Here is an essay on Indian education especially written for school and college students in Hindi language.

भारतीय संस्कृति में वैदिक काल को ज्ञान व विद्धता की दृष्टि से श्रेष्ट काल माना जाता है उस समय भारतवर्ष में कालिज, विश्वविद्यालय नहीं थे मारटर व प्रोफेसर भी नहीं थे बल्कि कालिज व विश्वविद्यालय के स्थान पर तो गुरूकुल व आश्रम हुआ करते थे मास्टर व प्रोफेसर के स्थान पर ऋषि, राजऋषि व महर्षि हुआ करते थे ।

छात्रावास भी नहीं थे छात्र गृह त्याग करके गुरू के आश्रम में शिक्षा ग्रहण करने के लिए जाया करते थे । छात्र गुरू की शरण में रहकर आश्रम का जीवन व्यतीत किया करते थे । गुरू की आज्ञा ही सर्वोपरि परमादेश हुआ करता था गुरू की आज्ञा से सभी छात्र भिक्षा मांगकर आश्रम में लाते थे उसके बाद गुरू माता छात्रों के लिए भोजन आदि का प्रबन्ध किया करती थी ।

भिक्षा मांगने के पीछे गुरू का तर्क था कि वे अपने छात्रों से भिक्षा मंगवाकर उनको अहंकार शून्य करते थे कोई छात्र राजकुमार हो या कोई गरीब सभी के लिए समान शिक्षा व्यवस्था थी तभी तो कृष्ण और गरीब सुदामा का दृष्टान्त इतिहास में मिलता है जिससे अमीरी-गरीबी के भेद को समाप्त किया जाता था एकलव्य की गुरु भक्ति का उदाहरण भी इतिहास में मिलता है भारतीय संस्कृति में गुरू को भगवान से भी ऊंचा दर्जा प्राप्त था तभी तो कबीर दास जी ने कहा था –

गुरू गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूँ पाँय ।

बलिहारी गुरू आपने गोविन्द दिये बताय । ।

इसी प्रकार गुरू को भगवान से भी श्रेष्ट माना जाता था । गुरू को ब्रह्मा, विष्णु, महेश के बराबर का दर्जा भारतीय संस्कृति में था जिसको-

गुरूर्ब्रह्मा गुरूर्विष्णु गुरूर्देवों महेश्वर: ।

गुरू साक्षात् परमब्रह्मा तस्मै श्री गुरुवै नम: ।।

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अर्थात ब्रह्मा विष्णु महेश तीनों देव गुरू की श्रद्धा में समाहित हैं यानि तीनों ही देवता गुरू के तुल्य हैं । गुरू सर्वोपरि है, परमरूप है ऐसा भारतीय संस्कृति में माना जाता था ।

कबीरदास जी ने गुरू की महिमा का वर्णन करते हुए कहा था कि गुरू ही तो होता है जो शिष्य को रास्ता दिखाता है उसे अज्ञान रूपी अन्धकार से ज्ञान रूपी प्रकाश की ओर ले जाता है ।

ऐसा कबीरदास जी ने कहा था:

कबिरा हरि के रूठते गुरू के शरने जाय ।

कह कबिरा गुरू रूठते हरि नहीं होत सहाय ।।

उस समय की शिक्षा का उद्देश्य मात्र ज्ञान प्राप्त करना था जो ऋषि, महर्षि अपने शिष्यों को ज्ञान देकर समाजहित व राष्ट्रहित का कार्य करते थे । शिक्षा का व्यवसायीकरण नहीं था शिक्षकों का उद्देश्य धन कमाना नहीं था शिक्षकों का उद्देश्य अपने शिष्यों को ज्ञान देकर विद्वान बनाना मात्र था जिस कारण दूसरे देशों से छात्र शिक्षा ग्रहण करने के लिए भारतवर्ष में आते थे । भारतवर्ष के ज्ञान की महत्ता विश्व में चारों ओर थी । तक्षशिला विश्वविद्यालय हो या नालंदा विश्वविद्यालय विश्व में अपनी उच्च गुणवत्तापरक शिक्षा के लिए विश्व प्रसिद्ध थे ।

परन्तु वक्त बीतने के साथ ही विश्व स्तर पर भारतीय शिक्षा ने अपनी पहचान को मिटा दिया जिसका अत्यधिक नुकसान भारतीय पीढी को उठाना पड़ रहा है जो वर्तमान समय में शिक्षा के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्रिटेन, आस्ट्रेलिया, रूस, कनाड़ा आदि देशों की ओर जाने को मजबूर हैं ।

भारत जो किसी समय विश्व गुरू था वर्तमान समय में अपनी शिक्षा गुणवत्ता के लिए तरस रहा है । भारत में आज शिक्षा का निजीकरण हो चुका है लेकिन शिक्षा के निजीकरण के साथ ही जो दूसरा कटु अनुभव देश के छात्रो को प्रत्येक स्तर की शिक्षा में मिल रहा है उसको भी नकारा जाना मुश्किल ही नहीं नामुंकिन सा प्रतीत होता है ।

शिक्षा के निजीकरण के साथ ही शिक्षा का बाजारीकरण भी छात्रों को उच्च गुणवत्तापरक शिक्षा देने में असफल है कुछ अपवादों को अगर छोड़ दिया जाये तो किसी भी स्तर की शिक्षा भारतवर्ष में गुणवत्तापरक नहीं है ।

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शिक्षा चाहे प्राथमिक स्तर की हो या माध्यमिक स्तर की, कालिज स्तर की शिक्षा हो या तकनीकी, व्यवसायिक शिक्षा हो या प्रबन्धन की, सभी गुणवत्ता विहीन है लेकिन फिर भी सरकारें दावा कर रही हैं योजना बना रही हैं आंकड़े प्रकाशित हो रहे हैं कि देश में शिक्षा का उत्तर पैंसठ प्रतिशत में हे । शिक्षा का बाजारीकरण के साथ ही शिक्षा की गुणवत्ता पर सरकारें नियंत्रण करने में असफल हैं ।

वर्तमान समय में भारतवर्ष में शिक्षा की स्थिति बद से बदतर है तभी तो प्रबन्धन की शिक्षा ग्रहण करने वाले छात्र जो प्रबन्धन के क्षेत्र में जाने चाहिए थे वे प्रबन्धन के क्षेत्र के अलावा अन्य क्षेत्र में जा रहे हैं यहाँ तक की पुलिस में कांस्टेबल और प्राथमिक विद्यालय में सहायक अध्यापक के पद पर कार्य करते देखा जा सकता है कि आखिर क्या कारण है जो भारतवर्ष में प्रबन्धन की शिक्षा अर्थात एम.बी.ए. किये छात्र प्रबन्धन के क्षेत्र में जाने के स्थान पर पुलिस में कांस्टेबल और प्राथमिक विद्यालय में सहायक अध्यापक के रूप में कार्य करते हुए खुश हैं या तो छात्र में योग्यता का अभाव है या शिक्षा गुणवत्ता में कमी, अन्यथा कोई भी छात्र अपनी उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद किसी अन्य क्षेत्र का चयन क्यों करता ? इस प्रश्न का उत्तर तो केवल छात्र दे सकते हैं या प्रबन्धन संस्थान जो कई लाख रूपये लेने के बाद छात्र को प्रबन्धन की डिग्री देते हैं लेकिन उस डिग्री का कितने छात्र सदुपयोग कर अपने क्षेत्र में आगे बढ़ पाते हैं ।

अर्थात बहुत कम अन्यथा तो कुछ असफल प्रबन्धन छात्रों को तो अपराध की दुनिया में कदम रखते देखा जा सकता है जो उच्च शिक्षा ग्रहण करते-करते ऊँचे माहौल में रहकर मंहगे कपड़े पहनने, लग्जरी होटलों में खाने, लग्जरी गाडियों में चलने के आदी हो जाने के उपरान्त अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अपराधी बन रहे हैं इसके लिए जिम्मेदार है ।

भारतीय शिक्षा व्यवस्था जो केवल डिग्री देकर बेरोजगार बनाती है न कि शिक्षा देकर कामयाब, आखिर त्रुटि कहा है या तो ऐसे छात्रों को अपने क्षेत्र का सम्पूर्ण ज्ञान नहीं मिल पाता जिस कारण ऐसे छात्रों को सफलता नहीं मिल पाती और वे असफलता वश अपराध की दुनिया में चाहे अनचाहे प्रवेश कर जाते हैं ।

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अलेक्जेण्डर पोप ने कहा था – ”अधूरा ज्ञान खतरनाक वस्तु है” इसलिए कोई भी छात्र जो किसी भी क्षेत्र से जुड़ा है उसको उपरोक्त शब्दों पर विशेष ध्यान देना चाहिए । मेरा उद्देश्य किसी क्षेत्र विशेष पर टिप्पणी कर उसको नीचा साबित करना या किसी अन्य क्षेत्र पर शब्दों की माला जप कर उसको अच्छा या अधिक हितप्रद सिद्ध करना नहीं है बल्कि मेरा उद्देश्य उस सच्चाई से सभी ऐसे नौजवानों को अवगत कराना है जो भूलवश या जानकारी के अभाव में या साथी के कहने पर उच्च शिक्षा के ऐसे कोसों में प्रवेश तो पा जाते हैं लेकिन कोर्स के उपरान्त सफलता पाना रेगिस्तान में कुंए खोदने जैसा कार्य हो जाता है इसलिए शिक्षा ग्रहण करने के दौरान प्रत्येक ऐसे छात्र को जो सफलता पाना चाहता है जिज्ञासू होकर सम्पूर्ण मन से अपनी शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए तभी सफलता मिलना सुनिश्चित हो पायेगा अन्यथा तो प्रबन्धन की शिक्षा ग्रहण करने के उपरान्त पुलिस कांस्टेबल और प्राथमिक अध्यापक से ही संतुष्टि करनी पड़ेगी ।

ऐसी ही स्थिति तकनीकी संस्थानों की भी है जो निजीकरण के बाद कुकरमुत्ते की तरह प्रत्येक छोटे-बड़े शहरों में राजमार्गों के किनारों पर उग आये हैं जो सौ प्रतिशत प्लेसमेन्ट का दावा प्रवेश के समय करते हैं लेकिन कोर्स समाप्त होने के उपरान्त एक दो कम्पनियों से साक्षात्कार करा कर अपना कर्त्तव्य पूरा कर लेते हैं ।

जिनकी वास्तविकता बिल्कुल भिन्न है अधिकतर तकनीकी संस्थानों में छात्रों की शिकायत होती है कि फैकल्टी योग्य नहीं है जो छात्रों को अच्छे से पढा सके तकनीकी संस्थानों का इसमें एक खेल ऐसा होता है जिसे ए.आई.सी.टी.ई. व सम्बद्ध विश्वविद्यालय भी नहीं पकड़ पाता या यूँ कहिये कि पकड़ना नहीं चाहते ।

यह कुछ इस तरह होता है कि जिस योग्य प्रवक्ता को संस्थान में पढाते दिखाया जाता है वह प्रवक्ता वास्तव में उस संस्थान में नहीं पढ़ाता बल्कि उसके शैक्षिक योग्यता प्रमाण पत्र ही मात्र संस्थान में होते हैं बल्कि अयोग्य प्रवक्ता जो तकनीकी छात्रों को पड़ाने के लिए स्वीकृत मानक योग्यता भी नहीं रखते हैं ऐसे प्रवक्ताओं के द्वारा तकनीकी संस्थान छात्रों के भविष्य को संवारते हैं ।

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जिसका परिणाम यह होता है कि बी.टेक जैसे कोर्स करने के उपरान्त छात्र कोचिंग सेन्टर, कॉल सेन्टर आदि में जॉब करते देखे जा सकते हैं । जबकि उनका वास्तविक क्षेत्र किसी कम्पनी में इंजीनियर के रूप में कार्य करना होना चाहिए था लेकिन दुर्भाग्य उन छात्रों का जिन्होने ऐसे संस्थानों से उक्त तकनीकी शिक्षा प्राप्त की जहां प्रवक्ता ही अयोग्य थे ।

तो इसमें छात्रों का क्या दोष, कुछ ऐसी स्थिति देश के निजी तकनीकी संस्थानों की है जहां इस प्रकार का गोरख धंधा चल रहा है और तकनीकी संस्थान छात्रों की जेबों पर हमला कर अपनी तिजोरियां भर रहे  हैं ।

उनको शिक्षा की गुणवत्ता से कोई वास्ता नहीं है उनको छात्रों से अवैध वसूली जैसे- छुट्‌टी करने पर फाइन, लेट आने पर फाइन, जल्दी जाने पर फाइन, यूनिफार्म में न आने पर फाइन, जो हजारों रूपयों में की जाती है इसके अलावा कैन्टीन, पुस्तकालय, लैपटॉप के नाम पर भी लाखों रूपये वसूल किये जाते हैं साथ ही ऐसे छात्र जो प्रवेश परीक्षा में सफल नहीं हो पाते उनको भी निर्धारित फीस से दो तीन गुना फीस वसूल कर तकनीकी और प्रबन्धन की कक्षाओं में प्रवेश दिया जाता है जिससे उच्च शिक्षा की गुणवत्ता भी प्रभावित होती है ।

कोई छात्र जो प्रवेश परीक्षा उत्तीर्ण करने की योग्यता नहीं रखता और पैसे देकर जिसे शिक्षित भाषा में डोनेशन नाम दिया जाता है । प्रवेश ले लेते हैं । उसके बाद स्थिति ऐसी उत्पन्न होती है कि वे छात्र उक्त तकनीकी कोर्सों को चार वर्ष के स्थान पर छः-छः वर्षो में पूरा करते हैं फिर तो ऐसे छात्रों से गुणवत्तापरक शिक्षा की अपेक्षा किया जाना ही बेईमानी होगी ।

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ऐसी ही स्थिति कुछ निजी डेन्टल कालिज, फार्मेसी कालिज, बायोटेक कालिज और मैडिकल तथा पैरामैडकिल कालेज की भी है जहां कालिज केवल अधिक लाभ कमाने के उद्देश्य में शिक्षा की गुणवत्ता से समझौता कर अयोग्य छात्र-छात्राओं को अपने यहां प्रवेश देकर इस देश में अयोग्य डाक्टर तैयार कर रहे हैं ।

वास्तविक स्थिति ब्यां करती है कि ऐसे छात्र जो बामुश्किल इन्टरमीडिएट परीक्षा उत्तीर्ण कर पाये हैं वे भी धन-बल के दम पर मैडिकल कालेजों में प्रवेश लेकर डाक्टर बन रहे हैं ऐसे छात्र जो प्रवेश परीक्षा में भी उत्तम प्रदर्शन नहीं कर पाते हैं लेकिन पैंतीस से चालीस लाख रूपये में डाक्टरी की पढ़ाई पूरी कर रहे हैं तो क्या ऐसे डाक्टरों से आशा की जा सकती है कि वे लोगों के  स्वस्थ्य का सही इलाज कर पायेंगे ? अर्थात कदापि नहीं ।

क्योंकि पैसे के बल पर डाक्टरी में प्रवेश लेने मात्र से आप डाक्टर नहीं बन सकते और ये भी आवश्यक नहीं होता है कि आपने जैसे-तैसे डाक्टरी की पढाई पांच वर्ष के स्थान पर आठ वर्ष में पूरी कर भी ली तो क्या आप मरीजों को स्वस्थ कर पायेंगे क्योंकि डिग्री धारी सभी एम.बी.बी.एस., तो मैडिकल विज्ञान में पारंगत होते नहीं इसलिए बाजारीकरण के दौर में गुणवत्ता की अपेक्षा किया जाना बेईमानी होगा और ”चमकने वाली प्रत्येक वस्तु सोना नहीं होती” डिग्री लेने मात्र से कोई डाक्टर नहीं बन जाता ।

शिक्षा के निजीकरण के साथ ही शुरू हुए बाजारीकरण ने गुणवत्ता को काफी पीछे छोड़ दिया है । जो वर्तमान समय में मात्र डिग्री देने का कार्य कर रहें हैं । जब मेडिकल काउंसिल ऑफ इण्डिया के चैयरमेन केतन देसाई पर सी.बी.आई. का शिकंजा करना तो मेडिकल व डेन्टल कालिजों को मान्यता देने की सच्चाई देश के सामने उजागर हो गई जब करोडो रूपये की चल-अचल सम्पत्ति के मालिक केतन देसाई पर मेडिकल कालिज व डेन्टल कालिजों में निर्धारित मानकों की अनदेखी कर मान्यता देने के आरोप लगाकर गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया जिससे अन्दाजा लगाया जा सकता है कि इस देश की मेडिकल शिक्षा भी कितना गुणवत्तापरक है ।

जब किसी कालिज की शुरूआत ही निर्धारित मानकों की अनदेखी से हुई हो तो क्या हम अपेक्षा कर सकते हैं कि उस कालिज में पढ़ने वाले छात्र-छात्राऐं इस देश को उच्च गुणवत्तापरक चिकित्सा लाभ दे सकते हैं अर्थात कदापि नहीं ।

क्योंकि शिक्षा के निजीकरण के साथ ही शुरू हुए बाजारीकरण ने इस देश से गुणवत्तापरक शिक्षा को तो अलविदा कह ही दिया है । एक वक्त था जब भारतीय आयुर्वेद को दुनिया मानती थी लेकिन वर्तमान समय में एलोपैथिक पद्धति जो सौ प्रतिशत पैरामेडिकल पर आधारित है वह भी अपना वर्चस्व स्थापित करने में नाकाम है क्योंकि पैरामेडिकल की स्थिति भी किसी से छुपी नहीं है जहां कालिज तो हैं प्रयोगशाला भी है लेकिन योग्य प्रशिक्षकों का अभाव है जो इस देश को गुणवत्तापरक पैरामेडिकल प्रैक्टिशनर उपलबध करा सके ।

ऐसी ही स्थिति कुछ फार्मेसी कालिजों की भी है । सरकार द्वारा शिक्षा के निजीकरण के साथ ही ऐसा कुछ नहीं किया गया जो निजी कालिजों को योग्य अध्यापक या प्रवक्ता को रखने पर निजी कालिज मजबूर हों । आज निजी कालिजों में केवल कागजों में ही योग्य अध्यापक दर्ज हैं जबकि जमीनी हकीकत उससे विपरीत ब्यां करती है कि अयोग्य और अनिर्धारित योग्यता वाले अध्यापकों द्वारा कोर्स की पढ़ाई कराई जाती है ।

कुछ को अगर छोड़ दिया जाये तो बाकी लॉ कालिजों की स्थिति भी देशभर में किसी से छुपी नहीं हैं कहने को तो उपस्थिति प्रतिशत आवश्यक और अनिवार्य हैं लेकिन वास्तविकता इससे इतर है जो  लॉं कालिज सरकार द्वारा अनुदानित हैं उनमें छात्रों की उपस्थिति प्रतिशत बामुश्किल पन्द्रह से बीस प्रतिशत होती है लेकिन इसके बावजूद भी ऐसे व्यक्ति विधि स्नातक हो जाते हैं जो केवल प्रवेशोपरान्त परीक्षा देने ही कालिज आते हैं जबकि विधि स्नातक पाठयक्रम एक संस्थागत पाठयक्रम है ।

जिसमें प्रत्येक छात्र की साठ प्रतिशत उपस्थिति अनिवार्य होती है लेकिन ऐसे कामकाजी लोग भी विधि स्नातक हो जाते हैं जिनको कानून के विषय में कुछ भी जानकारी विधि स्नातक होने के पश्चात भी नहीं हो पाती और वो केवल परीक्षा देकर ही व्यक्तिगत छात्र की तरह विधि स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण कर जाते हैं और उसके उपरान्त बार काउंसिल तक में रजिस्टर्ड होकर अधिवक्ता के रूप में कार्य करते हैं जिससे सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि इस देश में किस तरह की गुणवत्तापरक शिक्षा ग्रहण करके योग्य अधिवक्ता देश की सेवा कर रहे हैं ।

माननीय सर्वोच्च न्यायालय, माननीय उच्च न्यायालय और जिला न्यायालय में कुछ अपवादित अधिवक्ताओं को अगर छोड़ दिया जाये तो ऐसे अधिवक्ताओं की संख्या भी आपको अधिकता में मिल जायेगी जो वकालत के लिए प्रसिद्ध न होकर जुगाड़ के लिए प्रसिद्ध होते हैं जिला न्यायालय में प्रेक्टिस करने वाले अधिकतर अधिवक्ता कुछ को छोड़कर जुगाड़ से काम चलाते हैं सरकारी वकील के नाम पर क्लांईट से फीस वसूल करते हैं उनके अन्दर इतना आत्म विश्वास तक नहीं होता कि वे अपने क्लाईंट से अपने लिए निर्धारित फीस मांग सकें ये वे ही अधिवक्ता महोदय होते हैं जिनके पास कानून की पुस्तकें भी वामुश्किल से होती है ।

लेकिन इसके बावजूद भी वे अधिवक्ता होते हैं ये ही वे अधिवक्ता होते हैं जो झूठ बोलकर पैसा कमाते हैं और समस्त वकील बिरादरी को बदनाम करते हैं कि वकालत का व्यवसाय झूठ पर चलता है जो सरासर गलत है ।

ऐसे ही लोग वकालत के व्यवसाय को बदनाम कराते हैं जिनकों कानून का क, ख मालूम नहीं होता और कुंजी पढ़कर दस में से पांच प्रश्न उत्तर पुस्तिका में लिखकर कानून में स्नातक कर अधिवक्ता बन जाते हैं । समाज में गुणवत्ताविहीन वकालत कर उच्च सम्मानित व्यवसाय को बदनाम करने का कार्य करते हैं जिसके लिए जिम्मेदार हैं भारतीय व्यवस्था जो इस देश को गुणवत्तापरक शिक्षा उपलब्ध कराने में नाकाम रही है ।

अगर माध्यमिक स्तर की शिक्षा की बात की जाये तो जो माध्यमिक विद्यालय सरकार के नियंत्रण में हैं उनमें शिक्षको का अपनी योग्यता का शत प्रतिशत उपयोग न करने के प्रकरण देखें गये हैं क्योंकि हमारे देश में एक परम्परा सी बन गई है कि जो व्यक्ति सरकारी सेवा में चला जाता है उसका विभाग कोई भी हो लेकिन वह व्यक्ति अपनी ऊर्जा का शत प्रतिशत उपयोग न करना अपना अधिकार समझता है वह व्यक्ति जिस दिन सरकारी सेवा में कार्यरत होता है उसी दिन से वह अपना भविष्य सुरक्षित मान कार्य न करना ही अपना कर्त्तव्य समझता है ।

तभी तो माध्यमिक स्तर तक सरकारी कालिजों में पढ़ने वाले छात्रों को एक ट्‌यूशन नाम की बीमारी से भी दो-चार होना पड़ता है जिसके लिए अभिभावकों को भी अपनी जेबें ढीली करनी पड़ती हैं अन्यथा छात्र का परिणाम दुखद होता है और जो छात्र निजी माध्यमिक कालिजों में पढ़ते हैं उनकी फीस और तकनीकी कालिजों में पढ़ने वाले छात्रों की फीस में कोई अधिक अन्तर नहीं होता है जो प्रत्येक अभिभावक की पहुंच से दूर होता है जिसके लिए अभिभावक न्यायालय तक की शरण में जा चुके हैं ।

लेकिन कोई स्थायी समाधान आज तक नहीं निकला है जो माध्यमिक कालिज फिजूल सुविधाओं के नाम पर एक वर्ष में छात्रों से लाखों की वसूली करते हैं लेकिन असहाय अभिभावक सहन करने के अलावा कुछ कर नहीं सकता क्योंकि सरकार का ऐसे कालिजों पर कोई अधिक नियंत्रण नहीं होता है इसलिए कालिजों की मनमानी का राज बाखूबी चलता है जिसको रोक पाना सरकार व अभिभावकों के लिए बहुत ही टेढी खीर है जिससे अभिभावक मजबूरी वश उन परिस्थितियों से रूबरू होकर अपने बच्चों के भविष्य की खातिर वह सब कुछ सहन करते हैं जो असहनीय होता है जिसको दूसरी भाषा में आर्थिक उत्पीड़न कहते हैं ।

अब यदि हम जूनियर और प्राथमिक शिक्षा पर बात करते हैं तो सर्वाधिक असमानता और भ्रष्टाचार इसी स्तर की शिक्षा में हो रहा है और सर्वाधिक अनियमिता सर्वाधिक गुणवत्ताविहीन शिक्षा भी इसी स्तर पर है । उक्त शिक्षा वैसे तो वर्तमान समय में समस्त भारतवर्ष में निःशुल्क और अनिवार्य है लेकिन इस निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा के कई अनछुए पहलू भी हैं जो देश के नीतिकारों की सोच और पहुंच से काफी दूर हैं जिनके विषय में आम नागरिक तो अनभिज्ञ है ही साथ ही देश के नीतिकार भी अनभिज्ञ हैं ।

देश की आजादी के तिरेसठ वर्ष बाद इस देश के गरीब और मजदूरों के बच्चों को शिक्षा का अधिकार मिला लेकिन क्या देश के इस वंचित वर्ग को शिक्षा मिलेगी ? ऐसा कहना अभी जल्दबाजी होगी क्योंकि कानून बनाने मात्र से केवल उस समस्या का समाधान नहीं हो सकता जिसके लिए इस देश का एक विशेष वर्ग प्रभावित हो रहा है ।

वास्तविक स्थिति ब्यां करती है कि हमारे देश के संविधान में बाल श्रम व्रजित है लेकिन क्या वास्तव में हमारे देश में बाल श्रमिक नहीं है ? क्या शहरों में लाल बत्ती पर अखबार व कुछ अन्य सामान बेचते बच्चें नहीं मिल सकेगें ? क्या सड़कों के किनारे बने ढाबों पर खाना परोसते, बर्तन साफ करते बच्चे नजर नहीं आ जायेंगे ?

क्या सड़क पर बूट पालिश करते बच्चे नहीं मिलते ? क्या लघु उद्योगों में बाल श्रमिक नहीं है ? अगर ईमानदारी और गहनता से देखा जाये तो  उक्त प्रश्नों के उतार ही में ही मिलेंगे तो फिर इस स्थिति में संवैधानिक प्रावधान होने के बावजूद भी स्थिति में सुधार क्यों नहीं हो रहा है ।

आखिर कमी कहाँ है जो इस देश में अनिवार्य व निःशुल्क शिक्षा का कानून बनने के बाद भी बच्चों की रूचि विद्यालय जाने में नहीं है । कुछ जगहों पर तो विशेषत: देखा गया है कि बच्चे सरकारी विद्यालयों में पढ़ना ही पसन्द नहीं करते क्योंकि सरकारी विद्यालयों में शिक्षा की गुणवत्ता न के बराबर है जहाँ सर्वप्रथम तो शिक्षकों की कमी उसके बाद भी शिक्षकों का गैर शिक्षण कार्यों में लगाया जाना ।

शिक्षकों का विभागीय उत्पीड़न, शिक्षकों में शिक्षण के प्रति उदासीनता, बच्चों का घर के कार्यों में लगा रहना ही शिक्षा गुणवत्ता में बाधक बने हुए हैं । अन्यथा तो कुछ सुधार की आशा की जा सकती है लेकिन वर्तमान स्थिति में सुधार की बात करना ही बेईमानी हैं ।

क्योंकि भारत देश के नीतिकारों ने इस देश के गरीब मजदूरों के बच्चों को ऐसा वातावरण उपलब्ध करा दिया है कि उन्हें जीवन में कभी भी ऐसा करने का अगर मौका मिलेगा तो वे हिचकेंगे नहीं । किशोर न्याय अधिनियम किशोरों के भीख मांगने को अपराध की श्रेणी में मानता है लेकिन दूसरी ओर देश की महान सरकारें देश के कर्णधारों को बचपन में ही कटोरे लेकर  मुफ्त का भोजन देकर भीख मांगने की आदत डाल रही है ।

बच्चों को जो कार्य बचपन से ही सीखाया जा रहा है तो क्या हम आशा कर सकते हैं कि इस देश के एक विशेष वर्ग को संकुचित मानसिकता से ग्रसित कर आत्मनिर्भर बनाने के स्थान पर भारत के भविष्य को परजीवी बनाया जा रहा है । जो बच्चे बचपन में ही हाथों में कटोरे लेकर मुफ्त का भोजन कर रहे हैं तो क्या हम आशा कर सकते हैं कि ऐसे बच्चे बड़े होकर स्वाभिमानी, आत्म गौरवशाली, आत्मनिर्भर, देश निर्माता, विज्ञानी या कोई चिन्तक बन सकते हैं ।

ऐसा मेरा विश्वास है कि ऐसे वातावरण में पले बड़े बच्चे केवल मजदूर, फालोअर या अपराधी ही बन सकेंगे । कदापि भारत के योग्य नागरिक नहीं अगर मेरी बात अटपटी लगे तो सरकार को चाहिए की सम्पूर्ण भारतवर्ष के सरकारी विद्यालयों से पड़े छात्र जब से मिड डे मील कार्यक्रम शुरू हुआ है पता लगाया जाए कि कितने छात्र डाक्टर, इंजीनियर, नेता, अफसर या दूसरे निजी क्षेत्रों में गये हैं तो सच्चाई खुद पे खुद सामने आ जायेगी ।

वास्तविकता यह है कि ऐसे विद्यालयों में केवल मजदूर और गरीब वर्ग के बच्चे ही पढ़ते हैं जो बामुश्किल साक्षर बन अपनी शिक्षा पूर्ण मान लेते हैं जिनका उच्च शिक्षा से कोई वास्ता नहीं । खाना खाने के लिए विद्यालय आने और पढ़ाई करने की सच्चाई उ॰प्र॰ सरकार द्वारा छुट्‌टी के जून माह में मिड-डे-मील कार्यक्रम को जारी रखने से सामने आ गई ।

जब विद्यालय के वार्षिक परिणाम घोषित करने के बाद मई-जून में मीड-डे-मील खाने के लिए बामुश्किल तीन सौ छात्रों में से औसतन पांच या छ: छात्र विद्यालय में उपस्थित हुए ये आँकड़े कोई एक गांव, जनपद या मण्डल के नहीं बल्कि सम्पूर्ण उ॰प्र॰ में यही हश्र हुआ है ।

जिससे सहज ही अन्दाजा लगाया जा सकता है कि उ॰प्र॰ जैसे घनी आबादी वाले राज्य में भी छात्र खाना खाने के लिए विद्यालय नहीं जाते वो तो केवल पढ़ने के लिए ही विद्यालय आते हैं । इसलिए मुफ्त खाना बांटना किसी गुरूद्वारे के भण्डारे की तरह प्रतीत होता है जहां बिना किसी शुल्क के भरपेट भोजन कराया जाता है ।

अगर सरकार मुफ्त खाना खिलाने के स्थान पर सस्ती दर पर विद्यालय में ही कैंटीन बनाकर अच्छी गुणवत्ता का खाना उपलब्ध करायें तो हो सकता है कि छात्र व अभिभावक अधिक सहयोग व महत्व खाने को दें और स्वाभिमानी छात्र भी कैन्टीन में सस्ती दर पर अच्छा खाना प्राप्त कर सकें ।

मुफ्त खाना उपलब्ध कराने से स्वाभिमानी छात्रों के सम्मान को ठेस पहुंचती है और वह खाना न खाने के साथ ही सरकारी विद्यालय में इसलिए प्रवेश नहीं लेते कि साथी छात्र मुफ्त खाना खाने की बात कहकर शर्मिदा करेंगे कि घर में कुछ खाने के लिए नहीं है जो सरकारी विद्यालय में प्रवेश लिया है इसलिए देश के नीतिकारों को चाहिए कि वे मुफ्त खाना उपलब्ध कराने पर पूर्नविचार कर सस्ती दर पर अच्छी गुणवता का खाना उपलब्ध कराये न कि मुफ्त भोजन, ताकि देश के स्वाभिमानी छात्र गर्व से विद्यालय पढ़ने जाये न कि खाना खाने ।

सरकारी विद्यालयों में मिड-डे-मील से क्या परेशानी है और किस प्रकार की परेशानियों का सामना अध्यापकों को करना पड़ता है ये तो अध्यापक ही महसूस करते हैं, नीतिकार नहीं । सरकारी विद्यालयों में । मिड-डे-मिल के विषय में आमतौर पर मीडिया के माध्यम से पता चलता है कि कहीं चूहे निकलते हैं तो कहीं कीड़ा ।

मिड-डे-मिल का उद्देश्य है कि देश के सरकारी विद्यालयों में पढ़ने वाले छात्रों को मध्यान्ह भोजन उपलब्ध कराना ताकि वे बच्चे जो खाने के लिए काम करने के कारण विद्यालय नहीं जाते वे भी विद्यालय की ओर अग्रसर हों । वह खाना सरकार की तरफ से निःशुल्क दिया जाता है ।

जिला स्तर पर जिला बेसिक शिक्षा अधिकारी की देख-रेख में गैर सरकारी संगठन द्वारा वितरित कराया जाता है । सरकार का मानना है कि देश के गरीब बच्चे जिनको भोजन नहीं मिलता और वो भोजन के लिए काम करते हैं । जिस कारण वे पढ़ नहीं पाते इसलिए ऐसे बच्चों को भोजन उपलब्ध कराकर विद्यालय पहुंचा कर पढाई कराना ही मिड-डे-मिल योजना का उद्देश्य है लेकिन वास्तविकता क्या है ।

सबसे पहले तो सरकार को ऐसे जिलों का सर्वे कराना चाहिए था जहां वास्तव में इस योजना की आवश्यकता है और बच्चों को इस योजना का लाभ दिलाया जा सकता था लेकिन राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र जैसे क्षेत्र के गांवों में मिड-डे-मिल निरर्थक है इसका अन्दाजा आप स्वयं लगा सकते हैं या विद्यालयों में जाकर अध्यापकों से पता कर सकते हैं जहां खाना खाने के लिए बच्चे पढ़ने नहीं आते वो तो केवल पढ़ने ही आते हैं और रही बात खाने की तो उसकी गुणवत्ता ऐसी होती है कि बच्चे तो क्या जानवर भी नहीं खा सकते ।

अगर खाने की शिकायत अध्यापक द्वारा की जाती है तो बेसिक शिक्षा अधिकारी अध्यापकों को निलंबित करने का भय दिखाता है । क्योंकि मिड-डे-मिल आपूर्तिकर्ता गैर सरकारी संगठन बेसिक शिक्षा अधिकारी को कमीशन देते हैं कि वो कैसा भी खाना उपलब्ध करायें शिकायत नहीं आनी चाहिए ।

ऐसी स्थिति तो मिड-डे-मिल योजना की है । केन्द्र की मनमोहन सरकार का सराहनीय व महत्वपूर्ण कदम अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा अधिकार अधिनियम बनाना रहा जिसके अन्तर्गत 6 वर्ष से 14 वर्ष तक के बच्चों को निःशुल्क व अनिवार्य रूप से शिक्षा उपलब्ध कराना है और अब शिक्षा का अधिकार  86वें संविधान संशोधन द्वारा भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 (क) के अन्तर्गत मौलिक अधिकार तथा अनुच्छेद 51 (क) (ट) के अन्तर्गत मौलिक कर्तव्य बन गया है ।

जिसको संविधान बनने से लेकर आज 60 वर्ष का समय लग गया लेकिन अब भी इसका ईमानदारी से पालन हो जाये तो कहा जा सकता है कि देर आये दुरूस्त आये ।

शिक्षा का अधिकार

अब हो गया मौलिक अधिकार

सारे अनपढ अब हो जायेंगे अफसर

फिर ना रहेगी बेकारी ये कहते हैं अधिकारी

सबके पास होगा बंगला और गाड़ी

सरकार को एक और प्रचार मसाला मिल गया

फील गुड़ के नाम पर करोड़ों का दिवाला निकल गया

खजाना लूटने का एक और बहाना मिल गया

गरीब गरीब ही रहेगा क्योंकि वह गरीब है

अमीर और अमीर बनेगा क्योंकि वह अमीर है

बेकारों को और बेकार बनायेगी सरकार

ढर्रा शिक्षा का वही चलायेगी सरकार

परिवर्तन नही करना चाहेगी सरकार

परिवर्तन करेगी तो जायेगी सरकार

क्योंकि गठबंधन की है आजकल सरकार

गरीबों का भला नही करना चाहेगी सरकार

गरीबों के काम नही आयेगी सरकार

बल्कि गरीबों के नाम पर तो खायेगी सरकार

क्योकि राम भरोसे है आजकल देश की सरकार

जब भारत का भविष्य कहे जाने वाले गुदड़ी के लालों को शिक्षा का अधिकार अधिनियम पाने में 60 वर्ष लग गये तो शिक्षा पाने में कितना समय लग सकता है इसका तो केवल अन्दाजा ही लगाया जा सकता है जबकि मोहिनी जैन बनाम कर्नाटक राज्य 1992 के वाद में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने शिक्षा के अधिकार को मौलिक अधिकार माना लेकिन उसके बाद भी इतना समय लग गया क्योंकि देश के रणनीतिकारों के बच्चे तो सरकारी विद्यालयों में पढ़ते नहीं उनके बच्चे तो “कानवेन्ट स्कूलों” में पढते हैं । तो बच्चे पढ़ते हैं गरीब लोगों के ।

जिनको देश के रणनीतिकार चाहते हैं कि वे मजदूर वर्ग में ही रहे ताकि उनकी व उनकी आने वाली पीढ़ी की कुर्सी सुरक्षित रहे । देश के रणनीतिकार भली भांति जानते हैं कि यदि इस देश का मजदूर व किसान वर्ग शिक्षित हो गया तो वह जागरूक भी हो जायेगा और जब इस देश का मजदूर व किसान जागरूक होगा तो अपने भाग्य का फैसला वे खुद करेंगे ।

वे खुद अपनी मजदूरी तय करेंगे । किसान अपनी फसल व दुग्ध की कीमत स्वयं तय करेगा । उनकी मजदूरी व फसल की कीमत वातानुकुलित कमरों में बैठकर तय नहीं की जायेगी किसानों की फसल की कीमत ऐसे लोग तय करते हैं जिनको ये तक नहीं पता कि धान उगाने के लिए किसान को खेतों में जहरीले सांपों से भी सामना करना पड़ता है ।

कोहरे में गेंहू के खेतों में पानी देना पड़ता है । उन्हें उस वक्त सर्दी के मौसम में ठण्डे पानी में खेतों में घुसना पड़ता है जब उनकी फसल की कीमत तय करने वाले नौकरशाह व नेता कमरों में हीटर जलाकर सो रहे होते हैं ।

ये इस देश के मजदूरों व किसानों का दुर्भाग्य है व इससे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि उनके बच्चों को मिलने वाली प्राथमिक शिक्षा में सरकारों की उदासीनता ऐसी है कि आज देश भर में प्राथमिक विद्यालयों में लगभग 13 लाख शिक्षकों की कमी है । लेकिन सरकारें हैं कि कोई उत्साह नहीं दिखा रही ।

कुछ शिक्षक विद्यालयों में हैं भी तो उनको गैर जरूरी शिक्षण कार्यो में लगाकर सरकारें अपना कार्य सिद्ध कर रही हैं । रही बची स्थिति को स्वयं शिक्षक शिक्षण में रूची न दिखाकर अपना समय पास नौकरी समझ पूरी कर रहे हैं तो क्या ऐसे इस देश के मजदूर व किसानों के बच्चे गुणवत्तापरक शिक्षा प्राप्त कर पायेंगे ? अर्थात कदापि नहीं । वो केवल बमुश्किल साक्षर बन पायेंगे और बन रहे हैं ।

वर्तमान हालात ब्यां करते हैं कि पहली बात तो अधिकतर विद्यालयो में मूलभूत सूविधाओं का अभाव, शिक्षकों का अभाव, शिक्षकों का गैर शिक्षण कार्यों जैसे- मतगणना, जनगणना, पल्स पोलियो अभियान, वोटर लिस्ट संसोधन आदि गैर शिक्षण कार्यो में लगाना शिक्षकों की उदासीनता के लिए कुछ हद तक जिम्मेदार है ।

उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में लाखों शिक्षकों का अभाव है जिससे अन्दाजा लगाया जा सकता है कि जो सरकारें गरीबों का मसीहा होने का दावा करती हैं वो भी इस सबसे महत्वपूर्ण गरीबी शिक्षण कार्य में उदासीन है । इस देश के रणनीतिकार चाहते हैं कि प्राथमिक शिक्षा मात्र साक्षर बनने तक ही सीमित रहे और वो हो रहा है ।

जबकि वे जानते हैं कि इस देश में सरकारी विद्यालयों में केवल गरीब और मजदूर वर्ग के बच्चे ही पढ़ते हैं लेकिन यदि ये लोग गुणवत्तापरक शिक्षा ग्रहण कर गये तो ये मठाधीशों को चुनौती दे सकते हैं क्योंकि इस देश में गुदड़ी के लालों की कमी नहीं है । गरीबों में प्रतिभा, योग्यता व बुद्धि की कमी नहीं है । कमी है तो सिर्फ और सिर्फ मार्गदर्शन की और वो भी सही समय पर ।

इस देश के गरीब बच्चों को सही समय पर सही मार्ग दर्शन और गुणवत्तापरक शिक्षा मिले तो वे अंग्रेजी माध्यम से पढे हुए सहाबजादों को पीछे छोड़ने की योग्यता रखते हैं और ऐसा इस देश के रणनीतिकार भी जानते हैं । तभी तो आज 60 वर्ष बाद शिक्षा का अधिकार कानून बना और अभी शिक्षा पाने में पता नहीं कितना समय और लग जायेगा ।

देश में प्राथमिक शिक्षकों की कमी का रोना रोया जा रहा है कि देश में प्रशिक्षित शिक्षकों की कमी है जमीनी हकीकत से कोई भी वाकिफ नहीं है । क्या नीतिकार जानते हैं कि देश के प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाने वाले सभी शिक्षक प्रशिक्षित हैं अर्थात नहीं ।

देश के प्राईवेट स्कूलों में पढ़ाने वाले अधिकतर शिक्षक अप्रशिक्षित हैं तथा अन्डर ग्रेजुऐट व ग्रेजुएट मात्र है जो गुणवत्तापरक शिक्षा दे रहे हैं तो फिर प्रशिक्षण की क्या आवश्यकता है जबकि सरकारी विद्यालयों में सभी प्रशिक्षित शिक्षक हैं जो गुणवत्ता विहीन शिक्षा दे रहे हैं ? तो क्या उचित होगा कि प्रशिक्षित शिक्षक ही लिये जाये ?

प्राथमिक शिक्षक के लिए प्रशिक्षण महत्वहीन है जो उस शिक्षक को प्रशिक्षिण की सीमा में बांधने पर मजबूर करता है न कि गुणवत्तापरक शिक्षा देने में मदद । इसलिए देश के रणनीतिकारों को चाहिए कि प्राथमिक शिक्षा के लिए शिक्षक प्रशिक्षण अनिवार्यता पर पुर्न विचार कर गरीब बच्चों को गुणवत्तापरक शिक्षा उपलब्ध करने का संकल्प लें ।

साथ ही पहले से तैनात शिक्षकों को गैर शिक्षण कार्यो से विरक्त कर उनकी सुविधानुसार घर से कम दूरी पर नियुक्त कर गुणवत्तापरक शिक्षा कैसे उपलब्ध करायी जाये । समय-समय पर कार्यशाला अयोजित कर शिक्षकों से सुझाव लेते रहें न कि नौकरशाही के तानाशाही आदेशों को मनवाने की सुनिश्चितता या स्थानांतरण के नाम पर धन उगाही का माध्यम न बनाया जाये ।

यदि देश के रणनीतिकार ईमानदारी से ऐसा चाहते हैं कि इस देश के मजदूर गरीब व किसानों के बच्चों को गुणवत्तापरक शिक्षा मिले और वो भी साहबजादों के साथ मिलकर खड़े होने के योग्य बन सके यदि ऐसा होता है तो ये इस देश की आने वाली पीढ़ी के लिए एक शुभ संकेत होगा ।

देश के योजनाकारों की सबसे बड़ी व अहम कमजोरी ही कहा जाये तो कोई हर्ज नहीं होगा कि कोई भी योजना बनाते हैं तो उस योजना का पहले कोई सर्वे लाभ-हानि या क्रियान्वित जगह क्रियान्वित करने वाले लोगों से कोई सुझाव नहीं लिया जाता ।

केवल और केवल वातानुकुलित कमरे में बैठकर नौकरशाहों द्वारा प्रारूप तैयार कर नेताओं द्वारा स्वीकार कर लिया जाता है वो भी कुछ ऐसे नेताओं द्वारा जिनकी शैक्षिक योग्यता ही शुन्य है । तो क्या ऐसी योजनाऐं अपना परिणाम दे पायेंगी ? अर्थात कदापि नहीं और ऐसा ही होता है इसलिए अधिकतर योजनाऐं अपने सकारात्मक परिणाम नहीं दे पाती हैं ।

यदि किसी भी योजना को बनाने के पहले उस योजना के क्रियान्वित होने वाले स्थान की भौगोलिक स्थिति का आंकलन, किन लोगो द्वारा क्रियान्वित की जायेगी उनके सुझाव, किन लोगों पर क्रियान्वित की जायेगी उनके सुझाव जानकर ही उस योजना पर आगे कार्य करना चाहिए तथा योजना की समय-समय पर समीक्षा किया जाना भी अति आवश्यक है ताकि उस योजना का कितना आउटपुट आ रहा है उसका भी आंकलन समय रहते मिलता रहे और योजना के उपयोगी या अनुपयोगी होने का भी अन्दाजा समय रहते लगाया जा सकता है ।

भारतीय स्कूली शिक्षा छात्रों को प्रमाण पत्र देने वाली शिक्षा है जिसका वास्तविक और व्यवहारिकता से कोई लेना देना नहीं है । ऐसी शिक्षा जो इस देश में पढे-लिखे बेरोजगार पैदा कर रही है व्यवहारिक व व्यवसायिक नागरिक नहीं ।

भारतीय स्कूली शिक्षा व्यवहारिकता से कोशों दूर है इस आश्य का एक पत्र मैंने फरवरी 2008 में अनुरोध एवं सुझाव के रूप में उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बहन कुमारी मायावती जी को लिखा था जिसका विवरण कुछ इस तरह से था:

सेवा में,

माननीया मुख्यमंत्री बहन कु॰ मायावती जी

उत्तर प्रदेश सरकार (लखनऊ)

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अनुरोध एवं सुझाव पत्र

विषय: मैट्रिक व उससे ऊपर की शिक्षा को व्यवहारिक बनाये जाने के सम्बन्ध में

माननीया बहन जी से निवेदन है कि आधुनिक स्कूली शिक्षा केवल रटन्त शिक्षा मात्र रह गई है जिसमें सिर्फ किताबो को पढ़ना, पढ़कर उनको रटना, परीक्षा देना, परीक्षा देने के बाद भूल जाना व प्रमाण पत्र हासिल करना मात्र आधुनिक शिक्षा का उद्देश्य रह गया है । जिसका व्यवहारिकता से कोई लेना देना नहीं है –

अगर मैट्रिक के बच्चे से कहा जाये कि वह अपनी क्षेत्रीय समस्या से सम्बन्धित पत्र जिला अधिकारी को लिखकर पोस्ट कर दे तो वह नहीं कर पाता । अगर 12 वीं विज्ञान / बी.एस.सी. के बच्चे से कहा जाये कि डिटरजेंट पाउडर कैसे बनाते हैं तो वह नहीं बता पाता या ग्रेविटी कैसे नापते हैं या पी.एच. मान कैसे पता करते हैं तो नहीं बता पाता, आदि….

ऐसी शिक्षा से क्या लाभ जो व्यवहारिकता से अलग है जो केवल हमें प्रमाण पत्र देकर बेरोजगार बनाती है । हमें रोजगारपरक शिक्षा चाहिए ताकि इस देश के दबे कुचले लोग नौकरी की तालाश में भटकने के बजाय स्वरोजगार शुरू कर सके । क्योंकि देश का प्रत्येक बच्चा तो इंजीनियर व डाक्टर नहीं बन सकता ।

हमें मैट्रिक स्तर से ही इच्छुक और आर्थिक रूप से कमजोर बच्चे जो आगे पढाई नहीं कर सकते उनको मामबत्ती, अगरबत्ती, धूपबत्ती हैन्ड मेड पेपर, साबुन, डिटरजेन्ट पाउडर, बिस्कुट, चॉकलेट, ब्रेकरी, हैन्डलूम आदि वस्तुऐं बनाने का व्यवहारिक प्रशिक्षण स्कूली पढाई के साथ-साथ देना चाहिए ताकि वे मजदूरी के लिए भटकने के बजाय अपना रोजगार शुरू कर सकें ।

विधिक जागरूकता मिशन की शुरूआत जनहित में कराई जाये जिसको चाहे तो मीडिया के माध्यम से प्रचार प्रसार कराया जाये या व्यवहारिक विधिक जागरूकता से सम्बन्धित पाठ्‌य पुस्तक मैट्रिक या उससे ऊपर के पाठ्‌यक्रम में शामिल किया जाये ।

जैसे कोई पीड़ित महिला थानों का चक्कर काट-काट कर थक जाती है तो वो अपनी परेशानी महिला आयोग में भी दर्ज करा सकती है, व्यक्ति के मानवाधिकारों का हनन होने की दशा में वह व्यक्ति मानवाधिकार आयोग में भी जा सकता है, लेखपाल, दरोगा के भ्रष्ट होने पर किसके पास शिकायत की जाये, रास्ते चलते किसी महिला के साथ अभद्रता करने पर दोषी व्यक्ति को कितनी सजा हो सकती है, बिजली बिल समय से जमा न करने पर कितना जुर्माना हो सकता है, राजस्व समय से न देने पर कितना जुर्माना व परेशानी हो सकती है आदि….

धन्यवाद !

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भवदीय

अजयपाल नागर

ग्राम व पो० बम्बावड़, तहसील दादरी

जिला गौतमबुद्ध नगर (उ॰प्र॰)

अब इस पत्र पर मुख्यमंत्री जी ने क्या कार्यवाही की इसका तो पता नहीं लेकिन मैंने तो अपना कर्त्तव्य पूरा कर लिया ।

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