संस्कार पर निबंध | Essay on Samskaras: Meaning and Objectives:- 1. संस्कार का अर्थ (Meaning of Sacraments) 2. संस्कारों का उद्देश्य (Purpose of Sacraments) 3. नैतिक उद्देश्य (Moral Objectives) 4. विधि (Method).

संस्कार का अर्थ (Meaning of Sacraments):

‘संस्कार’ शब्द सम् उपसर्गपूर्वक ‘कृ’ धातु में घञ प्रत्यय लगाने से बनता है जिसका शाब्दिक अर्थ है परिष्कार, शुद्धता अथवा पवित्रता । इस प्रकार हिन्दू व्यवस्था में संस्कारों का विधान व्यक्ति के शरीर को परिष्कृत अथवा पवित्र बनाने के उद्देश्य से किया गया ताकि वह वैयक्तिक एवं सामाजिक विकास के लिये उपयुक्त वन सके ।

शबर का विचार है कि संस्कार वह क्रिया है जिसके सम्पन्न होने पर कोई वस्तु किसी उद्देश्य के योग्य बनती है । शुद्धता, पवित्रता, धार्मिकता, एवं आस्तिकता संस्कार की प्रमुख विशेषतायें हैं । ऐसी मान्यता है कि मनुष्य जन्मना असंस्कृत होता है किन्तु संस्कारों के माध्यम से वह सुसंस्कृत हो जाता है ।

इनसे उसमें अन्तर्निहित शक्तियों का पूर्ण विकास हो पाता है तथा वह अपने लक्ष्य की प्राप्ति कर लेता है । संस्कार व्यक्ति के जीवन में आने वाली बाधाओं का भी निवारण करते तथा उसकी प्रगति के मार्ग को निष्कण्टक बनाते हैं । इसके माध्यम से मनुष्य आध्यात्मिक विकास भी करता है ।

मनु के अनुसार संस्कार शरीर को विशुद्ध करके उसे आत्मा का उपयुक्त स्थल बनाते हैं । इस प्रकार मनुष्य के व्यक्तित्व की सर्वांगीण उन्नति के लिए भारतीय संस्कृति में संस्कारों का विधान प्रस्तुत किया गया है ।

‘संस्कार’ शब्द का उल्लेख वैदिक तथा ब्राह्मण साहित्य में नहीं मिलता । मीमांसक इसका प्रयोग यज्ञीय सामग्रियों को शुद्ध करने के अर्थ में करते हैं । वास्तविक रूप में संस्कारों का विधान हम सूत्र-साहित्य विशेषतया गृह्यसूत्रों में पाते हैं । संस्कार जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त सम्पन्न किये जाते थे ।

अधिकांश गृह्यसूत्रों में अन्त्येष्टि का उल्लेख नहीं मिलता । स्तुति ग्रन्थों में संस्कारों का विवरण प्राप्त होता है । इनकी संख्या चालीस तथा गौतम धर्मसूत्र में अड़तालीस मिलती है । मनु ने गर्भाधान से मृत्यु-पर्यन्त तेरह संस्कारों का उल्लेख किया है । बाद की स्मृतियों में इनकी संख्या सोलह स्वीकार की गयी । आज यही सर्वप्रचलित है ।

संस्कारों का उद्देश्य (Purpose of Sacraments):

हिन्दू समाज-शास्त्रियों ने संस्कारों का विधान विभिन्न उद्देश्यों को ध्यान में रखकर किया ।

मुख्यतः हम इन्हें दो भागों में विभाजित कर सकते हैं:

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(1) लोकप्रिय उद्देश्य तथा

(2) सांस्कृतिक उद्देश्य ।

(1) संस्कारों के लोकप्रिय उद्देश्य निम्नलिखित हैं:

i. अशुभ शक्तियों का निवारण:

प्राचीन हिन्दुओं का विश्वास था कि जीवन में अशुभ एवं आसुरी शक्तियों का प्रभाव होता है जो अच्छा तथा बुरा दोनों प्रकार का फल देती हैं । अत: उन्होंने संस्कारों के माध्यम से उनके अच्छे प्रभावों को आकर्षित करने तथा बुरे प्रभावों को हटाने का प्रयास किया जिससे मनुष्य का स्वास्थ्य एवं निर्विघ्न विकास हो सके ।

इस उद्देश्य से प्रेतात्माओं एवं आसुरी शक्तियों को अन्न, आहुति आदि के द्वारा शान्त किया जाता था । गर्भाधान, जन्म, बचपन आदि के समय इस प्रकार की आहुतियाँ दी जाती थीं । कभी-कभी देवताओं की मंत्रों द्वारा आराधना की जाती थी ताकि असुरी शक्तियाँ निष्क्रिय हो जायें ।

हिन्दुओं की धारणा थी कि जीवन का प्रत्येक काल किसी देवता द्वारा नियंत्रित होता है । अत: प्रत्येक अवसर पर मंत्रों द्वारा देवता का आवाहन किया जाता था जिससे वह मनुष्य को वरदान एवं आशीर्वचन प्रदान कर सके । गर्भाधान के समय विष्णु, उपनयन के समय वृहस्पति, विवाह के समय प्रजापति आदि की स्तुतियाँ की जाती थी ।

ii. भौतिक समृद्धि की प्राप्ति:

संस्कारों का विधान भौतिक समृद्धि यथा-पशुधन, पुत्र, दीर्घायु, शक्ति, बुद्धि, सम्पत्ति आदि की प्राप्ति के उद्देश्य से भी किया गया था । ऐसी मान्यता थी कि प्रार्थनाओं के द्वारा व्यक्ति अपनी इच्छाओं को देवताओं तक पहुँचाता है तथा प्रत्युत्तर में देवता उसे भौतिक समृद्धि की वस्तुयें प्रदान करते हैं । संस्कारों का यह उद्देश्य आज भी हिन्दुओं के मस्तिष्क में प्रबल रूप से विद्यमान है ।

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iii. भावनाओं की अभिव्यक्ति:

संस्कारों के माध्यम से मनुष्य अपने हर्ष एवं दुःख की भावनाओं को प्रकट करता था । पुत्र जन्म, विवाह आदि के अवसर पर आनन्द एवं उल्लास को व्यक्त किया जाता था । बालक को जीवन में मिलने वाली प्रत्येक उपलब्धि पर उसके परिवार के लोग खुशियाँ मनाते थे । इसी प्रकार मृत्यु के अवसर पर शोक व्यक्त किया जाता था । इस प्रकार संस्कार आत्माभिव्यक्ति के प्रमुख माध्यम बनते थे ।

(2) सांस्कृतिक उद्देश्य:

हिंदू-विचारकों ने संस्कारों के पीछे उच्च आदर्शों का उद्देश्य भी रखा । मनुस्मृति में कहा गया है कि संस्कार व्यक्ति की अशुद्धियों का नाश कर उसके शरीर को पवित्र बनाते हैं । ऐसी धारणा थी कि गर्भस्थ शिशु के शरीर में कुछ अशुद्धियाँ होती हैं जो जन्म के बाद संस्कारों के माध्यम से ही दूर की जा सकती हैं ।

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मनुस्मृति में कहा गया है कि अध्ययन, व्रत, होम, यज्ञ, पुत्रोत्पत्ति से शरीर ब्रह्मीय (ब्रह्ममय) हो जाता है । यह भी मान्यता थी कि प्रत्येक व्यक्ति जन्मना शूद्र होता है, संस्कारों से द्विज कहा जाता है, विद्या से विप्रत्व प्राप्त करता है तथा तीनों के द्वारा श्रोत्रिय कहा जाता है ।

संस्कार व्यक्ति को सामाजिक अधिकार एवं सुविधायें भी प्रदान करते थे । उपनयन के माध्यम से वह विद्याध्ययन का अधिकारी बनता तथा द्विज कहा जाता था । समावर्तन संस्कार व्यक्ति को गृहस्थाश्रम में प्रविष्ट होने का अधिकार दे देता था ।

विवाह संस्कार से मनुष्य समस्त सामाजिक कर्तव्यों को सम्पन्न करने का अधिकारी बन जाता था । इस प्रकार वह समाज का पूर्ण सदस्य बन जाता था । संस्कार जीवन के चरम लक्ष्य मोक्ष अथवा स्वर्ग प्राप्त करने के भी साधन माने गये थे । इनके द्वारा व्यक्ति का शरीर शुद्ध एवं पवित्र हो जाता था तथा वह परम पद को प्राप्त कर लेता था ।

संस्कारों का नैतिक उद्देश्य (Moral Objectives of Sacraments):

संस्कारों के द्वारा मनुष्य के जीवन में नैतिक गुणों का समावेश होता था । गौतम ने चालीस संस्कारों के साथ-साथ आठ गुणों का भी उल्लेख किया है तथा व्यवस्था दी है कि संस्कारों के साथ इन गुणों का आचरण करने चाला व्यक्ति ही ब्रह्म को प्राप्त करता है । ये हैं- दया, सहिष्णुता, ईर्ष्या न करना, शुद्धता, शान्ति, सदाचरण तथा लोभ एवं लिप्सा का त्याग । प्रत्येक संस्कार के साथ कोई न कोई नैतिक आचरण संयुक्त रहता था ।

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व्यक्तित्व का निर्माण एवं विकास:

संस्कारों के माध्यम से मनुष्य के व्यक्तित्व का निर्माण एवं विकास होता था । जीवन के प्रत्येक चरण में संस्कार मार्ग दर्शन का काम करते थे । उनकी व्यवस्था इस प्रकार की गयी थी कि वे जीवन के प्रारम्भ से ही व्यक्ति के चरित्र एवं आचरण पर अनुकूल प्रभाव डाल सकें ।

उपनयनादि संस्कारों का उद्देश्य व्यक्ति को शिक्षित एवं सुसंस्कृत बनाना धा । विवाह के माध्यम से वह पूर्ण गृहस्थ बन जाता तथा देश और समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्वों का निष्ठापूर्वक निर्वाह करता था । वस्तुतः हिंदू चिन्तकों ने संस्कारों को व्यक्ति के लिये अनिवार्य बनाकर उसके सर्वाड्गीण विकास का मार्ग प्रशस्त किया था ।

आध्यात्मिक प्रगति:

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संस्कार व्यक्ति की भौतिक उन्नति के साथ ही साथ आध्यात्मिक प्रगति का मार्ग भी प्रशस्त करते थे । सभी संस्कारों के साथ धार्मिक क्रियायें सम्बद्ध रहती थी । इन्हें सम्पन्न करके मनुष्य भौतिक सुख के साथ आध्यात्मिक सुख प्राप्त करने की भी कामना रखता था ।

उसे यह अनुभूति होती थी कि जीवन की समस्त क्रियायें आध्यात्मिक सत्य को प्राप्त करने के लिये हैं । संस्कारों के अभाव में हिन्दू जीवन पूर्णतया भौतिक हो गया होता । प्राचीन हिन्दुओं का विश्वास था कि संस्कारों के विधिवत् पालन से ही वे भौतिक बाधाओं से बच सकते हैं तथा भवसागर को पार कर सकते हैं । इस प्रकार संस्कार मनुष्य के भौतिक एवं आध्यात्मिक जीवन के बीच मध्यस्थता का कार्य करते थे । संस्कार हिन्दू जीवन-पद्धति के अभिन्न अंग थे ।

षोडश संस्कार:

जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है कि संस्कारों की षोडश संख्या ही कालान्तर में लोकप्रिय हुई ।

ये इस प्रकार हैं:

(1) गर्भाधान,

(2) पुंसवन,

(3) सीमन्तोन्नयन,

(4) जातकर्म,

(5) नामकरण,

(6) निष्क्रमण,

(7) अन्नप्राशन,

(8) चूड़ाकरण,

(9) कर्णवेध,

(10) विद्यारम्भ,

(11) उपनयन,

(12) वेदारम्भ,

(13) केशान्त,

(14) समावर्त्तन,

(15) विवाह तथा

(16) अंत्येष्टि ।

निम्नलिखित पंक्तियों में प्रत्येक का अलग-अलग विवरण प्रस्तुत किया जावेगा:

(1) गर्भाधान:

यह जीवन का प्रथम संस्कार था जिसके माध्यम से व्यक्ति अपनी पत्नी के गर्भ में बीज स्थापित करता था । इस संस्कार का प्रचलन उत्तर वैदिक काल से हुआ । सूत्रों तथा स्मृति-ग्रन्थों में इसके लिये उपयुक्त समय एवं वातावरण का उल्लेख मिलता है । इसके लिये आवश्यक था कि स्त्री ऋतुकाल में हो ।

ऋतुकाल के बाद की चौथी से सोलहवीं रात्रियां गर्भाधान के लिये उपयुक्त बताई गयी हैं । अधिकांश गृह्यसूत्रों तथा स्मृतियों में चौथी रात्रि को शुद्ध माना गया है । आठवीं, पन्द्रहवीं, अठारहवीं एवं तीसवीं रात्रियों में गर्भाधान वर्जित था । सोलह रात्रियों में प्रथम चार, ग्यारह एवं तेरह निन्दित कही गयी हैं तथा शेष दस को श्रेयस्कर बताया गया है ।

गर्भाधान के निमित्त रात्रि का समय ही उपयुक्त था, दिन में यह कार्य वर्जित था । प्रश्नोपनिषद् में कहा गया है कि दिन में गर्भ धारण करने वाली स्त्री से अभागी, दुर्बल एवं अल्पायु सन्तानें उत्पन्न होती है । किन्तु जो व्यक्ति अपनी पत्नी से दूर विदेश में रहते थे उनके लिये इस नियम में छूट प्रदान की गयी । गर्भाधान के लिये रात्रि का अन्तिम पहर भी अभीष्ट माना गया ।

समरात्रियों में गर्भाधान होने पर पुत्र एवं विषम में कन्या उत्पन्न होती है, ऐसी मान्यता थी । प्राचीन काल में नियोग प्रथा भी प्रचलित थी जिसके अन्तर्गत स्त्री अपने पति की मृत्यु अथवा उसके नपुंसक होने पर उसके भाई अथवा सगोत्र व्यक्ति से सन्तानोत्पत्ति के निमित्त गर्भाधान करवाती थी । किन्तु अधिकांश ग्रन्थों में इसकी निन्दा की गयी है । मनु ने इसे “पशुधर्म” बताया है ।

गर्भाधान प्रत्येक विवाहित पुरुष तथा स्त्री के लिये पवित्र एवं अनिवार्य संस्कार था जिसका उद्देश्य स्वास्थ्य, सुन्दर एवं सुशील सन्तान प्राप्त करना था । पाराशर ने यह व्यवस्था दी कि जो पुरुष स्वास्थ्य होने पर भी ऋतुकाल में अपनी पत्नी से समागम नहीं करता है वह बिना किसी संदेह के भ्रूण हत्या का भागी होता है ।

स्त्री के लिये भी अनिवार्य था कि वह ऋतुकाल के स्नान के बाद अपने पति के पास जाये । पाराशर के अनुसार ऐसा न करने वाली स्त्री का दूसरा जन्म शूकरी के रूप में होता है । गर्भाधान पुत्र-प्राप्ति के लिए किया जाने वाला प्रथम एवं महत्वपूर्ण संस्कार था । सामाजिक तथा धार्मिक दोनों ही दृष्टि से इसका महत्व था ।

वैदिक युग के लिए स्वास्थ्य एवं बलिष्ठ सन्तानें उत्पन्न करना प्रत्येक आर्य का कर्तव्य था । नि:सन्तान व्यक्ति आदर का पात्र नहीं था । ऐसी मान्यता थी कि जिस पिता के जितने अधिक पुत्र होंगे वह स्वर्ग में उतना ही अधिक सुख प्राप्त करेगा । पितृऋण से मुक्ति भी सन्तानोत्पन्न करने पर ही मिलती थी ।

(2) पुंसवन:

गर्भाधान के तीसरे माह में पुत्र-प्राप्ति के निमित्त यह संस्कार सम्पन्न किया जाता था । पुंसवन का अर्थ है “वह अनुष्ठान या कर्म जिससे पुत्र की उत्पत्ति हो” (पुमान् प्रसूयते येन कर्मणा तत्पुंसवनमीरितम्) । इस संस्कार के माध्यम से उन देवताओं को पूजा द्वारा प्रसन्न किया जाता था जो गर्भ में शिशु की रक्षा करते थे ।

चन्द्रमा के पुष्य नक्षत्र में होने पर यह संस्कार सम्पन्न होता था क्योंकि यह समय पुत्र-प्राप्ति के लिये उपयुक्त माना गया । रात्रि के समय वटवृक्ष की छाल का रस निचोड़कर स्त्री की नाक के दाहिनी छिद्र में डाला जाता था ।

इससे गर्भपात की आशंका समाप्त हो जाती तथा सभी विध्न-बाधायें दूर हो जाती थीं । हिन्दू समाज में पुत्र का बड़ा ही महत्व था । उसी के माध्यम से परिवार की निरन्तरता बनी रहती थी । इस प्रकार पुंसवन संस्कार का उद्देश्य परिवार तथा इसके माध्यम से समाज का कल्याण करना होता था ।

(3) सीमन्तोन्नयन:

गर्भाधान के चौथे से आठवें मास तक यह संस्कार सम्पन्न होता था । इसमें स्त्री के केशों (सीमान्त) को ऊपर उठाया जाता था । ऐसी अवधारणा थी कि गर्भवती स्त्री के शरीर को प्रेतात्मायें नाना प्रकार की बाधा पहुँचाती हैं जिनके निवारण के निमित्त कुछ धार्मिक कृत्य किये जाने चाहिये ।

इसी उद्देश्य से इस संस्कार का विधान किया गया । इसके माध्यम से गर्भवती नारी की समृद्धि तथा भ्रूण की दीर्घायु की कामना की जाती थी । इस संस्कार के सम्पादित होने के दिन स्त्री व्रत रहती थी । पुरुष मातृपूजा करता था तथा प्रजापति देवताओं को आहुतियाँ दी जाती थीं ।

इस समय वह अपने साथ कच्चे उदुम्बर फलों का एक गुच्छा तथा सफेद चिह्न वाले शाही के तीन कांटे रखता था । स्त्री अपने केशों में सुगन्धित तेल डालकर यज्ञ मण्डप में प्रवेश करती थी जहां वेद मन्त्रों के उच्चारण के बीच उसका पति उसके बालों को ऊपर उठाता था । वाद में गर्भिणी स्त्री के शरीर पर एक लाल चिह्न बनाया जाने लगा जिससे भूत, प्रेतादि भयभीत होकर उससे दूर रहें । इस संत्कार के साथ स्त्री को सुख तथा सान्त्वना प्रदान की जाती थी ।

(4) जातकर्म:

शिशु के जन्म के समय जातकर्म नामक संस्कार सम्पन्न होता था । सामान्यतः बच्चे के नार काटने के पूर्व ही इसे किया जाता था । उसका पिता सविधि स्नान करके उसके पास जाता तथा पुत्र को स्पर्श करता एवं सूंघता था । इस अवसर पर वह उसके कानों में अशीर्वादात्मक मंत्रों का उच्चारण करता था, जिसके माध्यम से दीर्घ आयु एवं बुद्धि की कामना की जाती थी ।

तत्पश्चात् बच्चे को मधु तथा घृत चटाया जाता था, फिर प्रथम बार वह मां का स्तनपान करता था । संस्कार की समाप्ति के बाद ब्राह्मणों को उपहार दिये जाते एवं भिक्षा बाँटी जाती थी । सभी माता एवं शिशु के दीर्घ एवं स्वास्थ्य जीवन की कामना करते थे ।

(5) नामकरण (नामधेय):

बच्चे के जन्म के दसवें अथवा बारहवें दिन ”नामकरण” संस्कार होता था जिसमें उसका नाम रखा जाता था । प्राचीन हिन्दू समाज में नामकरण का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान था । वृहस्पति के अनुसार नाम ही लोक व्यवहार का प्रथम साधन है । यह गुण एवं भाग्य का आधार है ।

इसी से मनुष्य यश प्राप्त करता है । प्राचीन शास्त्रों में इस संस्कार का विस्तृत विवरण मिलता है । इस संस्कार के निमित्त शुभ तिथि, नक्षत्र एवं मुहूर्त का चयन किया जाता था । यह ध्यान रखा जाता था कि बच्चे का नाम परिवार, समुदाय एवं वर्ण का नाम बोधक हो ।

नक्षत्र, मास तथा कुल देवता के नाम पर अथवा व्यावहारिक नाम भी बच्चे को प्रदान किये जाते थे । कन्या का नाम मनोहर, मंगल सूचक, स्पष्ट अर्थ वाला तथा अन्त में दीर्घ अक्षर वाला रखे जाने का विधान था । मनु के अनुसार बच्चे का नाम उसके वर्ण का द्योतक होना चाहिए ।

उनके अनुसार ब्राह्मण का नाम मंगलसूचक, क्षत्रिय का बलसूचक, वैश्य का धनसूचक तथा शूद्र का निन्दा सूचक होना चाहिए । विष्णु पुराण में उल्लेख मिलता है कि ‘ब्राह्मण अपने नाम के अन्त में शर्मा, क्षत्रिय वर्मा, वैश्य गुप्त तथा शूद्र दास लिखें’ । नामकरण संस्कार के पूर्व घर को धोकर पवित्र किया जाता था ।

माता तथा शिशु स्नान करते थे । तत्पश्चात् माता बच्चे का सिर जल से भिगो कर तथा साफ कपड़े से उसे ढँककर उसके पिता को देती थी । फिर प्रजापति नक्षत्र देवताओं, अग्नि, सोम आदि को बलि दी जाती थी । पिता बच्चे की श्वांस का स्पर्श करता था तथा फिर उसका नामकरण किया जाता था । संस्कार के अन्त में ब्राह्मण को भोज दिया जाता था ।

(6) निष्क्रमण:

बच्चे के जन्म के तीसरे अथवा चौथे माह में यह संस्कार सम्पन्न होता था जिसमें उसे प्रथम बार घर से बाहर निकाला जाता था । यह संस्कार माता-पिता सम्पन्न करते थे । उस दिन घर के आँगन में एक चौकोर भाग को गोबर तथा मिट्टी से लीपा जाता था । उस पर स्वस्तिक का चिह्न बनाकर धान छींट दिया जाता था ।

बच्चे को स्नान कराकर, नये परिधान में यज्ञ के सामने करके वेदमन्त्रों का पाठ किया जाता था । फिर माँ बच्चे को लेकर बाहर निकलती थी तथा उसे प्रथम बार सूर्य का दर्शन कराया जाता था । इसी के साथ उसका घर के बाहरी वातावरण से भी सम्पर्क होता था ।

(7) अन्नप्राशन:

बच्चे के जम के छठें माह में अन्नप्राशन नामक संस्कार होता था जिसमें प्रथम बार उसे पका हुआ अन्न खिलाया जाता था । इसमें दूध, घी, दही तथा पका हुआ चावल खिलाने का विधान था । गृह्य सूत्रों में इस संस्कार के समय विभिन्न पक्षियों के मास एवं मछली खिलाये जाने का भी विधान मिलता है ।

उसकी वाणी में प्रवाह लाने के लिये भरद्वाज पक्षी का मांस तथा उसमें कोमलता लाने के लिये मछली खिलाई जाती थी । इसका उद्देश्य बच्चे को शारीरिक तथा बौद्धिक दृष्टि से स्वास्थ्य बनाना था । बाद में केवल दूध और चावल खिलाने की प्रथा प्रचलित हो गयी ।

अन्नप्राशन संस्कार के दिन भोजन को पवित्र ढंग से वैदिक मंत्री के बीच पकाया जाता था । सर्वप्रथम वाग्देवी को आहुति दी जाती थी । अन्त में बच्चे का पिता सभी अन्नों को मिलाकर बच्चे को उसे ग्रहण कराता था । तत्पश्चात् ब्राह्मणों को भोज देकर इस संस्कार की समाप्ति होती थी । इस संस्कार का उद्देश्य यह था कि एक उचित समय पर बच्चा माँ का दूध पीना छोड़कर अनादि से अपना निर्वाह करने योग्य बन सके ।

(8) चूड़ाकरण (चौल कर्म):

अन्नप्राशन के वाद का महत्वपूर्ण संस्कार चूड़ाकरण या चौलकर्म था जिसमें पहली बार बालक के बाल काटे जाते थे । गृह्यसूत्रों के अनुसार जन्म के प्रथम वर्ष की समाप्ति अथवा तीसरे वर्ष की समाप्ति के पूर्व यह संस्कार सम्पन्न किया जाना चाहिए ।

कुछ स्मृतिकार इसकी अवधि पाँचवें तथा सातवें वर्ष तक रखते हैं । आश्वलायन का विचार है कि चूड़ाकर्म तीसरे या पाँचवें वर्ष में होना प्रशंसनीय है किन्तु इसे सातवें वर्ष अथवा उपनयन के समय भी किया जा सकता है । कुछ शास्त्रकारों के अनुसार कुल तथा धर्म के रीति-रिवाज के अनुसार इसे करना चाहिए (यशाकुलधर्म वा) ।

पहले यह संस्कार घर में ही होता था किन्तु बाद में इसे किसी मन्दिर में देवता के सामने किया जाने लगा । इसके लिये एक शुभ दिन तथा मुहूर्त निश्चित किया जाता था । प्रारम्भ में संकल्प, गणेश पूजा, मंगल श्राद्ध आदि सम्पन्न होता था तथा ब्राह्मणों को भोजन कराया जाता था ।

तदुपरान्त माँ बच्चे को स्नान करवाकर नये वस्त्रों में लेकर यज्ञीय अग्नि के पश्चिम की और बैठती थी । इसके बाद पूजा-अर्चन के बीच बच्चे का बाल काटा जाता था । कटे हुये बाल को गाय के गोवर में छिपा दिया जाता था ।

बालक के सिर पर मक्खन अथवा दही का लेप किया जाता था बालों को गोबर में ढँकने के पीछे यह धारणा थी कि वे शरीर के अंग हैं, अत: ये शत्रुओं द्वारा जादू-टोने के शिकार न हो जायँ । इसी कारण उन्हें सबकी पहुँच के बाहर रखा जाता था । इस संस्कार के पीछे यह भावना थी कि बच्चे को स्वच्छता और सफाई का ज्ञान कराया जा सके जो स्वास्थ्य के लिये आवश्यक थे ।

(9) कर्णवेध:

इस संस्कार में बालक का कान छेदकर उसमें वाली अथवा कुण्डल पहना दिया जाता था । सुश्रुत् ने इसका उद्देश्य रक्षा तथा अलंकरण बताया है । इसके समय के विषय में मतभेद है । विभिन्न शास्त्रकार इसे जन्म के दशवें दिन से लेकर पाँचवें वर्ष तक बताते हैं ।

कर्णवेधन के लिये स्वर्ण, रजस् तथा अयस् (लोहा) की सूइयों का प्रयोग अपनी सामर्थ्य के अनुसार किया जाता था । विभिन्न प्रकार की सूइयों का प्रयोग विभिन्न वर्ण के बालकों के लिये होता था । क्षत्रिय बालक का कर्णवेध स्वर्ण की सूई से, ब्राह्मण तथा वैश्य का रजत की सूई से तथा शूद्र का लोहे की सूई से किये जाने का विधान मिलता है ।

यह धार्मिक रीति से सम्पन्न किया जाता था । बच्चे को पूर्व दिशा की ओर मुँह करके बैठाया जाता था । उसे मिठाई खाने को दी जाती थी । तत्पश्चात् वैदिक मन्त्रों के बीच पहले दायाँ तथा फिर बायाँ कान छेदा जाता था । कर्णवेध एक अनिवार्य संस्कार था जिसे न करना पाप समझा गया ।

देवल की व्यवस्था है कि जिस ब्राह्मण का कर्णवेध न हुआ हो उसे दक्षिण नहीं दी जानी चाहिए । जो उसे दक्षिणा देता है वह असुर या राक्षस होता है । कर्णवेध संस्कार का विधान बच्चे को भविष्य में स्वास्थ्य रखने के उद्देश्य से हुआ । सुश्रुत् ने लिखा है कि कर्णवेध अण्डकोश वृद्धि तथा अन्त्रवृद्धि के रोगों से छुटकारा दिलाता है ।

(10) विद्यारम्भ:

जब बच्चे का मस्तिष्क शिक्षा ग्रहण करने योग्य हो जाता था, तब यह संस्कार सम्पन्न कराया जाता था जिसमें उसे अक्षरों का बोध कराया जाता था । इसी कारण लोग इसे ”अक्षरारम्भ” भी कहते हैं । इसका समय जन्म के पाचवें वर्ष अथवा उपनयन संस्कार के पूर्व बताया गया है ।

विद्यारम्भ संस्कार एक शुभ दिन एवं मुहूर्त में सम्पन्न होता था । उस दिन बच्चे को स्नान कराकर सुगंधित द्रव्यों एवं वस्त्रों से उसे सजाया जाता था । पहले गणेश, सरस्वती, लक्ष्मी तथा कुल देवों की पूजा होती थी । तत्पश्चात् शिक्षक पूर्व दिशा की ओर बैठकर पट्टी पर बालक से “ओम्”, स्वस्ति, नम: सिद्धाय आदि लिखवाकर विद्यारम्भ करवाता था ।

बालक गुरु की पूजा करता था तथा अपने लिखे हुए को तीन बार पड़ता था । बालक गुरु को वस्त्र तथा आभूषण प्रदान करता था तथा देवताओं की तीन बार परिक्रमा करता था । उपस्थित ब्राह्मण उसे आशीर्वाद देते थे । संस्कार की समाप्ति पर गुरु को पगड़ी भेंट की जाती थी । विद्यारम्भ संस्कार का सम्बन्ध बालक की बुद्धि और ज्ञान से था । इससे उसमें अन्तर्निहित बौद्धिक गुण प्रकट होकर सामने आते थे ।

(11) उपनयन:

प्राचीन हिन्दू संस्कारों में ”उपनयन” का सबसे अधिक महत्व था जिसके माध्यम से बालक सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने का अधिकारी बन जाता था । वस्तुतः उसके बौद्धिक उत्कर्ष का प्रारम्भ इसी संस्कार से होता था । “उपनयन” का शाब्दिक अर्थ है समीप ले जाना । इससे तात्पर्य बालक को शिक्षा के निमित्त गुरु के पास ले जाने से है । इस संस्कार की प्राचीनता प्रागैतिहासिक काल तक जाती है । वैदिक युग में यह एक प्रचलित संस्कार था । ऋग्वेद में दो स्थानों पर “ब्रह्मचर्य” शब्द का उल्लेख धार्मिक विद्यार्थी के जीवन के अर्थ में हुआ है ।

अथर्ववेद में सूर्य का वर्णन ब्राह्मण विद्यार्थी के रूप में अपने आचार्य के पास “समिध” तथा भिक्षा के साथ जाते हुए किया गया है । शतपथ ब्राह्मण में उद्दालक नामक विद्यार्थी का उल्लेख है जो अपने गुरु के पास शिक्षा के लिये गया तथा उससे अपने को ब्राह्मचारी के रूप में स्वीकार किये जाने की प्रार्थना की । सूत्र तथा स्मृति साहित्य में इस संस्कार का विस्तारपूर्वक विवरण मिलता है ।

उपनयन की आयु:

प्राचीन ग्रन्थों में उपनयन के लिये विद्यार्थी की आयु का विवरण प्राप्त होता है । ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य विद्यार्थी के लिये क्रमशः आठ, ग्यारह तथा बारह वर्ष की आयु का निर्धारण किया गया । बौद्धायन का विचार है कि आठ से सोलह वर्ष के बीच उपनयन संस्कार सम्पन्न होना चाहिए ।

सोलह वर्ष के बाद वैदिक शिक्षा ग्रहण करने की मान्यता नहीं दी गयी है । ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य बालकों के लिये उपनयन की जो भिन्न-भिन्न आयु निर्धारित की गयी उसके लिये उनकी पारिवारिक परम्परायें ही उत्तरदायी थीं, न कि जातिगत भेदभाव की अवधारणा ।

ब्राह्मण परिवार में बालक प्रायः अपने परिवार में ही शिक्षा प्रारम्भ करते थे जबकि अन्य वर्णों के बालकों को इसके लिये गृह त्याग करने पड़ते थे । अत: जब वे अपने माता-पिता से अलग रहने योग्य हो जाते थे सभी उनका उपनयन होता था । स्पष्टतः यह अवस्था ब्राह्मण बालकों से अधिक होती होगी जिन्हें अपने घर में ही शिक्षा ग्रहण करनी होती थी ।

उपनयन का उद्देश्य:

उपनयन संस्कार का उद्देश्य मुख्यतः शैक्षणिक था । याज्ञवल्क्य के अनुसार इसका सर्वोच्च ध्येय वेदों का अध्ययन करना है । उनके अनुसार आचार्य को दीक्षित शिष्य को वेद तथा आचार की शिक्षा देनी चाहिए । आपस्तम्ब तथा भारद्वाज ने उपनयन से तात्पर्य शिक्षा ग्रहण करना बताया है (उपनयन विद्यार्थस्य श्रुतित: संस्कार इति) । कालान्तर में इसका उद्देश्य धार्मिक हो गया तथा इसे एक कर्मकाण्ड के रूप में सम्पादित किया जाने लगा । मनुस्मृति में विहित है कि उपनयन इहलौकिक तथा पारलौकिक दोनों जीवन को पवित्र बनाता है ।

(12) वेदारम्भ:

इस संस्कार का उल्लेख सर्वप्रथम व्यास स्मृति में मिलता है । प्रारम्भ में उपनयन तथा वेदों का अध्ययन प्रायः एक ही साथ प्रारम्भ होता था । वेदों का अध्ययन गायत्री मन्त्र के साथ प्रारम्भ किया जाता था । कालान्तर में वेदों का अध्ययन मन्द पड़ गया तथा संस्कृत बोल-चाल की भाषा नहीं रह गयी । अब उपनयन एक शारीरिक संस्कार हो गया जिसके साथ बालक वेदाध्ययन के स्थान पर अपनी भाषा में शिक्षा ग्रहण करने लगा ।

अत: समाजशास्त्रियों ने वेदों के अध्ययन की परम्परा बनाये रखने के उद्देश्य से इसे एक नवीन संस्कार का रूप दिया तथा उपनयन को इससे अलग कर दिया । यह पूर्णतया शैक्षणिक संस्कार था जिसका प्रारम्भ बालक के वेदाध्ययन से होता था । वेदाध्ययन संस्कार के प्रारम्भ में मातृपूजा होती थी । तदुपरान्त आचार्य लौकिक अग्नि प्रज्वलित करके विद्यार्थी को उसके पश्चिम में आसीन करता था ।

यदि ऋग्वेद का अध्ययन प्रारम्भ करना होता था तो पृथ्वी तथा अग्नि को घी की दो आहुतियाँ दी जाती थीं, यजुर्वेद के अध्ययन में अंतरिक्ष तथा वायु को, सामवेद के अध्ययन में द्यौस तथा सूर्य को और अथर्ववेद के अध्ययन के समय दिशाओं एवं चन्द्रमा को आहुतियाँ दी जाती थीं ।

यदि सभी वेदों का अध्ययन प्रारम्भ करना होता था तो सभी देवताओं को आहुतियाँ दिये जाने का विधान था । अन्त में स्थानापन्न पुरोहित को दक्षिणा देने के बाद आचार्य विद्यार्थी को वेद पढ़ाना प्रारम्भ करता था । मनुस्मृति में कहा गया है कि वेदाध्ययन के प्रारम्भ तथा अन्त में विद्यार्थी को “ऊँ” शब्द का उच्चारण करना चाहिए । प्रारम्भ में उच्चारण न होने से अध्ययन नष्ट हो जाता है तथा अन्त में न करने से ठहरता नहीं है ।

(13) केशान्त अथवा गोदान:

गुरु के पास रहकर अध्ययन करते हुये विद्यार्थी की सोलह वर्ष की आयु में प्रथम बार दाढ़ी-मूँछ बनवाई जाती थी । इसे ”केशान्त संस्कार” कहा गया है । इस अवसर पर गुरु को एक गाय दक्षिणा स्वरूप दी जाती थी । इसी कारण इसे गोदान संस्कार की भी संज्ञा प्रदान की गयी है । इस संस्कार के माध्यम से विद्यार्थी को ब्रह्मचर्य जीवन के व्रतों की एक वार पुन: याद दिलायी जाती थी जिन्हें पालन करने का वह पुन: व्रत लेता था ।

केशान्त संस्कार की विधि चूड़ाकर्म जैसी ही थी । वैदिक मन्त्रों के बीच नाई विद्यार्थी की दाढ़ी-मूंछ काटता था । बालों को पानी में प्रवाहित कर दिया जाता था । फिर विद्यार्थी गुरु को एक गाय दक्षिणा में देता था । अन्त में वह मौन व्रत रहता था तथा एक वर्ष तक कठोर अनुशासन का जीवन व्यतीत करता था ।

(14) समावर्तन:

गुरुकुल में शिक्षा समाप्त कर लेने के पश्चात् विद्यार्थी जब अपने धर लौटता था तब समावर्तन नामक संस्कार सम्पन्न होता था । इसका शाब्दिक अर्थ है- ”गुरु के आश्रम से स्वगृह को वापस लौटना ।” इसे “स्नान” भी कहा गया है क्योंकि इस अवसर पर स्नान सबसे महत्वपूर्ण कार्य था । इसी के बाद विद्यार्थी “स्नातक” बनता था ।

समावर्तन संस्कार के लिये कोई आयु निर्धारित नहीं थी । सामान्यतः इसका सम्पादन विद्यार्थी के अध्ययन की पूर्ण समाप्ति के पश्चात् ही होता था । राजबली पाण्डेय का विचार है कि समावर्तन संस्कार प्रारम्भ में आधुनिक दीक्षान्त समारोह के समान था ।

यह उन्हीं विद्यार्थियों का होता था जो ब्रह्मचर्याश्रम के सम्पूर्ण व्रतों का पालन करते हुए विधिवत् अपनी शिक्षा पूरी कर लेते थे । कालान्तर में यह नियम शिथिल पड़ गया । समावर्तन संस्कार किसी शुभ दिन को सम्पन्न होता था ।

इस दिन विद्यार्थी प्रातःकाल एक कमरे में बन्द रहता था । ऐसा सूर्य को ब्रह्मचारी के तेज से अवमानित होने से बचाने के लिये किया जाता था क्योंकि ऐसी मान्यता थी कि सूर्य ब्रह्मचारी के तेज से ही प्रकाशमान होता है ।

मध्याह्न में विद्यार्थी कमरे से बाहर निकलकर गुरु का चरण स्पर्श करता था तथा वैदिक अग्नि में समिधा डालकर उसके प्रति अपनी अन्तिम श्रद्धांजलि प्रकट करता था । आठ जलपूर्ण कलश वहाँ रखे जाते थे । ये इस बात के सूचक थे कि विद्यार्थी को पृथ्वी की सभी दिशाओं से प्रशंसा तथा सम्मान प्राप्त है ।

तत्पश्चात् ब्रह्मचारी उन कलशों के जल से स्नान करता था तथा देवताओं से प्रार्थना करता था । स्नान के पश्चात वह दण्ड, मेखला, मृगचर्म आदि का परित्याग कर नया कौपीन पहनता धा । दाढी-बाल, नाखून आदि कटवाकर वह पवित्र हो जाता था ।

अब उसकी साधना एवं तपस्या का जीवन समाप्त होता था तथा गुरु उसे आनन्द एवं विलासिता की सामग्रियाँ प्रदान करता था । उसके शरीर पर सुगंधित लेप लगाया जाता था । उसे नये परिधान, आभूषण, छत्रादि प्रदान किये जाते थे ।

जीवन में सुरक्षा के लिये उसे बाँस का एक डण्डा दिया जाता था । अन्त में स्नातक आचार्य का आर्शीवचन एवं उसकी आज्ञा लेकर स्वगृह को प्रस्थान करता था । इस अवसर पर उसे गुरु को दक्षिणा भी देनी होती थी जिसे वह अपनी शक्ति एवं सामर्थ्य के अनुसार देता था । कभी-कभी गुरु विद्यार्थी की भक्ति एवं सेवा से प्रसन्न होकर उसे ही दक्षिणा मान लेता था । समावर्तन संस्कार व्यक्ति को गृहस्थाश्रम में प्रवेश की अनुमति प्रदान करता था ।

(15) विवाह:

यह प्राचीन हिन्दू समाज का सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्कार है जिसकी महत्ता आज भी विद्यमान है । गृहस्थाश्रम का प्रारम्भ इसी संस्कार से होता था । “विवाह” शब्द “वि” उपसर्गपूर्वक “वह” धातु से बनता है जिसका शाब्दिक अर्थ है- “वधू को वर के घर ले जाना या पहुँचाना ।” किन्तु अति प्राचीन काल से यह शब्द सम्पूर्ण संस्कार को द्योतित करता है । हिन्दू समाज में इसे एक पवित्र धार्मिक संस्था के रूप में मान्यता दी गयी है जिसका उद्देश्य पति और पत्नी के सहयोग से विभिन्न पुरुषार्थों को पूरा करना था ।

इसे एक यह माना गया जिसे न करने वाला यज्ञरहित होता था । हिन्दू धारणा में अकेले व्यक्ति का जीवन एकांगी है तथा वह पूर्ण तभी होता है जबकि पत्नी का सहयोग उसे प्राप्त हो जाये । जब समाज में तीन ऋणों का सिद्धान्त लोकप्रिय हुआ, तब विवाह संस्कार को और अधिक मान्यता एवं पवित्रता प्राप्त हुई क्योंकि बिना इसके व्यक्ति पितृऋण से मुक्त नहीं हो सकता था ।

पाश्चात्य संस्कृतियों में विवाह को जहाँ एक संविदा मात्र माना गया, वहाँ हिन्दू संस्कृति में इसे कभी भी समाप्त न होने वाली संस्था माना गया । इसका आदर्श मात्र यौनसुख प्राप्त करने से कहीं बढ़कर था । इसके माध्यम से व्यक्ति अपना तथा साथ ही साथ समाज का भी पूर्ण एवं सम्यक् विकास करता है ।

इस प्रकार विवाह को एक अनिवार्य संस्कार बताया गया जिसे सम्पन्न करना प्रत्येक व्यक्ति के लिये धार्मिक और सामाजिक बाध्यता थी । सभी वर्गों के लिए इसे करना आवश्यक माना गया । याज्ञवल्क्य ने स्पष्टतः लिखा है- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, कोई भी हो, यदि वह विवाहित नहीं है तो कर्म के योग्य नहीं है ।

(16) अन्त्येष्टि संस्कार:

मानव जीवन का अन्तिम संस्कार अन्त्येष्टि है जो मृत्यु के समय सम्पादित किया जाता है । इसका उद्देश्य मृतात्मा को स्वर्ग लोक में सुख और शान्ति प्रदान करना है । बौद्धायन के अनुसार जन्म के बाद के संस्कारों द्वारा व्यक्ति लोक को जीतता है तथा इस (अन्त्येष्टि) संस्कार के द्वारा वह स्वर्ग की विजय करता है ।

अन्त्येष्टि संस्कार की प्राचीनता प्रागैतिहासिक युग तक जाती है । उस समय से ही मनुष्य की यह मान्यता रही है कि मृत्यु के समय शरीर का पूर्ण विनाश नहीं होता, बल्कि उसका अस्तित्व किसी न किसी रूप में बना रहता है ।

पाषाण काल की जातियाँ अपने मृतकों को आदरपूर्वक दफनाती थीं तथा उनके साथ दैनिक उपयोग की वस्तुयें भी रख दी जाती थीं । कालान्तर में हिन्दू धर्म ने आत्मा की अमरता का सिद्धान्त प्रतिपादित किया । अत: आत्मा की स्वर्ग में शान्ति के निमित्त विधिपूर्वक यह संस्कार सम्पादित किया जाता था ।

हिन्दू समाज में मृतक शरीर को जलाने, गाड़ने अथवा फेंकने की प्रथा प्रचलित थी । शवदाह के प्रायः तेरह दिन बाद तेरही होती थीं और इसमें पिण्डदान, श्राद्ध एवं ब्राह्मणों को भोजन कराया जाता था । इसके बाद मृतक का परिवार शुद्ध हो जाता था । ये सभी क्रियायें आज भी हिन्दू समाज में विधिपूर्वक सम्पन्न होती हैं ।

इस प्रकार समस्त संस्कार का विवेचन करने के उपरान्त हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि इनका आदर्श बड़ा ही उदात्त था । वस्तुतः हिन्दू चिन्तकों ने व्यक्ति के सर्वाड्गीण विकास को ध्यान में रखकर इनका विधान किया । संस्कार निश्चयत: व्यक्ति के भौतिक तथा आध्यात्मिक दोनों ही विकास में सहायक थे ।

जीवन के विभिन्न स्तरों पर सम्पादित किये जाने वाले संस्कारों से

संस्कार की विधि (Method of Sacrament):

बालक का उपनयन संस्कार एक शुभ समय में होता था । ब्राह्मण का संस्कार बसन्त ऋतु में, क्षत्रिय का ग्रीष्म में तथा वैश्य का पतझड़ में किये जाने का विधान था । संस्कार सम्पन्न होने के एक दिन पूर्व गणेश, मेधा, लक्ष्मी, धृति, श्रद्धा, सरस्वती आदि की पूजा की जाती थी ।

इसके पूर्व की रात्रि को बालक मौन व्रत धारण करता था । प्रात:काल वह अपनी माता के साथ एक ही थाली में भोजन ग्रहण करता था जो माँ के साथ उसका अन्तिम भोजन होता था । इसके बाद वह सिद्धान्तत: अपनी माँ के साथ कभी भी भोजन ग्रहण नहीं कर सकता था ।

अल्टेकर का विचार है कि यह क्रिया बालक को याद दिलाने के उद्देश्य से थी कि उसका अनियमित बचपन का जीवन समाप्त हो गया है और आगे उसे नियमित एवं अनुशासित जीवन व्यतीत करना है । राजबली पाण्डेय का विचार है कि यह माता तथा पुत्र का विदाई-भोज भी हो सकता है जो पुत्र के प्रति माता के गहरे स्नेह को प्रकट करता है ।

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इसके बाद बालक के बाल बनवाकर उसे स्नान कराया जाता था तथा वह कौपीन वस्त्र धारण करता था । उसके कमर के चारों ओर एक मेखला बांधी जाती थी । इसमें तीन डोरियाँ थीं जो उसे यह याद दिलाती थीं कि आगे वह तीन वेदों से घिरने वाला है (वेदत्रयेणावृत्तोहमिति मन्यते स द्विज:) ।

इस अवसर पर उच्चरित मंत्रों द्वारा बालक को सूचित किया जाता था कि- “मेखला श्रद्धा की पुत्री तथा ऋषियों की भगिनी है, उसकी शुद्धता एवं पवित्रता की रक्षा करने की शक्ति से युक्त है तथा बुराइयों से उसे दूर रखेगी ।”

इस अवसर पर गुरु के द्वारा प्रदत्त उत्तरीय वस्त्र से वह अपने शरीर का ऊपरी भाग ढँकता था । तत्पश्चात् बालक जनेऊ धारण करता था जिसमें तीन धागे रहते थे । गृह्यसूत्रों से पता चलता है कि पहले जनेऊ धारण करने की प्रथा नहीं थी तथा उसके स्थान पर उत्तरीय ही धारण किया था ।

कालान्तर में उत्तरीय का स्थान जनेऊ ने ग्रहण कर लिया । तीनों वर्णों के लिये अलग-अलग प्रकार के यज्ञोपवीत का विधान मिलता है । मनु के अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य वर्णों के विद्यार्थी क्रमशः कपास, ऊन तथा सन की जनेऊ धारण करें ।

बाद में सभी के लिये कपास का जनेऊ धारण करने की मान्यता प्रदान की गयी । जनेऊ में तीन डोरियाँ होती थीं । ये तीन गुणों-सन, रज तथा तम-की प्रतीक मानी गयीं । ये धारक को यह भी याद दिलाती थीं कि उसे अपने पूर्वजों के प्रति तीन ऋणों- ऋषि, देव तथा पितृ ऋण, से उऋण होना है ।

गुरु विद्यार्थी के कन्धे में यज्ञोपवीत धारण कराते हुए उसके बल, दीर्घायु तथा तेज की कामना करता था । ब्रह्मचारी केवल एक जनेऊ धारण कर सकता था । गृहस्थ के लिये दो जनेऊ धारण किये जाने का विधान था । यज्ञोपवीत के बाद विद्यार्थी को मृगचर्म (अजिन) तथा दण्ड प्रदान किये जाते थे । ब्राह्मण के लिये पलाश, क्षत्रिय के लिये उदुम्बर तथा वैश्य के लिये विल्व की लकड़ी का दण्ड धारण किये जाने का विधान था ।

उपर्युक्त विधि से तैयार विद्यार्थी के अंजुलीबद्ध हाथों पर अपने हाथ से गुरु पानी डालकर उसे पवित्र करता था । फिर उसे सूर्य का दर्शन कराया जाता था । इससे विद्यार्थी को कर्तव्य-परायणता एवं अनुशासन का ज्ञान होता था । तत्पश्चात् गुरु विद्यार्थी का हृदय स्पर्श करता हुआ अपनत्व का परिचय देता था ।

विद्यार्थी को एक पाषाण खण्ड पर खड़े होने को कहा जाता था जिससे उसमें अपने उद्देश्य के प्रति दृढ़ता आ सके । इसके बाद गुरु विद्यार्थी का दायाँ हाथ अपने हाथ में लेता था तथा उसे अपनाते हुए सावित्री मन्त्र के साथ उपदेश देता था । सावित्री मन्त्र के ज्ञान से बालक का दूसरा जन्म होता था ।

इस समय से आचार्य उसका पिता तथा सावित्री उसकी माता मानी जाती थी । सावित्री मन्त्र इस प्रकार था- “हम उस सूर्य के श्रेष्ठ तेज का ध्यान करते हैं जो हमारी बुद्धि को प्रेरित करता है ।” सावित्री का ज्ञान हो जाने के बाद यज्ञीय अग्नि प्रज्वलित की जाती थी तथा उसमें आहुतियाँ डाली जाती थीं । तत्पश्चात् विद्यार्थी भिक्षा-याचन के लिये निकलता था जो उसकी नम्रता तथा सदाचारिता का प्रतीक था । अब वह पूर्णतया समाज पर आश्रित हो जाता था तथा समाज उसके निर्वाह का भार अपने ऊपर उठाता था ।

ADVERTISEMENTS:

प्राचीन हिन्दू समाज में उपनयन एक अनिवार्य संस्कार था । इसका विधान समाज के प्रथम तीन वर्षों- ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य के लिये ही किया गया । इन तीनों को “द्विज” कहा गाता था जिनका इसके द्वारा दूसरा जन्म होता था । इस संस्कार का सामाजिक एवं आध्यात्मिक दोनों ही महत्व था ।

इस संस्कार के बाद ही बालक अपने वर्ग तथा समाज का पूर्ण सदस्य बनता था तथा अपने पूर्वजों की सांस्कृतिक विरासत को प्राप्त करने का अधिकार उसे मिलता था । आध्यात्मिक महत्व यह था कि इस संस्कार के माध्यम से ही वह वेद-वेदांगों के अध्ययन का अधिकारी हो पाता था तथा वह सावित्री मन्त्र का उच्चारण कर सकता था ।

उपनयन संस्कार से बालक की सामाजिक प्रतिष्ठा भी बढ़ जाती थी तथा “आर्य” के सभी अधिकारों का वह उपभोग कर सकता था । इस समय से उसे कर्तव्यों, उत्तरदायित्वों, आशाओं एवं आकांक्षाओं का एक नया संसार प्राप्त होता था जिसमें रहते हुए वह अपने व्यक्तित्व का पूर्ण विकास कर सकता था ।

यह बालक के नये जीवन का सूत्रपात था । यह जीवन था पूर्ण एवं कठोर नियंत्रण का यदि बालक इस जीवन के आदर्शों को भली-भाँति आत्मसात् कर उनके अनुसार साधना कर लेता था तो वह प्रकाण्ड विद्वान एवं सफल सामाजिक नागरिक बन जाता था । इस प्रकार उपनयन संस्कार का आदर्श अत्यन्त उच्चकोटि का था ।

उसके जीवन में परिष्कार एवं निखार आता था । वह अपनी उन्नति के साथ ही साथ परिवार एवं समाज की उन्नति करता था तथा धर्मसंगत जीवन व्यतीत करते हुए अन्ततोगत्वा मोक्ष की प्राप्ति करता था ।

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