चलचित्र या सिनेमा पर निबंध | Essay on Cinema in Hindi!
मनुष्य जैसे-जैसे विकास की राह पर आगे बढ़ता गया, उसने समय के साथ स्वयं की प्रत्येक आवश्यकता को पूरा करने का प्रयास किया । उसे आवागमन में कठिनाई महसूस हुई तो उसने यातायात के साधन विकसित किए ।
ज्ञान की खोज और उसे संचित करने की आवश्यकता का अनुभव किया तो छपाई की कला का प्रारंभ हुआ । इसी प्रकार बह्मांड के रहस्यों को जानना चाहा तो वह चंद्रमा पर जा पहुँचा । विज्ञान के माध्यम से उसने अभूतपूर्व उपलब्धियाँ हासिल की हैं । चलचित्र या सिनेमा भी इन्हीं उपलब्धियों में से एक है ।
चलचित्र ने मनुष्य के समाज और उसके वातावरण को परिवर्तित कर दिया है । यह वैचारिक क्रांति का एक सशक्त माध्यम बन कर उभरा है । इसने अपने अद्भुत प्रभाव से संपूर्ण विश्व को विस्मित कर दिया है । चलचित्र की प्रस्तुति सर्वप्रथम लंदन में 1890 ई॰ में हुई । भारत में इसकी शुरूआत स्व॰ श्री दादा साहेब फाल्के द्वारा सन् 1913 ई॰ में हुई । उन्हें भारत में सिनेमा अर्थात् चलचित्र का जन्मदाता कहा जाता है ।
इसके बाद चलचित्र अनेक पड़ावों से गुजरता गया । इसकी लोकप्रियता आज भी उतनी ही है जितनी कि यह प्रथम चरण में हुआ करती थी । प्रारंभ में केवल मूक फिल्में बनीं परंतु धीरे-धीरे इसमें आवाज भी दी जाने लगी ।
अब यह मात्र काले-सफेद रंगों तक ही सीमित नहीं है अपितु अब चलचित्र नित-प्रतिदिन और अधिक आकर्षक रंगों से सुसज्जित होता जा रहा है । आज सिनेमा हमारे जीवन का एक प्रमुख अंग बन गया है क्योंकि यह हमारे मनोरंजन का एक प्रमुख साधन है ।
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सिनेमा की तकनीक आज बहुत अधिक विकसित है । फोटोग्राफी, कहानी, पटकथा, संवाद, संगीत तथा पार्श्वगायकी आदि हर क्षेत्र में इसकी तकनीकी में परिवर्तन आया है । आज यह एक व्यवसाय का रूप ले चुका है । पहले जो फिल्में हजारों या लाख के बजट पर तैयार होती थीं, वहीं आज कम से कम बजट की फिल्म करोड़ से नीचे नहीं बनती है । हाल ही में बनाई गई कई फिल्में सत्तर-अस्सी करोड़ रुपए की लागत पर तैयार हुई है ।
समाज में वैचारिक क्रांति लाने तथा जनमानस को झकझोरने में सिनेमा महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है । सिनेमा का जनजीवन पर बहुत ही व्यापक प्रभाव पड़ता है । समाज की कुरीतियों को दूर करने में जब सहस्त्रों प्रचारक भी असफल हो जाते हैं तो उन परिस्थितियों में भी कुछ अच्छी फिल्में समाज पर एक अमिट छाप छोड़ जाती हैं। मदर इंडिया, उपकार, आक्रोश, जागृति, अग्निपथ, आँधी, सारांश, गदर, हम आपके हैं कौन, अर्थ, लगान आदि फिल्मों ने समाज पर गहरी छाप छोड़ी है ।
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यह बड़ी ही दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि अधिक व्यवसायीकरण के फलस्वरूप लोग एक ही बार में अत्यधिक पैसा कमाने की लालसा में कुछ ऐसी फिल्में बना रहे हैं जिसमें अश्लीलता, नग्नता तथा चरित्र का पतन देखने को मिलता है । जिसके फलस्वरूप समाज में व्याभिचार और अश्लीलता बढ़ गई है जो हमारे देश की संस्कृति और गौरव को निरंतर चोट पहुँचा रही है ।
कई फिल्में चूँकि केवल व्यवसायिक लाभ के लिए बन रही हैं अत: इनमें एक सार्थक कहानी का नितांत अभाव होता है । इन फिल्मों में जिन फिल्मी मसालों का जमकर इस्तेमाल होता है उनसे दर्शकों का स्वस्थ मनोरंजन नहीं हो पाता है । हालांकि हमारे यहाँ विश्व स्तर के निर्माता-निर्देशक भी हैं जिनकी फिल्मों की दूर-दराज के देशों में सराहना होती है ।
सिनेमा मनोरंजन व ज्ञान वृद्धि का एक उत्तम साधन है । अच्छी फिल्में मनुष्य को तनाव मुक्त करने में तथा उनका स्वस्थ मनोरंजन करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं । सिनेमा को यदि रचनात्मक व सकारात्मक दिशा में प्रयोग करें तो यह मानव समाज के लिए वरदान साबित हो सकता है । यह हमारे समाज का आइना बनकर विश्व के समक्ष हमारी तस्वीर प्रस्तुत करता है । अत: इसे स्वच्छ और सुंदर रंग देना हमारे हाथ में है ।