एक बीमार व्यवस्था का स्वास्थ्य कल्याण स्वप्न पर निबंध | Essay on Dream of a Sick System in Hindi!
स्वास्थ्य कल्याण का काम एक कष्टकर और व्ययसाध्य चढ़ाई है, जो हर नागरिक से खून-पसीना और पूरी प्रतिबद्धता माँगती है । सिर्फ लुभावनी घोषणाओं, मेलों, फिल्मी सितारों भरी दौड़, टी.वी. विज्ञापनों और पोलियो के तामझाम भरे कैम्पों से सबके लिए स्वास्थ्य का सपना साकार नहीं किया जा सकता ।
देश के 5 वर्ष से कम उम्र के पैंतीस प्रतिशत बच्चों में कुपोषण और लगभग 94 लाख बच्चों का रोगनिरोधी टीकों से वंचित रहना आज विकासशील भारत के आगे सबसे बड़ी चुनौतियाँ हैं….. जो कुछ भी भारत करता है उसका दुनिया पर असर अवश्यंभावी है । इसलिए अगर आने वाले वर्षों में दुनिया को तरक्की करना है, तो भारत को (उपरोक्त दो मोर्चों पर) आगे बढ़ना ही होगा ।
आज पाँच वर्ष से कम उम्र के कुपोषण के मारे कमजोर बच्चों में से एक तिहाई भारत में रहते है और हिन्दी पट्टी के तीन सबसे बड़े राज्यों-उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश में तो इनकी तादाद सर्वाधिक है । जिनको कभी रोगनिरोधी टीके नहीं लगे ऐसे बच्चों की तादाद भी हमारे ही यहाँ सर्वाधिक पाई गयी ।
जाहिर है अन्य चीजों की तरह ही विशाल आबादी के बोझ तले देश की सार्वजनिक स्वास्थ्य कल्याण सेवाएँ चरमरा कर गिर रही हैं । रोज खबरें आती हैं कि किसी बच्चे या माँ ने किसी सरकारी अस्पताल में दम तोड़ा और उनके रिश्तेदारों के लड़ाकू गिरोह झपट कर मरीज की उपेक्षा का आरोप लगाते हुए डाक्टरों तथा परिसर पर हिंसक गुस्सा उतारने लगे ।
डॉक्टर प्राय: असहाय नजर आते हैं, क्योंकि आज हमारी सार्वजनिक स्वास्थ प्रणाली में विशेषज्ञों की नहीं चलती । राजनेता और बाबू ही सारे फैसले लेने को अधिकृत हैं तथा मारपीट के बाद यदि हड़ताल हुई तो डॉक्टरों को हड़ताल से बाज आने को कहने वाले ये वी.आई.पी. चाहते हैं कि वे बीमार पड़े तो गरीब मरीजों की सारी प्रतीक्षारत कतारें तोड़ कर डाक्टर उन्हें अविलम्ब चिकित्सा तथा दवाएँ दिलाएँ और अगर उनके हस्पताल के गंदे परिसर की ओ.पी.डी. में जाने का मन न हो तो उन्हें घर पर ही सारी सुविधाएं तुरत मिलें ।
होते-होते ज्यादातर डॉक्टरों को भी लगने लगता है, कि अगर अतिविशिष्ट जनों की गणेश परिक्रमा से ही मनोकामनाएँ पूरी होती हैं, तो वे ही ओपीडी ड्यूटी और इनडोर पेशेंट्स की तीमारदारी के लंबे कष्टदायक चक्रों में क्यों फँसे?
पश्चिमी देशों ने औद्योगीकरण के युग में जब कदम रखा था, तो उनके यहाँ भी जन – स्वास्थ्य बेहाल था । पर औद्योगीकरण के प्रताप से वहाँ जब पूँजी का अखण्ड प्रवाह आया तो उसके भरपूर संचय से सबसे पहले नेशनल हैल्थ सर्विस जैसी जरूरी कल्याणकारी राज्य संस्थाओं का निर्माण किया गया ।
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सौभाग्य से उसी वक्त वहाँ चिकित्सा क्षेत्र में एण्टी बायोटिक दवाओं तथा कई तरह के महामारी (जैसे हैजा, चेचक तथा पोलियो) निरोधक टीकों का भी विकास हुआ और साथ ही आम जनता का शैक्षिक स्तर बेहतर होने से जागरूकता भी आई ।
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चेचक, प्लेग तथा हैजा सरीखी बीमारियों की रोकथाम में एंटी बायोटिक दवाओं से कहीं ज्यादा हाथ नियमित दवा- छिड़काव, बेहतर पेय-जलप्रदाय और दूषित जल-मल निकास संसाधनों के साथ जन-चेतना को लोकतांत्रिक और कमजोर वर्गो के प्रति जिम्मेदार बनाने की एक सतत् मुहिम ने किया ।
खुद हमारे यहाँ भी चेचक और पोलियो जैसे रोगों के खाने पर जो सराहनीय काम हुआ है, उसके पीछे 50 और 60 के दशकों में नेताओं के प्रोत्साहन से सरकारी स्वास्थ्य कल्याण अमले के सघन तथा नियमित दौरों तथा शिक्षण संस्थाओं द्वारा प्रचार कार्य का भारी योगदान रहा है ।
स्वास्थ्य कल्याण के क्षेत्र के साथ जब तक सरकारों का थोड़ा-बहुत जमीनी रिश्ता रहा, तब तक यह सोच कायम रही कि सिर्फ चिकित्सकीय उपचार मुहैया कराने भर से जनता के स्वास्थ्य में उल्लेखनीय सुधार नहीं लाया जा सकता । क्योंकि स्वास्थ्य का स्तर चिकित्सा के अलावा राजनीति, अर्थशास्त्र, धार्मिक विचारों और प्रौद्योगिकी के द्वारा मुहैया कराई गयी नागरिक सुविधाओं से भी गहराई से जुड़ता और संचालित होता है इसलिए इन सब क्षेत्रों को संतुलित और लोकतांत्रिक दृष्टि से चलाना होगा ।
बाद के दशकों में रजिनीति के सामाजिक सरोकार घटते गये और सीमित जातीय धार्मिक दृष्टि से संचालित गठजोडों ने सरकारी चिकित्सा तथा सरकारी प्रशिक्षण व्यवस्था में खतरनाक छेड़छाड़ कर उसका भट्टा ही बैठा दिया । नतीजतन इस समय हमारे यहाँ गाँवों से महानगरों तक व्यापक तौर से कमजोर कुपोषित बच्चे और स्त्रियाँ मौजूद हैं । उनमें एक तो रोगप्रतिरोध क्षमता वैसे ही कम है, जिस पर न उनके पक्के मकान हैं, न साफ पेयजल और न ही समुचित पोषाहार ।
अत: आंत्रशोथ, पीलिया, और सिरोसिस जैसे गंभीर पेट के रोगों का नियमित शिकार बन रहे हैं । जब देश में हालात् सूरत की तरह बड़े पैमाने पर रोग फैलता है और बड़े लोगों पर भी मार पड़ती है, तब मीडिया में सुर्खियाँ बनती हैं । सरकारी अमला चौंक कर नींद से जागता है तब आनन- फानन प्रेस कांफ्रेंसें होती हैं और मीडिया को बताया जाता है कि युद्धस्तर पर स्थिति से निबटा जा रहा है ।
सच तो यह है कि नाना वजहों से ब्रिटिश काल में बनाए गए हमारे सिविल अस्पतालों का आकार और उनमें उपलब्ध सुविधाएँ ही नहीं, पिछली सदी के शुराआती पांच दशकों में बने राशन वितरण से लेकर सैनिटेशन तक के पूरे ढाँचे और कुदरती पेयजल स्रोतों की हालत एकदम खस्ता है और सरकारों ने इसे लेकर सचमुच की जिम्मेदारी या शर्त महसूस करना कतई बन्द कर दिया है ।
एकाधिक स्वास्थ्य मंत्री जनस्वास्थ्य की स्थिति से बेहद नाराज बताए जाते हैं, पर उनका गुस्सा पलायनवादी मन को कैमूफ्लाज है । शर्म ढँकने के लिए वे ढेर सारी हलचल अन्य मोर्चो पर पैदा कर देते हैं, ताकि लगे कि समस्या से जूझा जा रहा है, असली विलेन तो कहीं और है । न सिर्फ रामदास बनाम वेणुगोपाल दंगल बल्कि देश के लगभग हर राज्य में ऐसी ही नूराकुश्तियाँ जारी हैं ।
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कुछ लोगों को लगता है कि हमारे डॉक्टरी और इंजीनियरी के छात्र जो मारपीट और तोड़फोड़ होने पर आन्दोलित हो रहे हैं, वे शायद इस प्रणाली के प्रति सच्चा क्रांतिकारी विरोध प्रकट कर रहे हैं । लेकिन गौर करें; उनकी शिकायत के स्रोत और विरोध का लक्ष्य भी स्थिति को आमूल बदलना नहीं है । मंत्री जी के क्रोध की ही तरह उनका विद्रोह भी जातिवाद, धार्मिक पहचान या क्षेत्रीय दायरों में बँधा हुआ है ।
मेडिकल शिक्षा के छात्रों को गाँवों में अनिवार्यत: सालभर बिताने के एक प्रस्ताव पर दिल्ली में एम्स की कुछ छात्राओं ने स्वास्थ्यमंत्री को फूल भेजकर शादी का हास्यापद प्रस्ताव रखा और मीडिया से कहा कि डॉक्टरी की लंबी पढ़ाई में एक साल और बढ़ा तो उनकी तो शादी की उम्र ही निकल जायेगी, लिहाजा वे क्यों न गाँधीगिरी अपना कर ‘टॉल डार्क एंड हैण्डसम’ स्वास्थ्यमंत्री से ही ब्याह रचा लें? बड़ी गाँधीवादी हैं ये आर्य ललनाएँ ।
अगर वे एक साल किसी गाँव मे रहकर ग्रामीण स्वास्थ्य प्रणाली को अपनी सेवाएँ प्रदान करतीं तो क्या वे डॉक्टरी और विवाह के कम योग्य बन जायेंगी? अगर वे गाँधी से सचमुच अनुप्राणित हैं तो वे गाँवों में जाने के इस प्रस्ताव से खुश क्यों नहीं? क्या वे चिकित्सा-शास्त्र का कष्टसाध्य अध्ययन अपने मान का और सामाजिक सरोकारों का दायरा बढ़ाने के लिए नहीं, बल्कि सिर्फ एक कमाऊ डिग्रीधारी बनने और एक सुयोग्य (यानी खूब धनाढ्य) टॉल डार्क एण्ड हैण्डसम पति पाने के लिए ही कर रही हैं?
यह सही है कि चिकित्सा तंत्र में बाबुओं तथा राजनेताओं द्वारा हर स्तर पर पैसा वसूली और आरक्षण की पेशकश कई बार गलत ही नहीं, अलोकतांत्रिक भी होती है । लेकिन क्या यह भी उतना ही सही नहीं, कि उनके विरोध में कूद फाँद करने वाले देश के शेष सरकारी कर्मी भी तंत्र को अधिक साफ-सुथरा, पारदर्शी, गरीबी के प्रति सहृदय और खुद को अधिक मेहनती बनाने के पक्ष में नहीं खड़े हैं ।
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देश निर्माण या स्वास्थ्य कल्याण का काम हवा और पानी की तरह कभी व्ययसाध्य चढ़ाई है, जो हर नागरिक से खून-पसीना और पूरी प्रतिबद्धता माँगती है । सिर्फ लुभावनी घोषणाओं, मेलों, फिल्मी सितारों भरी दौड़ों, टी.वी. विज्ञापनों और पोलियों के तामझाम भरे कैम्पों से सबके लिए स्वास्थ्य का सपना साकार नहीं किया जा सकता।