साहित्य की शक्ति पर निबंध | Essay on The Power of Literature in Hindi!
संस्कृत की एक सूक्ति के अनुसार – ‘साहित्य, संगीत, कला विहीन:, साक्षात् पशु पुच्छ विषाणहीन: ”
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अर्थात् साहित्य, संगीत, कला से विहीन मनुष्य पशु के समान है । नि:संदेह शेष क्रियाएँ जैसे खाना-पीना, सोना आदि कार्य पशु भी संपन्न करते हैं परंतु साहित्य व संगीत आदि कृत्य मनुष्य को ‘पशु’ की श्रेणी से भिन्न बनाते हैं ।
साहित्य मनुष्य की भावनात्मक उपज है । वह समाज में जो भी अच्छा-बुरा, पाप-पुण्य आदि देखता है, महसूस करता है, साहित्य उन्हीं मानसिक संवेदनाओं का लिखित रूप है । मनुष्य जब अपने अनुभवों व अध्ययन को कागज या अन्य किसी माध्यम पर उतार देता है तब वह साहित्य बन जाता है ।
एक प्रचलित कहावत है कि कलम की ताकत तलवार से भी अधिक होती है । यह एक सार्वभौमिक सत्य है । साहित्य की शक्ति असीमित है । साहित्य में वह शक्ति है जो इसमें निहित विचारधारा के माध्यम से क्रांति उत्पन्न कर सकती है, सोए हुए जनमानस को झकझोर सकती है ।
उनमें एक ऐसी जान फूँक सकती है जो समस्त वातावरण व परिस्थितियों के मूल को परिवर्तित करने की क्षमता रखती है । साहित्य नैराश्य के भँवर में डूबे व्यक्ति को उबारकर उसमें अदम्य साहस व नया जोश भर सकता है । साहित्य में युग-परिवर्तन की क्षमता निहित है ।
पराधीन भारत के साहित्यकारों ने अपनी ओजपूर्ण कविताओं से महात्मा गाँधी के नेतृत्व में चल रहे स्वतंत्रता आंदोलन में एक नवीन चेतना का संचार किया था । कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान ने महारानी लक्ष्मीबाई के महान् कारनामों के आधार पर जिस कविता की रचना की वह आधुनिक भारत के इतिहास में मील का पत्थर बन गई है ।
”चमक उठी सन् सत्तावन में जो तलवार पुरानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी । खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी ।”
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इसी तरह उर्दू शायर इकबाल ने भारत को सारे संसार में अद्वितीय बताकर भारतीय जनमानस को उद्वेलित करने में अहम भूमिका निभाई ।
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”सारे जहाँ से अच्छा हिंदोस्ता हमारा, हम बुलबुले हैं इसकी, ये गुलसिताँ हमारा ।”
एक अच्छा साहित्य मनुष्य के सर्वांगीण विकास व उसके चरित्र निमाण में सहायक है । उत्तम पुस्तकों का चयन कर वह ज्ञान की प्राप्ति करता है तथा महान लेखकों के कथानकों व उनके विचारों से प्रेरणा ले सकता है । इन साहित्यों में विश्व के महापुरुषों के जीवन प्रसंग व अनुभव उपलब्ध होते हैं जिनका अध्ययन कर मनुष्य आत्मचिंतन कर सकता है जो उसमें निहित क्षमताओं का परिचय कराते हैं ।
आत्मचिंतन उसकी कमियों को दूर करने में सहायक है क्योंकि इन्हें दूर किए बिना वह सफलता के शिखर तक नहीं पहुँच सकता है । दूसरे शब्दों में, व्यक्ति की स्वयं की पहचान के लिए साहित्य का अध्ययन-मनन आवश्यक है । साहित्य की सीढ़ी के द्वारा वह आत्मज्ञान की प्राप्ति कर सकता है ।
साहित्य का मानव समाज से सीधा संबंध है । दोनों ही एक-दूसरे के पूरक हैं । उत्तम साहित्य जीवन के शाश्वत मूल्यों और जीवन चरित्र के निर्माण हेतु आवश्यक तत्वों को समाज को प्रदान करता है । साहित्य समाज में व्याप्त कुरीतियों; जैसे – अनैतिकता, व्यभिचार, अराजकता आदि को उजागर करता है । वास्तविक रूप में साहित्य समाज का ही प्रतिबिंब है । वह जनमानस के अनुभवों व संवेदनाओं को प्रकट करता है ।
साहित्यकार एक कुशल चित्रकार की भाँति समाज के विभिन्न रंगों के माध्यम से उसकी ही तस्वीरें प्रस्तुत करता है अर्थात् साहित्यावलोकन से समाज के विभिन्न रंगों की पहचान की जा सकती है । वर्तमान समय में जबकि बहुत से लोग साहित्य से अपना नाता तोड़ चुके हैं, सामाजिक अराजकता बड़ी है । इसे ध्यान में रखकर हमें लोगों की साहित्य के प्रति बढ़ती अरुचि के निराकरण का प्रयास करना चाहिए ।