सद्गुण सिखाने से नही अभ्यास से आते हैं पर निबन्ध!

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एक महिला अपने बेटे की मिठाई खाने की आदत को लेकर परेशान थी, उस के निदान के लिए वह एक महात्मा के पास गई । महात्मा ने उसकी चिन्ता को सुना और कल आने को कहा ।

अगले दिन वह महिला पुन: बेटे सहित आश्रम में गई और महात्मा ने अगले दिन आने को कहा । ऐसा कई दिनों तक चलता रहा । एक दिन महात्मा ने कहा बेटे, मिठाई खाना छोड़ दे, वह स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होती है । यह सुनकर वह वृद्ध महिला भौंचक्की रह गई ।

क्या वे यह उपदेश पहले दिन ही नहीं दे सकते थे, उसे व्यर्थ इतनी बार आश्रम के चक्कर नहीं लगाने पड़ते । उसने महात्मा जी से पूछा कि इतनी-सी बात कहने के लिए आपने मुझसे इतने चक्कर लगवाए । उसकी बातों को सुनकर महात्माजी मुस्कराकर बोले कि हमें उन्हीं बातों का उपदेश देना चाहिए जिनका हम स्वयं पालन करें ।

मुझे भी मिठाई खाने का शौक था । जब तक मैं इस आदत को पूरी तरह नहीं छोड़ता, तव तक तुम्हारे बेटे को इसे छोड़ने का उपदेश कैसे दे सकता था । यह आज का मूल प्रश्न है । यदि आज उपदेश अथवा नीति-प्रवचनों से कुछ हासिल होता, तो हमारा यह विश्व प्रसन्नता और सुख-शांति से भरपूर होता ।

अगज नैतिकता एवं सद्‌गुणों को युवा पीढ़ी पर थोप दिया जाता है, उपदेशक चाहे स्वयं इन शिक्षाओं पर न चलें, लेकिन युवकों को इन पर चलने को बाध्य किया जाता है । एक भ्रष्ट राजनीतिज्ञ किसी विद्यालय के समारोह में ईमानदारी और सच्चाई जैसे उच्च मूल्यों पर भाषण देता है, लेकिन स्वयं इन उच्च-आदर्शो का उससे दूर-दूर तक का वास्ता नहीं होता है । सभी को पता होता है कि हम कितने पनि में हैं ।

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