पर्यावरण असंतुलन हेतु हम सब जिम्मेदार (निबन्ध) | Essay on “We all are Responsible for Environmental Degradation” in Hindi!

यह बात अब सुस्पष्ट हो गई है कि पर्यावरण असंतुलन का मुख्य कारण यह है मारे प्राकृतिक संसाधनों की हर रोज बढ़ती मात्रा अमीरों के उपभोग की सामग्री करने में झोंक दी जाती है ।

उपभोग की वस्तुएँ जितनी ज्यादा मात्रा में बन रही हैं ।क्ताओं की भूख उतनी ही अधिक बढ़ती जा रही है । नतीजा उस कचरे के रूप में सामने है, जो हमारे इस ग्रह को दिन दूनी-रात-चौगुनी गति से प्रदूषित करता आ है । यह निश्चित है कि जब तक अमीर देशों द्वारा संसाधनों का औपनिवेशीकरण रहेगा तब तक प्रदूषण का बढ़ना जारी रहेगा ।

यही कारण है कि प्रत्येक वर्ष ५ जून को मनाया जानेवाला ‘पर्यावरण दिवस’ तब महज एक औपचारिकता बना रहेगा जब तक मनुष्य समाज की सोच में बुनियादी नाव नहीं आ जाता । यही बदलाव हमारे दुर्लभ संसाधनों को सदा-सदा के लिए नष्ट से बचा सकता है ।

वास्तव में, जिन प्रौद्योगिकियों के खिलाफ शिकायत की जा रही है, उन्हें काफी हे कीमत पर विकासशील देशों को विकसित देशों ने ही बेचा है और अब ये हसित देश नई प्रौद्योगिकी या तो और भी ऊँची कीमत पर देने का प्रस्ताव कर रहे हैं फिर आर्थिक और दार्शनिक दलीलें देकर नई प्रौद्योगिकी देने से ही इनकार कर रहे अगर विकासशील देशों में प्रदूषण रोकना है तो विकसित देशों को बिना किसी शर्त से संबंधित आधुनिक प्रौद्योगिकी उपलब्ध करानी होगी ।

आज यदि विकासशील देश गरीबी, विकास, कर्ज तथा पर्यावरण की एक कड़ी तो विनाश का जीता-जागता प्रमाण सामने आ जाता है । यह एक बहुत कडुवा सच कि तीसरी दुनिया के सिर चढ़ा ऋण कभी उतरने का नाम ही नहीं लेता ।

अरबों-खरबों लर फूँकने के बावजूद विकासशील देशों के जीवन-स्तर में पर्याप्त सुधार नहीं हुआ । यहाँ तक कि कई विकासशील देशों में तो बुनियादी जरूरतों की उपभोक्ता-सामग्री क में भारी कटौती की जा रही है । तीसरी दुनिया के लोग विशाल परियोजनाओं के कर्जों का बोझ अपने कंधों पर ढो रहे हैं ।

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वर्तमान विकास का विषमताओं और उपभोक्तावाद पर आधारित यह रास्ता कई स्तरों पर पर्यावरणीय संकट उत्पन्न कर रहा है । वस्तुत: केवल दस प्रतिशत लोगों के जबरदस्त उपभोक्तावाद की आपूर्ति के लिए आम लोगों को तरह-तरह के प्रदूषण और खतरों को झेलना पड़ रहा है । इन दस प्रतिशत अति उपभोक्तावादियों के कारण हमारा ग्रह (पृथ्वी) और यहाँ का जीवन अपने अंत की ओर अग्रसर है ।

पर्यावरण के मामले में राष्ट्रीय सीमाएँ इतनी झीनी हो चुकी हैं कि स्थानीय, राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय महत्त्व के बीच का अंतर अब खत्म हो चुका है । पर्यावरण प्रणालियाँ राष्ट्रीय सीमाओं का सम्मान नहीं करतीं । जल-प्रदूषण समान भाव से पारस्परिक रूप से बँटी नदियों, झीलों और समुद्रों में तैरता चला जाता है ।

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इसके लिए ‘राइन’ नदी का उदाहरण ही काफी है । पर्यावरण-प्रदूषण को ‘एसिड वर्षा’ जन्य हवा अपने साथ दूर-दूर तक बहा ले जाती है । बहुत से ‘पर्यावरण अर्थव्यवस्था बंधन’ भी जो संपूर्ण विश्व में क्रियाशील हैं । भौगोलिक सीमाओं का आदर नहीं करते; जैसे विकसित देशों की आर्थिक सहायता तथा प्रलोभन से युक्त खेती से इतनी ज्यादा पैदावार होती है कि विकासशील देशों के गरीब किसान फसल की गिरी हुई कीमतों तथा पुरानी पारंपरिक पद्धतियों से हुई खेती के कारण उभर ही नहीं पाते, दोनों ही पद्धतियों में भूमि तथा पर्यावरण-संसाधनों का क्षरण होता है ।

औपनिवेशिक नीतियों का गरीब देशों के पर्यावरण पर क्या असर पड़ता है, इसके लिए अफ्रीकी देशों को देखना होगा, सन् १९६८-७४ के दौरान वहाँ भयंकर अकाल पड़ा था, जिसकी खबरें दुनिया भर में छाई रहीं । वह फ्रांसीसी उपनिवेशवादी नीतियों का ही नतीजा था ।

इस अकाल में लगभग एक लाख अफ्रीकी बंजारों ने दम तोड़ दिया था । अपने खाने की जरूरतों को पूरा करने के लिए फ्रांसीसी औपनिवेशिक नीतियों ने पश्चिमी अफ्रीका के किसानों को कर के भारी बोझ से लादकर मूँगफली की खेती करने पर मजबूर कर दिया था ।

किसानों ने परंपरागत फसलें छोड्‌कर मूँगफली की खेती करना शुरू किया । जब इसकी खेती से जमीन की उत्पादकता कम होती गई तब इसकी खेती रेगिस्तान में, परंपरा से छोड़ीजाने वाली परती या वनभूमि पर भी शुरू हो गई । इन्हीं जगहों पर बंजारे पशुपालक अपने पशु चराया करते थे । नई खेती शुरू होने से किसानों और बंजारों के बीच का संतुलन टूटा और वहाँ की हरियाली इस नए बोझ को सह नहीं पाई, तब आया सूखा और पड़ा अकाल ।

खेतों के संसाधनों को बचाना अब जरूरी हो गया है, क्योंकि दुनिया के बहुत से भागों में सीमांत इलाकों तक खेती पहुँच गई है और मध्य-पालन तथा वन-संसाधनों का आवश्यकता से अधिक शोषण होने लगा है । बढ़ती आबादी की जरूरतें पूरी करने के लिए इन संसाधनो का संरक्षण तथा संवर्धन दोनों अवश्यक है ।

खेती तथा वानिकी के जमीन का उपयोग करने से पहले भूमि की क्षमता, उसकी ऊपरी परत का सालाना स्थलन मछलियों का नुकसान या वन-संसाधनों की वैज्ञानिक जाँच-पड़ताल करनी चाहिए ताकि कुल हानि की दर जमीन की पुन: पैदा करने की दर से कहीं आगे न बढ़ जाए क्योंकि जैसे-जैसे लोगों के पास विकल्पों की कमी होती जाती है वैसे-वैसे संसाधनों पर बोझ बढ़ने लगता है ।

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विकास की नीतियाँ कुछ ऐसी बननी चाहिए जिनसे आम आदमी के जीवन-निर्वाह के लिए रोजगार के नए आयाम खुल सकें और विशेषत: संसाधन-रहित गरीब परिवारों का जीवन-निर्वाह हो सके । आजकल विकास का अर्थ हो गया है-प्राकृतिक संसाधनों का शोषण । अपने यहाँ बननेवाले बड़े बाँधों को ही लें, वे वादे झूठे पड़ते जा रहे हैं, जो बड़े-बड़े बाँधों को बाँधते समय किए जाते रहे हैं ।

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विदेशों से बड़ी-बड़ी राशि कर्ज के रूप में लेकर सभी प्रमुख नदियों पर बाँध बनाए जा चुके हैं या बन रहे हैं । आनेवाले और बीस वर्षों तक बाँध बनाने का यह सिलसिला जारी रहेगा, लेकिन पिछले वर्षों से जगह-जगह बाँधों और पन-बिजली का विरोध होने लगा है । टिहरी और नर्मदा का स्थानीय लोगों द्वारा विरोध किया जा रहा है ।

विकासशील देशों में विकास कार्यों को अगर पर्यावरण से जोड़ा जाए तो भारी-भरकम कर्ज लेकर चलाई जानेवाली बड़ी-बड़ी राष्ट्रीय परियोजनाएँ घर फूँककर तमाशा देखने जैसी ही लगती हैं । तीसरी दुनिया के देशों में मकान, जल-प्रबंध, सफाई-व्यवस्था तथा स्वास्थ्य की एक-दूसरे से जुड़ी जरूरतें भी पर्यावरण की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण हैं ।

इनकी कमियाँ अधिकतर पर्यावरण पर पड़नेवाले दबाव का स्पष्ट प्रत्यक्षीकरण हैं । तीसरी दुनिया में इन प्रमुख जरूरतों को पूरा न कर पाने के कारण मलेरिया, हैजा और छूत की बीमारियाँ फैल जाती हैं । बढ़ती आबादी तथा गाँव से शहर भाग जाने की प्रक्रिया के फलस्वरूप ये समस्याएँ और भी भयानक रूप ले लेती हैं । शहर भागने की इस प्रक्रिया को छोटी और सस्ती प्रौद्योगिकियों का विकास करके ही रोका जा सकता है ।

अत: अब यह आवश्यक हो गया है कि विदेशों से कर्ज लेकर भारी-भरकम परियोजनाओं को चलाने की बजाय विकासशील देश अपने-अपने संसाधनों के उपयोग को ध्यान में रखकर अपना पैकेज बनाएँ अन्यथा विकासशील देशों को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है ।

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