भारतीय कला पर निबंध | Essay on Indian Art in Hindi language!
Essay # 1. भारतीय कला का परिचय (Introduction to Indian Art):
मानव जीवन मैं कला का महत्वपूर्ण स्थान है । ‘कला’ शब्द संस्कृत की कल धातु में कच तथा टाप (कल + कच + टाप) लगाने से बनता है । संस्कृत कोश में यह शब्द विभिन्न अर्थों में प्रयुक्त हुआ है जैसे-किसी वस्तु का खोल, खण्ड, चन्द्रमा की एक रेखा, शोभा, अलंकरण, कुशलता अथवा मेधाविता आदि । किन्तु इतिहास तथा संस्कृति में ‘कला’ से तात्पर्य सौन्दर्य, सुन्दरता अथवा आनन्द से है । अपने मनोगत भावों को सौन्दर्य के साथ दृश्य रूप में व्यक्त करना ही कला है ।
आचार्य क्षेमराज के अनुसार ‘अपने (स्व) किसी न किसी वस्तु के माध्यम से व्यक्त करना ही कला है और यह अभिव्यक्ति चित्र, नृत्य, मूर्ति, वाद्य आदि के माध्यम से होती है ।’ इस प्रकार कला मनुष्य की सौन्दर्य भावना को मूर्तरूप प्रदान करती है । वस्तुत: कला का उद्गम सौन्दर्य की मूलभूत प्रेरणा का ही परिणाम है ।
प्रत्येक कलात्मक प्रक्रिया का उद्देश्य सौन्दर्य तथा आनन्द की अभिव्यक्ति होता है । मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है तथा इस रूप में उसे अपनी भावनाओं तथा विचारों का प्रत्यक्षीकरण करना पड़ता है । यह प्रत्यक्षीकरण अथवा प्रकटीकरण कला के माध्यम से ही संभव है ।
प्राचीन भारत में कला को साहित्य और संगीत के समकक्ष मानते हुए मनुष्य के लिये उसे आवश्यक बताया गया है । भर्तृहरि ने अपने नीतिशतक में स्पष्टत: लिखा है कि साहित्य, संगीत तथा कला से हीन मनुष्य पूँछ और सींग से रहित साक्षात् पशु के समान है-
साहित्यसंगीतकला विहीन:
साक्षात्पशु पुच्छविषाणहीन: ।
भारतीय परम्परा में कला को लोकरंजन का समानार्थी निरूपित किया गया है । चूँकि इसका एक अर्थ कुशलता अथवा मेधाविता भी है, अंत: किसी कार्य को सम्यक् रूप से सम्पन करने की प्रक्रिया को भी कला कहा जा सकता है । जिस कौशल द्वारा किसी वस्तु में उपयोगिता और सुन्दरता का संचार हो जाये, वही कला है । भारतीय कला का इतिहास अत्यन्त प्राचीन तथा गौरवशाली है । वस्तुत: यह कला यहाँ के निवासियों के विचारों को समझने का एक सबल माध्यम है ।
Essay # 2. भारतीय कला के स्रोत (Sources of Indian Art):
कला के अध्ययन के लिये प्रायः उन्हीं स्रोतों का उपयोग किया जाता है जो इतिहास के अध्ययन के लिये उपयोगी है ।
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इन्हें इस प्रकार रखा जा सकता है:
i. साहित्य:
वास्तु या स्थापत्य की विविध तकनीकों तथा भवनों के नाना रूपों पर प्रचुर विवरण वैदिक साहित्य से लेकर संस्कृत-प्राकृत साहित्य में प्राप्त होता है। हमारे प्राचीनतम साहित्य ऋग्वेद में धार्मिक तथा लौकिक दोनों प्रकार की वास्तु का उल्लेख हुआ है । संहिताओं के अध्ययन से कुछ ऐसे शिल्पों के विषय में पता चलता है जो भौतिक सामग्री के माध्यम से बनाये जाते थे ।
चूँकि इस काल में भवनों का निर्माण मिट्टी, घास-फूस, कच्ची ईटों, काष्ठ आदि से होता था, अत: वे शीघ्र विनष्ट हो गये और सम्प्रति उनके नमूने नहीं मिलते । किन्तु साहित्य के अनुशीलन से पता चलता है कि काष्ठ शिल्प अत्यन्त विकसित अवस्था में था ।
बड़े वृक्षों को काट-छाँट कर भारी-भारी महल भी बनाये जाते थे जिन्हें ‘सहस्त्र-स्थूण-प्रासाद’ कहा गया है । भवन स्तम्भों पर टिके होते थे जिन्हें ‘स्कम्भ’ कहा गया है । वैदिक देवता इन्द्र को ‘स्क्म्भी-यान’ (सर्वोत्तम खम्भे का स्वामी) कहा जाता था ।
एक स्थान पर मजबूत आधार पर गाड़े गये तीन खम्भों का उल्लेख मिलता है । सौ खम्भों वाले (शतभुजी) भवनों का भी उल्लेख मिलता है । त्रिभूमिक प्रासाद अर्थात् तीन खण्डों में बने हुआ महलों का भी वर्णन मिलता है । उल्लेखनीय है कि बड़े घरों का निर्माण भी काष्ठ से ही किया जाता था ।
नगर सन्निवेश का विवरण भी वैदिक साहित्य से प्राप्त होता है । इस प्रकार कुछ पाश्चात्य विद्वानों की यह धारणा सही नहीं है कि वैदिक साहित्य में वास्तु विषयक सामग्री नहीं मिलती । पर्सी ब्राउन ने उचित ही सुझाया है कि साँची एवं भरहुत की वेदिकायें वैदिक वेदिका का अनुकरण मात्र है ।
अथर्ववेद में गृह-निर्माण सम्बन्धी दो शालासूक्त प्राप्त होते है । इनसे सूचित होता है कि विभिन्न बांसों को रस्सियों से बांधकर छाजन बनाये जाते थे । छप्पर या बांस पट्टियों को रस्सी में बांधने की कला उन्हें ज्ञात थी । शतपथ ब्राह्मण में घर के दो अंग बताये गये है ।
प्रथम पुरुष आवास होते थे जिसमें कई कमरे होते थे । द्वितीय स्त्रियों का निवास स्थान था । इसमें पीछे की ओर अनेक कमरे होते थे । पालि ग्रन्थों तथा गृह्मसूत्रों के विवरण से पता चलता है कि बुद्धकाल तक वास्तुकला काफी विकसित हो गयी थी । दीर्घ निकाय में इसे ‘वत्थुवज्जा’ अर्थात् वास्तु विद्या कहा गया है तथा इसकी गणना विशिष्ट शिल्प के रूप में की गयी है ।
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जातक अन्यों में गंगातट पर नगर एवं प्रासाद निर्मित किये जाने का विधान दिया गया है । ‘महावर्धकी’ का उल्लेख है जो वास्तु विद्या का ज्ञात था । गुप्तकाल तथा उसके बाद कला के विविध अंगों का सम्यक् उत्कर्ष हुआ तथा तत्सम्बन्धी ग्रन्थ भी लिखे गये । इस समय के प्रख्यात ज्योतिषाचार्य वाराहमिहिर वास्तु विद्या के भी महान् आचार्य थे ।
उनकी रचना बृहत्संहिता में वास्तुशास्त्र, प्रतिमाशास्त्र तथा चित्रशास्त्र की भी अच्छी जानकारी प्राप्त होती है । इससे सूचित होता है कि वास्तुशास्त्र ब्रह्मा से उत्पन्न कलाकारों से विकसित किया गया । पुराण ग्रन्थ भी वास्तुशास्त्र का विवरण प्रस्तुत करते हैं । साथ ही साथ वास्तु शास्त्र के कतिपय प्राचीन आचार्यों के नाम भी दिये गये है ।
ये इस प्रकार है- भृगु, अत्रि, वशिष्ठ, विश्वकर्मा, मय, नारद, नग्नजित, विशालाक्ष, पुरन्दर, ब्रह्माकुमार नन्दीश, शौनक, गर्ग, वासुदेव, अनिरुद्ध, शुक्र, वृहस्पति आदि । कुछ अन्य पुराण जैसे वायु भविष्य, अग्नि आदि भी स्थापत्य, मूर्ति, चित्र आदि का छिट-पुट रूप से विवरण प्रस्तुत करते हैं ।
वास्तुशास्त्र के प्रवर्त्तकों में विश्वकर्मा तथा मय के नाम सर्वाधिक प्रसिद्ध थे । प्रथम को देवताओं तथा द्वितीय को असुरों का वास्तुकार माना गया है । इन दोनों के नाम पर अलग-अलग सम्प्रदाय चल पड़े तथा शिल्प ग्रन्थों की रचना की गयी । विश्वकर्मा से सम्बद्ध सम्प्रदाय बाह्म सम्प्रदाय कहलाया ।
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विष्णुधर्मोत्तर पुराण इसकी सबसे पहली रचना है । ‘समरांगणसूत्रधार’ इस सम्प्रदाय की सर्वप्रमुख रचना है । इसके रचयिता भोज मालवा के परमारवंशी शासक (1011-46 ई॰) थे । इसके अध्ययन से वास्तुकला की विभिन्न विधियों एवं विधानों का सम्यक् ज्ञान प्राप्त होता है ।
इसमें कहा गया है कि जिस प्रकार विश्व रूप में विष्णु का अध्यात्म रूप होता है जिसके ध्यान से आत्मशुद्धि होती है, उसी प्रकार कला के अन्तर्भाव से उत्प्रेरित दर्शक का हृदय या मन पापरहित हो जाता है । मय सम्प्रदाय के ग्रन्थों में मयमत, मयमत-शिल्पशास्त्र, मयवास्तुशास्त्र, मयशिल्पशतिका आदि उल्लेखनीय हैं । मयमत ने विभिन्न श्रणियों के राजाओं तथा सामन्तों के उपयुक्त आवासों का वर्णन किया है ।
तदनुसार सम्राट का निवास स्थान ग्यारह मंजिलों, सामान्य राजा (नृप) का सात मंजिलों, ग्राहण का नौ मंजिलों, वैश्य तथा सामान्य सेनानायक का चार मंजिलों, शूद्र का एक से चार मंजिलों तथा सामन्त प्रमुख का पाँच मंजिलों का होना चाहिए । इन दोनों सम्प्रदायों से स्थापत्य सम्बन्धी कुछ भिन्न धारणायें भी स्थापित हो गयीं । ये दोनों साथ-साथ विकसित होती रहीं तथा क्रमश: दोनों के तत्व परस्पर घुलमिल गये ।
वास्तुकला क्षेत्र में उपर्युक्त ग्रन्थों के अतिरिक्त अन्य अनेक गुणों का प्रणयन किया गया । इनमें से कुछ आज भी उपलब्ध है । स्वतंत्र ग्रंथ सामरांगणसूत्रधार, शिल्परत्नम, ईशानशिव-गुरुदेव-पद्धति, मानसार सर्वाधिक प्रसिद्ध है । बारहवीं शती में भुवनदेव ने गुजरात में अपराजितपृच्छा की रचना की जिसमें अन्य बातों के साथ-साथ वास्तु की विविध विधाओं का भी उल्लेख मिलता है ।
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पी. के. आचार्य ने मानसार को समस्त वास्तुग्रन्थों का आधार बताया है । वे इसे गुप्तकालीन रचना मानते है । उनके अनुसार इसकी रचना उस समय की गयी जब ब्राह्मण, बौद्ध एवं जैन धर्म साथ-साथ विकसित हो रहे थे । चूंकि यह स्थिति गुप्तकाल में रही, अतः मानसार, गुप्तयुगीन कृति होनी चाहिए । किन्तु टी. पी. भट्टाचार्य इस मत से सहमत नहीं है तथा वे इसे पूर्व मध्यकाल का ग्रन्थ बताते है ।
उल्लेखनीय है कि मानसार अधिकांशतः चोल, होयसल तथा यादवकाल की वास्तुशैली का प्रतिनिधित्व करता है, अतः इसे ग्यारहवीं शती के बाद ही रखा जा सकता है । वास्तुशास्त्र के ग्रन्थों में पता चलता है कि स्थपति अथवा भवन निर्माता का व्यवसाय समाज में सम्मानित माना जाता था ।
समर में स्थपति के विषय में बताया गया है कि उसे शास्त्रज्ञ, कर्म में कुशल, प्रज्ञावान्, शीलवान् तथा लक्षणों सहित वास्तु विद्या का ज्ञाता होना चाहिए । इसमें भवन निर्माण के किया पक्ष पर बल देते हुए कहा गया है कि वह स्थपति जो शास्त्रों का जानकार है किन्तु उसे किया रूप में परिणत नहीं कर सकता, वह कार्य के समय उसी प्रकार असफल रहता है जिस प्रकार कायर व्यक्ति युद्ध उपस्थित होने पर बिल्कुल घबड़ा जाता है ।
इसी प्रकार केवल किया-पक्ष के ज्ञाता शिल्पी को भी अपूर्ण कहा गया है । युक्तिकल्पतरु में विविध प्रकार के जहाजों के निर्माण का विवरण प्राप्त होता है । दो प्रकार के जहाजों-नदी मार्ग में होकर जाने वाले तथा समुद्री मार्ग से होकर जाने वाले, का उल्लेख मिलता है ।
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जहाजों के निर्माण का विवरण देते हुए इसमें बताया गया है कि तख्तों को लोहे की कीलों के बजाय रस्सी से जोड़ना चाहिए क्योंकि कील लगी होने से जहाज को चुम्बकीय चट्टानें अपनी ओर खींच सकती है । मानसार तथा मयमत के अध्ययन से भी पता चलता है कि स्थपति विद्वान् होता था और उसकी सामाजिक मान्यता उच्चकोटि की थी ।
मानसार में उसे विश्वकर्मा का पुत्र बताया गया है । मयमत में उसे निर्माण कार्य में प्रवीण तथा वास्तु विद्या का पण्डित कहा गया है । अपराजितपृच्छा से ज्ञात होता है कि स्थपति वास्तु विद्या में मर्मज्ञ, नग, योजना तैयार करने में कुशल तथा बुद्धिमान होना चाहिए । रामायण, महाभारत, मानसार, मयमत, समरांगणसूत्रधार आदि ग्रन्थों के अध्ययन से नगर या पुर निर्माण के सम्बन्ध में समुचित जानकारी मिल जाती है ।
इन ग्रन्थों में नगर सन्निवेश के निम्नलिखित अंग बताये गये हैं:
a. भूमिपरीक्षण
b. भूमिसंग्रह (चयन)
c. दिशा-निर्धारण (दिक्परिच्छेद)
d. भूमिका खण्डों में वर्गीकरण (पद विन्यास)
e. बलिकर्म (पूजन-अर्जन)
f. ग्राम या नगर विन्यास
g. भूमि विधान (विभिन्न मंजिलों वाले भवन)
h. द्वारा निर्माण (गोपुरम)
i. मण्डप निर्माण
j. राज प्रासाद निर्माण (राजवेश्म विधान) ।
युक्तिकल्पतरु, मानसार आदि ग्रन्थों में दुर्ग निर्माण सम्बन्धी जानकारी दी गयी है । निर्माण स्थान के देवता को ‘वास्तोस्थति’ कहा गया है । मन्दिर निर्माण के लिये आवश्यक सामग्री तथा निर्माता कारीगरों का वर्णन भी शिल्परत्न, मानसार, काश्यप-शिल्प आदि गुणों में प्राप्त होता है । वृहत्संहिता से ज्ञात होता है कि मन्दिर के प्रवेशद्वार के बाजुओं को द्वारपाल, उड़ते हुए हंसी के जोड़े, श्रीवृक्ष, स्वस्तिक, घट, मिथुन, पत्रवल्ली आदि से सुसज्जित किया जाता था ।
कालिदासकृत मेघदूत (उत्तरभाग) से पता चलता है कि चौखट पर शंख तथा पद्म की आकृतिया उत्कीर्ण की जाती थीं । इस प्रकार वास्तुशास्त्र पर लिखा गया प्राचीन-साहित्य बहुसंख्यक है । इसे देखने से पता चलता है कि प्राचीन भारत में स्थापत्य तकनीक अत्यन्त विकसित थी ।
चित्रकला के सम्बन्ध में भी विविध अन्यों से सूचना प्राप्त होती है । विष्णुधर्मोत्तर पुराण में कहा गया है कि सभी कलाओं में चित्रकला श्रेष्ठ है तथा यह धर्म, काम, अर्थ एवं मोक्ष को देने वाली है । इसमें चित्रकला के तकनीकी पक्ष का भी विवरण मिलता है ।
समरांगणसूत्रधार में भी इसी बात को पुष्टि करते हुए बताया गया है कि चित्र सभी शिल्पों का मुख एवं संसार का प्रिय है । वात्स्यायन के कामसूत्र में चित्रकला की गणना 64 कलाओं में की गयी है जिसका ज्ञान सुसंस्कृत व्यक्ति के लिये आवश्यक था ।
इसके भाष्यकार यशोधर पण्डित ने चित्र के छ: अंगों का उल्लेख किया है:
रूपभेद, प्रमाण (उचित अनुपात), भाव, लावण्य योजना (सौन्दर्य विरूपण) सादृश्य (जैसा हो वैसा ही चित्रांकन) एवं वर्णिका भंग (उचित रंगों का भरना) । कालिदास के ग्रन्थों- रघुवंश, मेघदूत, मालविकाग्निमित्र, अभिज्ञानशाकुन्तलम् आदि से भी चित्रकला के विषय में कुछ जानकारी मिलती है ।
सोमेश्वर की रचना मानसोल्लास में चित्र, चित्रांकन, चित्र सामग्री आदि का विस्तृत विवरण दिया गया है । इसके अतिरिक्त चित्रकला के स्रोत हर्षचरित, कादम्बरी, उत्तर-रामचरित आदि ग्रन्थ भी हैं । बौद्ध साहित्य के अध्ययन से भी चित्र-कला विषयक कुछ बातें ज्ञात होती है । विनयपिटक, थेरगाथा एवं थेरिगाथा में चित्रों का उल्लेख मिलता है ।
महाउम्मग जातक में चित्रशाला तथा चित्रों की रचना के विषय में विवरण मिलता है । हमारे प्राचीन साहित्य में कला के विविध रूपों के सम्बन्ध में जो सामग्री दी गयी है, उसके आधार पर पी॰ के॰ आचार्य, आनन्दकुमार स्वामी, वासुदेवशरण अग्रवाल, नीहाररंजन राय, कृष्णदेव, के॰ आर॰ श्रीनिवासन, के॰ वी॰ सौन्दरराजन आदि विद्वानों ने जो ग्रन्थ प्रस्तुत किये हैं, उनके अध्ययन से कला का सांगोपांग ज्ञान हमें प्राप्त हो जाता है । इन विद्वानों की रचनायें भी कला की महत्वपूर्ण स्रोत है ।
ii. विदेशी विवरण:
साहित्य के साथ-साथ कुछ विदेशी यात्रियों के विवरण भी वास्तुकला के साधन है । मेगस्थनीज के विवरण से पाटलिपुत्र के नगर विन्यास के विषय में कुछ जानकारी होती है । तदनुसार यह 80 स्टेडिया (16 किलोमीटर) लम्बा तथा 15 स्टेडिया (तीन किलोमीटर) चौड़ा था । इसके चारों ओर 185 मीटर चौड़ी तथा तीस हाथ गहरी खाई थी ।
नगर चारों ओर से ऊँची दीवार से घिरा था जिसमें 64 तोरण (द्वार) तथा 570 बुर्ज थे । भव्यता और शान-शौकत में सूसा एवं एकबतना के राजमहल भी इसकी बराबरी नहीं कर सकते थे । इस प्रकार चीनी यात्री फाह्यान के विवरण से भी मौर्य राजप्रासाद की भव्यता की सूचना मिलती है । वह लिखता है कि राजमहल तथा नगर के बीच बने सभा भवन आज भी यथावत है ।
इन सभी को देवदूतों ने बनाया था जिन्होंने पत्थर के ढेर एकत्र किये, दीवारें एवं द्वार बनाये । पत्थरों पर इतनी आश्चर्यजनक खुदाई और पच्चीकारी किया कि ऐसी रचना कोई मनुष्य कर ही नहीं सकता था । इसके अतिरिक्त उसने अशोक द्वारा बनवाये गये छ: स्तम्भों का भी उल्लेख किया है।
ह्वेनसांग तथा इत्सिंग जैसे यात्रियों के विवरण से मौर्यकालीन स्तम्भ एवं स्तूपों की जानकारी मिलती है । टेनसांग अशोक द्वारा स्थापित पन्द्रह स्तम्भों का उल्लेख करता है जो साकाश्य, श्रावस्ती, कपिलवस्तु, लुम्बिनी, कुशीनगर, सारनाथ, वैशाली, पाटलिपुत्र, राजगृह में विद्यमान थे ।
वह यह भी सूचित करता है कि तक्षशिला, श्रीनगर, थानेश्वर, मथुरा, कन्नोज, प्रयाग, कौशाम्बी, श्रावस्ती, वाराणसी, सारनाथ, वैशाली, गया, कपिलवस्तु आदि में अशोक द्वारा स्तूपों का निर्माण करवाया गया था । ह्वेनसांग के कुछ समय बाद आने वाले चीनी यात्री इत्सिंग ने भी स्तूप निर्माण की परम्परा का उल्लेख किया है ।
उसके अनुसार पूजार्थक का निर्माण भिक्षु तथा उपासक दोनों ही करते थे क्योंकि लोगों में ऐसा विश्वास था कि यह कार्य अनन्त पुण्यदायक है । पूर्वमध्यकाल के मुस्लिम लेखकों के विवरण से भी कुछ प्राचीन नगरों के विन्यास के विषय में जानकारी मिलती है । अल्वरूनी तथा उत्बी के विवरण से पता चलता है कि कन्नोज नगर अत्यन्त विस्तृत एवं भव्य था ।
महमूद गजनवी जैसे मूर्तिभजक के अनुसार ‘कन्नोज तथा मथुरा के मन्दिरों जैसा कोई अन्य वास्तु यदि कोई निर्मित करना चाहता तो उसे काम पर सर्वाधिक अनुभवी कारागरों को लगाने पर भी एक लाख सोने की दीनारें खर्च करनी पड़ती तथा दो सौ वर्ष का समय लगाना होता । इस प्रकार पूर्वमध्यकालीन वास्तु अथवा स्थापत्य के ज्ञान में मुस्लिम विवरण भी न्यूनाधिक रूप में सहायक है ।
iii. पुरातत्व:
पुरातत्व भी कला का महत्वपूर्ण स्रोत माना जा सकता है । विभिन्न स्थलों से जो खुदाइयां हुई है उनसे भवनों, मन्दिरों, मूर्तियों आदि के अवशेष प्राप्त होते हैं जिनसे कला के विविध पक्षों का यथार्थ ज्ञान प्राप्त होता है ।
सैन्धव सभ्यता की वास्तु एवं मूर्ति कला का ज्ञान हड़प्पा एवं मोहनजोदड़ो के उत्खनन में प्राप्त सामग्रियों से होता है । ये दोनों ही नगर वास्तु विन्यास का सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत करते हैं । भवन तथा मन्दिर निर्माण सम्बन्धी जो विविध उल्लेख प्राचीन साहित्य में मिलता है, पुरातात्विक अवशेषों में उनके मूर्त रूप प्राप्त होते हैं ।
आहत सिक्कों तथा औदुम्बरों, पंचालों आदि की मुद्राओं में अंकित मन्दिरों की आकृतियों से पता चलता है कि प्रारम्भिक मन्दिर अथवा देवस्थान सीधे-साधे रूप में बनाये जाते थे । भूमि के कुछ ऊँचे स्थान पर प्रतिमा स्थापित की जाती थी तथा उसके चतुर्दिक् वेदिका बनाई जाती थी ।
इसी प्रकार गुप्तकाल के जो बहुसंख्यक मन्दिर, मूर्तिया एवं चित्रकारिया मिलती है, उनसे उस काल के कलात्मक उत्कर्ष का ज्ञान प्राप्त होता है । बी॰ एस॰ अग्रवाल के शब्दों में ‘गुप्तकाल का गौरव इसकी दृश्य कलात्मक रचनाओं द्वारा स्थायी बना दिया गया हैं’ ।
उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले तथा मध्यप्रदेश के रायसेन जिले में स्थित भीमबेटका के शिलाश्रयों एवं गुफाओं से जो चित्रकारियां मिली है उनसे प्रागैतिहासिक काल की चित्रकला का ज्ञान होता है । इतिहास के प्रत्येक युग से सम्बन्धित पुरातात्विक अवशेष मिले है जिनके आधार पर वास्तु, तक्षण एवं चित्रकला के स्वरूप एवं उद्देश्य को समझने में मदद मिलती है ।
इस प्रकार साहित्य तथा पुरातत्व प्राचीन भारतीय कला एवं स्थापत्य के ज्ञान का प्रमुख स्रोत है । जहाँ साहित्य कला के सैद्धान्तिक स्वरूप को द्योतित करता है वही पुरातत्व उसके यथार्थिक रूप को उद्घाटित करता है ।
Essay # 3. कला के अंग (Parts of Art):
यद्यपि ‘कला’ शब्द से सभी प्रकार की कलाओं का बोध हो जाता है, फिर भी सुविधा की दृष्टि से इसका विभाजन वास्तु अथवा स्थापत्य, लक्षण या मूर्ति, चित्रकला, रिलीफ स्थापत्य, मृद्भाण्ड कला आदि प्रकारों में किया गया है ।
इनका विवरण इस प्रकार है:
i. वास्तु या स्थापत्य:
‘वास्तु’ शब्द ‘वस’ धातु से बना है जिसका अर्थ है- किसी एक स्थान पर निवास करना । तुमुन् प्रत्यय लगाकर ‘वास्तु’ शब्द बनता है जिसका अर्थ होता है ‘वह भवन जिसमें मनुष्य या देवता का वास हो’ । भारतीय साहित्य में वास्तु के अन्तर्गत नगर-विन्यास, भवन, स्तूप, गुहा, मन्दिर आदि का वर्णन किया गया है ।
ऋगवेद में भवन निर्माण के समय वास्तोस्पति देवता के आह्वान करने का विधान मिलता है । सायण के अनुसार वास्तु का अर्थ गृह है तथा उसका रक्षक देवता वास्तोस्पति है । अर्थशास्त्र में गृह, सेतु, क्षेत्र आदि रचनाओं के अर्थ में इस शब्द का प्रयोग मिलता है ।
इसी प्रकार स्थापत्य शब्द पनि में बना है जिसका अर्थ है कारीगर या बढ़ई । अत: वास्तु और स्थापत्य दोनों ही शब्द भवन निर्माण को सूचित करते हैं । कला में दोनों का प्रयोग प्राय: समान अर्थ में ही किया गया है । किन्तु तकनीकी दृष्टि से दोनों में कुछ अन्तर भी है । सभी वास्तु रचनाओं को स्थापत्य नहीं कहा जा सकता । केवल वही वास्तु स्थापत्य कहे जाने योग्य है जिसमें कारीगरी अथवा नक्काशी हो । इस दृष्टि से विचार करने पर सैन्धव वास्तु को हम स्थापत्य नहीं कह सकते हैं ।
ii. मूर्तिकला:
इसे तक्षण भी कहते हैं । इसके अन्तर्गत विभिन्न प्रकार की पाषाण अथवा धातु निर्मित मूर्तियां आती हैं ।
iii. चित्रकला:
इसके अन्तर्गत विविध प्रकार की चित्रकारियों का उल्लेख किया जाता है जो भवनों की दीवारों, छतों, स्तम्भों, पर्वत गुफाओं आदि पर अंकित मिलती है ।
iv. रिलीफ स्थापत्य:
पत्थर, चट्टान, धातु आदि के फलक पर जो चित्र या मूर्ति उकेर कर बनाई जाती है उन्हें रिलीफ स्थापत्य या चित्र कहा जाता है । इसे उत्कीर्ण अथवा भास्कर कला भी कहते हैं । इसके अतिरिक्त मिट्टी के बर्तन बनाने की कला को कला, सिक्के या मुहरों की कला को मुद्राकाल, हाथी दांत से वस्तुयें बनाने की कला को दन्त-कला कहा जाता है ।
जिन कलाओं से आनंद की प्राप्ति एवं सौन्दर्य का भाव जागृत होता है उन्हें ललित कला कहा जाता है । इसमें काव्य, संगीत, चित्र, वास्तु, मूर्ति आदि की गणना की गयी है । वात्स्यायन ने चौसठ कलाओं का उल्लेख किया है । भारतीय परम्परा में ललित कलाओं को परमानन्द की प्राप्ति का साधन स्वीकार किया गया है, इन्द्रिय सुख का साधन नहीं । वस्तुतः रूप या सौन्दर्य का ध्येय चित्तवृत्तियों को उन्नत करना था, न कि पापवृत्तियों को जागृत करना ।
Essay # 4. भारतीय कला की आधारभूत विशेषतायें (Features of Indian Art):
भारतीय कला की कुछ ऐसी विशेषतायें है जो इसे अन्य देशों की कलाओं से पृथक् करती हैं । इसकी सर्वप्रथम विशेषता के रूप में निरन्तरता अथवा अविच्छिन्नता को रखा जा सकता है । लगभग पाँच सहस्त्र वर्ष पुरानी सैन्धव सभ्यता की कलाकृतियों से लेकर बारहवीं शती तक की कलाकृतियों में एक अविच्छिन्न कलात्मक परम्परा प्रवाहित होती हुई दिखाई पड़ती है ।
भारतीय कला के विभिन्न तत्वों, जैसे नगर विन्यास, स्तम्भ युक्त भवन निर्माण, मूर्ति निर्माण आदि का जो रूप हमें भारत की इस प्राचीनतम सभ्यता में दिखाई देता है उसी के आधार पर कालान्तर में वास्तु तथा तक्षण का सम्यक् विकास हुआ ।
भारतीय संस्कृति का प्रधान तत्व धार्मिकता अथवा अध्यात्मिकता की प्रबल भावना है जिसने उसके सभी पक्षों को प्रभावित किया है । कला भी इसका अपवाद नहीं है । इसके सभी पक्षों-वास्तु या स्थापत्य, तक्षण, चित्रकला आदि के ऊपर धर्म का व्यापक प्रभाव देखा जा सकता है ।
हिन्दू जैन, बौद्ध आदि धर्मों से सम्बन्धित मन्दिरों, मूर्तियों तथा चित्रों का निर्माण कलाकारों द्वारा किया गया। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि इसमें लौकिक विषयों की उपेक्षा की गयी । धार्मिक रचनाओं के साथ ही साथ भारतीय कलाकारों ने लौकिक जीवन से सम्बन्धित मूर्तियों अथवा चित्रों का निर्माण भी बहुतायत में किया है ।
इस प्रकार धार्मिकता तथा लौकिकता का सुन्दर समन्वय हमें भारतीय कला में देखने को मिलता है। भारतीय कला में अभिव्यक्ति की प्रधानता दिखाई देती है । कलाकारों ने अपनी कुशलता का प्रदर्शन शरीर का यथार्थ चित्रण करने अथवा सौन्दर्य को उभारने में नहीं किया है ।
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इसके स्थान पर आन्तरिक भावों को उधारने का प्रयास ही अधिक हुआ है । इसका सबसे सुन्दर उदाहरण हमें विशुद्ध भारतीय शैली में बनी बुद्ध मूर्तियों में देखने को मिलता है । जहाँ गन्धार शैली की मूर्तियों में बौद्धिकता एवं शारीरिक सौन्दर्य की प्रधानता है, वहाँ गुप्तकालीन मूर्तियों में आध्यात्मिकता एवं भावुकता है ।
भारतीय कलाकार ने बुद्ध मूर्तियाँ बनाते समय उनके मुखमण्डल पर शान्ति, गम्भीरता एवं अलौकिक आनन्द को उधारने की ओर ही विशेष ध्यान दिया है तथा इसमें उसे अद्भुत सफलता प्राप्त हुई है । भारतीय कलाकार का आदर्श अत्यन्त ऊँचा था ।
उसने कला को इन्द्रिय सुख की प्राप्ति का साधन न मानकर परमानन्द की प्राप्ति का साधन स्वीकार किया था । उसकी दृष्टि में रूप या सौन्दर्य पापवृत्तियों को उकसाने का साधन नहीं था अपितु इसका उद्देश्य चितवृत्तियों को ऊंचा उठाना था ।
भारतीय कला का एक विशिष्ट तत्व प्रतीकात्मकता है । इसमें कुछ प्रतीकों के माध्यम से अत्यन्त गूढ़ दार्शनिक एवं आध्यात्मिक विचारों को व्यक्त कर दिया गया है । कुषाण युग के पूर्व महात्मा बुद्ध का अंकन प्रतीकों के माध्यम से ही किया गया है । पद्म, चक्र, हंस, मिथुन, स्वस्तिक आदि प्रतीकों के माध्यम से विभिन्न भावनाओं को व्यक्त किया गया है ।
पद्म प्राण या जीवन का, चक्र काल या गति का तथा स्वस्तिक सूर्य सहित चारों दिशाओं का प्रतीक माना गया है । अशोक के सारनाथ सिंहशीर्ष स्तम्भ की फलक पर उत्कीर्ण चार पशुओं-गज, अश्व, बैल तथा सिंह-के माध्यम से क्रमश: महात्मा बुद्ध के विचार, जन्म, गहत्याग तथा सार्वभौम सत्ता के भावों को व्यक्त किया गया है । भारतीय कला में कई अनेक शुभ अथवा मंगलसूचक प्रतीक भी है ।
भारतीय कलाकार भौतिक यश तथा वैभव के प्रति उदासीन थे । लगता है इसी कारण उन्होंने अपनी कृतियों में कहीं भी अपने नाम का उल्लेख नहीं किया है । भारतीय संस्कृति में अभिव्यक्त समन्वय की प्रवृत्ति भी कलात्मक कृतियों के माध्यम से मूर्तवान हो उठी है ।
सुकुमारता का गम्भीरता के साथ, रमणीयता का संयम के साथ, अध्यात्म का सौन्दर्य के साथ तथा यथार्थ का आदर्श के साथ अत्यन्त सुन्दर समन्वय हमें इस कला में दिखाई देता है । सुप्रसिद्ध कलाविद् हेवेल ने आदर्शवादिता, रहस्यवादिता, प्रतीकात्मकता तथा पारलौकिकता को भारतीय कला का सारतत्व निरूपित किया है ।
भारत की कला राष्ट्रीय एकता को स्थूल रूप प्रकट करने का एक प्रत्यक्ष प्रमाण है । समूचे देश की कलात्मक विशेषतायें प्रायः एक जैसी हैं । मूर्तियों में समान लक्षण तथा मुद्रायें देखने को मिलती है । विभिन्न देवी-देवातओं की मूर्तियों को देखने के बाद रेखा जान पड़ता है कि वे किसी देशव्यापी संस्था द्वारा तैयार करवाई गयी है ।
पर्वतों को काटकर बनवाये गये मंदिरों अथवा पाषाण निर्मित मन्दिरों में यद्यपि कुछ स्थानीय विभिन्नतायें हैं, तथापि उनकी सामान्य शैली एक ही प्रकार की है । इनके माध्यम से भारतीय एकता की भावना साकार ही उठती है । इस प्रकार भारतीय कला राष्ट्रीय एकता की संदेशवाहिका है ।
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भारतीय कला की एक अन्य विशेषता यह है कि इसमें अलकरण की प्रधानता-दिखाई देती है । अति प्राचीन काल से ही कलाकारों ने अपनी कृतियों को विविध प्रकार से अलंकृत करने का प्रयास किया है । अलंकरणों का उद्देश्य सौन्दर्य को बढ़ाना है ।
भारतीय कला में सर्वागीणता दिखाई देती है । शब्दों में इसमें राजा तथा सामान्य जन दोनों का चित्रण मुक्त रूप से किया गया है । यदि मौर्यकाल की कला दरबारी तो शुंग काल की कला लोक जीवन से सम्बन्धित है । विभिन्न कालों की कला-कृतियों में सामान्य जन-जीवन की मनोरम झांकी सुरक्षित है ।
यदि भारतीय कलाकार ने कुलीन वर्ग की रुचि के लिये विशाल एवं सुन्दर कृतियों का निर्माण किया है तो सामान्य जनता के लिये रुचिकर रचनायें भी गढ़ी हैं । इस प्रकार वी० एस० अग्रवाल के शब्दों में ‘भारतीय कला देश के विचार, धर्म, तत्वज्ञान तथा संस्कृति का दर्पण है । भारतीय जन-जीवन की पुष्कल व्याख्या कला के माध्यम से हुई है ।
भारतीय कला की एक विशेषता के रूप में सार्वभौमिकता अथवा अन्तर्राष्ट्रीयता का उल्लेख किया जा सकता है । इसके तत्व देश की सीमाओं का अतिक्रमण कर दक्षिणी-पूर्वी एशिया से लेकर मध्य एशिया तक के विभिन्न स्थानों में अत्यन्त प्राचीन काल में ही फैल गये ।
प्रसिद्ध कलाविद् आनन्द कुमारस्वामी ने तो दक्षिणी-पूर्वी एशिया की कला को भारतीय कला का ही एक अंग स्वीकार किया है । इसी प्रकार मध्य एशिया की मूर्तियों तथा स्तूपों पर भी गान्धार कला का प्रभाव देखा जा सकता है ।