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हिंदी गद्य का विकास पर निबन्ध | Essay on The Development of Hindi Prose in Hindi!

संसार की समस्त भाषाओं में पद्य-रचना पहले हुई थी, गद्य-रचना इसके बाद की मानी जाती है । अतएव गद्य साहित्य का विकसित रूप है । हिंदी साहित्य के विगत कालों में धार्मिक उपदेश, जीवन चरित्र लेखन आदि के माध्यमों से ब्रजभाषा का प्रयोग सीमित दायरे में होता रहा ।

आधुनिक काल में प्रजातांत्रिक आदर्शो के बल पर जीवन-ढाँचा बदलने लगा, तो शिक्षा, प्रशासन, उद्योग, विज्ञान आदि क्षेत्रों में गद्य की अनिवार्यता आई, जिसका कि साहित्य पर भी असर पड़ा । आगे चलकर, हिंदी साहित्य के आधुनिक काल को भी ‘गद्य युग’ कहा गया ।

भारत में अंग्रेजी राज्य का पैर जमाने के लिए अंग्रेज प्रशासकों ने जनसंपर्क के माध्यम के रूप में खड़ी बोली हिंदी की दो भाषा-शैलियों को अलग-अलग पनपाया । गिलक्राइस्ट की प्रेरणा से उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में लन्न लाल, सदल मिश्र, ईशा अल्ला और सदासुख लाल ने अरबी, फारसी मिश्रित तथा रहित दोनों शैलियोंमें गद्य लिखा ।

भारतेंदु काल में सामान्य जीवन से संबंधित विषयों पर गद्य लिखा जाने लगा और विषयानुसार भाषा-प्रयोग में वैविध्य लाया गया । गद्य का क्षेत्र व्यापक बना । नाटक, उपन्यास, कहानी, निबंध, व्यंग्य आदि सभी कुछ लिखे जाने लगे ।

इनके सभी लेखक अपनी-अपनी स्वच्छ प्रवृत्ति के अनुसार भाषा का प्रयोग करते रहे, मगर यह प्रयोग की स्थिति में ही रहा । गद्य का रूप निश्चित नहीं हो पाया था, साथ ही व्याकरण-व्यवस्था भी कमजोर बनी रही ।

राजा लक्ष्मण सिंह, राजा शिव प्रसाद सितारे हिंद, देवकी नंदन खत्री, प्रताप नारायण मिश्र, लाला श्रीनिवास दास, बालकृष्ण भट्‌ट, बालमुकुंद गुप्त, बद्री नारायण चौधरी आदि भारतेंदु काल के प्रमुख गद्य लेखक रहे । भारतेंदु काल की भाषा-विषयक स्वच्छंदता तथा व्याकरण शिथिलता को मिटाकर हिंदी-भाषा की स्थिरता तथा गद्य-साहित्य का वैविध्य प्रदान किया, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी और ‘सरस्वती’ पत्रिका ने । इसी काल में कामता प्रसाद गुरु लिखित हिंदी का प्रामाणिक व्याकरण ग्रंथ प्रकाशित हुआ था ।

हिंदी-ग्रंथ के परिष्कार के साथ आचार्य द्विवेदी ने प्रचलित विधाओं के अलावा विविध सामयिक तथा विज्ञान-विषयक निबंध, संस्मरण, आत्मकथा, पत्रकारिता आदि विषयों पर लिखने की प्रेरणा दी थी । समीक्षा विधा में विविध शैलियों का भी प्रवर्त्तन किया गया था; जैसे-विश्लेषणात्मक गवेषणात्मक निर्णयात्मक शैलियाँ । इस युग में अनुवाद का भी काम बढ़-चढ़कर हुआ ।

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इस प्रकार द्विवेदी युग में गद्य-साहित्य सर्वागीण तथा बहुमुखी बना । इस युग के गद्यकारों में प्रेमचंद, श्यामसुंदर दास, चंद्रधर शर्मा ‘ गुलेरी पद्य सिंह शर्मा, सरदार पूर्ण सिंह, आचार्य रामचंद्र शुक्ल आदि प्रमुख हैं । इस युग के कवियों में अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’, जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, सुमित्रानंदन पंत आदि ।

छायावाद को मध्यवर्गीय चेतना का विद्रोह कहा जाता है । काव्य-विधा में ही नहीं, अपितु गद्य-विधाओं में भी विद्रोह की वह छटा द्रष्टव्य है । भाषा में लाक्षणिक और कलात्मक शब्दावली को प्रश्रय मिला था । गद्य-साहित्य में जीवन के अंतद्वंद्वों की मनोवैज्ञानिक परख का स्वागत हुआ ।

समीक्षा-विधा में रचनाओं के मूल्यांकन में कवि के दृष्टिकोण और वातावरण को भी मान्यता प्राप्त हुई । रेडियो-नाटकों तथा भाव-चित्रों का पर्याप्त विकास हुआ । ये विशेषताएँ महादेवी, प्रसाद, चतुरसेन शास्त्री, पं. बेचन शर्मा ‘उग्र’, राम कुमार वर्मा, नंददुलारे वाजपेयी, वियोगी हरि तथा रायकृष्ण दास की गद्य-कृतियों में प्रस्कुटित है ।

गद्य का वर्तमान अधुनातन स्वरूप अधिक बौद्धिक है; अर्थ-ग्रहण में ध्वनि और लाक्षणिकता की प्रधानता है । व्यंग्य-परिहास की तीक्ष्माता भी कम नहीं है । वर्तमान युग में गद्य का क्षेत्र इतना व्यापक हो गया है कि पद्य भी गद्य से त्रस्त है । सामयिक पत्र-पत्रिकाओं के प्रभूत प्रचलन के कारण गद्य के विकास की असीम संभावनाएँ हैं ।

हिंदी-साहित्य में गद्य का प्रारंभ जितना सरल था, आज उसकी गति उतनी ही तीव्र और जटिल है । उसकी अभिव्यक्ति में इतना विस्तार हुआ है कि स्वतंत्र भारत की राजभाषा बनने की उसकी अर्हता सर्वाधिक सुनिश्चित है ।

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