पारिस्थितिकी और मनुष्य | Paaristhitikee Aur Manushy | Ecology and Man!
मानव पर्यावरण संबंधों का स्वरूप समय के साथ परिवर्तित होता रहा है । अत: इसको समझने हेतु इसे ऐतिहासिक दृष्टिकोण से देखना उचित होगा क्योंकि मानव की विकास यात्रा के साथ-साथ उसका पर्यावरण के साथ संबंध परिवर्तित होता रहा है ।
पृथ्वी के अस्तित्व में आने के साथ ही पर्यावरण का प्रभाव जीव जगत पर प्रारंभ हो गया था, यद्यपि उस समय मानव का अस्तित्व नहीं था । केवल सूक्ष्म जीवों के विकास से रेंगने वाले जीवों और तत्पश्चात् विशालकाय जीवों का विकास हुआ और इसी क्रम में मानव का अस्तित्व इस धरा पर हुआ ।
मानव विकास के विकास क्रम में जाना यहाँ प्रासंगिक न होगा किंतु यह निश्चित है कि अनुकूल प्राकृतिक पर्यावरण ने मानव विकास प्रक्रिया को गति प्रदान की और वह आदिम अवस्था से वर्तमान विकसित अवस्था तक की यात्रा पूर्ण कर सका और भविष्य में भी करता रहेगा । मानव-पर्यावरण संबंधों के स्वरूप का आभास सभ्यता के विकास के काल-क्रम से सहज ही में लगाया जा सकता है ।
जिसे हम चार वृहत् कालों में विभक्त कर सकते हैं:
1. आदिम अवस्था अर्थात आखेट एवं भोजन संग्रह काल,
2. पशुपालन काल,
3. कृषि काल,
4. औद्योगिक, तकनीकी, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी का वर्तमान काल ।
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1. आदिम अवस्था अर्थात आखेट एवं भोजन संग्रह काल:
आदिम अवस्था मानव के विकास का प्रारंभिक काल था जिसे प्रागैतिहासिक काल तथा आखेट अवस्था के नाम से भी जाना जाता है । यह वह काल था जब मानव का प्राकृतिक पर्यावरण से पूर्ण सामंजस्य था ।
वह पर्यावरण को किसी प्रकार की हानि नहीं पहुँचाता था अपितु उसी के अनुरूप अपने कार्य संपादित करता था । इस समय न उसका स्थाई आवास था न भोजन की चिंता । आकाश ही उसकी छत थी तथा जलवायु के प्रभावों से बचने हेतु वह कंदराओं का आश्रय लेता था ।
भोजन हेतु जंगली जानवरों का शिकार तथा कंद, मूल, फल जो वनों से प्राप्त होते थे उनका सेवन करता था यद्यपि वह वन्य जीवों का विनाश करता था फिर भी वह इतना सीमित था कि उससे वन्य जीवों के विलुप्त होने का खतरा नहीं था ।
इसका एक कारण यह भी था कि मनुष्यों की संख्या सीमित थी । अत: उनके द्वारा किये गये आखेट से पर्यावरण संतुलन पर विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता था । फिर वह आखेट एक ही स्थान पर न कर अलग-अलग प्रदेशों में करता था क्योंकि तब मानव घुमक्कड़ जीवन व्यतीत करता था ।
वास्तव में यह अवस्था मानव पर्यावरण सामंजस्य की अवस्था थी जिसमें मानव अपनी अति सीमित आवश्यकता को पर्यावरण से पूर्ण करता था और प्रकृति उसकी क्षतिपूर्ति करती रहती थी । कालांतर में अग्नि के आविष्कार से जहाँ मानव भोजन पका कर खाने लगा वहाँ यदा-कदा वनों को भी आग का शिकार बनाने लगा ।
समुदाय में रहने की प्रवृत्ति का भी विकास होने लगा । आवास, मार्ग आदि का निर्माण एवं विशेष प्रकार के जानवरों का आखेट एवं फल आदि एकत्र करने की प्रवृत्ति होने के उपरांत भी पर्यावरण पर इस समय विपरीत प्रभाव नहीं था ।
2. पशुपालन काल:
पशुपालन काल में मनुष्य ने शिकार के साथ-साथ कुछ पशुओं को पालना प्रारंभ किया और उनसे प्राप्त पदार्थों का उपयोग वह करने लगा । इसी के साथ वह चरवाहे के रूप में पशुओं के साथ पशुचारण करने लगा । पशुचारण से उसकी समूह में रहने की प्रवृत्ति का विकास हुआ । एक ओर वह चरागाहों की खोज में घुमक्कड़ जीवन बिताने लगा । पशुओं की संख्या एवं स्वयं मनुष्यों की संख्या में वृद्धि से पर्यावरण का शोषण भी प्रारंभ हुआ ।
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एक ओर जंगली जानवरों का शिकार कर उनकी संख्या कम करने लगा, पशुओं को निर्धारित स्थलों पर चराने लगा, कुछ पौधों एवं पशुओं का संरक्षण करने लगा, प्राकृतिक आवास को छोड़ कर कृत्रिम आवास बनाने की प्रवृत्ति भी विकसित होने लगी । किंतु ये सभी कार्य इतने सीमित थे कि पर्यावरण पर किसी प्रकार का विपरीत प्रभाव नहीं हुआ ।
3. कृषि काल:
कृषि युग का प्रारंभ मानव सभ्यता के विकास में विशिष्ट स्थान रखता है क्योंकि इसने मानव को स्थाई रूप से रहना सिखाया । कृषि के अंतर्गत फसल को बोने के पश्चात् जब तक वह पक नहीं जाती उसकी देखभाल करनी होती है ।
अत: मनुष्य एक स्थान पर रहने लगा । यद्यपि प्रारंभ में कृषि का स्वरूप भी स्थानांतरित कृषि के रूप में था जिसमें वनों को जलाकर भूमि प्राप्त कर कृषि की जाने की प्रक्रिया को अपनाया जाता था । किंतु शीघ्र ही इसमें स्थायित्व आ गया ।
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जब मानव भूमि के साथ जुड़ गया तो उसने एक स्थान पर स्थाई आवास का निर्माण क्रिया । फलस्वरूप ग्राम, कस्बा, नगर आदि का विकास हुआ । मानव समुदायों के संपर्क में वृद्धि होने के साथ परिवहन एवं संचार माध्यमों का भी विकास हुआ ।
यही नहीं अपितु कृषि के साथ पशुपाल, कुटीर उद्योग एवं अन्य व्यवसायों का भी विकास होने लगा अर्थात् सांस्कृतिक वातावरण विकसित होने लगा । यह संपूर्ण विकास पर्यावरण के अनुकूल तो हुआ किंतु पर्यावरण का शोषण अधिकाधिक होने लगा ।
वनों को काट कर न केवल कृषि अपितु अधिवास, परिवहन आदि का विकास किया जाने लगा । भूमि का दोहन प्रारंभ हो गया तथा अनेक प्राकृतिक संसाधनों का प्रयोग होने लगा । जनसंख्या वृद्धि ने पर्यावरण पर अपना कुप्रभाव प्रारंभ कर दिया था । किंतु इस काल में मानव प्रकृति के अनुरूप ही व्यवहार कर उससे अधिक से अधिक सामंजस्य करता रहा ।
4. औद्योगिक, तकनीकी, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी का वर्तमान काल:
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औद्योगिक, तकनीकी, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी का वर्तमान युग- जहाँ मानव की बहुमुखी प्रगति का परिचायक है वहीं पर्यावरण अवकर्षण एवं पर्यावरण प्रदूषण का भी प्रारंभकर्त्ता है । औद्योगिक क्रांति (1860) से उद्योगों अर्थात् वृहत् उद्योगों की चिमनियों से निकलने वाले धुआँ से वायु प्रदूषण का विस्तार होने लगा वहीं उद्योगों के अपशिष्ट पदार्थों एवं रसायनों ने जल, भूमि प्रदूषण करना प्रारंभ कर दिया ।
उद्योगों के साथ ही परिवहन क्रांति भी आई जिसमें मोटर वाहनों द्वारा प्रदूषण में और अधिक वृद्धि होने लगी । जनसंख्या वृद्धि, नगरीकरण एवं औद्योगिकीकरण का सामूहिक प्रभाव पर्यावरण के विभिन्न घटकों पर होने लगा । यह प्रभाव स्वयं मानव को भी प्रभावित करने लगा ।
विज्ञान और तकनीकी विकास ने कृषि का प्रारूप बदल दिया । कृषि में कीटनाशक दवाओं के उपयोग में वृद्धि हुई, कृत्रिम उर्वरकों का अधिकाधिक प्रयोग होने लगा, साथ ही कृषि भूमि हेतु वनों को साफ किया जाने लगा । आज खनिज खनन निर्ममता से हो रहा है, भूमिगत जल गहरा होता जा रहा है, भूमि की उर्वरता कम हो रही है, अप्राकृतिक साधनों से जलवायु परिवर्तन होता जा रहा है और परमाणु विकिरण का खतरा अधिकतम होता जा रहा है ।
वन एवं वन्य जीवों का विनाश हो रहा है । प्राकृतिक संसाधनों का निर्ममता से दोहन हो रहा है, जैविक, रासायनिक, रेडियोधर्मी प्रदूषण में वृद्धि हो रही है । विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी जिसने मनुष्य को अनेक सुख-सुविधायें प्रदान की हैं आज पर्यावरण के संकट का कारण बनता जा रहा है, यहाँ तक कि मानव का अस्तित्व भी संकट में जान पड़ता है ।
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पृथ्वी के तापमान में वृद्धि, ओजोन परत में छिद्र, विलुप्त होती प्रजातियाँ आदि समस्याएँ आज के विश्व के सम्मुख चुनौती हैं । वर्तमान में मानव-पर्यावरण संबंध सहज एवं समन्वयात्मक न होकर शोषण एवं व्यावसायिकता से युक्त हो गये हैं जिसके परिणाम निःसंदेह मानव के लिए भयंकर होंगे और पारिस्थितिकी-तंत्र में असंतुलन होने पर भविष्य का विकास भी अवरुद्ध हो जायेगा । इस दिशा में आज संपूर्ण विश्व चिंतित है, प्रमुख आवश्यकता है मानव को पर्यावरण का रक्षक बनाने की न कि विध्वंसक ।
मानव ने विकास के नाम पर पर्यावरण से अत्यधिक छेड़छाड़ की है, फलस्वरूप पर्यावरण अवकर्षण का प्रारंभ हुआ । पर्यावरण अवकर्षण का मूल कारण ‘प्रदूषण’ है जो पर्यावरण के विविध तत्वों की प्राकृतिक क्रियाओं में बाधा पहुँचा कर न केवल पारिस्थितिक तंत्र में असंतुलन पैदा करता है अपितु मानव को भी अनेक प्रकार की हानियाँ पहुँचाता है ।
आज संपूर्ण विश्व यह स्वीकार करता है कि पर्यावरण प्रदूषण न केवल वर्तमान मानव जीवन एवं स्वास्थ्य के लिए खतरा है अपितु भविष्य की संतानों को इसके और भी अधिक गंभीर परिणाम भुगतने होंगे । प्रदूषण का संकट विकसित एवं विकासशील दोनों देशों में है, दूसरे शब्दों में यह एक विश्वव्यापी संकट है ।
पर्यावरण प्रदूषण एक ऐसी अवांछित स्थिति है जब भौतिक, रासायनिक और जैविक परिवर्तनों के द्वारा वायु, जल, भूमि अपनी प्राकृतिक गुणवत्ता खो बैठते हैं, जिनका जीव-जंतुओं और वनस्पति पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है ।
प्रारंभ में प्रदूषण जब सीमित होता है तो उसका जीवों पर प्रभाव नगण्य एवं सीमित होता है, किंतु जैसे ही यह संतृप्तता की सीमा से अधिक होता है इसका विपरीत प्रभाव दृष्टिगत होने लगता है जिससे न केवल पर्यावरण अवकर्षण में वृद्धि होती है और जीवन की उत्तमता समाप्त होने लगती है वरन् मानव अनेक रोगों से ग्रस्त होने लगता है तथा पारिस्थितिक-तंत्र में असंतुलन उत्पन्न होने लगता है ।
आज पर्यावरण प्रदूषण जिस गति से बढ़ रहा है उसका अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि:
i. असमय ही बाढ़ तथा सूखे का होना यह इंगित करता है कि वायुमण्डलीय पर्यावरण अत्यधिक प्रदूषित है ।
ii. असमय में समुद्र के जल एवं तापमान के घटने-बढ़ने से पर्यावरण प्रदूषण की पुष्टि होती है ।
iii. पेड़-पौधों एवं जीव-जंतुओं की अकाल मृत्यु एवं अनेक प्रजातियों का विलुप्त होना, पर्यावरण प्रदूषण का कुप्रभाव दर्शाता है ।
iv. अनेक प्रकार के श्वास एवं चर्म रोगों से मानव का ग्रस्त होना प्रदूषण का परिणाम है ।
v. दूषित जल, गैस रिसाव, रेडियोधर्मिता-फैलाव आदि से अकाल मृत्यु का कारण प्रदूषण ही है ।
vi. भूमि की उर्वरा शक्ति निरंतर कम हो रही है ।
vii. वायुमण्डल में गैसों का संतुलन बिगड़ने लगा है जिससे रक्षक ओजोन परत के विरल होने का खतरा होता जा रहा है । वास्तव में यह एक सर्वमान्य तथ्य है कि मानव द्वारा विकास के नाम पर किये जा रहे कतिपय कार्यों एवं कुप्रबंध के कारण प्रदूषण में वृद्धि हो रही है ।
i. वायु प्रदूषण:
वायु प्रदूषण मानव द्वारा विकसित उद्योगों और मोटर वाहनों की प्रमुख देन है जिनसे वायु के अवयवों में अवांछित एवं हानिकारक तत्वों का समावेश हो जाता है । विभिन्न प्रकार की विषाक्त गैसें, जैसे- सल्फर-डाई-ऑक्साइड, कार्बन मोनो ऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड, कार्बन के कण, धुआं, खनिज तत्वों के कण आदि उद्योगों, कार, स्कूटर, रेलगाड़ी, जेट-विमान, वायुयान, लकड़ी, कोयला, तेल आदि के जलने से निकलते हैं ।
वैज्ञानिकों के एक अनुमान के अनुसार पिछले 100 वर्षों में लगभग 24 लाख टन ऑक्सीजन वायुमण्डल से समाप्त हो चुकी है और उसका स्थान 36 लाख टन कार्बन-डाई-ऑक्साइड गैस ले चुकी है जो अनेक दुष्प्रभावों का कारण है ।
वायुमण्डल में जो कार्बन डाई ऑक्साइड, सल्फर डाई ऑक्साइड व नाइट्रिक ऑक्साइड अनावश्यक मात्रा में एकत्र हो रही हैं उससे वर्षा के समय गैसें पानी से क्रिया कर अम्ल बना कर वर्षा के जल को तेजाब में बदल देती हैं जिसे तेजाबी वर्षा कहते हैं ।
यह न केवल मानव अपितु वनस्पति एवं अन्य जीवों के लिये हानिकारक है । इसी प्रकार ‘ग्रीन हाऊस प्रभाव’ का खतरा वायुमण्डल में कार्बन डाई ऑक्साइड की मात्रा में वृद्धि से अधिक होता जा रहा है क्योंकि इससे तापक्रम में वृद्धि हो रही है ।
वैज्ञानिकों के अनुमान के अनुसार विगत 50 वर्षों में पृथ्वी का औसत तापमान एक डिग्री सेल्सियस बढ़ा है । यदि यह 3.6 डिग्री तक बढ़ता है तो आर्कटिक एवं अंटार्कटिका का हिम पिघल कर समुद्र के जल स्तर में वृद्धि करेगा जिससे विशाल भू-क्षेत्र जल मग्न हो जाएगा ।
ii. ओजोन परत:
ओजोन परत के विरल होने अथवा इसमें छिद्र होने की चर्चा आज विश्व का चिंतनीय विषय है । ओजोन परत समताप मण्डल में 12 से 35 कि.मी. की ऊँचाई के मध्य होती है, इसे पृथ्वी का रक्षा-कवच या पृथ्वी का छाता कहते हैं ।
यह मानव जीवन के लिये महत्वपूर्ण है क्योंकि यह सूर्य से आने वाली “परा बैंगनी” किरणों को रोकर उन्हें पृथ्वी तल तक पहुँचने से रोकती है । इससे पृथ्वी का तापमान अधिक नहीं हो पाता तथा मानव, जीव-जंतु एवं वनस्पति आदि की भी रक्षा होती है ।
क्लोरोफ्लोरो कार्बन, नाइट्रिक ऑक्साइड, क्लोरीन ऑक्साइड आदि गैसें ओजोन परत को नष्ट कर रही हैं और वैज्ञानिकों का अनुमान है कि आर्कटिक तथा अंटार्कटिका के ऊपर ओजोन परत में छेद हो गये हैं । यदि इन रसायनों का प्रयोग न रोका गया तो अगले 70 वर्षों में ओजोन परत 10 प्रतिशत तक क्षतिग्रस्त हो जायेगी और मानव को परा बैंगनी किरणों का दुष्प्रभाव भुगतना होगा ।
iii. जल प्रदूषण:
जल प्रदूषण मानव द्वारा फैलाया जा रहा जहर है जिसकी चपेट में पेयजल के स्रोत आते जा रहे हैं । विश्व में उपलब्ध जल का केवल तीन प्रतिशत ही पेयजल है, शेष समुद्र का लवण युक्त जल एवं हिम के रूप में है ।
पेयजल के स्रोतों में मानव विभिन्न प्रकार के खनिज लवण, कार्बनिक तथा अकार्बनिक पदार्थ, अम्ल आदि संयंत्रों से विसर्जित कर उसे प्रदूषित कर रहा है । यही नहीं, अपितु नगरों के अवशिष्ट पदार्थों, मल-मूत्र आदि गंदगी को भी जल स्रोतों में प्रवाहित कर उसे प्रदूषित कर रहा है ।
घरेलू बहिःस्राव वाहित मल, औद्योगिक बहिःस्राव, कृषि बहिःस्राव, उष्मीय या तापीय प्रदूषण, रेडियोएक्टिव अवशिष्टों द्वारा जल प्रदूषण में निरंतर वृद्धि हो रही है । तीव्र औद्योगिकीकरण एवं नगरीकरण के फलस्वरूप यह समस्या गंभीर होती जा रही है । इससे न केवल मनुष्य विभिन्न रोगों से ग्रसित होता जा रहा है, अपितु जल जीवों एवं जलीय वनस्पति का भी विनाश हो रहा है ।
iv. भूमि प्रदूषण:
भूमि प्रदूषण में निरंतर वृद्धि हो रही है क्योंकि जनसंख्या वृद्धि के साथ-साथ अपशिष्ट पदार्थों की मात्रा में वृहद् स्तर पर वृद्धि हो रही है । मृदा में जल अवांछित तत्वों का समावेश हो जाता है तो वह मानव एवं अन्य जीवधारियों पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है ।
ग्रीनपीस नामक एक संगठन ने 1988 में एक प्रतिवेदन में स्पष्ट किया कि विश्व के विकसित पश्चिमी राष्ट्रों में औद्योगिक अपशिष्ट तथा कूड़े-कचरे का समुचित निपटान उचित स्थान के अभाव में समस्या बन गया है । यही नहीं अपितु विकसित देश इसको विविध रूपों में विकासशील देशों को निर्यात कर देते हैं । रसायनयुक्त अपशिष्ट आज नगरों विशेषकर औद्योगिक नगरों के निकटवर्ती क्षेत्रों में समस्या बने हुए हैं ।
यही नहीं अपितु रासायनिक उर्वरकों तथा कीटनाशकों के प्रयोग में हो रही निरंतर वृद्धि जहाँ भूमि की उर्वर शक्ति में कमी कर रहे हैं वहीं अनेक हानिकारक रसायनों जैसे- डी.डी.टी., लिन्डेन, बी.एच.सी., एल्डरीन, डाइल्डरीन आदि से मानव स्वास्थ्य को भी हानि पहुँच रही है, साथ में वायु एवं जल प्रदूषण में भी वृद्धि हो रही है ।
v. ध्वनि प्रदूषण:
स्वयं मानव द्वारा उत्पन्न संकट है जिसका दिन-प्रतिदिन विस्तार होता जा रहा है । कारखानों की मशीनें, लाउडस्पीकरों एवं अन्य संगीत वाद्यों का शोर, विमान, रेलगाड़ी, कार, मोटर, स्कूटर आदि से उत्पन्न ध्वनि प्रदूषण मानव को बहरा बनाने में सक्रिय भूमिका अदा कर रहा है ।
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वैज्ञानिकों का अनुमान है कि 75 डेसीबल से अधिक शोर से बहरापन, तनाव, चिड़चिड़ापन, गर्भपात, मानसिक रोग आदि होने की संभावना रहती है । ऊर्जा का प्रमुख स्रोत परमाणु ऊर्जा रेडियोधर्मी प्रदूषण का कारण है । निरंतर हो रहे परमाणु बमों के परीक्षण ने वायुमण्डल एवं जल की रेडियोधर्मिता में वृद्धि की है । परमाणु भट्टियों के आणविक कचरे को नष्ट करना एक समस्या है । फिर यदि परमाणु संयंत्र से रिसाव हो जाये तो संपूर्ण क्षेत्र में रेडियोधर्मिता फैल सकती है ।
जैसा कि रूस के चेरेनोविल परमाणु संयंत्र में हुआ । आज अंतरिक्ष भी प्रदूषण की चपेट में हैं । मानव निर्मित उपग्रहों के अंतरिक्ष में नष्ट होने पर उनसे उत्पन्न हुए मलबे से भी अंतरिक्ष प्रभावित हो रहा है, यह मानव जाति के लिये अत्यंत घातक सिद्ध हो सकता है ।
निरंतर अंतरिक्ष में जाने वाले राकेट एवं उपग्रहों से वहाँ प्रदूषण की वृद्धि हो रही है । केवल मात्र उपर्युक्त वर्णित प्रदूषण के लिये ही मनुष्य उत्तरदायी नहीं अपितु इसके अतिरिक्त भी अनेक मानवीय क्रियायें पर्यावरण को अवकर्षित कर रही हैं ।
जैसे:
i. वनों के विनाश द्वारा मानव न केवल वनस्पति का शोषण कर रहा है अपितु क्षेत्रीय जलवायु को परिवर्तित कर रहा है तथा मृदा अपरदन में वृद्धि कर रहा है ।
ii. मानव की शिकार की प्रवृत्ति एवं वनों के विनाश से अनेक जीव-जंतुओं की प्रजातियाँ लुप्त हो गई हैं तथा अनेक को खतरा बना हुआ है ।
iii. खनिज-खनन एवं संसाधनों के दोहन से पर्यावरण में वृद्धि हो रही है ।
iv. बड़े बाँधों के निर्माण से भू-संतुलन बिगड़ रहा है जिससे पारिस्थितिक-तंत्र असंतुलित होकर संकट उत्पन्न हो रहा है ।
v. जनसंख्या वृद्धि की तीव्र दर ने अनेक देशों में पर्यावरण को अनेक प्रकार से प्रभावित किया है ।
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वास्तविकता यह है कि आज मानव के समक्ष यह समस्या है कि किस प्रकार विकास कार्यक्रमों को संचालित करें कि उनसे पर्यावरण प्रदूषण न हो । विकास आवश्यक है किंतु पर्यावरण संरक्षण उससे भी अधिक आवश्यक है क्योंकि हमें न केवल वर्तमान की चिंता करनी है अपितु भविष्य को भी संवारना है ।
जीव-पारिस्थितिकी:
पारिस्थितिकी मूलत: जीवों एवं पर्यावरण के अध्ययन से संबंधित है । इसके अध्ययन में विशिष्टता के विकास एवं दृष्टिकोण में भिन्नता के कारण विविध स्वरूप उभर कर आ रहे हैं जैसे पादप पारिस्थितिकी, प्राणी पारिस्थितिकी, आवासीय पारिस्थितिकी, जनसंख्या पारिस्थितिकी, जीव पारिस्थितिकी आदि ।
इनमें जीव या जैव पारिस्थितिकी अध्ययन की वह विधि है जिसके अंतर्गत पौधों के संबंध, प्राणियों के संबंध, पौधों तथा प्राणियों के संबंध एवं समस्त जीवों के वातावरण के साथ संबंधों का अध्ययन किया जाता है । इसके अध्ययन की दो प्रमुख शाखायें हैं- स्वपारिस्थितिकी एवं समुदाय पारिस्थितिकी । स्वपारिस्थितिकी के अंतर्गत एकाकी जाति के विभिन्न पक्षों के भौगोलिक वितरण, आकार, प्रकार जीवन-चक्र आदि का विशद् अध्ययन किया जाता है ।
जबकि समुदाय पारिस्थितिकी जैविक समुदायों के जटिल अंतर्संबंधों तथा उनके निवास क्षेत्रों के पर्यावरण के साथ पारस्परिक क्रियाओं का विश्लेषण है । इसमें संगठन स्तरों को आधार बनाकर भी अध्ययन किया जाता है । वास्तव में जीव पारिस्थितिकी मानव-पर्यावरण संबंधों को न केवल समझने में सहायक है अपितु पर्यावरण की अनेकानेक विसंगतियों को स्पष्ट कर उन्हें नियमित करने का मार्ग प्रशस्त करती है ।