शिक्षा का निजीकरण | Essay on the Privatization of Education in Hindi!

प्राचीनकाल से ही शिक्षा मानव-जीवन का अभिन्न अंग रही है क्योंकि यह मस्तिष्क का संवर्धन कर दक्षता प्राप्ति द्वारा जीवन को संतोषजनक बनाती है ।

फिर भी, ऐसी धारणा है कि शिक्षा का सर्वव्यापीकरण 20वीं शताब्दी में ही संभव हुआ था । आज शिक्षा मानव की मूलभूत आवश्यकता बन गई है । प्रत्येक व्यक्ति में सीखने और अपने आपको शिक्षित करने की ललक होती है और शिक्षा ही उसे आवश्यक ज्ञान द्वारा जीवन की चुनौतियों का सामना करने के लिए सुसज्जित करती है ।

आज शिक्षा वह नींव है जिस पर आधुनिक समाज के स्तम्भ खड़े हैं । अनौपचारिक एवं सस्ती शिक्षा आज अति विशिष्ट हो गई है । इसका कार्यक्षेत्र भी काफी विस्तृत हो गया है । इसने प्लेटो और अरस्तु के दिनों से लेकर और एक समय में भारत में सम्मानित गुरुकुल परम्परा से लेकर आज तक लम्बी यात्रा तय की है ।

अधिकांश देशों में इसका राष्ट्रीयकरण हो गया है । विज्ञान और प्रौद्योगिकी की शिक्षा देते समय विषय-वस्तु के संगत स्वीकृत सिद्धांतों एवं प्रक्रियाओं को स्वीकार किया जाना चाहिए । लेकिन भारत जैसा विकासशील देश आर्थिक दबाव के कारण शिक्षा पर अधिक व्यय वहन नहीं कर सकता है ।

हमारा शिक्षा पर व्यय हमारे सकल घरेलू उत्पाद (Gross Domestic Product) का मात्र 2.8 प्रतिशत है जबकि विकसित देशों में सामान्यत: स्वीकृत मानदंड 6 प्रतिशत या उससे भी अधिक है । इसके फलस्वरुप शिक्षा यहां बड़े प्रचार से वंचित रही है और इसका उत्तर है-शिक्षा का निजीकरण ।

आज देश में शिक्षा के स्तर को उठाने के लिए सरकार के सतत् प्रयासो के फलस्वरूप हमारी लगभग दो-तिहाई आबादी शिक्षित तो हो गई है । लेकिन अभी भी भारत को 21वीं शताब्दी में विश्व के सबसे अधिक अशिक्षित लोगों के देश की उपाधि दी जाती है । सरकार तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या को लेकर शिक्षा कार्यक्रमों को आगे बढ़ा पाने में अपने को असहाय पाती है ।

कोषों की कमी एक गंभीर समस्या है । अत: शिक्षा, खासकर उच्च शिक्षा, के क्षेत्र में निजी क्षेत्र की भागीदारी की जरूरत है । बहुत पहले ही पश्चिम ने शिक्षा के निजीकरण को प्रेरित किया । हम लोग इसका अनुसरण अब कर रहे है । वर्तमान शिक्षा नीति केवल यही सुनिश्चित करती है कि छात्र नियमित रूप से कक्षा में जाते हैं या नहीं ।

यह छात्रों को सही अर्थ में पढ़ाने या शिक्षित करने की चेष्टा नहीं करती है । कक्षाओं में उपस्थिति से इसके दोनों अभिप्राय और वर्तमान व्यवस्था का अन्त हो जोता है । नियमित उपस्थिति को सुनिश्चित करने के लिए सरकार ने अनेक योजनाएँ बनाई , जैसे- मध्याह्न की भोजन योजना और विद्यालयों में 7वीं तक के छात्रों को अनुतीर्ण नहीं करना ।

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इससे विद्यालय छोड़ने वालों की दर मे कमी आई है । तथापि, शिक्षा की गुणवत्ता में कमी आई है । निजी क्षेत्र इसमें संलग्न हो सकते है । विशिष्ट श्रेणी के पब्लिक स्कूलों में दी जाने वाली शिक्षा की गुणवत्ता खासकर ईसाई मिशनरियों द्वारा चलाए जा रहे स्कूलों से प्रमाणित हो गई है ।

शिक्षा एक विशेष लक्ष्य है और इस तरह से संस्थानों को उनके समर्पित शिक्षकों और प्रतिभाशाली योग्य छात्रों ने जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में स्थान बनाकर प्रतिष्ठित किया है । सरकार की दोषपूर्ण शिक्षा नीति के साथ सरकारी विद्यालयों में बुनियादी सुविधाओं का भी अभाव है । निजी विद्यालय बुनियादी सुविधाओं का उचित प्रबंध रखते हैं ।

सरकारी विद्यालयों में, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों के अधिकतम विद्यालयों में भवन और पाठ्‌यक्रम के अतिरिक्त सुविधाओं का अभाव होता है और कभी-कभी शिक्षक भी नहीं होते हैं । इन स्कूलों में बर्बादी और भ्रष्टाचार जोरों पर होता है ।

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दूसरी तरफ, शिक्षा के निजीकरण से अक्षमता, भ्रष्टाचार शिक्षक, उपकरण, प्रयोगशालाएँ और पुस्तकालयों जैसे मानवीय संसाधनों के अपर्याप्त उपयोग को दूर किया जा सकता है । जो अब हमारी शिक्षा पद्धति के अनिवार्य अंग बन गए है । लेकिन शिक्षा के निजीकरण का नकारात्मक पहलू भी है ।

यह भविष्य में मुनाफे और निहित आर्थिक लाभों को लाती है । श्रेष्ठ स्कूलों में अत्यधिक शुल्क लिया जाता है जो सामान्य भारतीय की सामर्थ्य से बाहर है । ये समर्थ और असमर्थ लोगों के बीच एक खाई उत्पन्न करती है । शिक्षा के निजीकरण ने समाज के उच्च वर्गो के स्वार्थ के लिए अमीरों और गरीबों के बीच विषमता को बढ़ाने का काम किया है ।

निजी क्षेत्र तकनीकी और चिकित्सा शिक्षा उपलब्ध कराने में भी रुचि लेता हुआ जान पड़ता है । इनमें से कुछ संस्थान विभिन्न मदों पर छात्रों से लाखों रुपए लेकर भी उन्हें बुनियादी सुविधाएँ नहीं दे पाते है । यह शिक्षा के निजीकरण के मूल उद्देश्य को मात देता है ।

वैसे भी यदि निजी क्षेत्र प्राथमिक/उच्च विद्यालय शिक्षा में संलग्न है तो उनमें से अधिकांश संस्थानों में मुख्यत: सरकारी निधि या सहायता प्राप्त संस्थानों में अनुदान से प्राप्त धन को अक्सर दूसरे नाम पर खर्च करके स्थिति को बदतर बना दिया जाता है ।

इस तरह के संस्थानों के शिक्षकों को शायद ही कभी पूरा वेतन दिया जाता है जबकि उन्हें सरकारी वर्ग के समान पूर्ण रकम की प्राप्ति की रसीद देनी होती है और उनके कार्यकाल की कोई गारंटी नही होती है । ईसाई मिशनरियों द्वारा चलाए जा रहे स्कूलों को छोड्‌कर शेष निजी स्कूलों के शिक्षकों को अनुबंध के आधार पर रुपए दिए जाते हैं ।

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यह कुप्रथा अब निजी इंजीनियरिंग और चिकित्सा संस्थानों में भी फैल गयी है । चूंकि अध्यापन से जुड़े लोगों को बढ़िया भुगतान और उचित देखभाल नही की जाती है, इसलिए दीर्घकाल में इसका खामियाजा शिक्षा को भुगतना पड़ता है । शिक्षा के निजीकरण के गुण और दोष दोनों है । यदि यह नियंत्रित नहीं है तो इसके दोष सम्पूर्ण शिक्षा पद्धति को पंगु बना सकते हैं ।

फिर भी, शिक्षा के परिदृश्य से निजी क्षेत्रों को बाहर रखना संभव नही है क्योंकि सरकारी निधि शिक्षा को सर्वव्यापक बनाने के आदर्श को पूरा करने के लिए अपर्याप्त है । देश के बहुत-से क्षेत्रों में शिक्षा के लिए अधारभूत सुविधाएँ तक नही हैं । इस प्रकार, निजी क्षेत्र की शिक्षा में संलग्नता आवश्यकता बन गई है ।

शिक्षा में निजी क्षेत्र की भागीदारी में आ रहीं अड़चनों को कम से कम करने की आवश्यकता है । निजी क्षेत्रों को उच्च शिक्षा के क्षेत्र में प्रमुख भूमिका अदा करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए । इसके लिए हमें राज्य और केन्द्र दोनों से स्पष्ट एवं पारदर्शी सरकारी नीति की जरूरत है क्योंकि शिक्षा भारतीय संविधान में समवर्ती सूची के अन्तर्गत आती है ।

इस नीति में सभी दलों को एक समान भूमिका अपनानी होगी । नियंत्रक तंत्र को निष्पक्ष और स्वतंत्र होना चाहिए । विद्यमान नियंत्रक संस्थाएं जैसे-अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद् (All India Council of Technical Education), विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (University Grants Commission) इत्यादि को अधिक स्वतंत्र और निश्चित स्वरूप देना आवश्यक है ।

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दोषी को सख्त और दण्डित करने के नियम लागू करना आवश्यक है । इस तरह के सभी लाभप्रद तंत्रों द्वारा अपनी स्थिति मजबूत कर लेने के बाद सरकार को उच्च शिक्षा के क्षेत्र में अपने आपको धीरे- धीरे अलग करना चाहिए और प्राथमिक शिक्षा पर जोर देना चाहिए जहाँ इसकी नीति हल-मुल और दयनीय अवस्था मेँ है ।

यह सरकार को प्राथमिक शिक्षा में अधि क संसाधन निवेश करने का अवसर देगा, इस तरह दीर्घकाल में सारी व्यवस्था लाभान्वित होगी । शिक्षा के क्षेत्र में हमें मिश्रित अर्थव्यवस्था की नीति को अपनाने का समय है जो सरकार द्वारा साठ के दशक से ही अपनाई जा रही है । इस प्रकार की नीति से सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्रों के शैक्षिक संस्थानों में खुशी की लहर दौड़ जाएगी ।

वेदों के अनुसार शैक्षणिक संस्थाएँ एक देवालय के समान है जहाँ शिक्षा की सुगंध फैली होती है । लेकिन आस्मुनिक विश्व में अधिकतर शैक्षिक संस्थाएं व्यावसायिक ‘ दुकानों ‘ में बदल गई है जहाँ शिक्षा ‘ बेची जाती ‘ है । सरकार और निजी संस्थान दोनों शिक्षा के व्यवसायीकरण के लिए समान रूप से जिम्मेदार है ।

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जबकि, एक तरफ, शिक्षा के निजीकरण से शिक्षा व्यवस्था में कुछ अनुकूल परिवर्तन आया है, वहीं दूसरी तरफ, इसने गंभीर समस्याओं को भी जन्म दिया है जिनका यदि समय रहते समाधान नहीं किया गया तो ये देश की नींव को हिला सकती है ।

शैक्षिक संस्थानों के प्रशासकों के लिए समय आ गया है कि शिक्षा की पवित्रता और महत्ता को महसूस करें और इसका व्यवसायीकरण न करें । यह सरकार की जवाबदेही है कि उचित कानून बनाकर शिक्षा के निजीकरण से उत्पन्न समस्याओं को रोके ताकि देश की नींव को सुरक्षित रखा जा सके ।

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