Ecosystem: Meaning and Components in Hindi. Read this article in Hindi to learn about:- 1. पारिस्थितिक-तंत्र का अर्थ (Meaning of Ecosystem) 2. पारिस्थितिक-तंत्र के घटक (Components of Ecosystem) 3. पारिस्थितिक-तंत्र का कार्यात्मक स्वरूप (Functional Aspects of an Ecosystem) and Other Details.

Contents:

  1. पारिस्थितिक-तंत्र का अर्थ (Meaning of Ecosystem)
  2. पारिस्थितिक-तंत्र के घटक (Components of Ecosystem)
  3. पारिस्थितिक-तंत्र का कार्यात्मक स्वरूप (Functional Aspects of an Ecosystem)
  4. पारिस्थितिक-तंत्र का ऊर्जा प्रवाह (Energy Flow in the Ecosystem)
  5. पारिस्थितिक-तंत्र में चक्रीकरण (Cycling in Ecosystem)


1. पारिस्थितिक-तंत्र का अर्थ (Meaning of Ecosystem):

संपूर्ण पृथ्वी अर्थात् स्थल, जल एवं वायु मण्डल और इस पर निवास करने वाले जीव एक विशिष्ट चक्र अथवा प्रणाली या तंत्र में परिचालित होते रहते हैं और प्रकृति या पर्यावरण के साथ अपूर्व सामंजस्य स्थापित करके न केवल अपने को अस्तित्व में रखते हैं अपितु पर्यावरण को भी स्वचालित करते हैं ।

इस प्रकार रचना एवं कार्य की दृष्टि से जीव समुदाय एवं वातावरण एक तंत्र के रूप में कार्य करते हैं, इसी को ‘इकोसिस्टम’ अथवा पारिस्थितिक-तंत्र के नाम से संबोधित किया जाता है । प्रकृति स्वयं एक विस्तृत एवं विशाल पारिस्थितिक-तंत्र है, जिसे ‘जीव एण्डल’ के नाम से पुकारा जाता है ।

संपूर्ण जीव समुदाय एवं पर्यावरण के इस अंतर्संबंध को ‘इकोसिस्टम’ का नाम सर्वप्रथम ए.जी. टेन्सले ने 1935 में दिया । उन्होंने इसे परिभाषित करते हुए लिखा- पारिस्थितिक-तंत्र वह तंत्र है जिसमें पर्यावरण के जैविक एवं अजैविक कारक अंतर्संबंधित होते हैं ।

टेन्सले से पूर्व एवं उनके समकालीन अनेक विद्वानों ने इसी प्रकार जीव-पर्यावरण संबंधों को विविध नामों से संबोधित किया जैसे 1877 में कार्ल मोबिअस ने ‘Bicoenosis’, एस.ए. फोरबेस ने 1887 में ‘Microcosm’, वी.वी. डोकूचेहव ने 1846-1903 में ‘Geobiocoenosis’, 1930 में फ्रेडरिच ने ‘Holocoen’, थियनेमान ने 1939 में ‘Bio system’ आदि ।

किंतु इनमें सर्व स्वीकार शब्द ‘Ecosystem’ ही है । यह दो शब्दों से बना है अर्थात् ‘Eco’ जिसका अर्थ है पर्यावरण जो ग्रीक शब्द ‘Oikos’ का पर्याय है जिसका अर्थ है ‘एक घर’ और दूसरा ‘System’ जिसका अर्थ है व्यवस्था या अंतर्संबंध अथवा अंतर्निर्भरता से उत्पन्न एक व्यवस्था जो छोटी-बड़ी इकाइयों में विभक्त विभिन्न स्थानों में विभिन्न स्वरूप लिए विकसित पाई जाती है । इस तंत्र में जीव मण्डल में चलने वाली सभी प्रक्रियाएँ सम्मिलित होती हैं और मानव इसके एक घटक के रूप में कभी उसमें परिवर्तक या बाधक के रूप में कार्य करता है ।

पारिस्थितिक-तंत्र को स्पष्ट करते हुए मांकहॉउस और स्माल ने लिखा है- पादप एवं जीव जंतुओं या जैविक समुदाय का प्राकृतिक पर्यावरण अथवा आवास के दृष्टिकोण से अध्ययन करना । जैविक समुदाय में वनस्पति एवं जीव जंतुओं के साथ ही मानव भी सम्मिलित किया जाता है । इसी प्रकार के विचार पीटर हेगेट ने पारिस्थितिक-तंत्र को परिभाषित करते हुए लिखा है- ”पारिस्थितिक-तंत्र वह पारिस्थितिक व्यवस्था है जिसमें पादप एवं जीव-जंतु अपने पर्यावरण से पोषक चेन द्वारा संयुक्त रहते हैं ।”

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तात्पर्य यह है कि पर्यावरण पारिस्थितिक-तंत्र को नियंत्रित करता है और प्रत्येक व्यवस्था में विशिष्ट वनस्पति एवं जीव-प्रजातियों का विकास होता है । पर्यावरण वनस्पति एवं जीवों के अस्तित्व का आधार होता है और इनका अस्तित्व उस व्यवस्था पर निर्भर करता है जो इन्हें पोषण प्रदान करती है ।

स्थ्रेलर ने पारिस्थितिक-तंत्र की व्याख्या करते हुए लिखा है- ”पारिस्थितिक-तंत्र उन समस्त घटकों का समूह है जो जीवों के एक समूह की क्रिया-प्रतिक्रिया में योग देते हैं ।” वे आगे लिखते हैं- ”भूगोलवेत्ताओं के लिये पारिस्थितिक-तंत्र उन भौतिक दशाओं के संगठन का भाग है जो जीवन सतह (स्तर) का निर्माण करते हैं ।”

मूलत: पारिस्थितिक-तंत्र एक विशिष्ट पर्यावरण व्यवस्था है जिसमें पर्यावरण के विभिन्न घटकों में एक संतुलन होता है जो विशिष्ट जीवन समूहों के विकास का कारक होता है । पारिस्थितिक-तंत्र के सभी पक्षों को एनसाईक्लोपीडिया ऑफ ब्रिटानिका में इस प्रकार व्यक्त किया गया है- ”पारिस्थितिक-तंत्र एक क्षेत्र विशेष की वह इकाई है जिसमें पर्यावरण से प्रतिक्रिया करते हुए समस्त जीव सम्मिलित होते हैं । इनमें ऊर्जा प्रवाह के माध्यम से पोषण उपलब्ध होता है, फलस्वरूप जैव विविधता एवं विभिन्न भौतिक चक्रों का प्रादुर्भाव होता है । यह सभी क्रम एक नियंत्रित स्वरूप में कार्यरत रहता है ।”

उपर्युक्त परिभाषा से स्पष्ट होता है कि पारिस्थितिक-तंत्र एक क्षेत्र विशेष में विकसित एक इकाई है जिसमें विभिन्न जीवों का समूह विकसित होता है इसमें विभिन्न प्रकार के पादप, वनस्पति, जल, जीव, स्थलीय जीव सम्मिलित होते हैं । ये जीव प्राथमिक उत्पादक, द्वितीय उत्पादक या उपभोक्ता एवं अपघटक के रूप में होते हैं ।

इन पर अजैविक घटकों का नियंत्रण होता है जिनमें अकार्बनिक तत्व जैसे- ऑक्सीजन, कार्बन डाई ऑक्साइड, नाईट्रोजन, हाइड्रोजन, खनिज लवण, अकार्बनिक पदार्थ जैसे प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट आदि तथा जलवायु तत्व जल, प्रकाश, तापमान आदि सम्मिलित होते हैं ।

संपूर्ण भौतिक तत्वों से मिलकर ही पर्यावरण बनता है । इन सभी घटकों एवं तत्वों में ऊर्जा प्रवाह सदैव होता रहता है जो पारिस्थितिक-तंत्र को सुचारु रूप से गतिमय रहने के लिए आवश्यक है । पारिस्थितिक-तंत्र में पदार्थों का चक्रीकरण सदैव होता रहता है, इससे पोषण तंत्र अनवरत रहता है जैसे कार्बन चक्र, नाइट्रोजन चक्र, हाइड्रोजन चक्र, ऑक्सीजन चक्र, फास्फोरस चक्र आदि ।

स्पष्ट है कि पारिस्थितिक-तंत्र एक अनवरत प्रक्रिया है किंतु यदि इसके किसी एक घटक में परिवर्तन आता है अथवा ऊर्जा प्रवाह में बाधा होती है या चक्रीकरण में व्यवधान आता है तो पारिस्थितिक-तंत्र में असंतुलन उत्पन्न हो जाता है जो जीव अस्तित्व के लिये संकट का कारण बन जाता है ।

उपर्युक्त सभी विचारों एवं अन्य विद्वानों द्वारा इस संबंध में की गई टिप्पणियों का सार यह है कि पारिस्थितिक-तंत्र एक क्षेत्र विशेष के पर्यावरण एवं उसमें उद्भूत जीवन तंत्र के अंतर्संबंधों की उपज है । इसमें स्थान एवं समय की महत्वपूर्ण भूमिका होती है, जो प्रमुख भौगोलिक उपादान हैं । वास्तव में पारिस्थितिक-तंत्र क्षेत्रीय एवं वृहत भौगोलिक अंतर्संबंधों का परिणाम है ।


2. पारिस्थितिक-तंत्र के घटक (Components of Ecosystem):

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प्रत्येक पारिस्थितिक-तंत्र की संरचना दो प्रकार के घटकों से होती है:

(अ) जैविक या जीवीय घटक,

(ब) अजैविक या अजीवीय घटक ।

(अ) जैविक या जीवीय घटक:

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जैविक या जीवीय घटकों को दो भागों में विभक्त किया जाता है:

(i) स्वपोषित घटक:

वे सभी जीव इसे बनाते हैं जो साधारण अकार्बनिक पदार्थों को प्राप्त कर जटिल पदार्थों का संश्लेषण कर लेते हैं अर्थात् अपने पोषण के लिये स्वयं भोजन का निर्माण अकार्बनिक पदार्थों से करते हैं । ये सूर्य से ऊर्जा प्राप्त कर प्रकाश संश्लेषण प्रक्रिया द्वारा अकार्बनिक पदार्थों, जल और कार्बन-डाई-ऑक्साइड को प्रयोग में लाकर भोजन बनाते हैं जिनका उदाहरण हरे पौधे हैं । ये घटक उत्पादक कहलाते हैं ।

(ii) परपोषित अंश:

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ये स्वपोषित अंश द्वारा पैदा किया हुआ भोजन दूसरे जीव द्वारा प्रयोग में लिया जाता है । ये जीव उपभोक्ता या अपघटनकर्त्ता कहलाते हैं । कार्यात्मक दृष्टिकोण से जीवीय घटकों को क्रमश: उत्पादक, उपभोक्ता और अपघटक श्रेणियों में विभक्त किया जाता है ।

a. उत्पादक:

इसमें जो स्वयं अपना भोजन बनाते हैं, जैसे हरे पौधे वे प्राथमिक उत्पादक होते हैं और इन पर निर्भर जीव-जंतु एवं मनुष्य गौण उत्पादक होते हैं क्योंकि व पौधों से भोजन लेकर उनसे प्रोटीन, वसा आदि का निर्माण करते हैं ।

b. उपभोक्ता:

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ये तीन प्रकार के होते हैं:

(i) प्राथमिक (Primary)- जो पेड़ पौधों की हरी पत्तियाँ भोजन के रूप में काम लेते हैं, जैसे- गाय, बकरी, मनुष्य आदि । इन्हें शाकाहारी कहते हैं ।

(ii) गौण या द्वितीय (Secondary)- जो शाकाहारी जंतुओं या प्राथमिक उपभोक्ताओं को भोजन के रूप में प्रयोग करते हैं, जैसे- शेर, चीता, मेंढक, मनुष्य आदि । इन्हें मांसाहारी कहते हैं ।

(iii) तृतीय (Tertiary)- इस श्रेणी में वे आते हैं जो मांसाहारी को खा जाते हैं, जैसे- साँप मेढ़क को खा जाता है, मोर साँप को खा जाता है ।

c. अपघटक:

इसमें मुख्य रूप से जीवाणु तथा कवकों का समावेश होता है जो मरे हुए उपभोक्ताओं को साधारण भौतिक तत्वों में विघटित कर देते हैं तथा ये फिर से वायु मण्डल में मिल जाते हैं ।

(ब) अजैविक या अजीवीय घटक:

इनको तीन भागों में बाँटा जाता है:

(i) जलवायु तत्व- जैसे सूर्य का प्रकाश, तापक्रम, वर्षा आदि ।

(ii) कार्बनिक पदार्थ (Organic Matter)- जैसे प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट आदि ।

(iii) अकार्बनिक पदार्थ (Inorganic Matter)- जैसे कैल्शियम, कार्बन, हाइड्रोजन, सल्फर, नाइट्रोजन आदि ।


3. पारिस्थितिक-तंत्र का कार्यात्मक स्वरूप (Functional Aspects of an Ecosystem):

पारिस्थितिक-तंत्र सदैव क्रियाशील रहता है, उसी को इसके कार्यात्मक स्वरूप की संज्ञा दी जाती है । कार्यात्मक स्वरूप के अंतर्गत ऊर्जा प्रवाह, पोषकता का प्रवाह एवं जैविक तथा पर्यावरणीय नियमन सम्मिलित होता है, जो सामूहिक रूप में प्रत्येक तंत्र को परिचालित करता है ।

जैव-भू-रासायनिक चक्र में ऊर्जा का प्रमुख स्रोत सूर्य होता है जो जलवायु व्यवस्था के अनुरूप ऊर्जा प्रदान करता है । उत्पादक प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से खनिज लवण, कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन द्वारा शाकाहारी जीवों को भोजन प्रदान करते हैं जिन पर मांसाहारी निर्भर करते हैं ।

इन्हीं के अपघटन के फलस्वरूप विभिन्न खनिज लवण भी बनते हैं जो पुन: उत्पादक तक पहुँचते हैं । ऊर्जा सूर्य से उत्पादक, फिर भोज्य तथा अपघटक में पहुँचती है । ये सभी क्रियाएँ नियमित एवं इतनी अधिक सुचारु रूप से संपादित होती हैं कि सामान्यतया आभास नहीं होता ।

इस संपूर्ण क्रिया में ऊर्जा का प्रवेश तथा उसका रूपांतरण गणित के ऊष्मागतित नियम के अनुसार होता है अर्थात् ऊर्जा का न तो निर्माण होता है न उसका नाश अपितु उसका रूपान्तरण होता है, इस क्रम में कुछ ऊर्जा नष्ट भी होती है ।


4. पारिस्थितिक-तंत्र का ऊर्जा प्रवाह (Energy Flow in the Ecosystem):

पारिस्थितिक तंत्र का नियंत्रक है, प्रत्येक जीव को विभिन्न क्रियाओं को संपादित करने हेतु ऊर्जा सूर्य से प्राप्त होती है । सूर्य से प्राप्त ऊर्जा जिसे सौर्य ताप कहते हैं, संपूर्ण पृथ्वी तक नहीं पहुँच पाती अपितु इसका विविध प्रकार से अवशोषण, विकिरण, परावर्तन आदि हो जाता है । सौर्य ताप के एक अंश को वायु मण्डल की अनेक गैसें, धूल के कण, जल वाष्प तथा अन्य अशुद्धियाँ शोषण कर लेती हैं । इसमें ओजोन एवं कार्बन-डाई-ऑक्साइड गैस इसे अधिक प्रभावित करती हैं ।

कुछ ऊर्जा प्रकीर्णन द्वारा फैल जाती है, कुछ बादलों एवं अन्य गैसों से परावर्तित हो जाती है तथा कुछ भाग अवशोषण द्वारा समाप्त हो जाता है । इस प्रकार सौर ऊर्जा का मात्र 14 प्रतिशत भाग वायु मण्डल में सीधे प्राप्त होता है तथा 34 प्रतिशत पृथ्वी की विकिरण क्रिया से मिलता है । इस प्रकार वायु मण्डल में जितनी ऊष्मा आती है उतनी ही पुन: लौट जाती है अथवा प्रयोग में ले ली जाती है ।

यदि किसी कारण सौर ऊर्जा चक्र में बाधा आ जावे और अधिक मात्रा में ऊष्मा का प्रवाह होने लगे तो पृथ्वी पर अनेक जलवायु एवं पारिस्थितिक परिवर्तन हो जायेंगे । ओजोन गैस की भूमिका इसमें महत्वपूर्ण है, ये पृथ्वी पर कवच का कार्य करती तथा हानिकारक पैरा-बैंगनी किरणों को आने से रोकती है ।

किंतु प्रदूषण में वृद्धि विशेषकर क्लोरो-फ्लोरो कार्बन से ओजोन परत में छिद्र होने की संभावना व्यक्त की जाती है जो जीव-जगत् के लिये संकटप्रद होती है । वनस्पति एवं जीवों में ऊर्जा का रूपान्तरण, विविध प्रकार से होता है, जो भोजन क्रम को संचालित करता है ।

यह तथ्य सर्वप्रथम पारिस्थितिकी विद्वान लिण्डमेन ने 1942 में प्रतिपादित किया । उनके अनुसार संपूर्ण पारिस्थितिक-चक्र को ऊर्जा प्रवाह के दो तथ्यों अर्थात् ऊर्जा भंडार का सतर एवं उनके स्थानान्तरण की क्षमता द्वारा समझा जा सकता है । इसके पश्चात् अनेक विद्वानों, जैसे- एच.टी. ओडम (1957), स्लोबोडकिन (1959, 1960, 1962), तील (1962), कोजलोवस्की (1988) आदि ने इस पर विचार रखे । तीन पोषण स्तरों पर ऊर्जा प्रवाह क्रमश: कम होता जाता है ।

सूर्य प्रकाश से जो 3000 किलो कैलोरी ऊर्जा किरणों से प्राप्त होती है उसका लगभग आधा भाग (1500 किलो कैलोरी) ही पौधों द्वारा ग्रहण होता है तथा उसका एक प्रतिशत प्रथम पोषण पर पौधों द्वारा रासायनिक ऊर्जा में परिवर्तित होता है ।

यह मात्रा द्वितीय एवं तृतीय स्तर पर घटती जाती है । सामान्यतया जब एक पोषण स्तर से दूसरे पोषण स्तर में ऊर्जा जाती है तो उसका अधिकांश भाग नष्ट हो जाता है । अत: भोजन चक्र जितना छोटा होगा उतनी ही अधिक ऊर्जा प्राप्त होगी ।

पारिस्थितिकी तंत्र की उत्पादकता से तात्पर्य है पोषण स्तर प्रथम में स्वपोषित पौधों द्वारा ऊर्जा उपयोग से पोषण प्राप्त करना । दूसरे शब्दों में, यह परावर्तित ऊर्जा जो फोटोसिन्थेसिस क्रिया से तथा अन्य रासायनिक क्रिया से संचित कर उत्पादकता के रूप में उपयोग में ली जाती है, जैसा कि ओडम ने लिखा है-

“Primary Productivity of an Ecological System is the Rate at which Radiant Energy is Stored by Photo Synthetic and Chemosynthetic Activity of Radiant Organism (Chiefly Green Plants) in the from Organic Substance which can be used as food materials.”

इस उत्पादकता के निम्नांकित चार क्रमिक सोपान होते हैं:

i. सकल प्राथमिक उत्पादकता:

सकल प्राथमिक उत्पादकता से तात्पर्य है पोषण स्तर एक में स्वपोषित पौधों द्वारा रासायनिक ऊर्जा की मात्रा अर्थात् यह फोटोसिन्थेसिस की कुल दर है जिसमें श्वसन में प्रयुक्त जैविक पदार्थ भी सम्मिलित है ।

ii. वास्तविक प्राथमिक उत्पादकता:

वास्तविक प्राथमिक उत्पादकता से आशय पोषण सार एक में संचित या स्थिरीकृत ऊर्जा या जैविक पदार्थों की मात्रा से होता है ।

iii. सामुदायिक उत्पादकता:

सामुदायिक उत्पादकता से तात्पर्य जैविक पदार्थों के संचित करने की दर से है ।

iv. गौण उत्पादकता:

इससे भिन्न उपभोक्ता स्तर पर ऊर्जा संचय की दर को गौण उत्पादकता के नाम से जाना जाता है । ई.पी.ओडम ने विश्व स्तर पर प्राथमिक उत्पादकता के तीन स्तर क्रमश: उच्च उत्पादकता, मध्यम उत्पादकता एवं निम्न उत्पादकता के रूप में निर्धारित किये हैं ।

उच्च उत्पादकता प्रदेशों में उष्ण एवं शीतोष्ण आर्द्र वन, जलोढ़ मैदान, गहरी कृषि एवं छिछले जलीय क्षेत्रों को सम्मिलित किया है जबकि मध्यम उत्पादकता क्षेत्रों में घास के मैदान, छिछली झीलें तथा विस्तृत कृषि क्षेत्र सम्मिलित हैं ।

तृतीय अर्थात् निम्न पारिस्थितिकी उत्पादकता के प्रदेश में हिमाच्छादित क्षेत्र, मरुस्थली प्रदेश तथा अगाध सागरीय क्षेत्रों को सम्मिलित किया जाता है । वास्तव में पारिस्थितिक-तंत्र का कार्य-संपादन ऊर्जा प्रवाह एवं उत्पादकता के सम्मिलित प्रक्रम द्वारा संपन्न होता है ।


5. पारिस्थितिक-तंत्र में चक्रीकरण (Cycling in Ecosystem):

पारिस्थितिक-तंत्र में विभिन्न पदार्थ, गैस व ऊर्जा एक चक्र के रूप में चलते हुए इस संपूर्ण तंत्र को परिचालित करते हैं । इसी प्रकार के एक चक्र, जैव भू-रासायनिक चक्र का उल्लेख हम कर चुके हैं, भोजन चक्र, जल चक्र एवं विभिन्न खनिज लवणों के चक्र निरंतर चलते हुए एक ओर पर्यावरण संतुलन को बनाये रखते हैं तो दूसरी ओर जीवों (वनस्पति, जीव-जंतुओं मानव) की आवश्यकताओं को पूर्ण करते हैं ।

जीवों को अपनी जैवीय क्रियाओं को चलाने तथा जीव द्रव्य के निर्माण हेतु अनेक पदार्थों की आवश्यकता होती है । अन्य पदार्थों में फास्फोरस (P), सल्फर (S), पोटेशियम (K), मैग्नीशियम (Mg), कैल्शियम (Ca), सोडियम (Na), लोहा (Fe), मैंगनीज (Mn), कोबाल्ट (Co), ताँबा (Cu), जिंक या जस्ता (Zn), बोरोन (B), क्लोरीन (CI), ब्रोमीन (Br), आयोडीन (I), क्रोमियम (Cr) आदि की भी सूक्ष्म मात्रा में आवश्यकता होती है ।

इन सभी तत्वों का चक्रीकरण होना आवश्यक होता है, कुछ चक्र अत्यधिक जटिल होते हैं, जैसे नाइट्रोजन और कुछ साधारण जैसे फास्फोरस । इन सभी चक्रों का वर्णन संभव नहीं है अत: कुछ प्रमुख चक्रों का उदाहरण के रूप में संक्षिप्त विवेचन प्रस्तुत है । किंतु यह निश्चित है कि चक्रीकरण पारिस्थितिक-तंत्र को नियंत्रित करता है ।

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i. कार्बन चक्र:

समस्त जीवों के कार्बन का स्रोत वायु मण्डल है । यह कार्बन-डाई-ऑक्साइड (CO2) के रूप में हरे पौधों, बैक्टीरिया एवं शैवालों द्वारा ग्रहण किया जाता है तथा प्रकाश संश्लेषण की क्रिया के फलस्वरूप कार्बोहाइड्रेट के रूप में शरीर में संचित हो जाता है । यह वायु मण्डल से हरे पौधों (उत्पादक) में, फिर जीव-जंतुओं (उपभोक्ताओं) तथा अंत में सूक्ष्म जीवाणुओं (अपघटकों) से पुन: वायु मण्डल में पहुँच जाती है ।

जल में भी कार्बन-डाई-ऑक्साइड चूने के जमाव के रूप में है तथा हरे पौधे फोटोसिन्थेसिस क्रिया द्वारा इसे कार्बनिक भोजन तत्वों में परिवर्तित कर देते हैं । पौधे जानवरों द्वारा खाये जाते हैं और पौधों के चट्टानों में दबने से कोयला बनता है जिसके अपक्षय से कार्बन-डाई-ऑक्साइड पुन: वायु मण्डल में पहुँचती है । श्वसन की प्रक्रिया से भी वायु मण्डल में यह गैस पहुँचती है । जल में मिश्रित कार्बन-डाई-ऑक्साइड जटिल प्रक्रिया से कार्बोनेट बनाती है अर्थात् यह चक्र अनवरत चलता रहता है ।

ii. नाइट्रोजन चक्र:

नाइट्रोजन प्रत्येक जीव का एक आवश्यक तत्व है तथा वायु मण्डल का 79 प्रतिशत इसी गैस का होता है । एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि नाइट्रोजन सीधा वायु मण्डल से ग्रहण नहीं किया जाता । वायु मण्डल की नाइट्रोजन (N2) का प्रत्यक्ष उपभोग कुछ नाइट्रोजन स्थिरीकरण जीवाणु ही कर पाते हैं । पौधों के नाइट्रोजन का प्रमुख स्रोत मृदा में उपस्थित नाइट्रेट होते हैं ।

मृदा में उपस्थित नाइट्रोजन के ये यौगिक पोषक के रूप में पौधों की जड़ों द्वारा अवशोषित कर लिये जाते हैं, जहाँ अंत में एमीनो एसिड तथा पादप प्रोटीन्स की रचना होती है, जिन्हें खाने से यह जंतु-प्रोटीन्स में बदल जाते हैं ।

तत्पश्चात् ये नाइट्रोजनी अपशिष्टों के रूप में उत्सर्जन के पश्चात् मृदा में पुन: पहुँच जाते हैं । बिजली चमकने से भी वायुमण्डलीय नाइट्रोजन योगिकीकरण होता है । मानव द्वारा उर्वरकों के निर्माण हेतु कृत्रिम विधियों से नाइट्रोजन योगिकीकरण किया जाता है ।

iii. ऑक्सीजन चक्र:

ऑक्सीजन वायु मण्डल में 21 प्रतिशत उपस्थित रहता है तथा ऑक्साइड और कार्बोनेट के रूप में चट्टानों में तथा जल में उपस्थित होता है । पादप ऑक्सीजन बाहर निःसृत करते हैं तथा गैस के रूप में ऑक्सीजन संपूर्ण जीव-जगत श्वसन के रूप में ग्रहण करता है तथा ऑक्सीडेशन से अकार्बनिक पदार्थ बनाता है । ओजोन परत पैराबैंगनी किरणों से जीवन की रक्षा करती हैं ।

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iv. फास्फोरस चक्र:

फास्फोरस एक न्यूक्लिक अम्ल का प्रमुख रचनात्मक चक्र है तथा जीवद्रव्य का एक महत्वपूर्ण घटक है । फास्फोरस का स्रोत पृथ्वी की चट्टानें, शैल एवं अन्य ऐसे निक्षेप हैं जो विभिन्न भूगर्भिक काल में बने । इन शैलों के अपरदन से फास्फेट मृदा में मिलता रहता है ।

इसकी पर्याप्त मात्रा समुद्र में होती है जो अनेक अवसादों में विलीन रहता है । मृदा से पौधे फास्फोरस ग्रहण करते हैं तत्पश्चात् यह जीवों तक पहुँचता है । इन जीवों की मृत्यु के पश्चात् अपघटित होकर पुन: घुलित अवस्था में बदल जाता है जिसे मृदा सोख लेती है ।

उपर्युक्त विवेचन मात्र कतिपय गैसों एवं खनिज लवणों के चक्रीकरण का उदाहरण है । इसी प्रकार का चक्र प्रत्येक खनिज लवण एवं गैस का सभी पारिस्थितिक-तंत्रों में होता रहता है । यही नहीं, अपितु जल चक्र एवं भोजन चक्र भी हमेशा क्रियाशील रहती हैं ।

इन्हीं विभिन्न प्रक्रियाओं के माध्यम से पारिस्थितिक-तंत्र नियमित एवं परिचालित रहता है । जब कभी प्राकृतिक या मानवीय क्रिया द्वारा इस प्रक्रिया अथवा चक्र में बाधा आती है । उसका प्रभाव संपूर्ण पर्यावरण पर तो पड़ता ही है साथ में जीव-जंतुओं और मानव पर भी होता है । आज सर्वत्र जो पारिस्थितिक असंतुलन की चर्चा होती है उसके पीछे इस चक्रीकरण प्रक्रिया में विभिन्न कारणों से पड़ने वाला प्रभाव है जिसकी हानि अंततोगत्वा मानव को स्वयं सहन करनी होती है ।


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