वैश्विक भारतीयों का योगदान मैछे पर निबंध | Essay on Mace ‘s Contribution to Global Indians in Hindi!

पिछले तीन चार साल से देश की अर्थव्यवस्था की विकास दर आठ फीसदी से अधिक बनी हुई है, लेकिन अब इसमें ठहराव आने लगा है । वैश्विक मंदी और यूरोपीय आर्थिक संकट के कारण पिछले कई वर्ष उतार-चढ़ाव भरे रहे ।

अगस्त 2008 से विकसित देशों के वित्तीय बाजारों में जो उथल-पुथल मचनी शुरा हुई, तो इसमें अभी तक कमी नहीं आई है । विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था भी इससे प्रभावित हो रही है । इसके अलावा कृषि की हालत भी ठीक नहीं है एवं दूसरे क्षेत्रों में भी जोखिम है । अप्रैल 2008 से अब तक कच्चे तेल के अलावा जिंसों और खाद्यान्नों के वैश्विक मूल्य भी बढ़ते ही जा रहे हैं ।

इतना ही नहीं, असल चुनौतियों से पार पाना तो अभी बाकी है । यह अभूतपूर्व वृद्धि रोजगार के अवसरों की सहगामी नहीं बन सकी है । पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम के मुताबिक 1984 और 1991 भारत की अर्थव्यवस्था के इतिहास में महत्वपूर्ण बदलाव के वाहक रहे, वहीं 2004 भी कम महत्वपूर्ण नहीं रहा ।

इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि पूर्ववर्ती राजग सरकार के शाइनिंग इंडिया के कुछ सकारात्मक प्रभाव और मौजूदा संप्रग सरकार के प्रयासों ने मिलकर देश के विकास को यह रफ्तार प्रदान की है । यद्यपि इसके ज्यादातर प्रभाव आबादी के चौथाई उच्चवर्ग तक ही सीमित हैं ।

वैसे तो देश में असल विकास के शुरु होने पर जश्न मनाने के लिए बहुत कुछ है, लेकिन हमें इस विकास में पूरी दुनिया में फैले भारतीय मूल के लोगों की भूमिका जांचने की जरुरत है । ऐसे लोगों की संख्या तकरीबन तीन करोड़ है और इनकी आय भारतीय जीडीपी की लगभग 10 फीसदी है ।

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अमेरिका व कनाड़ा से लेकर ब्रिटेन, केन्या, मलेशिया, फिजी और मॉरीशस जैसे देशों में बसे ऐसे लोगों की आवाज राष्ट्र के सामाजिक-आर्थिक विषयों में पहले से कही अधिक सुनी जा रही है । नए दौर के अप्रवासी भारतीय (या एनजीआई यानी न्यू ग्लोबल इंडियन) भविष्य के भारत के विकास में महती भूमिका निभा सकते हैं ।

इनकी आमतौर पर दो तरह की शिकायतें होती है:

पहली, एक राष्ट्र के तौर पर भारत या भारतीय सरकार अप्रवासी आबादी की ज्यादा परवाह नहीं करती और उन्हें अपने साथ जोड़ने या उन तक पहुंचने के लिए पर्याप्त कदम नहीं उठाती ।

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दूसरी, यदि कोई अप्रवासी भारतीय भारत में कोई व्यवसाय करना भी चाहे तो उसे काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है । यहां का तंत्र और कार्यप्रणाली कोई लाभदायक व्यवसाय खड़ा करने की इजाजत नहीं देते ।

यह सच है कि पश्चिमी जीवनशैली के आदी हो चुके ऐसे लोगों के लिए भारतीय जीवनचर्या के साथ तालमेल बिठाना अभी भी मुश्किल है । विशेषकर पहले साल तो उन्हें काफी मुश्किलें आती है या फिर जब तक कोई व्यक्ति इन दोनों की तुलना करता रहें, तब तक वह यहां के हालात से सामंजस्य नहीं बिठा सकता, उन्हें ढांचागत सुविधाओं की हालत या तो वैसी ही लगती है या बिगड़ी हुई । हालांकि कुछ ही दिनों में फोन या इंटरनेट का कनेक्शन मिल जाने जैसे सुखद आश्चर्यों के अलावा उसके लिए किसी भी सेवा को आसानी से पाना मुश्किल है ।

यद्यपि क्लियरेंस पाने के लिए लालफीताशाही से उतना नहीं उलझना पड़ता है, जितनी विशेषकर एक्साइज और कस्टम विभागों में परेशानी होती हैं । यह सब इस प्रवृत्ति से झलकता है जिसे अक्सर एनआरआई सिंड्रोम कहा जाता है, जिसमें एक के लिए दूसरी जीवनशैली को त्यागने के बावजूद दोनों में तुलना की जाती है।

भारत में एनजीआई की प्रभावी भूमिका के लिए सीमा पार रहने वाले भारतीयों को सबसे पहले इस बात को स्वीकार करना होगा कि इस देश का विकास सरकारों के चलते नहीं बल्कि उनके बावजूद हुआ है । सरकारों की भूमिका वैधानिक और सर्वागीण व्यवस्थाओं में बदलाव के लिए मददगार बनने तक ही सीमित है ।

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इस प्रकार, इन सत्ताओं से संबंध बनाने और मान्यता पाने की बाट जोहने की बजाय उनके ध्यान का केंद्र नया प्रोफेशनल भारत होना चाहिए । देश की पैंसठ फीसदी आबादी 35 साल से कम है, जिनमें व्यापक तौर पर घूमने वाले परिणामोम्मुखी भारतीयों के नए बढ़ते हुए समुदाय और उनके संस्थान, कारपोरेट हो या कोई अन्य, प्रमुख हैं ।

हालांकि यह सच है कि विरासत में मिली अप्रचलित नीतियों और तंत्र के साथ काम करने का कोई मतलब नहीं है लेकिन यह भी संभव नहीं है कि विकसित पश्चिमी अर्थव्यवस्था के सिस्टम को भारत में जरुरी अधोसंरचना विकसित किए बिना यथावत लागू कर दिया जाए ।

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देखा जाए तो यहां जमीन से जुड़े बुद्धिजीवियों और मौसमीय मानकों के साथ उत्पादकता के मानकों और तंत्रों की पारदर्शिता के साथ मिलाकर काम के हिसाब से अनुकूल माहौल बनाया जा सकता है । इस प्रक्रिया में हमें शिक्षित जनसमूह का उच्च व निम्न आधार तैयार करने, हमारी व्यावसायिक शिक्षा में मेधाशक्ति का और निवेश करने तथा अर्थव्यवस्था के निम्न व मध्य स्तर पर प्रशिक्षित मानव शक्ति के निर्माण की जरुरत है ।

अपने देश वापस आने और यहां व्यवसाय स्थापित करने वाले कई अप्रवासी भारतीयों की प्रतिक्रिया में पहले-पहल तो चिंता और बाद में संतोष झलकता है । उनके लिए बिजली गुल होना, प्रदूषण और गड्‌ढे भरी सड़कें तो मामूली गुस्सा दिला सकती है । आईटी इंडस्ट्री में आई तेजी वित्त, रीयल एस्टेट, ऑटो तथा उड्‌डयन जैसे क्षेत्रों में अपने प्रभाव बिखेरने लगी है ।

इस बात में अलग ही संतोष की अनुभूति होती है कि आप अपने काम के जरिए समाज में कुछ योगदान देने के लायक है । अप्रवासी भारतीयों में बाहरी व्यक्ति के नजरिए से चीजों को देखने की प्रवृत्ति से पर्याप्त दूरी बरकरार रखते हुए भारत में फिर से अपनी जड़ें जमाने की भावना अब असर दिखाने लगी है । तेजी से सिकुड़ती इस दुनिया में एक भारतीय एक अप्रवासी और उसके बाद संभवत: एक वैश्विक नागरिक के तौर पर यात्रा का चक्र पूरा कर लेने की अनुभूति है ।

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