आज की दुनिया में गांधी पर निबंध | Essay on Gandhi in Today’s World in Hindi!
कभी-कभी यह सोचने का मन करता है कि आज गांधी होते तो क्या करते । जाहिर है, वे वर्तमान स्थितियों के प्रति मूक दर्शक नहीं बने रह सकते थे ।
पर उन्होंने जिन साधनों-अस्त्रों के सहारे ब्रिटिश शासन के विरुद्ध लड़ाई लड़ी थी और उसे इस देश की धरती को सदा के लिए छोड़ कर जाने के लिए मजबूर कर दिया था वे भी अब के हालात में लोगों को प्रभावित करने और सरकार को अपने मंसूबे बदलने में निश्चय ही कामयाब नहीं हो सकते थे ।
आखिर सुंदरलाल बहुगुणा सत्याग्रह के जरिए अपनी टिहरी को बचा नहीं पाए, न ही पिछले कई वर्षों से जूझ रहा मेधा पाटकर का आंदोलन सरकारों के निर्णय को डिगा पा रहा है । क्या ऐसी स्थितियों में यह कल्पना करना कि गांधी बढ़ते सरकारी अन्यायों, अत्याचारों को रोकने के लिए अपनी रणनीति बदल कर कुछ अधिक प्रभावी, कुछ अधिक धारदार शस्त्रास्त्रों का निर्माण करते, गलत हो सकता है?
क्या जनांदोलनों के लिए जमीन तैयार कर रहे और उन्हें संचालित कर रहे लोगों को यह नहीं सोचना चाहिए कि जिस तरह उन्नत तकनीक ने हाल में हुए युद्धों के तौर- तरीकों को बिल्कुल बदल कर रख दिया है उसी तरह उन्हें भी अपने पुराने गांधीवादी हथियारों को ज्यों का त्यों प्रयोग में लाने के बजाय उनका आधुनिकीकरण करना चाहिए क्योंकि इनसे आगे की जनता की लड़ाई लड़ना अनिवार्य रूप से हार का मुंह देखना होता जाएगा ।
जिनके विरुद्ध अब समर होने हैं वे साम्राज्यवादी भूमंडलीय ताकतें और उनके विदेशों पर चलती देश और राज्यों की सरकारें अब ब्रिटिश शासकों से भी अधिक क्रूर, खुदगर्ज और चालाक हो गई हैं । उनसे लोहा लेने के लिए एक नए तरीके की अत्यत सुनियोजित दूरदर्शी कार्ययोजना का होना आवश्यक हो गया है । इस स्वार्थी और अन्यायी दुनिया को बदलने के लिए जिस तरह की ताकत का इस्तेमाल करना जरूरी लगने लगा है, वह गांधी की अहिंसा का वह पुनर्परिभाषित स्वरूप है जो दमन को रोकने के लिए निष्क्रिय प्रतिरोध की जगह क्रियात्मक शक्ति के प्रयोग की वकालत करता है ।
यह वही गांधीगीरी है, जिसे संजय दत्त की फिल्म ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ ने लोगों में चर्चित कर दिया है । गांधी के वे अनुयायी जो आज भी उनकी प्रासंगिकता को बिना हिचकिचाहट के स्वीकारते हैं और उनके बताए रास्ते को इस देश के लिए ही नहीं, बल्कि सारी दुनिया के दीन-हीन और वंचित लोगों के लिए मोक्ष का एकमात्र मार्ग साबित करते हैं, इसमें किसी तरह के परिष्करण के विचार को भी पास फटकने नहीं देना चाहते हैं ।
वे कहते हैं कि गांधी किसी खास व्यक्ति या समुदाय की मिल्कियत नहीं हैं, बल्कि वे तो उन सबके हैं जो उनके दर्शन को मानते और जीते है । उनके विरासत का महत्व इस बात में निहित है कि यह किसी को उत्तराधिकार में स्वत: नहीं मिलती, यह सिद्धांत की अपेक्षा व्यवहार पर अधिक जोर देती है । लेकिन यह हर किसी को अधिकार भी देती है कि वह अपना मत व्यक्त करे और हमें उसे उचित और तर्कपूर्ण उत्तर देना चाहिए कि हम उससे क्यों सहमत या असहमत हैं ।
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दरअसल, गांधीवाद की एक अधिक गहन और विस्तृत सैद्धांतिकी है जबकि मुन्नाभाई की गांधीगीरी उसका एक छोटा-सा अंश मात्र है । मोटे तौर पर जैसे ही हम गांधीगीरी शब्द सुनते हैं, हमें तुरंत दादागीरी या गुंडागीरी की याद आ जाती है जो निश्चय ही इसके विपरीतार्थक शब्द हैं ।
यों भी जब यह संजय दत्त के किरदार से जुड़ती है तो लोग इसे खास महत्त्व देने को तैयार नहीं होते । फिल्म देख कर गांधीगीरी का जो स्वरूप सामने आता है वह अपनी बात मनवाने के लिए पाशविक या शारीरिक हिंसा का इस्तेमाल करना होता है । जबकि गांधीवाद भी बात मनवाने का प्रयास तो करता है, पर हिंसा का सहारा नहीं लेता । वह नैतिक शक्ति का प्रयोग करता है ।
इस तरह शक्ति का प्रयोग दोनों ही करते है । दोनों में अंतर यह होता है कि नैतिक शक्ति व्यक्ति को इस बात के लिए सहमत कर देती है कि इसके प्रयोगकर्ता की मान न्यायोचित है इसलिए उसे मान लेना चाहिए जबकि दादागीरी में जबर्दस्ती होती है और व्यक्ति न चाहते हुए भी मजबूरन मान लेता है । गांधीगीरी जोर देकर यह संदेश देती है कि इस अन्यायी विश्व में बदलाव ताकत के प्रयोग के बिना लाना संभव नहीं है पर इस ताकत को गुंडागीरी वाली ताकत नहीं कहा जा सकता ।
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गांधीगीरी में जिस शक्ति के प्रयोग की सिफारिश की गई है वह इस जमाने की रंग बदलती, सिद्धांत विहीन राजनीति को सबक सिखाने के लिए उपयुक्त लगती दिखाई देती है क्योंकि आजकल साम्राज्यवादी दमन, धार्मिक उत्पीड़न, जाति, वर्ण और लिंग संबंधी भेदभाव के विरोध में दलित, महिला, विस्थापन और पर्यावरण आदि के मुद्दों को लेकर हो रहे समाज-परिवर्तनकारी जनआंदोलनों की भाषा और कार्य विधि के सामने अपनी सार्थकता बनाए रखने की चुनौती पैदा हो गई है ।
गांधीगीरी जोर देकर कहती है कि इस तरह की लड़ाइयों में शिकार बन कर या पराजित होकर बैठ जाने से कोई काम बनने वाला नहीं है । जो अन्याय सहन कर रहे हैं वे कभी इन क्रूर ताकतों का मन नहीं बदल पाएंगे । दमनकर्ताओं की रणनीति अब आंदोलनकारियों को थकाने या उन्हें मार्गचूत करने की होने लगी है । उनकी निष्ठुरता बलात पीड़ितों को उस ओर धकेल देती है कि वे भी अत्याचारी को उसी की भाषा में जवाब दें जबकि वे जानते हैं कि इससे निरंतर हिंसा और दुनिया के कई हिस्सों में खासतौर से मध्यपूर्व में ऐसा ही हो रहा है ।
इसके विपरीत गांधीवाद दृढ़तापूर्वक यह मत प्रकट करता है कि जो लोग पीड़ा सहते हैं, वे अत्याचार से परे होते हैं, वे कभी भी दूसरों को कष्ट पहुंचाने की बात नहीं सोच सकते । अगर उन्हें सचमुच मुक्त कराने का काम करना है तो आंदोलनकर्ताओं को एक वास्तविक परिवर्तनकारी रणनीति को अपनाना होगा ।
ऐसा करना बहुत मुश्किल हो सकता है क्योंकि इसके लिए अत्यधिक आंतरिक या नैतिक शक्ति की जरूरत होती है । गांधीवाद तो दूसरों के प्रति बोले गए वचनों तक में क्रोध या घृणा को स्थान नहीं देता, बल्कि उनमें क्षमाशीलता, करुणा और विनम्रता समाहित करने का प्रयास करता है ।
उत्पीड़ितों से संबद्ध बहुत-सी विचारधाराएं उत्पीड़क और उत्पीड़ित के बीच के भेदभाव को समाप्त करने के बजाय उसे और मजबूत करती है । दुनिया का इतिहास इस तरह के उदाहरणों से भरा पड़ा है । गांधीवाद कहता है कि हमें उत्पीड़कों का विरोध तो अवश्य करना चाहिए, लेकिन वह यह भी जोड़ता है कि अगर हम वास्तविक बदलाव चाहते हैं तो हमें विरोध करने के ऐसे नए उपाय खोजने चाहिए जो उन्हें हमसे अलग करने के बजाय हमसे जोड़े रखें ।
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आज जो हमारे विपरीत दिशा में बैठे हैं उनके लिए ऐसे साझे आधार बनाने होंगे, जिन पर चल कर वे हमारे-साथ काम करने को सहमत हो जाएं । उस रास्ते को बार-बार अपने पैगंबरों, ईश्वरीय संदेश वाहकों ने, जो अपने समय के क्रांतिकारी समाजसुधारक भी थे, हमें दिखलाया है । उन्हें एक ऐसी समझ स्थापित करनी होगी कि चाहे वे गलत हों, पर वे दूसरे के पास खुले दिल से पहुंचने की कोशिश करते रहेंगे । इसलिए यह वह रास्ता हो जो अबाध रचनात्मकता, कल्पनाशील्ता और आलोचनात्मक आत्मपरीक्षा की मांग करता है ।
हमें सदा यह मान कर चलना होगा कि हमारी सोच अंतिम नहीं है, कि हम अंतिम सत्य तक पहुंचे हुए लोग नहीं हैं, कि गांधीगीरी हमें अपने ऊपर भी हंसने की क्षमता प्रदान करती है । यह अपने में सुधार की हमेशा गुंजाइश रखती है । हम जैसे सामाजिक कार्यकर्ताओं के लिए ऐसा होना अत्यंत आवश्यक है, क्योंकि तभी हम इस जमीन पर अपने धुंधले-से पदचिन्ह बना सकते हैं । यही वह छवि है जो हमें कबीर की फकीरी के आसपास खड़ा कर सकती है ।
इस तरह गांधीवाद बिल्कुल अलग तरह के प्रतिमान सामने रखता है । इसमें सबसे पहले अपनी नजर अपने अंदर की ओर ले जानी होती है । अपने सामने सबसे पहले सबसे ऊंचे आदर्श रखने होते हैं । जो व्यक्ति दुनिया को बदलने की तमन्ना रखता है उसे पहले अपने को बदलने से शुराआत करनी होती है । लड़ाई भी अंदर से, अपने में बैठी घृणा को नष्ट करने से शुरू होती है । इसके लिए बहुत धैर्य, सहनशीलता के साथ आगे बढ़ना होता है ।
पग-पग पर हिंसा और उत्तेजना रास्ता रोकती है । जो लोग तृणमूल से परिवर्तन के लिए इस देश के दूरस्थ स्थानों में काम कर रहे है उनका रास्ता बहुत – सी मुश्किलों से भरा है । वे बार-बार विफल होते हैं और फिर से उठ कर काम में लग जाते हैं, क्योंकि उनके पास और कोई विकल्प नहीं होता । इससे अलग कुछ भी करना उनके लिए विनाशकारी, आत्मघाती हो सकता है । इस बात को वे अच्छी तरह जानते हैं ।
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एक स्वाभाविक-सा सवाल यह भी हो सकता है कि गांधीगीरी आंतकवाद को रोकने में भी सफल हो सकती है? इसका उत्तर पाने के लिए यह याद कर लेना उपयोगी होगा कि आतंक की तमाम कार्रवाइयां चाहे वे राज्य द्वारा की जाएं या छोटे-बड़े समूहों द्वारा, उनके मूल में यह विश्वास काम करता है कि उनके साथ अन्याय हो रहा है । वे एक प्रकार की कुव्यवस्था के शिकार हो रहे हैं ।
इस तरह उनके विरुद्ध लड़ाई बुनियादी रूप से एक नैतिक लड़ाई ही हो सकती है । यह कानून और व्यवस्था की समस्या कतई नहीं होती । एक बार उस नैतिक शक्ति को अगर जागृत कर दिया जाए तो निश्चय ही बंदूक की ताकत धीरे-धीरे कम होती चली जाएगी । इसे तुष्टिकरण के बतौर नहीं देखा जाना चाहिए क्योंकि यह तो वह रास्ता है जिसे हम आतंकवाद के मामले में ही प्रयोग में नहीं लाते, बल्कि हमेशा ऐसा ही करते रहते हैं ।
भेदभाव के विरोध में होने का मतलब भिन्नता को मिटा डालना नहीं होता, बल्कि इसके विपरीत होता है कि हम भिन्नता का तो स्वागत करते हैं । जैसे गांधी अपनी सर्वधर्म सभाओं में किया करते थे या जैसे स्वामी विवेकानंद ने तब किया जब उन्होंने घोषणा की कि ईश्वर की पुस्तक तो हमेशा से लिखी जा रही है ।
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हमारी राह तमाम लोगों और उनकी राहों के प्रति समान रूप से सम्मान की होनी चाहिए । इस सम्मान में पारम्परिकता अवश्य होनी चाहिए । जिस तरह मुन्नाभाई लकी सिंह की कन्या को फिल्म के नाटकीय क्लाइमेक्स में सलाह देता है वह तमाम आध्यात्मिक परंपराओं का एक सामान्य संदेश है, एक शक्तिशाली उद्बोधन है ।
प्रसिद्ध गांधीवादी विचारक सतीश कुमार के शब्दों में-तुम हो इसलिए मैं हूं । समस्त प्राणियों की जटिल एकसूत्रता की यह एक स्वीकृति है जिसे बुद्ध बड़े जोरदार शब्दों में व्याख्यायित करते हैं । वह एकसूत्रता की मान्यता उस विरोध की व्याख्या और शब्दावली को त्यागने को आवश्यक बना देती है, जिस पर किसी तरह के समझौते की संभावना कदापि नहीं होती ।