ता में भी आ गई है । जब से यह सरकार सत्ता में आई है, तब से सहयोगी दलों के व्यवहार को लेकर मध्यम वर्ग में संदेह है । गठबंधन प्रणाली में बहुत बड़ी गड़बड़ यह है कि अल्पमत वाला एक छोटा मगर वाचाल वर्ग हमारे राष्ट्रीय हित को बंधक बनाकर रख सकता है ।

हमारी हताशा की जड इतिहास के एक अदद हादसे में निहित है कि भारत ने पहले लोकतंत्र का वरण किया और बाद में पूँजीवाद का । वह पूर्ण लोकतंत्र तो 1950 में ही बन गया लेकिन बाजार की ताकतों को खुली छूट उसने 1991 में जाकर दी । शेष विश्व में यह इससे ठीक उलटा हुआ । वहाँ पहले पूँजीवाद आया, फिर लोकतंत्र अर्थात पहले समृद्धि का निर्माण किया गया और फिर इस बात पर बहस छिड़ी कि इस समृद्धि का वितरण कैसे किया जाएगा ।

इस ऐतिहासिक हादसे का मतलब यह है कि भारत का भविष्य अकेले पूँजीवाद की देन नहीं होगा । वह जाति, धर्म तथा गाँव की रूढ़िवादी ताकतें देश के बौद्धिक जीवन पर 60 साल से हावी वामपंथी एवं समाजवादी ताकतों और वैश्विक पूँजीवाद की नई ताकतों के बीच रोजाना के संवाद से उभरकर सामने आयेगा ।

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लोकतंत्र की इन लाख बहसों, हितों की बहुलता और हमारे लोगों के कलहप्रिय व्यवहार को देखते हुए इस आर्थिक सुधार की रप्‌तार धीमी ही रहेगी । इसका मतलब यह हुआ कि भारत चीन या एशियाई देशों की रफ्तार से विकास नहीं करेगा और न ही किसी तरह शीघ्रता से गरीबी व अशिक्षा को दूर कर पाएगा ।

अधिकांश देशों में आधुनिक लोकतंत्र का प्रवेश पूँजीवाद के बाद ही हुआ । ये भी देश औद्योगिक क्रांति से गुजर चुके थे, जिसने संपत्रता को आधार बना दिया था । इसके बाद ही यूरोप में उन्नीसवीं सदी में क्रमिक रूप से मताधिकार दिया जाने लगा । इसके बाद बड़े राजनीतिक दलों का विकास हुआ । तत्पश्चात् लोकतंत्र ने पूँजीवादी संस्थाओं को प्रभावित करना शुरू किया ।

वामपंथी दलों और मजदूर यूनियनों जो धन, संपत्ति का पुनर्वितरण करने व राजसहायताएँ देने की कोशिश भी की और इससे पश्चिमी देशों में भी उत्पादकता वृद्धि में कमी आई । इस प्रक्रिया की परिणति द्वितीय विश्व युद्ध के बाद पश्चिमी विश्व में ‘जन-कल्याणकारी राज्य’ के रूप में हुई, जिसमें आम लोगों को बेरोजगारी बीमा तथा स्वास्थ्य सेवाओं का लाभ मिला ।

इसके विपरीत भारत में हमें औद्योगिक क्रांति लाने का मौका मिलता, इसके पहले ही लोकतांत्रिक संस्थाओं की स्थापना कर दी गई । रोटी बनाने से पहले ही हम इस बहस में उलझ गए कि रोटियों का वितरण कैसे किया जाए ।

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इसके पहले कि हम भोजन, उर्वरक, बिजली आदि पर सब्सिडियाँ देने में समर्थ बनते, हम इन पर सब्सिडियाँ देने लग गए । हमारे उद्योग उत्पादन में कुशल बन पाते, इससे पहले ही हमने उन पर विस्तृत नियंत्रण बैठा दिए । ‘कल्याण’ उत्पन्न करने वाले रोजगार सृजित होने से पहले ही हम लोगों के कल्याण करने के विषय में सोचने लगे ।

नतीजा रहा उद्यमशीलता का गला घोंटना, धीमा विकास तथा खोए हुए अवसर । लाइसेंस राज ने एक विशाल काली अर्थव्यवस्था का निर्माण किया । हमारे पास गरीबों तक सब्सिडियाँ का लाभ पहुँचाने के लिए संस्थागत ढाँचा था ही नहीं । यह थी समाजवाद की असफलता । जब तक हम सार्वजनिक रूप से इस असफलता को स्वीकार नही करते, तब तक हम एक परिपक्व राष्ट्र नहीं बन सकते । हम चोरी छुपे आर्थिक विकास लाते रहेंगे और एक झूठ को जीतते रहेंगे ।

यह है पूँजीवाद से पहले लोकतंत्र लाने की कीमत, बल्कि बहुत अधिक लोकतंत्र और अपर्याप्त पूँजीवाद लाने की कीमत, जो हम चुका रहे है । इस समाजवादी मॉडल ने अतत: हमें 1991 में दिवालिएपन के कगार पर पहुंचने पर विवश किया । यह उस समय हुआ जब पूर्वी यूरोप में साम्यवाद का पतन हुआ और सोवियत संघ का अवसान हो गया । तब जाकर हम समझ सके कि किसी राष्ट्र को धनसंपत्ति का वितरण करने से पहले उसका निर्माण कर लेना चाहिए ।

आर्थिक सुधारों की बदौलत अंतत: हम सपत्रता का निर्माण कर रहे हैं । भारतीय उद्यमशीलता पर लगी बेड़ियाँ खोल दी गई है और हमारे निजी क्षेत्र ने भारत को विश्व की दूसरी सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था बना दिया है ।

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लेकिन राजनीतिज्ञों ने इससे कोई सबक नही लिया है चूँकि भारत में गरीब बहुत बड़ी संख्या में हैं । अत: राज्य सरकारों को दिवालिया बना देने वाले वोट करने का प्रलोभन हमेशा बना रहता है । यदि कोई राजनेता दो रुपए किलो में चावल उपलब्ध कराने का वादा करे, जबकि बाजार में यह पाँच रुपए किलो हो, तो वह चुनाव में किया जाता है । एनटी रामाराव ने 1994 में आंध्र प्रदेश में यही किया । वे चुनाव जीत गए मुख्यमंत्री बने और राज्य को दिवालिया बना बैठे ।

जाव के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल ने 1997 में किसानों को मुफ्त बिजली और पानी दिया । उन्होंने अपना चुनावी वादा निभाया लेकिन बारह महीनों में पंजाब की अर्थव्यवस्था चौपट हो गई और सरकारी सेवकों को वेतन देने के लिए भी पैसे नहीं रह गए । जो सबक हम सब सीख चुके हैं, वह राजनेता नहीं सीख पाए हैं । वे मतदाताओं को मुफ्त का माल तथा सेवाएँ बाँटने की आपस में होड़ लगाते हैं । तब फिर स्कूल व प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र स्थापित करने के लिए पैसा कहाँ से आएगा ।

इन सब बातों को देखते हुए भारत कभी आर्थिक शेर नहीं बन पाएगा । वह तो हाथी है, लेकिन यह हाथी 8 प्रतिशत की सम्मानजनक दर से आगे बढ़ने लगा है । वह कभी भी गति नहीं पकड़ पाएगा, लेकिन दूरी तय अवश्य करेगा ।

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पूँजीवाद और लोकतंत्र की उलटी गंगा बहने के ऐतिहासिक हादसे को देखते हुए लगता है कि शायद चीन के मुकाबले भारत की आर्थिक स्थिति शांतिपूर्वक एवं परस्पर सहमतिपूर्वक भविष्य में पदार्पण करेगा । वह बिना तैयारी के पूँजीवादी समाज बनाने के घातक दुष्प्रभावों से भी बच जाएगा, जो कि रूस भुगत रहा है ।

धीमी गति के विकास के बावजूद इस बात की संभावना अधिक है कि ग्लोबल संस्कृति के आक्रमण के बीच भारत अपनी जीवनशैली एवं विविधता, सहिष्णुता तथा आध्यात्मिकता को बचाए रखने में सफल होगा । यदि ऐसा होता है तो इसे शायद एक बुद्धिमान हाथी कहा जा सकता है ।

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