Environmental Degradation: Meaning and Nature in Hindi. Read this article / essay in Hindi to learn about the meaning and nature of environmental degradation.
पर्यावरण अवकर्षण का अर्थ (Meaning of Environmental Degradation):
आज हम 21वीं शताब्दी में जी रहे हैं, जिसमें विज्ञान और प्रौद्योगिकी एक महती भूमिका निभा रहे हैं । इस प्रगति ने जहाँ एक ओर ब्रह्माण्ड के अनेक रहस्यों का उद्घाटन किया है, वहाँ दूसरी ओर मानव को अनेकानेक सुख-सुविधायें प्रदान की हैं ।
इस मानवीय प्रगति एवं विकास में हमारा पर्यावरण या प्रकृति सदैव से सहायक रही है । दूसरे शब्दों में, प्राकृतिक पर्यावरण के माध्यम अथवा उसकी पृष्ठभूमि से ही आज हम प्रगतिशील अथवा विकसित कहलाने लगे हैं ।
किंतु इस विकास की दौड़ में, इसकी चकाचौंध में, इसी मूल तत्व अर्थात् पर्यावरण की उपेक्षा करने लगे, उसका अनियंत्रित शोषण करने लगे और तात्कालिक लाभों के लालच में मानव ने स्वयं अपने भविष्य को दीर्घकालीन संकट में डाल दिया है । फलस्वरूप जीवन के स्रोत पर्यावरण का निरंतर ‘क्षय’ अथवा ‘निम्नीकरण’ अथवा ‘अवकर्षण’ होता जा रहा है जो संपूर्ण मानव जाति के भविष्य के लिए खतरा बनता जा रहा है ।
इसका मूल कारण पारिस्थितिक संतुलन में व्यतिक्रम का प्रारंभ है, जिससे पर्यावरण/प्रकृति के विभिन्न मूल तत्व अपनी मौलिक प्रवृत्ति अर्थात् संतुलन बनाये रखने की क्षमता खोते जा रहे हैं और परिणाम में मिलता है पारिस्थितिक संकट जो पर्यावरण अवकर्षण के विविध रूपों में प्रतिबिंबित होता है ।
मानव जाति उस अत्यंत जटिल और समन्वित पारिस्थितिकीय श्रृंखला का एक अंग है जो अपने में वायु, पृथ्वी, जल और विविध रूपों में वनस्पति एवं पशु जीवन को समेटे हुए है । इस श्रृंखला की किसी महत्वपूर्ण कड़ी को क्षति पहुँचाने वाले मनुष्य के किसी भी कार्य से समूचे पारिस्थितिक संतुलन को खतरा पैदा हो जाता हैं । पर्यावरण हमारी सांझी विरासत है । यह राजनीतिक सीमाओं से परे है, यदि इसको क्षति पहुँचती है तो विश्व के सभी देश विकसित एवं विकासशील और सभी मानव गरीब-अमीर इससे प्रभावित होते हैं ।
यह ज्ञात होते हुए भी हम इस धरोहर को विनाश की ओर अग्रसर किये जा रहे हैं, फलस्वरूप आज विश्व के सभी भागों में पर्यावरण अवकर्षण एवं इससे उद्भूत समस्यायें तीव्र से तीव्रतम होती जा रही हैं । अत: पर्यावरण अवकर्षण के स्वरूप एवं इसके विविध कारकों एवं प्रकारों को समझना आवश्यक है, जिससे न केवल वर्तमान में अपितु भविष्य में भी पर्यावरण संकट से बचा जा सके ।
पर्यावरण अवकर्षण का स्वरूप (Nature of Environmental Degradation):
पर्यावरण सदैव एक क्रमबद्ध तंत्र अथवा प्रक्रिया के रूप में अवचालित होता है और यही प्रक्रिया संपूर्ण जीव-जगत् अथवा जीवन को परिचालित एवं नियंत्रित करती है । वास्तव में पर्यावरण किसी एक तत्व का नाम नहीं अपितु अनेक तत्वों का समूह है और ये सभी तत्व पृथक् होते हुए भी एक-दूसरे पर निर्भर हैं और सामूहिक रूप से क्षेत्रीय पारिस्थितिक-तंत्र को नियंत्रित करते हैं ।
जब इन सभी तत्वों का स्वरूप आनुपातिक होता है तो पर्यावरण संतुलित रहता है और जीवन सामान्य गति से चलता रहता है । किंतु जैसे ही किसी एक तत्व में अचानक कमी हो जाती है तो उसका प्रभाव अन्य तत्वों पर होता है और असंतुलन उत्पन्न हो जाता है, जो पर्यावरण अवकर्षण का कारण है ।
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यदि यह असंतुलन सामयिक एवं सीमित होता है तो प्रकृति स्वयं इसे संतुलित कर लेती है किंतु यदि किसी कारक में सामान्य से अधिक गिरावट आ जाती है तो उसमें संपूर्ण पर्यावरण अपना स्वभाव बदल लेता है अर्थात् पर्यावरण असंतुलित हो जाता है, उसमें गिरावट आ जाती है अर्थात् उसका अवकर्षण या निम्नीकरण प्रारंभ हो जाता है और जीव जगत् पर उसका विपरीत प्रभाव पड़ने लगता है । यह दुष्प्रभाव केवल मानव पर ही नहीं अपितु सम्पूर्ण प्राकृतिक तंत्र पर होता है ।
पर्यावरण तंत्र का सामूहिक एवं संश्लिष्ट स्वरूप निम्न प्रकार से हैं:
पर्यावरण के विविध तत्वों के समायोजित उपयोग से मानव विकास करता है, सुख-सुविधायें प्राप्त करता है, किंतु जब इस तंत्र में व्यतिक्रम या बाधा प्राकृतिक एवं मानवीय कारणों से आ जाती है तो उसका अवकर्षण होने लगता है ।
भूकंप, जलवायु, भूमि का खिसकना, हिम खण्डों का खिसकाव, मृदा अपरदन, तीव्र वर्षा आदि प्राकृतिक कारण सामयिक एवं क्षेत्रीय पर्यावरण-अवकर्षण का कारण होते हैं । किंतु इनका प्रभाव सीमित होता है और प्रकृति स्वयं इसे पुन: निर्धारित कर लेती है ।
दूसरी ओर मानव या मानवीय कृत्य पर्यावरण के स्तर को गिराने, उसे अवकर्षित या असंतुलित करने का प्रमुख कारण होते हैं । स्पष्ट है कि मानव अपनी सुख-सुविधाओं के लिए पर्यावरण का न केवल उपयोग करता है अपितु उसका उस सीमा तक शोषण भी करने लगता है कि पर्यावरण अवकर्षित होने लगता है जो स्वयं मानव के लिए संकट का कारण बन जाता है ।
सामान्य रूप से पर्यावरण अवकर्षण से तात्पर्य है पर्यावरण के विविध तत्वों या किसी एक तत्व पर उस सीमा तक प्रभाव पड़ना कि वह अन्य तत्वों को सन्तुलित न रख सके और क्रमिक रूप से विपरीत क्रियाशील होने लगे । जैसे- भूमि का अत्यधिक कटाव, वनस्पति का निर्दयता से शोषण जलवायु को परिवर्तित कर देता है या मानव द्वारा विकसित उद्योग, परिवहन आदि सामान्य वायुमण्डलीय संरचना को ही विकृत या प्रदूषित कर देते हैं ।
पर्यावरण का सीधा संबंध मानव से है । मानव इसका कारक भी है और उससे होने वाली हानि भी उसी की होती है । उपर्युक्त विवरण से यह तात्पर्य नहीं है कि मानव पर्यावरण का उपयोग ही न करें, अपितु उसे इसका सन्तुलित उपयोग करना होगा । यदि वह युक्तिसंगत उपयोग करेगा तो स्वयं की प्रगति के साथ-साथ पर्यावरण के स्तर को भी बनाये रखने में सक्षम होगा । आदि काल से ही मानव पर्यावरण का उपयोग करता आ रहा है ।
आदिम अवस्था में उसका पर्यावरण के साथ पूर्ण तादात्म्य था, किन्तु जैसे-जैसे उसने पशुचारण, कृषि, परिवहन, उद्योगों का विकास किया, जनसंख्या में वृद्धि हुई, शहरीकरण का विकास हुआ, मानवीय आवश्यकताओं में वृद्धि हुई, उसी के साथ उसने पर्यावरण का शोषण अधिकाधिक करना प्रारम्भ कर दिया ।
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फलस्वरूप पर्यावरण जो जीवन का स्रोत और उसका पोषक है उसमें अवकर्षण होने लगा और यह क्रम आज भी जारी है या पहले से और अधिक हो गया है । आज पर्यावरण अवकर्षण उस स्तर पर पहुँच चुका है कि यदि इस समस्या पर समुचित ध्यान नहीं दिया गया तो भविष्य में मानव जाति के लिए संकट पैदा हो जायेगा ।
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पर्यावरण अवकर्षण नगरीय क्षेत्रों में अधिक होता है क्योंकि वहाँ जनसंख्या का केन्द्रीयकरण हो जाता है, उद्योग स्थापित होते हैं परिवहन अधिक होता है । नारथम ने नगरीय पर्यावरण अवकर्षण के दो प्रकार अर्थात् प्राकृतिक एवं सामाजिक वर्णित किये हैं ।
इन्हें स्पष्ट करते हुए उन्होंने लिखा है- ”प्राकृतिक (भौतिक) अवकर्षण उस समय होता है जब मानव के पर्यावरण में प्राकृतिक रूप में उपलब्ध तत्व विकृत हो जाता है और प्राकृतिक तत्व से ही प्रदूषण विस्तृत होता है ।” दूसरी ओर ”सामाजिक पर्यावरण अवकर्षण भिन्न होता है । इसमें नगरीय क्षेत्र में विभिन्न कारकों से अवकर्षण होता है ।”
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स्पष्ट है कि नगरीय अवकर्षण के लिये प्राकृतिक एवं सामाजिक अथवा मानवीय कारक दोनों ही उत्तरदायी हैं । इनके कारण मानवीय स्वास्थ्य को तो विभिन्न प्रकार से हानि होती ही है साथ में पर्यावरण के विभिन्न कारक भी अपनी सामान्य प्रक्रिया को पूर्ण करने में अक्षम हो जाते हैं ।
इसी कारण जलवायु परिवर्तन, भूमि का बंजर होना, मृदा क्षरण, भूमि कटान आदि होने लगते हैं तो दूसरी ओर मनुष्य अनेक जानलेवा बीमारियों की चपेट में आ जाता है । बाढ़, सूखा, अकाल आदि भी पर्यावरण अवकर्षण के कारण ही होते हैं । साथ ही प्रगति के नाम पर जहर फैलाते उद्योग, प्रदूषित जल एवं वायु इस अवकर्षण को दिनोंदिन भयावह बनाते जा रहे हैं ।
अत: यह आवश्यक है कि हम पर्यावरण अवकर्षण के सभी आयामों को समझें और अपने कार्यों से एवं तकनीकी विकास से इसे सीमित रखें, जैसा कि न्यूयार्क शहर के मेयर लिण्डसे ने कहा था कि तकनीकी विकास ने ही इस संकट को जन्म दिया है और तकनीक ही इसे दूर कर सकती है ।