Here is a compilation of Essays on ‘Pollution ’ for Class 1, 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8, 9, 10, 11 and 12. Find paragraphs, long and short essays on ‘Pollution’ especially written for Kids, School and College Students in Hindi Language.
List of Essays on Pollution
Essay Contents:
- प्रदूषण |Essay on Pollution in Hindi Language
- पर्यावरण प्रदूषण का स्वरूप व उनके परिणाम । Essay on Environment Pollution and its Effects for College Students in Hindi Language
- गंगा प्रदूषण । Essay on Ganga River Pollution for Kids in Hindi Language
- वर्तमान समय में बढ़ते प्रदूषण |Essay on Rise of Pollution for School Students in Hindi Language
- ध्वनि-प्रदूषण: स्वरूप और परिणाम | Paragraph on Noise Pollution and its Effect for School Students in Hindi Language
1. प्रदूषण | Essay on Pollution in Hindi Language
इस सृष्टि में भूमि, जल वायु तथा समस्त प्राणी जगत के बीच एक संतुलन है, जो प्राकृतिक रूप से बना रहता है । जैवमंडल की रचना इस प्रकार की है कि किसी बाहरी या कृत्रिम सहायता के बिना भी इसका निरंतर पोषण एवं संवर्धन होता रहता है ।
इसे ही नैसर्गिक संतुलन कहा जाता है । जैवमंडल या पारिस्थिति की में विद्यमान सामंजस्य में थोड़ा-सा भी फेर बदल होने से आए नकारात्मक परिणाम को ही प्रदूषण की संज्ञा दी जाती है । प्रदूषण का तात्पर्य ‘गंदा’ या ‘अशुद्ध’ से लगाया जाता है, किंतु इसके अर्थ में कुछ अन्य स्थितियाँ तथा क्रियाएँ भी समाहित रहती हैं ।
वायु और वायु के प्रदूषण से हम सभी परिचित हैं परंतु वनों की अंधाधुंध कटाई से हुआ विनाश भू-क्षरण तथा जीव-जंतुओं की प्रजातियों का विनाश आदि भी प्रदूषण की श्रेणी में आता है । आज मनुष्य विज्ञान और तकनीकी के क्षेत्र में बहुत आगे निकल गया है लेकिन यह प्रगति ही मनुष्य के लिए गंभीर संकट पैदा कर रही है ।
पूरे विश्व में औद्योगीकरण के कारण प्रदूषण की समस्या उत्पन्न हो गई है । उद्योगों में विभिन्न प्रकार के कच्चे माल व रसायनों का प्रयोग किया जाता है । कारखानों और फैक्टरियों से निकलने वाले अवशिष्ट पदार्थ वातावरण को प्रदूषित करते हैं ।
जब इन अवशिष्ट पदार्थों को नदियों और समुद्र में डाला जाता है, तो जल भी प्रदूषित हो जाता है । उद्योगों में मशीनों से निकलने वाली गैसों तथा धुएँ आदि से वायु प्रदूषित होती है । फैक्टरियों और कारखानों द्वारा छोड़ी जा रही गैसों और धुएँ में कार्बन डाई ऑक्साइड, कार्बन मोनो-ऑक्साइड, सल्फर डाई-ऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड आदि होती हैं ।
ये जहरीली गैसें वायुमंडल के प्रदूषण का कारण बन रही हैं जिससे संपूर्ण प्राणी जगत तथा वनस्पति जगत दोनों के लिए ही गंभीर खतरा उत्पन्न हो गया है । कई बड़े शहरों में तो मोटर वाहनों से इतना अधिक प्रदूषण होता है कि सड़कों पर साँस लेना भी दूभर हो जाता है । कृषि कार्यो के दौरान कीटनाशक दवाओं तथा रासायनिक खादों का प्रयोग करने से भी वायुमंडल दूषित होता है ।
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फर्नीचर और उपकरणों पर स्टे-पेंटिंग पॉलिश । रंगाई छपाई तथा ड्राई-क्लीनिंग के काम में आने वाले द्रव्यों से कार्बनिक वेपर उत्पन्न होते हैं जो वायुमंडल को प्रदूषित करते हैं । बहता हुआ पानी प्राय: स्वच्छ होता है, क्योंकि उसमें खुद को स्वच्छ बनाए रखने की क्षमता होती है । परंतु औद्योगिक क्रियाकलापों के कारण जल भी प्रदूषित होता जा रहा है ।
जल में फास्फरस तथा नाइट्रोजन की मात्रा बढ़ने से जल दूषित हो जाता है । भूमि के कटाव के कारण नदियों, झीलों तथा सागरों में गाद इकट्ठा हो जाती है जिससे समुद्री जीवों के लिए खतरा उत्पन्न हो जाता है ।
जहरीला औद्योगिक कचरा कारखानों के अवशिष्ट पदार्थ तेल विषैले, रसायन आदि को नदियों झीलों व समुद्रों में बहा देने से इनका पानी विषैला हो जाता है तथा जल के जीवों के लिए संकट की स्थिति उत्पन्न हो जाती है ।
प्रदूषित पानी को उपयोग में लाने वाले प्राणी विभिन्न बीमारियों के शिकार हो जाते हैं । इसी प्रकार खेतों में डाले जाने वाले रसायन भूमिगत जल को प्रदूषित करने का कारण बन जाते हैं । पेड़ों की कटाई खदानों की खुदाई तेल की खोज चरागाहों का सिकुड़ना भूमि का कटाव तथा जीव-जन्तुओं का विनाश आदि सभी प्रदूषण का कारण बनते हैं ।
शोर-शराबे तथा भारी मशीनों के कारण होने वाली आवाजों से ध्वनि प्रदूषण होता है । ध्वनि-प्रदूषण के कारण सुनने की शक्ति तथा स्वास्थ्य को गंभीर खतरा पैदा हो जाता है । आज हवा समुद्र नदियाँ सभी प्रदूषण के शिकार हैं । नदियों का पानी जहरीला हो रहा है । समुद्र में प्रदूषण के परिणामस्वरूप मछलियाँ मर रही हैं पेड़ सूख रहे हैं और साँस लेना भी मुश्किल होता जा रहा है ।
शहरों की प्रदूषित वायु में दम घुटता है । वायु और जल प्रदूषण के कारण मनुष्य तथा जीव-जन्तु तरह-तरह की बीमारियों के शिकार हो रहे हैं । भोजन चक्र के माध्यम से भी विषैले तत्व हमारे शरीर में पहुँच रहे हैं । पक्षियों का विनाश होने से कृषि पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा क्योंकि कीड़े-मकोड़ों के कारण फसलें नष्ट होने लगेंगी ।
प्रदूषण के कारण ओजोन की परत नष्ट हो रही है । यदि ओजोन का क्षरण नहीं रुका तो सूर्य की हानिकारक किरणें धरती पर पहुँचेंगी तथा मनुष्य और अन्य जीवों को हानि पहुंचाएंगी । यदि वनों और पेड़-पौधों की कटाई ऐसे ही होती रही तो वह दिन दूर नहीं जब भू-क्षरण के कारण भूमि खेती के लायक ही नहीं रह जाएगी । वनों के विनाश से वर्षा में भी कमी आएगी ।
प्रकृति में जीवधारियों की एक निश्चित और सुसम्बद्ध श्रृंखला होती है । इसकी एक कड़ी भी यदि टूट जाए तो भयानक विनाश हो सकता है । उदाहरण के लिए यदि भी बिल्लियाँ मार दी जाएं तो चूहों की संख्या में हद से ज्यादा वृद्धि हो जाएगी जिससे पर्यावरण का संतुलन बिगड़ जाएगा ।
इसी प्रकार शेर, बाघ और चीतों के विनाश से जंगलों में पर्यावरणिक असंतुलन पैदा होगा । प्रकृति में जीवों और वनस्पतियों के बीच तथा स्वयं वनस्पतियों और जीवों के बीच एक ऐसा संतुलन है जिसके बिगड़ने पर विनाश आरम्भ हो जाएगा । यह सतुलन प्रदूषण के कारण ही बिगड़ता जा रहा है ।
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हाल के वर्षो में इस संबंध मे जागरूकता आयी और प्रदूषण के कारकों को समाप्त करने इन प्रयास किया जा रहा है । मानव मात्र की रक्षा और भावी पीढ़ियों के कल्याण हेतु इस दशा में ठोस कदम उठाए जाने की आवश्यकता है । ऐसा करके ही हम प्रदूषण की समस्या ऊन निराकरण कर सकते हैं ।
2. पर्यावरण प्रदूषण का स्वरूप व उनके परिणाम । Essay on Environment Pollution and its Effects for College Students in Hindi Language
पर्यावरण प्रदूषण के कारण ही पृथ्वी का तापमान बढ़ रहा है । इस ताप का प्रभाव ध्वनि की गति पर भी पड़ता है । तापमान में एक डिग्री सेल्सियस ताप बढ़ने पर ध्वनि की गति लगभग साठ सेंटीमीटर प्रति सेकेण्ड बढ़ जाती है । आज हर ध्वनि की गति तीव्र है और श्रवण शक्ति का हास हो रहा है ।
यही कारण है कि आज बहुत दूर से घोड़ों के टापों की आवाज जमीन पर कान लगाकर नहीं सुनी जा सकती । जबकि प्राचीन काल में राजाओं की सेना इस तकनीक का प्रयोग करती थी । बढ़ते उद्योगों, महानगरों के विस्तार तथा सड़कों पर बढ़ते वाहनों के बोझ ने हमारे समक्ष कई तरह की समस्या खड़ी कर दी हैं । इनमें सबसे भयंकर समस्या है प्रदूषण ।
इससे हमारा पर्यावरण संतुलन तो बिगड़ ही रहा है साथ ही यह प्रकृति प्रदत्त वायु व जल को भी दूषित कर रही है । पर्यावरण में प्रदूषण कई प्रकार के हैं । इनमें मुख्य रूप से ध्वनि प्रदूषण, वायु प्रदूषण और जल प्रदूषण शामिल हैं । इनसे हमारा सामाजिक जीवन प्रभावित होने लगा है तथा तरह-तरह के रोग उत्पन्न होने लगे हैं ।
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औद्योगिक संस्थाओं को कूड़ा-करकट, रासायनिक द्रव्य व इनसे निकलने वाला अवजल नाली-नालों से होते हुए नदियों में गिर रहे हैं । इसके अतिरिक्त अंत्येष्टि के अवशेष तथा छोटे बच्चों के शवों को नदी में बहाने की प्रथा है । इनके परिणामस्वरूप नदी का पानी दूषित हो जाता है । हालांकि नदी के इस जल को वैज्ञानिक तरीके से शोधित कर पेय जल बनाया जाता है ।
लेकिन इस कथित शुद्ध जल के उपयोग से कई प्रकार के विकार उत्पन्न हो रहे हैं । इनमें खाद्य विषाक्तता तथा चर्म रोग प्रमुख है । प्रदूषित जल मानव जीवन को ही नहीं कई अन्य क्षेत्रों को भी प्रभावित करता है । इससे कृषि क्षेत्र भी अछूता नहीं है । प्रदूषित जल से खेतों में सिंचाई करने के कारण उनमें उत्पन्न होने वाले खाद्य पदार्थों की शुद्धता व उसके अन्य पक्षों पर भी उसका दुष्प्रभाव पड़ता है ।
शुद्ध वायु जीवित रहने के साथ-साथ हमारे जीवन के लिए आवश्यक है । शुद्ध वायु का स्त्रोत वन, हरे-भरे बाग व लहलहाते पेड़-पौधे हैं । क्योंकि यह जहां प्रदूषण के भक्षक हैं वहीं यह हमें आक्सीजन प्रदान करते
हैं । बढ़ती जनसंख्या के कारण आवास की समस्या उत्पन्न होने लगी है । मानव ने अपनी आवासीय पूर्ति के लिए वन क्षेत्रों और वृक्षों का भारी मात्रा में दोहन किया ।
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इसके अलावा हरित पट्टियों पर कंकरीट के जाल रूपी सड़कें बिछा दी हैं । इस कारण हमें शुद्ध वायु नहीं मिल पा रही । इसके अतिरिक्त कारखानों से निकलने वाली विषैली गैसें, धुआं, कूड़े-कचरों से उत्पन्न गैसें वायु को प्रदूषित कर रही हैं । रही सही कसर पेट्रोलियम पदार्थ से चलने वाले वाहनों ने पूरी कर दी है । स्कूटर, मोटरसाइकिल, कार, बस, ट्रक आदि वाहन दिन रात सड़कों पर दौड़ रहे हैं ।
इनसे जो धुआं निकलता है उसमें कार्बनडाय आक्साइड, सल्फ्यूरिक ऐसिड और सीसे के तत्व शामिल होते हैं । जो हमारे वायुमंडल में घुलकर उसे प्रदूषित करते हैं । दिल्ली जैसे महानगर में वायु को प्रदूषित करने में वाहनों की अहम भूमिका है ।
वायु को प्रदूषित करने में इनका हिस्सा साठ प्रतिशत तथा शेष कारखानों व अन्य स्त्रोत के जरिये होता है । वायु प्रदूषण से श्वास संबंधी रोग उत्पन्न होते हैं । इसके अलावा यह हमारे नेत्रों व त्वचा को भी प्रभावित करती है । हमारे वातावरण में मनुष्य की ध्वनि के अतिरिक्त प्रकृति और प्राकृतिक वातावरण से सुनाई देने वाली भी कुछ ध्वनियां हैं ।
पक्षियों के चहचहाने, पत्तों का टकराने, बादलों और समुद्र की हल्की गर्जना आदि से भी ध्वनि उत्पन्न होती है । इन ध्वनियों को प्रकृति का संगीत मानकर उनका आनन्द लिया जाता है । लेकिन यही ध्वनियां जब तेज हो उठती हैं तो कानों को चुभने लगती हैं । तेज ध्वनि से कानों के पर्दे फट जाने और व्यक्ति के बहरा हो जाने का भय होता है । इस भयप्रद ध्वनियों के प्रभाव को वास्तव में ध्वनि प्रदूषण कहा जाता है ।
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प्रात: से ही हम ध्वनि प्रदूषण का शिकार होने लगे हैं । इस समय मन्दिरों, मस्जिदों, गुरुद्वारों में कीर्तन मण्डलियों द्वारा लाउडस्पीकर चलाकर भजन गाये जाते हैं । यह भी ध्वनि प्रदूषण का एक बहुत बड़ा हानिप्रद कारण है । इन पर अंकुश लगाने में हमारा धर्म आड़े आ जाता है । यही कारण है कि इस पर कानूनी अंकुश लगाने में सफलता नहीं मिल पा रही है ।
इसके अतिरिक्त मोटरों, कारों, ट्रकों, बसों, स्कूटरों आदि के तेज आवाज वाले होर्न, तेज गति व आवाज से दौड़ती रेलें, कल-कारखानों के बजते भोंपू व मशीनों की आवाज भी ध्वनि प्रदूषण फैलाती है । संगीत की कोकिल ध्वनि चित्त को जहां शांति व खुशी प्रदान करती है वहीं दूसरी ओर वाहनों का शोर हमें कान की व्याधि का शिकार बना रहा है ।
ध्वनि व शोर में कोई अधिक अंतर नहीं है । शोर वह ध्वनि है जिसे हम नहीं चाहते । अधिक तीव्रता एवं प्रबलता की ध्वनि ही शोर कहलाती है । बड़े शहरों के खुले वातावरण में तीस डेसीबल का शोर हर समय रहता है । कभी-कभी यह पचास से डेढ़ सौ डेसीबल तक बढ़ जाता है ।
उल्लेखनीय है कि किसी सोये हुए व्यक्ति की निद्रा चालीस डेसीबल के शोर से खुल जाती है । पहले प्रात: चिड़ियों की चहचहाट से नींद खुलती थी लेकिन अब मोटर वाहनों की शोरगुल से नींद खुलती है । अकेले दिल्ली में सड़कों पर दौड़ते वाहनों एवं कर्कश कोलाहल से करीब सवा करोड़ की आबादी में से अधिकतर लोग शोर जनित बहरेपन के शिकार है ।
ऐसे लोगों को फुस्फुसाहट सुनाई नहीं देती । पचास डेसीबल का शोर हमारे श्रवण शक्ति पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है । दीवाली पर जलाये जाने वाले पटाखों का शोर दौ सौ डेसीबल से भी अधिक होता है । ध्वनि प्रदूषण कानों की श्रवण शक्ति के लिए तो हानिकारक है ही, साथ ही यह तन मन की शान्ति को भी प्रभावित करता है । ध्वनि प्रदूषण के कारण मानव चिड़चिड़ा और असहिष्णु हो जाता है ।
इसके अलावा अन्य कई विकार पैदा होने लगते हैं । हमें प्रदूषण से बचने के लिए हरित क्षेत्र विकसित करना होगा । इसके अतिरिक्त आवासीय क्षेत्रों में चल रही औद्योगिक इकाइयों को वहां से स्थानांतरित कर इन इकाइयों से निकलने वाले कचरे को जलाकर नष्ट करने जैसे कुछ उपाय अपनाकर प्रदूषण पर कुछ हद तक नियंत्रण पाया जा सकता है ।
3. गंगा प्रदूषण । Essay on Ganga River Pollution for Kids in Hindi Language
गंगा भारतीय जन-मानस बल्कि स्वयं समूची भारतीयता की आस्था का जीवन्त प्रतीक है, मात्र एक नदी नहीं । हिमालय की गोद में पहाड़ी घाटियों से नीचे उतर कल्लोल करते हुए मैदानों की राहों पर प्रवाहित होने वाली गंगा पवित्र तो है ही, वह मोक्षदायिनी के रूप में भारतीय भावनाओं में समाई है । भारतीय सभ्यता-संस्कृति का विकास गंगा-यमुना जैसी पवित्र नदियों विशेषकर गंगा तट के आस-पास ही हुआ है ।
गंगा जल वर्षों तक बोतलों, डिब्बों आदि में बन्द रहने पर भी कभी खराब नहीं होता और न ही उसमें कोई कीड़े लगते हैं । वही भारतीयता की मातृवत पूज्या गंगा आज प्रदूषित होकर गन्दे नाले जैसी बनती जा रही है, यह भी एक वैज्ञानिक परीक्षणगत एवं अनुभवसिद्ध तथ्य है ।
पतित पावनी गंगा के जल के प्रदूषित होने के बुनियादी कारण क्या हैं, उन पर कई बार विचार एवं दृष्टिपात किया जा चुका है । एक कारण तो यह है कि भारत के प्राय: सभी प्रमुख नगर गंगा तट पर और उसके आस-पास बसे हुए हैं । उन नगरों में आबादी का दबाव बहुत बढ़ गया है ।
वहां से मल-मूत्र और गन्दे पानी की निकासी की कोई सुचारू व्यवस्था न होने के कारण इधर-उधर बनाए गए छोटे-बड़े सभी गन्दे नालों के माध्यम से बहकर वह गंगा नदी में आ मिलता है । परिणामस्वरूप कभी खराब न होने वाला गंगाजल भी बाकी वातावरण के समान आज बुरी तरह से प्रदूषित होकर रह गया है ।
एक दूसरा प्रमुख कारण गंगा-प्रदूषण का यह है कि औद्योगीकरण की बढ़ती प्रवृत्ति ने भी इसे बहुत प्रश्रय दिया है । हावड़ा, कोलकाता, बनारस, कानपुर आदि जाने कितने औद्योगिक नगर गंगा तट पर ही बसे हैं । यहां लगे छोटे-बड़े कारखानों से बहने वाला रासायनिक दृष्टि से प्रदूषित पानी, कचरा आदि भी गन्दे नालों तथा अन्य मार्गों से आकर गंगा में ही विसर्जित होता है ।
इस प्रकार के तत्वों ने जैसे बाकी वातावरण को प्रदूषित कर रखा है, वैसे गंगाजल को भी बुरी तरह प्रदूषित कर दिया है । वैज्ञानिकों, का यह भी मानना है कि सदियों से आध्यात्मिक भावनाओं से अनुप्राणित होकर गंगा की धारा में मृतकों की अस्थियों एवं अवशिष्ट राख तो बहाई ही जा रही है, अनेक लावारिस और बच्चों की लाशें भी बहा दी जाती हैं ।
बाढ़ आदि के समय मरे पशु भी धारा में आ मिलते हैं । इन सबने भी जल-प्रदूषण की स्थितियाँ पैदा कर दी हैं । गंगा के निकास स्थल और आस-पास से वनों-वृक्षों का निरन्तर कटाव, वनस्पतियों औषधीय तत्वों का विनाश भी प्रदूषण का एक बहुत बड़ा कारण है । इसमें सन्देह नहीं कि ऊपर जितने भी कारण बताए गए हैं, गंगा-जल को प्रदूषित करने में न्यूनाधिक उन सभी का हाथ अवश्य है ।
विगत वर्षों में गंगाजल का प्रदूषण समाप्त करने के लिए एक योजना बनाई गई थी । कुछ दिनों उस पर कार्य होता भी रहा । फिर शायद धनाभाव के कारण उसे रामभरोसे बीच में छोड़ दिया गया । योजना के अन्तर्गत दो कार्य मुख्य रूप से किए गए या करने का प्रावधान किया गया ।
एक तो यह कि जो गन्दे नाले गंगा में आकर गिरते हैं, या तो उन का रुख मोड़ दिया जाए, या फिर उनमें जल-शोधन करने वाले संयंत्र लगाकर जल को शुद्ध साफ कर गंगा में गिरने दिया जाए । शोधन से प्राप्त मलबा बड़ी उपयोगी खाद का काम दे सकता है, यह एक स्वयं सिद्ध बात है । दूसरा यह कि कल-कारखानों से निकलने वाला विषैला प्रदूषित जल भी गंगा तक न पहुंचने दिया जाये ।
कारखानों में ऐसे संयत्र लगाए जायें जो उस जल का शोधन कर सकें या उस पानी को, कचरे को कहीं और भूमि के भीतर दफन कर दिया जाए । शायद ऐसा कुछ करने का एक सीमा तक प्रयास भी किया गया, पर काम आगे नहीं बढ़ सका, यह भी तथ्य है, जबकि गंगा के साथ जुड़ी भारतीयता का ध्यान रख उसे पूर्ण करना बहुत आवश्यक है ।
बाकी तनिक आधुनिक और वैज्ञानिक दृष्टि अपनाकर अपने ही हित में गंगाजल में लाशें बहाना बन्द किया जा सकता है । धारा के निकास-स्थल के आसपास से वन-वृक्षों, वनस्पतियों आदि का कटाव कठोरता से प्रतिबन्धित कर कटे स्थान पर उनका पुनर्विकास कर पाना आज कोई कठिन बात नहीं रह गई है ।
अन्य उन कारक तत्वों को भी थोड़ा प्रयास कर के निराकरण किया जा सकता है, जो गंगा जल को प्रदूषित कर रहे हैं ऐसा सब करना वास्तव में भारतीयता और उसकी संस्कृति में आ मिले अपतत्वों से उसकी रक्षा करना है । वास्तव में गंगा जल की शुद्धता का अर्थ भारतीयता की समग्र शुद्धता है ।
4. वर्तमान समय में बढ़ते प्रदूषण |Essay on Rise of Pollution in the Recent Times for College Students in Hindi Language
पर्यावरण को जीवन्त बनाए रखने के लिए वृक्षारोपण आवश्यक है । बढ़ती जनसंख्या और औद्योगिक विकास की होड़ में जिस प्रकार जंगलों का विनाश किया गया है और किया जा रहा है, उससे समस्त धरा असुरक्षित हो गई है ।
अत: धरती पर जीवन को सुरक्षित बनाने के लिए वृक्षारोपण आवश्यक है । हमारे यहां प्राचीन काल से ही वनों की सुरक्षा और वृक्षारोपण को धार्मिक भावनाओं से जोड़ दिया गया । वट-सावित्री पूजन, एकादशी को आवले के नीचे भोजन करना, पीपल की पूजा आदि प्राचीन विधियां वनों को सुरक्षित रखने और वृक्षारोपण को प्रश्रय देने के लिए की गई थी ।
वृक्षारोपण से वन-सम्पदा में दृष्टि होती हैं । इससे अनेक लाभ है: जलावन, घर के किवाड़, खिड़की, धरन और अन्य उपयोगी सामान इसी से प्राप्त होते हैं । अनेक वृक्षों के छाल और पत्ते उद्योग धन्धों को चलाने के काम आते हैं । बबूल की छाल, हर्र-बहेरा और आंवला चमड़ा बनाने के काम में भी आता है ।
रबर, रेशम आदि वृक्ष से ही प्राप्त होते है । भारतवर्ष के अधिकांश हिस्सों में आज भी जलावन के लिए लकड़ी का ही व्यवहार किया जाता है । वृक्षारोपण न केवल हमारे गृहस्थ्य जीवन का आधार है, बल्कि यह वायु मंडल को नियंत्रित करने में भी सहायक है । वृक्ष ऑकसीजन का सर्वप्रमुख माध्यम है ।
यह हमें छाया प्रदान कर वायुमंडल में कार्बनडाई ऑक्साइड की मात्रा को नियंत्रित करता है । साथ ही यह हमें छाया प्रदान करने के साथ-साथ पशु-पक्षियों को खाद्य और आश्रय प्रदान करता है । जंगलों के विनाश से बाढ़ का प्रकोप बढ़ा है । इसे वृक्षारोपण द्वारा नियंत्रित किया जा सकता है ।
वृक्ष (जंगल) मिट्टी का क्षरण रोककर बाढ़ की विनाशलीला से हमारी रक्षा करता है । कहा जाता है कि रोम और बेवालीन के पतन के कारणों में जंगलों का विनाश भी था । जंगल के अभाव में बड़े-बड़े उपजाऊ प्रदेश रेगिस्तान में बदल गये । वृक्षारोपण से मिट्टी में जलधारण कीं क्षमता बढ़ती है जिससे अनेक लाभ हैं ।
साथ ही यह मिट्टी में जैविक पदाथों की वृद्धि कर मिट्टी की कार्य क्षमता को बढ़ाता है । धरती को जीवन्त और उपजाऊ बनाकर हमें फल-फूल, अनाज आदि प्रदान करता है । आज हमारे समक्ष उत्पन्न पर्यावरण संबंधी विभिन्न समस्याओं को भी अनुभव किया जा रहा है जिसका एक मात्र हल वृक्षारोपण है ।
इन समस्याओं के निराकरण के लिए सरकार ने भी वृक्षारोपण योजना को प्रश्रय देने के लिए विभिन्न योजनाओं को आकार दिया है । वन-महोत्सव एक आन्दोलन की शक्ल में देखा जा रहा है । पंजाब में सिंचाई करके जंगल लगाये जा रहे हैं ।
अन्य प्रदेशों में भी वृक्षारोपण बड़े पैमाने पर किया जा रहा है । निष्कर्षत: वृक्षारोपण का जीवन पर अत्यधिक प्रभाव है । हमारा कर्तव्य है कि हम स्थायी जंगलों की रक्षा करें, साथ ही वृक्षारोपण द्वारा नये जंगल लगाने का प्रयास करें ।
इससे न केवल आंधी, तूफान, बाढ़ आदि प्राकृतिक प्रकोपों से हमारी रक्षा होगी अपितु इंधन की समस्या भी दूर होगी । बंजर और व्यर्थ पड़ी भूमि को वृक्षारोपण द्वारा हम उपयोगी बना सकते हैं । वृक्षारोपण एक यज्ञ है और इस यज्ञ को पूरा करने में हमें तन-मन-धन से जुट जाना चाहिए ।
5. ध्वनि-प्रदूषण: स्वरूप और परिणाम | Essay on Noise Pollution and its Effect for School Students in Hindi Language
मनुष्य को प्रकृति का यह वरदान प्राप्त है कि वह बोल सकता है । उसके पास अपनी एक उन्नत भाषा है । उस भाषा में वह बातचीत कर सकता है । विचारों को समझ-समझा या उनका आदान-प्रदान कर सकता है ।
प्रकृति के वरदान और भाषा अर्जित कर लेने के बल पर मनुष्य गुनगुना सकता है । स्वर-लय में गा सकता है । चाहने और आवश्यकता पड़ने पर रो भी सकता है और चिल्ला भी सकता है । इस प्रकार समय और स्थिति के अनुसार मनुष्य को अपनी तथा अपने जैसे अन्य मनुष्यों की ध्वनियाँ सुननी पड़ती हैं ।
इस प्रकार की ध्वनियाँ सामान्य रूप से सुनना किसी भी प्रकार से हानिकारक नहीं कहा जा सकता । स्वाभाविक ही कहा जाएगा । मनुष्यों की ध्वनियों के अतिरिक्त प्रकृति और प्राकृतिक वातावरण से सुनाई देने वाली भी कुछ ध्वनियाँ हुआ करती हैं ।
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पक्षियों का चहचहाना, पत्तों का टकराकर मरमर करना, धारा का सरसर करते हुए सरकना या बहना, बादलों और समुद्र की हल्की गर्जना आदि । इस प्रकार की ध्वनियों को प्रकृति का संगीत मान कर उन सबका स्वाभाविक आनन्द लिया जाता है ।
लेकिन जब बादल तुमुल स्वरों में गर्जने, सागर ऊंची लहरें उठाकर हुँकारने और बादलों में बिजलियाँ कड़क कर कानों के पर्दे फाड़ने लगती है, तब किसे अच्छा लगता है? इसी प्रकार जब कई मनुष्य चिल्ला-चिल्ला कर गाने या बातें करने लगते हैं ।
दहाड़े मारकर सबको दहला देना चाहते है, तब भी कानों पर बुरा असर पड़ता है । वे फटने लगते हैं । जब भूकम्प आता है और पृथ्वी गड़गड़ाहट के साथ हिलने और फटने लगती हैं-तब यह प्राकृतिक व्यापार होते हुए भी किसी को अच्छे नहीं लगते ।
इस प्रकार के प्राकृतिक ध्वनि-विकारों से कानों के पर्दे फट जाने और व्यक्ति के बहरा हो जाने का भय बना रहता है । इसी भयप्रद ध्वनियों के प्रभाव को वास्तव में ध्वनि प्रदूषण कहा जाता है । यह चाहे प्रकृति द्वारा फैलाया जाए, चाहे मनुष्यों द्वारा, कतई अच्छा नहीं माना जाता ।
आजकल हमें हर कदम पर और भी कई प्रकार की विकराल ध्वनियों से दो चार होना पड़ता है । सड़कों-बाजारों पर गूँजती और सुनाई देती रहने वाली ध्वनियों की बात तो जाने दीजिए । वह तो घर से बाहर निकलने पर ही सुनने को मिलेगी; पर आजकल तो कई बार व्यक्ति अपने घर तक में शान्त नहीं बैठ पाता ।
वहाँ भी चारों ओर से सुनाई देने वाली ध्वनियाँ उसके कानों के पर्दों और श्रवण शक्ति के लिए चुनौती बनी रहती है । आप शान्त बैठे अपना पूजा-पाठ कर रहे हैं, या कुछ पढ़-लिख रहे हैं, आपस में कोई घरेलू बात ही कर रहे हैं कि आस-पड़ोस से कहीं कोई टेपरिकार्डर उच्च स्वर में, कानों के पर्दे फाड़ देने वाले स्वर में गूँज उठता अब कर लीजिए पूजा-पाठ! पढ़-लिख लीजिए या कर लीजिए जरूरी घरेलू बातचीत ! हो गया सब ।
उस गूंजते टेप रिकार्ड के कारण जब अपनी आवाज आपको सुन पाना संभव नहीं, तो दूसरे कैसे सुनेंगे ? कैसे लग सकता है मन पूजा-पाठ या पढ़ने-लिखने में? आपको परीक्षा देनी है सुबह, किसी साक्षात्कार की तैयारी कर रहे हैं आप भाड़ में जाए सब ।
बजाने वाले को तो बस अपना मन बहलाना है । अपनी पसन्द का गाना न चाहे हुए भी आपको सुनाना ही है । अब आपने यदि जाकर कह दिया कि धीरे बजाइये, तो जानते हैं न, क्या उत्तर मिलता है? यही न-कि अपना घर है, घर में बजा रहे हैं, आप मत सुनिये । अपने कान और किबाड़ बन्द कर लीजिए ।
इसमें आपका कोई क्या ले रहा है । अब ऐसे भले मानुसों को कौन समझाए कि यह एक प्रकार का ध्वनि-प्रदूषण है । इससे दूसरे की श्रवण-शक्ति के साथ-साथ आपकी अपनी श्रवण-शक्ति को भी हानि पहुँच सकती है । बहरेपन का बढ़ता रोग इस बात का प्रमाण है, पर नहीं । उन्हें तो नहीं समझना है ।
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मन्दिरों, मस्जिदों, गुरुद्वारों, जागरणों, कीर्तन-मण्डलियों द्वारा लाउडस्पीकर चलाकर अपने भजन-कीर्तन, आदि का विस्तार करना भी ध्वनि-प्रदूषण का एक बहुत-बड़ा हानिप्रद कारण है । हालांकि कानूनी तौर पर ऐसा करना गलियों-बाजारों में टैण्ट लगा कर उच्च स्वरों में लाउडस्पीकर बजाना वर्जित और दण्डनीय अपराध है; किन्तु कौन किसको रोके ? धर्म जो आड़े आ जाता है ।
सो बेचारे कानून के रखवाले भी अनसुनी करके रह जाते हैं । इन सबके अतिरिक्त मोटरों, कारों, ट्रकों, बसों, स्कूटरों आदि के जोर-शोर के बजते हार्न, धड़धड़ा कर चलते उनके पहिए, दौड़ती रेलें और उनकी ऊँची सीटियां, कल-कारखानों के बजते घुग्घू और धड़-धड़ करते मशीनों के पहिए उफ ! कितना शोर होता है इन सब के कारण ।
कई बार कानों पर हाथ रख लेने को विवश हो जाना पड़ता है । कानों में ठूँसने के लिए रुई तक खोजनी पड़ती है और भी तरह-तरह के शोर-शराबे हमारे चारों ओर गूँज कर हमें व्यथित और पीड़ित करते रहते हैं । इस प्रकार आज अन्य प्रकार के प्रदूषणों की तरह ध्वनि-प्रदूषण को संत्रस्त कर रखा है ।
ध्वनि प्रदूषण कानों की श्रवण-शक्ति के लिए तो हानिकारक है ही, तन मन की शान्ति भी हरण करने वाला प्रमाणित हुआ है । ध्वनि-प्रदूषण अपनी अधिकता के कारण कई बार व्यक्ति के सूक्ष्म स्नायु तन्तुओं में तनाव पैदा कर नींद को भगा दिया करता है । ध्वनि-प्रदूषण व्यक्तियों को चिड़चिड़ा और असहिष्णु भी बना दिया करता है ।
इससे और भी कई प्रकार की शारीरिक-मानसिक बीमारियाँ उत्पन्न हो सकती हैं या हो जाया करती हैं । इन्हीं सब कारणों से व्यक्ति को एकान्त एवं शान्त वातावरण में रहने वालों द्वारा हर समय चपट-चपट करते रहने वाले को अच्छा नहीं समझा जाता । ऐसी दशा में अपने ही हित के लिए हमें जितना भी संभव हो सके, शान्त वातावरण में शान्त मौन भाव से रहने का करना चाहिए ।