एशिया पर वर्चस्व स्थापित करने की होड़ पर निबंध | Essay on Competition to Make Control Over Asia in Hindi!
पिछले कुछ वर्षों से वैश्विक राजनीति में एशिया खासा महत्वपूर्ण बना हुआ है । इसके केंद्र में तमाम समीकरण व नीतियां (सामरिक, आर्थिक व राजनीतिक) निहित हैं । ये समीकरण जिन पर आधारित होने हैं, उनकी भूमिका में भारत, जापान, ऑस्ट्रेलिया और चीन जैसे देश हैं । वैश्विक विमर्शों और तमाम रिपोर्टो से लगता है कि भावी विश्व की तस्वीर बहुत हद तक इन्हीं समीकरणों पर निर्भर करेगी ।
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एशिया और उस पर टिकी हुई दुनिया की निगाहों को करीब से देखने पर एक तरफ कुछ नये ध्रुवों के उभरने के संकेत मिल रहे हैं, तो दूसरी तरफ शीतयुद्ध की नयी तरंगें उठती महसूस हो रही हैं । जिन ध्रुवों की चर्चा इस समय हो रही है, उनमें भारत- चीन-रूस, भारत-अमेरिका-जापान-ऑस्ट्रेलिया और यहा तक कि भारत-चीन-जापान आदि प्रमुख हैं ।
लगभग एक दशक पूर्व (1996 में) रूस के तत्कालीन प्रधानमंत्री प्रिमाकोव ने भारत- चीन-रूस त्रिकोण को एक नये ध्रुव के रूप में देखने की वकालत की थी । लेकिन उस समय इन देशों की घरेलू स्थितियों और कुछ संकोचों के चलते इस्ने व्यावहारिक रूप देने से परहेज किया गया था ।
10 वर्ष बाद जुलाई, 2006 में भारत, रूस और चीन के नेताओं ने जी-8 के सेंट पीटर्सबर्ग सम्मेलन में एक औपचारिक बैठक में प्रिमाकोव के मुद्दे को फिर से हवा दे दी । भारत-रूस-चीन के साथ एक नये ध्रुव के रूप में भारत जापान-ऑस्ट्रेलिया-अमेरिका की चर्चा भी पिछले कुछ दिनों से जोरों पर चल पड़ी ।
इसी वर्ष जून में जर्मनी में जी-8 शिखर वार्ता के बाद भारत, जापान, अमेरिका और ऑस्ट्रेलियाई के राष्ट्राध्यक्षों ने इस चतुष्कोणीय ध्रुव पर अपनी सहमति की मुहर भी लगा दी । इस व्यूह रचना को एपेक की सिडनी (सितंबर 2007) बैठक में दोहराया गया, जिसमें इस बात पर जोर दिया गया कि 21वीं सदी में शांति की बात तब तक बेमानी है, जब तक सामुद्रिक शक्तियों के बीच (अमेरिका, जापान, भारत, ऑस्ट्रेलिया) संधि संगठन बनाने पर सहमति नहीं हो जाती ।
अब प्रश्न यह उठता है कि क्या वास्तव में अमेरिका, रूस या चीन एशिया में शांति स्थापना करने के लिए चिंतित है । या इस प्रकार की व्यूह रचना कर वे एशिया पर वर्चस्व स्थापित करने के एक नये दौर की शुराआत कर रहे हैं, दूसरे शब्दों में कहें, तो रूस अपने खोये हुए वैभव को पुन: प्राप्त करने की लालसा रखता है और एशिया से नाटो फौजों के जमावड़े को बाहर करना चाहता है । वहीं चीन एशिया में अमेरिकी दखल को समाप्त करना चाहता है ।
इस तरह से चीन और रूस के हित एक-दूसरे के पूरक हैं, जिसकी झलक उनकी ईरान और म्यांमार पर अपनाई जा रही नीतियों में दिखती भी है । दूसरी तरफ अमेरिका की चिंता एशिया में अपने वर्चस्व को बनाए रखने की है, जिसे अब प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर रूस व चीन की ओर से चुनौती मिलनी शुरू हो गयी है ।
अमेरिका को सबसे अधिक खतरा चीन की तरफ से है, क्योंकि चीन जिस प्रकार से एशिया में अपनी ताकत का विस्तार कर रहा है, उससे नेपोलियन के 19वीं सदी के उद्गार सही साबित होते दिखाई दे रहे हैं । चीन पूर्वी एशिया में अपनी शक्ति की स्थापना के लिए बहुत आक्रामक रवैया अपनाने के मूड में है, जिसके चलते अमेरिका और उसके सबसे मजबूत सहयोगी जापान के हितों पर काफी कुछ खतरा मंडराता नजर आ रहा है ।
हालांकि कुछ चीनी विशेषज्ञों ने राय व्यक्त की है कि आने वाले समय में यूरोपीय संघ की तर्ज पर एक वृहद एशिया के निर्माण के लिए तीनों देशों का नेतृत्व जरूरी है और इसके लिए चीन, भारत और जापान को आपस में एक रणनीति के तहत वार्ता शुरू कर देनी चाहिए ।
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इससे न सिर्फ तीनों के बीच आपसी विश्वास बढ़ेगा, बल्कि क्षेत्र के विकास, शांति और स्थिरता को बढ़ावा मिलेगा । यह संभव हो पाएगा, ऐसा कहना इस समय बेहद मुश्किल है । ऐसा इसलिए कहा जा सकता है, क्योंकि चीनी मंशा जापान और अमेरिकी हितों के विरुद्ध है और ताइवान जिस पगडंडी पर चल रहा है, उससे तो यही लगता है कि जल्दी ही बाह्य आवरण उतर जायेगा और चीन, जापान व अमेरिका अपने खोल से बाहर आ जायेंगे ।
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उल्लेखनीय है कि ताइवान ने गोपनीय तरीके से ऐसे प्रक्षेपास्त्रों का निर्माण शुरू कर दिया है, जो 400 किलोग्राम तक वॉरहेड लेकर चीन के भीतरी हिस्से तक मार सकते हैं । ताइवानी प्रक्षेपास्त्र कितने घातक हो सकते हैं, इसका अंदाजा हांगकांग की पत्रिका की एक रिपोर्ट से लगाया जा सकता है । ये प्रक्षेपास्त्र न केवल सैनिक ठिकानों, बल्कि व्यावसायिक व औद्योगिक लक्ष्यों को नेस्तनाबूत कर सकते हैं, जिससे चीन में बड़ा आतंक फैल जाएगा ।
पूर्वी एशिया में जिस प्रकार का सुरक्षा फ्रेमवर्क (हब और बीम पर आधारित) निर्मित हुआ है, उसमें अमेरिका केंद्रीय शक्ति है । यह भी माना जा रहा है कि शांति और स्थायित्व के लिए इस क्षेत्र में उसकी उपस्थिति अनिवार्य है, जबकि चीन पूर्वी एशिया में अपना दबदबा कायम करने के प्रयास में है । यह अलग बात है कि अमेरिका के पास जापान और ऑस्ट्रेलिया जैसे मित्र हैं, जबकि चीन के पास ऐसे मित्रों का अभाव है । म्यांमार के प्रति चीन के रवैये से साफ झलकता है कि वह उसे दक्षिण-पूर्व एशिया में अपने क्षत्रप के रूप में खड़ा करना चाहता है । इन स्थितियों में भारत की भूमिका महत्त्वपूर्ण हो जाती है । वह जिस पाले में जायेगा, उसका पलड़ा भारी होगा ।
अमेरिका यथासंभव प्रयास कर रहा है कि भारत कल्पित चतुष्कोण में अपना स्थान ग्रहण कर लें । उसने असैनिक परमाणु सहयोग के मामले में अपने पुराने वफादार पाकिस्तान को छोड़कर भारत को चुना और चीन की आपत्तियों को दरकिनार करते हुए अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और जापान ने भारत को एक महान शक्ति का खिताब दे दिया । अगर यह चतुष्कोण निर्मित हो जाता है, तो हिंद महासागर और प्रशात महासागर पर वर्चस्व कायम करने के चीनी मनसूबों पर पानी फिर जायेगा ।
बहरहाल एशिया में जो भी स्थितियां पनप रही हैं, उनमें संघर्ष की नहीं, सामंजस्य की जरूरत है । लेकिन जिस प्रकार के चीन व जापान के मध्य कुछ अनसुलझे संघर्षात्मक पहलू हैं और एशियाई हितों पर जिस प्रकार से चीन अपनी महत्त्वाकांक्षी नजर गड़ाए हुए है, उससे यह नहीं लगता कि चीनी किसी समन्वयवादी ढांचे में ढल पाएगा ।
अमेरिका भी एशिया में अपने हितों को त्यागने का कोई इरादा नहीं रखता । इसलिए ध्रुव तो बनता नजर नहीं आ रहा है, लेकिन कुछ संघर्षो की शांत ध्वनि जरूर सुनाई दे रही है । ऐसे में, भारतीय राजनयिकों को अपने आंख-नाक-कान सब खुले रखने होंगे, जिससे भावी स्थितियों को भारत के अनुरूप निर्मित किया जा सके ।