Here is an essay on ‘Environmental Conservation’ in Hindi language!
Essay # 1. पर्यावरण संरक्षण का अर्थ:
पर्यावरण में संतुलन, घर, समाज व आसपास के समन्वय और सरसता लाया जाना आवश्यक है, ऐसे कार्यकलाप रोकने होगें, जिससे पर्यावरण ह्रास स्पष्ट दिखाई पड़ता हैं- जैसे वनों की कटाई, वायु प्रदूषण, जल स्रोतों में गिरता औद्योगिक और सामाजिक कचरा, कुछ निजी शौकों की बलि होते वनों के प्राणी, पर्वतों पर होते विस्फोट, युद्ध क्षेत्र में प्रयुक्त होने वाले रसायनिक प्रकार के अनेक घातक अस्त्र आदि ।
पर्यावरण के किसी भी एक अंग की क्षति पर्यावरण संतुलन पर अपना प्रभाव डालती है । छोटे-छोटे जीव जन्तु भी सुरम्य पर्यावरण में सन्तुलन बनाने में अपना योगदान दे रहे हैं । अत: मानव समाज के लिए आवश्यक हो जाता है कि वह पर्यावरण संतुलन के प्रति अपनी जागरूकता रखे ।
स्वस्थ पर्यावरण व उसके संरक्षण के लिए निम्न कदम आसानी से उठाए जा सकते हैं:
(i) अधिक वृक्ष लगाकर हरियाली बनाई जाए ।
(ii) वन्य जीवन की सुरक्षा और संरक्षण को बढ़ावा दिया जाए ।
(iii) नदी, झरने, तालाबों, कुओं आदि जल स्रोतों को प्रदूषण से बचाएँ ।
(iv) घनी बस्तियों और उसके समीपवर्ती क्षेत्रों में पेड़ पौधों की हरित पट्टी का विकास किया जाए ।
(v) वायु और शोर प्रदूषण की यथा सम्भव रोकथाम की जाए ।
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(vi) औद्योगिक विकास अथवा आर्थिक लाभ के लिए वनों के विनाश को रोका जाए ।
(vii) औद्योगिक कारखानों के साथ-साथ वृक्षारोपण कर हरित पट्टी का विकास किया जाए ।
(viii) बस्तियों से दूर उद्योगों की स्थापना की जाए ।
(ix) प्रत्येक व्यक्ति अपने आसपास की जगह साफ सुथरी रखें । कूड़ाकरकट इधर उधर न फेंककर गंदगी को फैलने से रोके ।
(x) हर परिवार अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए पेड़ जरूर लगाए । खाली बंजर जमीन, खेतों की मेड़, सार्वजनिक स्थान आदि का सदुपयोग वृक्ष लगाकर किया जाए ।
(xi) उद्योगों से निकले कचरे की समुचित सफाई की जाए, रसायनिक कचरों का विनाश कर पुन: उपयोग के योग्य बनाया जाए ।
(xii) स्वच्छ जल में गंदगी डालना बंद किया जाए । गंदे नालों का जल नदी, झरनों में गिरने से रोका जाए । नदी, कुओं तालाबों में गंदगी फैलने से रोकी जाए, उसमें पशुओं का नहलाना कपड़े आदि धोना, विशेष रूप से ठहरे जल में, आदि जैसे कार्यों को रोका जाए ।
(xiii) वायु प्रदूषण को रोकने के लिए और अधिक वृक्षारोपण साथ-साथ धुआँ छोडने वाले वाहनों का कम उपयोग व इनकी उचित सम्भाल की जाए ।
(xiv) गांवों व उपनगरों में जीवन की जरूरी सुविधाओं व रोजगार की व्यवस्था कर नगरों की तरफ खिंचाव को कम करके प्रवासी नगरीय जनसंख्या को बढ़ते में रोका जाए । वह जनसंख्या नगरीय पर्यावरण के लिए अत्याधिक संकट उपस्थित कर रही है । वहां. पर दिन प्रतिदिन गंदी बस्तियों झुग्गी-झौपडियों का जमाव होता जा रहा है ।
Essay # 2. पर्यावरण संरक्षण के तत्वों:
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पर्यावरण में उपरोक्त व्यवस्थाओं के साथ निम्न कार्यों की सहायता से पर्यावरण के विभिन्न तत्वों का संरक्षण किया जा सकता है:
1. मृदा संरक्षण:
मृदा अथवा भूमि के संरक्षण से हमारा तात्पर्य भूमि व मृदा के अपरदन को रोकना है । वर्तमान कृषित भूमि की उपजाऊ शक्ति में किसी भी प्रकार की कमी न आने देना है, बल्कि साथ-साथ उसमें अपरदन क्रो रोकना है । भूमि अपरदन की गति को निम्न उपायों द्वारा धीमा किया जा सकता है, व कहीं-कहीं उसे पूरी तरह से नियंत्रित किया जा सकता है ।
(i) वनारोपण करना:
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भूमि को अपरदन से बचाने के लिए वनों का विस्तार करना काटने योग्य वृक्षों को समूल न काटना जैसे कदम उठाना आवश्यक हो गया है, वृक्षारोपण मृदा अपरदन रोकने के साथ जल बहाव पर नियंत्रण तथा जलवायु में नमी की मात्रा को बढ़ाने में मदद देता है । मृदा को संगठित करने में इसका विशेष योग होता है ।
यदि वनों का विस्तार किया जाए तो पारिस्थितिकी संतुलन को बनाए रखा जा सकता है । यह पौधे मृदा को जीवाँश प्रदान करके उसकी उपजाऊ शक्ति को बढ़ा रहे हैं । यह जीवांश मृदा की जल सोखने की शक्ति को भी बढ़ा देते हैं, जैसे जल के बहाव की तीव्रता कम हो जाती है, तथा ऐसी भूमि पर यदि कोई उत्पादन किया जाता है तो उसको जल की का आवश्यकता पड़ती है ।
(ii) पशुचारण को नियन्त्रित करना:
जीव जन्तुओं की संख्या का एक बहुत बड़ा भाग अपने आहार के लिए पौधों पर निर्भर करता है । कुछ जन्तु घास खाते हैं, कुछ जन्तु खरपतवार खाते है, कुछ जन्तु झाडियों से अपना भोजन प्राप्त करते है, तो कुछ जन्तु पौधों को नष्ट करते है, विशेष रूप से भेड़-बकरी अनेक दुधारू पशु गाय, भैंस के घास चरने से भूमि कुचली जाती है, जिसमें जड़ें खुल जाती हैं, तथा मिट्टी ढीली पड़ जाती है और इसमें भूमि का अपरदन होता है ।
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अत: आवश्यक है कि पशुओं के चरने को इस तरह नियन्त्रित किया जाए, कि वे भूमि का अपरदन भी न करें तथा पौधे खाकर अपना आहार भी प्राप्त कर सकें । जिन स्थानों पर भूमि अपरदन अधिक होता है, उन स्थानों पर पशुओं का चरना प्रतिबन्धित होना चाहिए । पर्वतीय दालों पर ऐसी ढोल बनाई जाए, जिसमें पशुओं द्वारा पौधों के खाने पर भूमि का अपरदन यदि हो तो मिट्टी वहां से हटकर अन्यत्र नहीं जाए ।
(iii) समोच्च रेखीय जुताई:
ढ़ाल के अनुसार भूमि को न जोता जाए बल्कि दाल को काटकर सीढ़ीनुमा खेत बनाएँ जाएं और इस प्रकार समोच्च रेखीय जुताई की जाए । यह जुताई पर्वतीय भागों में की शिखर से नीचे की ओर समकोण बनाते भूमि का अपरदन भी कम हो जाता है व जल के बहाव को आवेग भी मंद रहता है ।
(iv) बाढ़ नियंत्रण:
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नदियों में बाढ़ नियंत्रण हेतु उनकी घाटियों में बांध बाँधना और विशाल जलाश्य बनाना । इनके द्वारा जल बहाव पर नियंत्रण रहता है तथा भूमि का अपरदन रुक जाता है । इस संचित जल का उपयोग आवश्यकता पड़ने पर किया जा सकता है ।
(v) परती भूमि:
कृषित भूमि को परती भूमि के रूप में कम से कम छोड़ी जानी चाहिए । खाली पड़ी भूमि पर अपरदन की मात्रा अधिक रहती है ।
(vi) फसल प्रत्यावर्तन:
एक ही भूमि पर फसलों को हेरफेर करके बोने पर भूमि की उर्वरता भी बनी रहती हैं, तथा साथ-साथ उसका अपरदन भी नहीं होता है । क्योंकि इस प्रकार भूमि में से कुछ विशेष तत्व कुछ फसलें अधिक मात्रा में ग्रहण का लेती है, तथा कुछ फसलें भूमि को इन तत्वों की पूर्ति करने में मदद देती हैं । अत: फसलों को उचित अदला बदली करके बोया जाए तो भूमि की उर्वरता भी बनी रहती है, और उसका अपरदन भी रूक जाता है ।
(vii) मरूस्थल का विस्तार रोकना:
मरूस्थलों को रोकने के लिए वनों की अनेक कताई लगाई जाएं । इसके द्वारा हवाओं की तीव्रता को कम किया जा सकता है । जिसमें उनकी रेत को दूर तक उड़ा ले जाने की क्षमता कम हो जाती हैं । जब यह रेत उपजाऊ भूमि पर एकत्र होने लगती है, तब उसकी उर्वरा शक्ति कम होने लगती हैं । हमारे देश में विशेष रूप से हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश राज्यों से सटे राजस्थान के सीमावर्ती भाग इस प्रकार की समस्या से पीड़ित है, अत: मरूस्थल के विस्तार को इन क्षेत्रों में रोकने के लिए विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है ।
(viii) भूमि की उपजाऊ शक्ति एक सदैव एक सी रखने के लिए उसमें खाद व उर्वरक का समुचित मात्रा में उपयोग करना ।
(ix) स्थानान्तरण कृषि:
इन क्षेत्रों को स्थायी कृषि क्षेत्रों में बदलना ताकि इस प्रकार की कृषि के लिए वनों को बेकार में न काटा जाए । इससे भूमि अपरदन के साथ-साथ वन ह्रास को रोका जा सकता ।
2. जल संरक्षण:
जल ही जीवन है, अत: जल का संरक्षण अति आवश्यक है ।
इस सम्बन्ध में निम्न बातों पर ध्यान दिया जा सकता हैं:
(i) प्रत्येक गांव में तालाब अवश्य होने चाहिए जिनमें वर्षा के जल को एकत्रित किया जा सके । इस जल का उपयोग आवश्यकता पड़ने पर अनेक कामों में किया जा सकता है ।
(ii) नदियों पर छोटे-छोटे बांध व जलाश्य बनाये जाने चाहिए । इससे अतिरिक्त जल को एकत्र करके आवश्यकता पड़ने काम में लाया जा सकता है । इन बांधो पर विद्युत भी उत्पादित की जा सकती है ।
(iii) नदियों में प्रदूषित जल को डालने से पूर्व उसे साफ करके डाला जाए, ताकि नदियों का जल स्वच्छ बना रहे ।
(iv) जल प्रवाह की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए । कस्बों, नगरों में दूषित जल के निकास की उचित व्यवस्था होनी चाहिए ।
(v) जल का व्यर्थ न गँवाना एवं पदूषित न होने देना भी संरक्षण के लिए आवश्यक है ।
(vi) भूमिगत जल का उपयोग उनकी समय उपलब्धता के आधार पर किया जाए । धरातलीय जल की अनुपस्थिति में इस जल को काम में लाया जाए ।
3. पर्वतीय क्षेत्र और पर्यावरण संरक्षण:
जनसंख्या के बढ़ते दबाव तथा खनिज संसाधनों के अन्धाधुन्ध दोहन से पर्यावरण की अनेक समस्याओं का सामना पर्वतीय क्षेत्रों को करना पड़ रहा है । भू-स्खलन और भू-कटाव के रूप में वहां के पर्यावरणीय आधार का तेजी से हास हो रहा है । पर्वतीय विकास और पर्यावरण में तालमेल होना चाहिए तथा यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि वहां के लोगों की भागीदारी इसमें अवश्य रहे ।
पर्यावरण संतुलन के लिए बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण, एकीकृत जलागम प्रबन्धन, भूमि एवं जल संरक्षण, वनों का वैज्ञानिक प्रबन्धन, पर्यावरण संरक्षण हेतु शोध एवं पर्यावरण शिक्षा, जनजागरूकता पारिस्थितिकी विकास, पर्यावरणीय प्रभाव मूल्याँकन आदि कार्यक्रमों को बढावा दिया जाना चाहिए ।
पर्वतीय क्षेत्रों में सड़क निर्माण के समय पर्यावरण पर ध्यान चाहिए । मोटर मार्गों के बजाए हल्के वाहन मार्ग पैदल मार्ग तथा पुल मार्ग आदि के समन्वित निर्माण पर्यावरण को हानि पहुंचाए बिना बनाए जाए तथा सडकें बनाते समय स्थानीय पर्यावरण की वाहक क्षमता का ध्यान अवश्य रखा जाए ।
प्राकृतिक संसाधनों की उपलब्धि के साथ ही पर्यावरण की रक्षा में वनों की विशेष भूमिका है । वन पर्वतीय क्षेत्र के आर्थिक विकास के मुक्त स्त्रोत भी है । कच्चा माल, ईधन प्रदान करने, भूरक्षण रोकने, पर्यावरण की सुरक्षा करने तथा मैदानी क्षेत्रों को बाढ़ से बचाने के महत्वपूर्ण कार्य पर्वतीय क्षेत्र के वन करते है ।
अत: पर्वतीय भू-भाग का 60 प्रतिशत भाग वन क्षेत्र होना चाहिए । एक हजार मीटर से अधिक ऊंचाई पर स्थित पेड़ों की व्यापारिक कटान पर रोक लगाई जाए । वन्य जन्तु तथा वनों का विनाश रोकने, जैविक विविधता बनाये रखने, भारी पैमाने पर वनीकरण करने, वन सम्पदा के बढ़ाने आदि को महत्व दिया जाए ।
यहाँ पर ऐसे उद्योगों के विकास पर बल दिया जाए, जो पर्यावरण असन्तुलन भी पैदा न करें और लोगों का जीवन स्तर भी ऊँचा उठ सके । इलैक्ट्रानिक्स उद्योग, लघु एवं कुटीर उद्योग तथा हाथकरघा उद्योग इस दृष्टि से अधिक उपयोगी हो सकते हैं ।
4. परिवहन एवं पर्यावरण संरक्षण:
जनसंख्या की तीव्र वृद्धि के साथ वाहनों की संख्या में तेजी से वृद्धि होती जा रही है । इससे निकलने वाला धुंआ पर्यावरण को प्रदूषित कर रहा है ।
जिसको निम्न उपायों द्वारा रोका जा सकता है:
(i) धुँआ उगलने वाले परिवहनों की वृद्धि को रोका जाये ।
(ii) परिवहनों के धुएँ की माप धुँआ मीटर, से की जाये ।
(iii) वायु प्रदूषण नियंत्रण अधिनियम का सख्ती से पालन कराया जाये ।
(iv) सड़कों पर पेड़ लगाए जाएँ । यद्यपि इसका असर प्रदूषण पर सीमित ही पड़ेगा ।
(v) परिवहन साधनों में बसों, ट्रकों, मोटरों, स्कूटरों आदि में शोर शमन यंत्र (Silencer) ठीक काम करते है या नहीं इसकी पूरी देख रेख की जाये । शोर मचाने वाले वाहनों को चलन में लाने से रोक दिया जाये ।
(vi) अनिवार्य स्थिति में ही वाहनों को हार्न बजाने की अनुमति दी जाए ।
(vii) विविध प्रकार के हार्न का बढ़ता उपयोग रोका जाये ।
5. जीव जन्तुओं एवं समुद्री दोहन का संरक्षण:
जीव जन्तुओं की विभिन्न नस्लों के संरक्षण के लिए उनके प्राकृतिक पर्यावरण को सुरक्षित किया जाए । इसके लिए वनों का होना आवश्यक है । इस प्रकार प्रत्येक प्रकार के जीव अपना विकास कर सकते है । इसलिए इन जन्तुओं के शिकार पर रोक लगाई जाए, वनों को काटने से रोका जाए, वनों के क्षेत्र को बढ़ाया जाए आदि ।
समुद्रों के जल में दिन-प्रतिदिन प्रदूषण बढ़ता जा रहा है । इस जल में तेल के मिलने, कारखानों का प्रदूषित जल को गिराने आदि के कारण प्रदूषण बढ़ रहा है । इसके दुष्प्रभाव से समुद्री जल से मछलियों की प्रजनन शक्ति पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है । उनकी संख्या भी घट रही है, तथा उनका शरीर भी अम्लीय हो रहा है, जो लोगों का आहार बनकर उनको नुकसान पहुँचा रहा है । अत: आवश्यक है कि समुद्रों के जल को प्रदूषित होने से रोका जाए ।
6. वनों का संरक्षण:
किसी भी देश के पर्यावरण को संतुलित रखने के लिए कम से कम 33 प्रतिशत भाग वन आवरण होना चाहिए । भारत का यह वन क्षेत्र मात्र 64 लाख हैक्टेयर अर्थात मात्र 19.4 प्रतिशत रह गया है । भारत की अर्थव्यवस्था में अभी तक वनों ने कोई महत्वपूर्ण योगदान नहीं दिया है परन्तु भविष्य में अति आवश्यक है कि वन संसाधन का विस्तार एवं संरक्षण वैज्ञानिक तथा सही व्यवस्था के द्वारा किया जाये ।
आज भारत में वर्तमान वन संसाधन को संरक्षण प्रदान करने की जरूरत है तथा क्षेत्र के विस्तार को अविलम्ब बढ़ाये जाने की आवश्यकता है । हमारी गलत एवं त्रुटिपूर्ण वन-नीतियों ने जो विनाश किया है उसकी भरपाई किया जाना बहुत जरूरी है । भारतीय कृषि आयोग ने इस ओर विशेष ध्यान दिया है एवं सामाजिक वानिकी पर विशेष बल दिया है ।
इस हेतु निम्न उपाय किए जाने आवश्यक हैं:
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(i) वनों की रक्षा के लिए सरकारी नियम बनने चाहिए तथा उनका कठोरता से पालन होना चाहिए ।
(ii) केन्द्र सरकार को प्रदेश सरकारी के लिए प्रत्येक पंचवर्षीय योजना में वनों के विस्तार के लिए निश्चित क्षेत्र का लक्ष्य रखने को कहना चाहिए ।
(iii) जनता का ध्यान पर्यावरण के संरक्षण में वनों की उपयोगिता पर दिया जाना चाहिए ।
(iv) सामाजिक वानिकी को आर्थिक प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए । जिससे प्रत्येक घर में कम से कम एक वृक्ष लगाना आवश्यक हो तथा मनुष्य खाली स्थानों पर वृक्षारोपण करें ।
(v) वन अपराधियों के लिए कठोर दण्ड-नियम बनाये जायें जिससे वनों का गैर कानूनी कटान रोका जा सके ।
(vi) वनों के प्रति जनता को नया दृष्टिकोण अपनाना चाहिए, जिससे वे वनों को राष्ट्रीय सम्पदा मानकर उनके विकास एवं संरक्षण में सहयोग करें ।
(vii) वन क्षेत्रों की देखभाल प्रशिक्षित कर्मचारियों के द्वारा की जानी चाहिए ।
(viii) वैज्ञानिक वन व्यवस्था एवं बन उपजों के उपयोग को आर्थिक संरक्षण दिया जाना चाहिए ।
(ix) वृक्षों के प्रकार एवं उपयोग के लिए अनुसंधान किये जाने चाहिए, जिससे गौण उपयोग में अच्छी किस्म की लकड़ी का दुरूपयोग न हो ।
ADVERTISEMENTS:
(x) वन रक्षण में वनों के काटने के वैज्ञानिक तरीकों के प्रयोग पर बल दिया जाना चाहिए ।
(xi) वनों के विकास में युवा मानव संसाधन जैसे राष्ट्रीय सेवा योजना राष्ट्रीय कैडेट कोर स्काउट एवं अनेक समाजसेवी संस्थाओं का सहयोग लिया जाना चाहिए ।
(xii) वन संरक्षण को सरकारी संचार माध्यमों पर विशेष ध्यान देकर जन चेतना जाग्रत की जानी चाहिए ।
(xiii) वन महोत्सव, विश्व वानिकी दिवस, पर्यावरण दिवस अथवा अनेक राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय महत्वपूर्ण दिवसों पर वहत स्तर पर वृक्षारोपण, वृक्ष सेवा, वृक्ष संरक्षण कार्यशाला, श्रमदान अथवा संकल्प कार्यक्रम किये जाने चाहिए ।
(xiv) भारत के केन्द्रीय वन मण्डल, वन अनुसंधान संस्थान, वन अध्ययन आदि संस्थाएं वन विकास, सरंक्षण एवं शोध कार्य कर वनों के विकास में विशेष योगदान दे रही हैं । ये संस्थान अनेक प्रकार के संकर वृक्षों, कीटनाशक दवाओं आदि पर खोज कर वन विज्ञान को नया जीवन एवं दिशा प्रदान कर रही है ।