क्षेत्रवाद बनाम राजनीतिक स्वार्थ पर निबंध | Essay on Area Dispute Vs. Political Interest in Hindi!

भारत हमारा देश है । हम सब भारतवासी भाई/बहन है । हमें अपना देश प्राणों से भी प्यारा है । इसकी समृद्ध और विविध संस्कृति पर हमें गर्व है । हम इसके सुयोग्य अधिकारी बनने का हमेशा प्रयत्न करते रहेंगे । हम देश और देशवासियों के प्रति वफादार रहने की प्रतिज्ञा करते हैं । उनके कल्याण और समृद्धि में ही हमारा सुख निहित है. … जय हिन्द ।

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यह वह शपथ है जो महाराष्ट्र के स्कूलों में हर बच्चा रोज दोहराता है । देश के बाकी हिस्सों में भी यह या ऐसी शपथ विद्यार्थी रोज लेते होंगे । महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) के अध्यक्ष राजठाकरे और शिवसेना के कार्यकारी अध्यक्ष उद्धव ठाकरे ने भी बरसों तक यह प्रतिज्ञा रोज दोहराई थी, पर समझी नहीं थी । समझी होती तो न तो राज ठाकरे उत्तरप्रदेश और बिहार के भारतीयों के खिलाफ जहर उगलते और न ही उद्धव ठाकरे उन्हें मालवाही विमान से पार्सल कर देने जैसी ओछी बात करते ।

पिछले कुछ दिनों से महाराष्ट्र में जो कुछ हुआ है वह एक घटिया राजनीति प्रेरित कार्रवाई है । संबंधित नेताओं को भले ही इससे कोई लाभ मिल गया हो, पर इससे राजनीति कुछ और बदनाम ही हुई हैं । सच तो यह है कि राजनीति और राजनीतिज्ञ दोनों पिछले पचास-साठ साल में इतने बदनाम हो चुके हैं कि थोड़ा और बदनाम होने को कुछ नहीं रहा है, लेकिन इस प्रक्रिया में पहले से पीड़ित जनता का थोड़ा और पीड़ित होना बहुत अर्थ रखता है ।

जनता की यह पीड़ा सिर्फ विस्थापन की पीड़ा नहीं है, बल्कि यह अपने ही देश में बेगाने होने की पीड़ा है जो भीतर-ही-भीतर व्यक्ति को तोड़ती है और देश का भी भाषावार राज्यों का निर्माण किसी भी उद्‌देश्य से किया गया हो, उसका यह उददेश्य कदापि नहीं था कि देश बंट जाए ।

यह एक त्रासदी ही है कि लोगों में पुल बनने के बजाय भाषा के नाम पर बनी दीवारों का उद्‌देश्य राजनीतिक स्वार्थ साधना हो गया है । चालीस साल पहले मराठी अस्मिता की रक्षा के नाम पर शिवसेना का गठन हुआ था ।

यदि राज ठाकरे भी मराठी अस्मिता की रक्षा ही करना चाहते थे, तो शिवसेना से उनके बाहर होने का कोई अर्थ नहीं था । नेता कहने को कुछ भी कहते रहें, लेकिन हकीकत यह है कि अपनों के हितों की रक्षा के नाम पर वे अपनी स्वार्थ साधनों में ही लगे हैं । हमारा दुर्भाग्य यह भी है कि हमारा यह ‘अपना’ लगातार सिमटता जा रहा है ।

पर-प्रांतीयता के नाम पर महाराष्ट्र में आज जो भी हो रहा है, वह दुर्भाग्यपूर्ण है, लेकिन इस दुर्भाग्य को आमंत्रण देने वाला महाराष्ट्र अकेला राज्य नहीं है । यह सही है कि चालीस साल पहले मुंबई में पहले दक्षिण भारतीयों के खिलाफ और फिर गुजरातियों के खिलाफ आदोलन चलाकर शिवसेना ने अपने पैर जमाए थे, लेकिन इस समय कर्नाटक, तमिलनाडु और एक हद तक गुजरात में भी भूमिपुत्रों के अधिकारों की बात होने लगी है ।

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साठ के दशक में ही कन्नड़भाषियों ने अपने हितों की रक्षा के नाम पर तमिलों और मलयालमों के खिलाफ आवाज उठाई थी । उनकी माग यह थी कि सार्वजनिक संस्थानों में बाहरी लोगों के बजाय कन्नड़भाषियों को नौकरियां दी जाए ।

1965 में ही तमिलनाडु में उत्तर भारतीयों के खिलाफ आदोलन हुआ । कुछ ही अरसों बाद वहा मलयालियों का भी विरोध शुरू हो गया । बाहरी आग 1986 में मेघालय जा पहुंची । वहां तो आदिवासियों को लगा था कि बिहारी और नेपाली उनकी कीमत पर आर्थिक अवसरों का लाभ उठा रहे हैं । तब लगभग 15 हजार नेपाली, बिहारी वहां से भगाए गए थे । 1980 से लगभग असम में बंगालियों के खिलाफ अभियान छिडा ।

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दस साल बाद यही गुस्सा हिंदी भाषियों के खिलाफ भडका ।

नबे के दशक में लगभग 200 बिहारी असोम में मारे गए थे, फिर 2006 में लगभग 10 बिहारी भाषायी हिंसा का शिकार हुए थे । वर्ष 2007-08 में भी असम में बिहारियों के खिलाफ हिंसक अभियान जारी था । मणिपुर, त्रिपुरा, पजाब, पश्चिम बंगाल आदि राज्यों में भी भूमिपुत्रों के अधिकारों की रक्षा के नाम पर बंगालियों, बिहारियों को भगाए जाने के उदाहरण सामने है । बाहरी लोगों के खिलाफ यह लड़ाई उत्तर से लेकर दक्षिण तक और पश्चिम से लेकर पूर्व तक फैली हुई है ।

इससे बड़ी विडंबना और क्या हो सकती है कि अपने ही देश में व्यक्ति ‘बाहरी’ माना जा रहा है? लेकिन क्यों? इस प्रश्न का एक उत्तर तो यह है कि गरीबी और बेरोजगारी की मार से सब पस्त है । विकास के सारे दावों के बावजूद आज देश का कोई हिस्सा ऐसा नहीं है, जहाँ गरीब या बेरोजगार न हों ।

अवसरों की कमी स्थिति को बदतर बना देती हे इसलिए समस्या का एक समाधान तो यह है कि आर्थिक विकास और रोजगारों के अवसरों को सारे देश में बढ़ाया जाए जो नहीं हो रहा है । जब तक विकास की प्रक्रिया सारे देश में समुचित गति से नहीं चलेगी रोजी-रोटी के लिए लोगों का एक स्थान पर जाना नहीं रूकेगा ।

यह गंभीर मसला है लेकिन उतनी ही गंभीर समस्या का दूसरा पहलू भी है । राजनीतिक स्वार्थों को साधने वाला पहलू । जब तमिलनाडू में मलयाली बाहरी बने थे या कर्नाटक में तमिल बाहरी माने गए थे तो इसके पीछे मूल कारण राजनीतिक स्वार्थ थे । यही राजनीतिक स्वार्थ सब कुछ कर रहे हैं ।

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