कार्बन उत्सर्जन एवं कार्बन व्यापार पर निबंध | Essay on Carbon Emission and Its Control in Hindi!
नगरीकरण एवं औद्योगीकरण वैज्ञानिक विकास की देन हैं तथा इन दोनों की देन है पर्यावरण प्रदूषण । जितना ही अधिक औद्योगीकरण और नगरीकरण होता है उतना ही अधिक ऊर्जा का उपभोग बढ़ता है ।
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चूँकि औद्यागीकरण के दौरान जीवाश्म ईंधनों का अत्यधिक मात्र में उपयोग होता है, फलत: प्रचुर मात्र में कार्बन डाइऑक्साइड, कार्बन मोनोक्साइड, नाइट्रस ऑक्साइड जैसी गैसें उत्सर्जित होकर वायुमण्डल में मिल जाती हैं । इससे पृथ्वी का तापमान बढ़ता है ।
जीवाश्म ईंधनों को जलाने तथा जंगलों के विनाश से कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) की मात्रा बढी है । यह सान्द्रता 280 पीपीएम से बढ्कर 560 पीपीएम हो सकती है । वायुमण्डल में कार्बन डाइऑक्साइड की सान्द्रता वर्ष 2000 के स्तर से काफी अधिक है । अनुमान है कि अगले बीस वर्षो तक वैश्विक तापन से प्रति दस वर्षों में 0-2० ताप वृद्धि होगी । पृथ्वी का औसत तापमान 15० है और गत 100 वर्षों में इसमें मात्र 0.5०C की वृद्धि हुई है ।
यूनेस्को के इण्टर गवर्नमेन्ट पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (IPCC) की ताजा रिपोर्ट के अनुसार 2050 ई. तक पृथ्वी के ताप में 1 से 3०C तक की वृद्धि हो सकती है । कार्बन उत्सर्जन की वजह से पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रतिकूल प्रभावों में ग्रीष्मकाल में अत्यधिक गर्मी तो सर्दी में अत्यधिक सर्दी, मानसून में बदलाव, जमीन पर तापमान में परिवर्तन, समुद्र के जलस्तर में वृद्धि तथा हिमनदों के पिघलने जैसे कई तत्व शामिल है ।
जलवायु परिवर्तन से कृषि और खाद्य उत्पादन पर असर पड़ने की संभावना रहती है तथा संक्रामक बीमारियाँ फैल सकती हैं । समुद्र स्तर संबंधी आंकड़े बताते हैं कि भारतीय तटरेखा के पास समुद्र के स्तर में बहुत बदलाव आ जाएगा । जहाँ कच्छ की खाड़ी और पश्चिम बगाल तट के समीप समुद्र स्तर बढ़ जाएगा वहीं कर्नाटक तट के समीप समुद्र स्तर घट जाएगा ।
इन आंकडो के अनुसार समुद्र स्तर में दीर्घकाल में औसतन एक सेंटीमीटर प्रतिवर्ष वृद्धि होगी और 21वीं सदी के अन्त तक समुद्र स्तर 46.59 सेंटीमीटर तक बढ़ जाएगा । प्राथमिक आकलन के अनुसार समुद्र स्तर में वृद्धि, टेक्टोनिक संचलन, हाइड्रोग्राफी और फिजियोग्राफी से भारतीय तट रेखा पर असर पड़ेगा ।
कार्बन व्यापार का मामला ग्रीन हाउस गैसों की कटौती से जुड़ा है । कार्बन व्यापार का अर्थ उस प्रौद्योगिकी के व्यापार से है जिसके अन्तर्गत कार्बन उत्सर्जन में निश्चित समयान्तराल में कमी लायी जा सके । इस व्यापार में सम्मिलित देश, समूह या कंपनियों उस प्रौद्योगिकी का एक-दूसरे को हस्तांतरण करेगी जिसके अन्तर्गत कार्बन उत्सर्जन को एक निश्चित समय-सीमा में नियंत्रित किया जा सके ।
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कार्बन व्यापार के बाजार में दूसरे देशों को प्रदूषण संबंधी कटौतियों से बचाने के बदले खुद कठोर पर्यावरण नीतियाँ लागू करने के बदले में डॉलर अथवा प्रदूषण बचत के सर्टिफिकेट हासिल किये जा सकते हैं । यह बाजार मूल्य आधारित है, क्योंकि जो क्षेत्र अपने द्वारा निर्धारित उत्सर्जन मानक को आसानी से प्राप्त कर लेता है वह सरप्लस प्रदूषण मानक सर्टिफिकेट पैदा कर सकता है । यह क्षेत्र दूसरे वैसे क्षेत्र को जो कार्बन उत्सर्जन मानक को प्राप्त नहीं कर पाया है अपना प्रदूषण मानक सर्टिफिकेट बेच सकता है ।
कार्बन व्यापार की शुराआत तभी संभव है जब कुछ आवश्यक आवश्यकताओं को पूरा किया जा सके । यदि कोई देश या कम्पनी निम्न उत्सर्जन टारगेट को पूरा न कर पाये तो उसके स्थान पर उस पर पेनाल्टी लगाने का प्रावधान हो, जैसा कि इंग्लैण्ड एवं अन्य यूरोपीय देशों में है ।
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विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार विश्व कार्बन व्यापार में भारत की हिस्सेदारी 10 प्रतिशत तक संभावित है जिससे इसे प्रतिवर्ष 100 मिलियन डॉलर प्राप्त होंगे । संयुक्त राष्ट्र के एक कार्यक्रम के अन्तर्गत भारत के 12 फर्मों को कार्बन व्यापार करने की अनुमति प्रदान की गयी है । यह निर्णय जलवायु परिवर्तन पर आधारित सम्मेलन में लिए गए निर्णयों के आधार पर किया गया है ।
इस व्यापार सिद्धान्त के अनुसार विकसित देश ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कम करने की जिम्मेदारी से मुक्त हो सकते हैं बशर्तें वे गरीब मुल्कों के उन पर्यावरणीय योजनाओं को पैसा दें, जिनसे वातावरण में नुकसानदेह गैसों का स्तर कम हो सके । अधिकाधिक वृक्ष लगाकर ग्रीन हाउस गैसों को सोखा जा सकता है ।
इस समस्या का प्रत्यक्ष समाधान यही है कि भारत और चीन जैसे विस्तृत भू-भाग वाले खाली मुल्कों की जमीन पर पेड़ लगाने के लिए पैसा दिया जाए । एक अनुमान के अनुसार सन् 2012 तक कार्बन व्यापार से कम-से-कम 150 अरब डॉलर कमाए जा सकते है और अगर भारत चाहे तो खाली पड़े 15 लाख हेक्टेअर भूमि पर पेड़ लगाकर इस धंधे से खासी कमायी कर सकता है ।
इस व्यापार से एक ओर तो स्वच्छ जंगल का विकास होगा जिससे जंगली जानवरों को संरक्षण प्राप्त होगा वहीं दूसरी ओर वहाँ के निवासियों को ईंधन की लकड़ी एवं अन्य प्रकार के वन उत्पाद प्राप्त होंगे । भारत अपनी सीमा के अंदर जलवायु परिवर्तन के स्थानीय प्रभावों के प्रति बहुत जागरूक है ।
यूएनईसीसीसी और बाली कार्य योजना के हिस्से के रूप में उसे अपनी वैश्विक जिम्मेदारी का भी पूरा एहसास है । भारत ने अपनी ऊर्जा सुरक्षा और संपोषणीय विकास के हित में जलवायु परिवर्तन के खिलाफ मुहिम के अंतर्गत उत्सर्जन कम करने के कई कदम उठाए हैं ।