आर्थिक सुधार में गरीबों की जगह कहां है? (निबंध) | Essay on Place of the Poor in the Economic Recovery in Hindi!

नोबेल पुरस्कार से सम्मानित अनिवासी भारतीय अर्थशास्त्री डॉ. अमर्त्य सेन ने कहा है कि देश को अब जनता की जरूरतों पर ध्यान देना चाहिए । यह उन्होंने इसलिए भी कहा कि अब देश का उत्पादन आठ प्रतिशत की दर से बढ़ रहा है ।

परंतु केंद्र सरकार के सामने असंगठित क्षेत्र की समस्याओं के बारे में गठित आयोग ने जो रिपोर्ट प्रधानमंत्री को सौंपी है, उसके अनुसार 77 प्रतिशत (लगभग 80 करोड़) लोगों की आय केवल 20 रुपये प्रतिदिन है, जबकि सरकार ने कम-से-कम 60 रुपये प्रतिदिन आय निर्धारित की है । सवाल केवल यह है कि फिर आठ प्रतिशत बढ़ा हुआ उत्पादन जाता कहां है?

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यह जान पाना असंभव नहीं है । उत्पादन ऐसी वस्तुओं का ही बढ़ रहा है, जिसका आम आदमी से कुछ लेना-देना नहीं है । यदि हजार रुपये मीटर के कपड़े, लाखों- करोड़ों के वाहन, या ऐसी महंगी वस्तुओं का उत्पादन 20 प्रतिशत भी बढ़े, तो भी यह केवल 10-12 प्रतिशत साधारण या उच्च मध्य वर्ग के लिए बढ़ता है । यदि 77 प्रतिशत लोगों की आय 20 रुपये प्रतिदिन है, तो इसका स्पष्ट सा अर्थ यही है कि उत्पादन 8 से 10 से और फिर 15 प्रतिशत बढ़ने से भी उन्हें कुछ लाभ नहीं होगा ।

ये लोग किसान या असंगठित क्षेत्र के मजदूर हैं । उनमें यदि उद्योगों में काम करने की योग्यता नहीं है, तो उनकी आय कैसे बढ़ पायेगी? कृषि उत्पादन तो पंजाब के साथ-साथ पूरे देश में घट रहा है । डीजल, कीटनाशक और खेती से संबंधित औजार आदि के मूल्य में बढ़ोतरी होती है, तो अनाज की कीमत भी बढ़ जाती है, परतु यह लागत मूल्य से कम बढ़ती है । खेती का मशीनीकरण होने से खेत-मजदूरों की जरूरत बहुत कम हो चुकी है । इसी कारण खेत मजदूर की आय कम हो रही है । बल्कि अधिकांश खेत मजदूर तो बेकार हो चुके हैं ।

अमर्त्य सेन जैसे अर्थशास्त्री देश की बढ रही आबादी की समस्या को शायद देख नहीं पाते । यदि उन्हें मालूम हो कि 77 प्रतिशत लोगों की आय उत्पादन के अनुसार क्यों नहीं बढ़ रही, तभी वह जान पायेंगे कि केवल उत्पादन बढ़ने से किसान तथा साधारण मजदूर की स्थिति में सुधार नहीं हो पाता ।

उत्पादन में खेती और उद्योग के अलावा और कई क्षेत्र भी शामिल किये जाते हैं, परंतु किसी क्षेत्र के उत्पादन का कितना हिस्सा इन 77 प्रतिशत लोगों के पास कैसे पहुंच पायेगा, इसका ध्यान किसी को नहीं है । यदि आम लोगों की आय को आधार बनाकर उत्पादन को का जाये, तो बढ़ने की बजाय उनकी आय घटेगी ।

यह बहुत जरूरी है कि बढ़ते उत्पादन का 77 प्रतिशत भाग उन लोगों को मिले, जिनकी आय 20 रुपये प्रतिदिन है । लेकिन यह सभव कैसे हो? न यह बात अमर्त्य सेन ने सोची होगी, न हमारे अर्थशास्त्री डॉ. मनमोहन सिंह इस पर विचार करने के लिए तैयार हैं । ऐसी दशा में 77 प्रतिशत लोगों में बेचैनी बढ़ना स्वाभाविक है । यही बेचैनी जब सांप्रदायिक, धार्मिक जुनून या अंधविश्वासों के रूप में, किन्हीं वर्गो की हिंसा के रूप में भड़कती है, तो पुलिस या अफसरशाही के हाथ-पांव फूल जाते हैं ।

हमारी पंचवर्षीय योजनाओं में उत्पादन की बढ़ोतरी किस रूप में, कैसे की जाती है, इसका ज्ञान शायद एक-दो प्रतिशत लोगों को भी नहीं है । हम केवल यही देख पाते हैं कि 77 प्रतिशत से कहीं अधिक, आम लोगों के जीवन मे कोई सुधार नहीं हो पा रहा । किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं ।

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अशिक्षित मजदूर छोटे-छोटे कस्बों के लेबर-चौक में सैकडों की संख्या में सुबह से दोपहर तक छोटे-मोटे काम के इंतजार में खड़े रहते हैं । उनमें से 90 प्रतिशत लोग सूखी, बासी रोटियां खाकर दोपहर तक पुराने जर्जर साइकिलों पर या पैदल कच्चे, ढह रहे घरों में लौट जाते हैं । ये असंगठित मजदूर संगठित मजदूरों की तरह किसके विरोध में नारेबाजी या चक्का जाम करें किस तरह हल्ला-गुल्ला करें, कुछ भी समझ नहीं पाते ।

जैसे-जैसे इन लोगों की मुश्किलें बढ़ेंगी, उसी अनुपात में बेचैनी भी बढेगी । फिर ये लोग किसी डेरे के बाबा या साधु-संत के पास जायेंगे । ये ‘बाबा’ इन्हें ‘भक्ति’ और ‘मोक्ष’ की आध्यात्मिक शिक्षा देंगे, परंतु इन लोगों को काम चाहिए, मोक्ष नहीं । पेट की आग केवल भक्ति और मोक्ष के मार्ग से तो नहीं बुझ पाती, वह अन्न से ही बुझेगी ।

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ये बेकार लोग एक नहीं, अनेक बाबाओं की शरण में जाते हैं, परंतु कहीं काम नहीं मिलता, केवल ‘प्रवचन’ मिलते हैं । अन्न उस पैसे से ही खरीदा जायेगा, जो काम करने से मिलेगा । यदि काम ही नहीं मिलेगा, तो पेट की आग भला कैसे बुझेगी?

यह स्थिति सचमुच बहुत चिंताजनक है कि हमारे राजनीतिक दल सत्ता हथियाने के लिए पिछले 64 साल से धर्म, जातिवाद, साप्रदायिकता, प्रांतवाद तथा ऐसी ही अनेक और भावनाओं को कैश करते आए हैं । अब वेएक तरह के ‘डेरावाद’ को भी अपना ‘वोट बैंक’ बनाने में लगे हैं । जैसे जैसे बेरोजगारी, गरीबी, अशिक्षा, अंधविश्वास बढ़ते जा रहे हैं, उसी अनुपात से ये राजनीतिक दल अपनी रणनीतियां भी बदल रहे हैं ।

यह वही स्थिति है कि बिल्ली को देख कबूतर औखें मूंद ले और यह समझे कि बिल्ली तो भाग गयी है । हमारा सत्ताधारी वर्ग क्या उसी समय के इंतजार में है कि बिल्ली जब कबूतर को दबोच ले, तभी वह सोचे कि अब इसे कैसे बचाया जाये?

समय जितनी तेजी से समस्याओं को बढ़ाता जा रहा है, हमारे नेता उतने ही निष्किय होते जा रहे हैं । जैसे-जैसे समस्याएं अधिक जटिल हो रही हैं, वैसे ही पूरी व्यवस्था चरमराने लगी है । केवल ‘आठ प्रतिशत’ उत्पादन बढ़ोत्तरी के कड़े या अमर्त्य सेन जैसे अर्थशास्त्रियों के मशविरों से कुछ नहीं होने वाला ।

आर्थिक मामलों में इतनी अच्छी स्थिति होने के बावजूद हमारे राजनेता यदि करोड़ों लोगों के ‘पेट की आग’ बुझाने के कारगर उपाय नहीं कर पाये, तो यह देश का दुर्भाग्य ही होगा । जटिल हो रही समस्याओं के परिणाम बहुत भयंकर हो सकते हैं । बेहतर है कि अब भी राजनीतिक दल आखें खोलकर देखें और जो भी संभव है, वह करने के लिए कारगर प्रयत्न करें ।

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