डा. राम मनोहर लोहिया का जीवन-दर्शन पर निबन्ध | Essay on Dr. Ram Manohar Lohia’s Life in Hindi!

डॉ. राम मनोहर लोहिया के दार्शनिक चिंतन और सामाजिक विश्लेषण की पद्धति में मार्क्सवाद, भारतीय परंपरा, गांधीजी के प्रयोग और उनके शोध-निदेशक प्रसिद्ध जर्मन अर्थशास्त्री बर्नर सुधाई का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है ।

वे कार्ल मार्क्स द्वारा प्रतिपादित पूँजीवादी व्यवस्था के अंतविरोधों, असमानता, शोषण और अमानवीयकरण को तो स्वीकार करते हैं, किंतु इस बात को स्वीकार नहीं करते हैं कि मार्क्स का चिंतन यूरोपीय समाज के अनुभवों की देन है ।

सामान्य रूप से एशिया और अफ्रीका के समाजों, विशेष रूप से भारत के संदर्भ में उसका अंधानुकरण गलत दिशा की ओर ले जाएगा । लोहिया भारत के शोषित जन-समुदाय से अत्यंत आत्मीयता रखते थे । वे स्वभाव से शालीन और मिलनसार थे तथा बाह्य आडंबर से पूर्णत: विमुख । वे नूतन सभ्यता और संस्कृति के द्रष्टा और निर्माता के रूप में विश्रुत थे । उन्होंने ‘विश्व नागरिकता’ का स्वप्न देखा था ।

उनकी चिंतनधारा देश काल की सीमाओं तक सीमित नहीं रही । राजनीति के साथ-साथ संस्कृति, इतिहास तथा साहित्य के विषयों में भी उनकी प्रबल विचारधारा होती थी । वे समाजवाद और लोकतंत्र को एक-दूसरे का पूरक मानते थे । वे स्वभाव और कर्म दोनों से विद्रोही थे । अन्याय के विरुद्ध लड़ना उनके सिद्धांत और कर्म की आधारशिला रहा ।

‘लोग मेरी बात सुनेंगे जरूर, शायद मेरे मरने के बाद’ कहनेवाले, समाजवादी-चिंतक डॉ. लोहिया का नाम लेने का अर्थ है- अंग्रेजी हटाओ, दाम बाँधो, जाति तोड़ो और पिछड़ों को विशेष अवसर, खर्च की सीमा बाँधो, पब्लिक स्कूल की समाप्ति, हिमालय बचाओ, संपूर्ण और संभव बराबरी, तटस्थ विदेश नीति आदि ।

सन् १९६७ के पूर्व सोशलिस्ट पार्टी की जो हैसियत हिंदुस्तान के राजनीतिक क्षितिज पर थी, उसके पीछे डॉ. लोहिया का चिंतन, परिस्थितियों का सही मूल्यांकन, परिवर्तन के लिए लोक-शिक्षण, जनसंघर्ष तथा कार्य के प्रति निष्ठा और ईमानदारी थी ।

इन्हीं गुणों के कारण डॉ. लोहिया के जीवन काल में उनके द्वारा स्थापित सोशलिस्ट पार्टी ने अपनी एक पहचान बनाई थी । संसद् हो अथवा सड़क, अपनी बात निर्भीकता के साथ कहने का साहस आम आदमी में पैदा करने का प्रयास लोहिया ने ही किया था ।

ADVERTISEMENTS:

उसी का परिणाम था कि सोशलिस्टों द्वारा जो भी निर्णय लिये जाते थे, उससे जनता में एक विश्वास पैदा होता था; वहीं सरकार को भी अपनी मनमानी करने पर जन-आक्रोश का शिकार होना पड़ता था । सी.एम.जोड का यह उद्‌गार- समाजवाद एक टोप के समान है, जिसको प्रत्येक व्यक्ति पहनना चाहता है, फलस्वरूप उसकी आकृति खराब हो गई है । कभी- कभी सच प्रतीत होने लगता है ।

तथाकथित भारतीय वर्ग ने अपने हितों को और मजबूत करने के लिए जिस समाजवाद को विदेशी और अन्य ऐसे ही कई आधारहीन तर्कों से संबोधित किया था, वहीं डॉ. लोहिया ने समाजवाद को भारतीय चिंतन की मूल धारा से जोड़ने का प्रयास ही नहीं किया, बल्कि उसके मूर्त रूप देने का सफल प्रयास भी किया । उसके लिए सोशलिस्ट पार्टी को स्थापना सम्मेलन से लेकर सविनय-अवज्ञा तक की कई मंजिलों से गुजरना पड़ा है ।

डॉ. लोहिया की मृत्यु के पश्चात् सोशलिस्ट पार्टी नेतृत्व-विहीन नहीं थी, लेकिन नेताओं के क्रियाकलाप के कारण उसे आघात जरूर लगा था । उसको आत्म-आलोचना और आत्म-निरीक्षण के द्वारा ही समझा जा सकता है । इसके लिए जरूरी हो जाता है, पिछली गतिविधियों से सबक लेते हुए भविष्य का निर्माण करना ।

सन् १९७५ के आपातकाल से लेकर सन् १९७७ और १९८० के आम चुनावों में सोशलिस्टों की रणनीति को सिद्धांत: तो सफलता मिली, लेकिन नेतृत्व की कमजोरी और दिशाहीनता के कारण राजनीतिक सफलता हासिल नहीं हो सकी और उसी का परिणाम रहा कि आपातकाल में जुड़े दल तो अपना दायरा बढ़ा सके, लेकिन खुद लोहियावादी सोशलिस्ट अपना अस्तित्व मिटाते रहे ।

सन् १९८० में इंदिरा गांधी के पुन: सत्ता में आने के बाद प्रतिपक्ष ने लोकतांत्रिक समाजवादी मूल्यों के लिए जनसंघर्ष नाममात्र का किया तथा चुनावी राजनीति को अधिक महत्त्व दिया । जिसका परिणाम है-हिंदुस्तान की राजनीति को सिद्धांत-विहीनता की ओर धकेलना ।

समाजवादियों सहित विरोधी दलों की निष्क्रियता के कारण ही कांग्रेस पंजाब-असम समस्या, सांप्रदायिक राजनीति, आरक्षण जैसी कई समस्याएं खड़ी करने में सफल रही । समाजवादी आदोलन के इतिहास से सबक सीखा जा सकता है कि डॉ. लोहिया के अतिरिक्त सन् १९५६ में सोशलिस्ट पार्टी, हैदराबाद के स्थापना सम्मेलन में कोई लोकप्रिय नेता नहीं था ।

सभी बड़े नेता प्रजा समाजवादी दल में थे, उन्होंने कार्यकर्ताओं को सोशलिस्ट पार्टी में जाने से रोकने का भरपूर प्रयास किया था । सरकारी और पूँजीवादी प्रचारतंत्र ने भी डॉ. लोहिया के प्रति आधारहीन प्रचार किया; फिर भी उन्होंने १०-११ वर्षों में देश की राजनीति को सिद्धांतपरक और अपनी पार्टी को जनभावना के अनुरूप बना दिया था । डॉ. लोहिया को माननेवाले आज भी हजारों की संख्या में हैं । डी. लोहिया ने एक बार कहा था:

“I have nothing with me except that the common and the poor people of India that I am perhaps their own man.”

एक कुशल समाजवादी के रूप में:

डॉ. राम मनोहर लोहिया ने समाजवादी विचारधारा का विवेचन एशिया की विभिन्न समस्याओं को ध्यान में रखकर किया था । उन्होंने अपनी पुस्तक ‘मार्क्स, गांधी तथा समाजवाद’ में समाजवाद संबंधी अपने विचारों को अभिव्यक्त किया है । गांधीवाद तथा मार्क्सवाद दो परस्पर विचारधाराओं के मध्य डी. लोहिया ने ममत्व सूत्र का कार्य किया है । उन्हीं के शब्दों में- ”गांधी तथा मार्क्स के पास सीखने के लिए बहुमूल्य कोष है ।”

ADVERTISEMENTS:

डॉ. लोहिया ने अपने विचारों को कभी गुप्त नहीं रखा कि मार्क्सवादी अथवा गांधीवाद को पूर्णत: निर्णायक के रूप में नहीं अपनाया जा सकता । उनका पूर्ण विचार दोनों विचारधाराओं के मध्य समन्वय का मार्ग अपनाने का था । इसी कारण उन्होंने उभय विचारधाराओं के मध्य एक समन्वय-सूत्र पिरोने का कार्य किया । उनकी दृष्टि में मार्क्सवादी अथवा गांधीवादी व्याख्या एक पक्षीय और रक्तहीन थी । पूँजीवाद के विषय में मार्क्सवादी विश्लेषण को अपनाते हुए उन्होंने व्यक्तिगत संपत्ति की मार्क्सवादी उपेक्षा का स्वागत ही किया ।

डॉ. लोहिया ने कार्ल मार्क्स की द्वंद्वात्मक भौतिकवादी व्याख्या को अपनाया, किंतु उन्होंने मार्क्स के ‘वर्ग-संघर्ष’ के सिद्धांत को स्वीकार नहीं किया । वे वर्ग-संघर्ष के सिद्धांत को अनावश्यक और असंगत मानते, उनके अनुसार मानवता दो विकल्पों के मध्य जूझती रही है- वर्ग और जाति ।

जाति और वर्ग में सतत संघर्ष चलता रहा है । यदि जाति दक्षिणपंथी और स्थायी शक्तियों का प्रतिनिधित्व करती है तो वर्ग के द्वारा सामाजिक गतिशीलता का प्रतिनिधित्व होता है । मानव इतिहास जाति और वर्ग के अतर्द्वंद्व की कहानी है । डॉ. लोहिया ने रूसी साम्यवाद की तीव्र भर्त्सना की है, जहाँ व्यक्तिगत स्वातंल्द का औद्योगिक विकास के लिए गला घोंट दिया गया । उनकी यह मान्यता थी कि सत्य की विजय धूर्तता और छल-छद्‌म से नहीं हो सकती ।

अधिनायक तंत्र के माध्यम से लोकतंत्र सफल नहीं बन सकता । इसीलिए डॉ. लोहिया को रूसी साम्यवाद की कार्य-पद्धति स्वीकार न थी । साम्यवाद की स्थापना के लिए सोवियत साम्यवाद की हिंसात्मक शैली का उन्होंने कभी समर्थन नहीं किया ।

ADVERTISEMENTS:

उनकी मान्यता थी कि गांधीवादी सत्याग्रह तथा आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्रों में विकेंद्रीकरण को अपनाए जाने की नीति के माध्यम से ही मार्क्सवाद के लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है । समाजवाद की विकृति और उसकी गति-विहीनता पर तभी नियंत्रण पाया जा सकता है जब वह गांधीवाद के निष्कर्षों को अपना ले ।

इसी प्रकार गांधीवादी विचार-शैली के माध्यम से समाजवाद के मूल उद्‌देश्य की प्राप्ति संभव नहीं है, वे गांधीवाद की इस बात से सहमत नहीं थे कि आत्म-त्याग और अपने शरीर को कष्ट देकर अनुनय-विनय द्वारा शत्रु का हृदय-परिवर्तन किया जा सकता है । वे गांधीवाद को सामाजिक परिवर्तन लाने की दिशा में एक पूर्ण दर्शन नहीं मानते थे ।

आर्थिक विकास की रूपरेखा:

डा. लोहिया इस बात को स्वीकार करते थे कि आर्थिक विकास और सामाजिक बुराइयों को दूर करने के लिए गांधीवादी दर्शन से बढ्‌कर अन्य कोई तकनीक नहीं है । महात्मा गांधी की तरह डा. लोहिया भी बड़ी-बड़ी मशीनें लगाने के विरुद्ध थे ।

उससे समाजवाद के नाम पर पूँजीवाद एक नया रूप लेकर प्रकट होता है । गरीबों की समस्याओं का निराकरण पश्चिमी साम्यवाद के द्वारा नहीं हो सकता । उससे अफसरशाही, तानाशाही तथा सामंतशाही पनपती है । महात्मा गांधी की तरह डी. लोहिया लघु उद्योग-धंधों को अपनाकर आर्थिक विकेंद्रीकरण को अपनाए जाने के पक्षधर थे । इनके माध्यम से बेरोजगारी तथा धन के केंद्रीयकरण को रोका जा सकता है । अहिंसा संबंधी गांधीवादी दृष्टिकोण से वे विशेषत: प्रभावित थे ।

ADVERTISEMENTS:

सन् १९५४ में भाषा के प्रश्न को लेकर थानुम पिल्लई की सरकार ने शांत प्रदर्शनकारियों पर गोलियाँ चलाईं तो डॉ. लोहिया ने उसका विरोध किया तथा पिल्लई सरकार को त्यागपत्र देने के लिए बाध्य कर दिया; यद्यपि वे इसमें सफल नहीं हो सके ।

डॉ. लोहिया का विश्वास था, “सत्य शिवं सुंदरम् के प्राचीन आदर्शों को आधुनिक विश्व के ‘समाजवाद’, ‘स्वातंन्य’, तथा ‘अहिंसा’ के उसूलों को इस प्रकार रखना होता है कि वे एक-दूसरे का स्थान ले सकें । यही मानव जीवन का सुंदर सत्य होगा ।

इस सत्य को जीवन में प्रतिष्ठित करने के लिए मर्यादा-अमर्यादा तथा सीमा-असीमा का ध्यान रखना होगा । मार्क्सवाद भौतिक उत्पादन और संतुष्टि तो प्रदान कर सकता है, किंतु आध्यात्मिक शांति नहीं । भौतिक संतुष्टि समाजवाद का एकमात्र लक्ष्य नहीं है ।

पश्चिमी समाजवादी यह भूल जाते हैं कि व्यक्ति एक नैतिक प्राणी भी है । पेट तो सुअर भी भरते हैं ।” डा. लोहिया चाहते थे कि अर्थ-नीति विकेंद्रित हो तथा ग्रामीण सरकारों की स्थापना हो । वे चाहते थे कि एशियाई समाजवाद के स्वरूप का निश्चय वहाँ के देशों की संस्कृति और ऐतिहासिक अनुभवों के प्रकाश में हो ।

ADVERTISEMENTS:

वे धर्म, दक्षिण पंथीवाद तथा राजनीति को मिलाने के पक्ष में नहीं थे, क्योंकि इससे सांप्रदायिक सद्‌भाव में तनाव और कडुवाहट पैदा होती है । एशियाई सामाजिक व्यवस्था में नौकरशाही और विशेषज्ञों के बढ़ते हुए अनुचित प्रभाव से वे चिंतित थे ।

विकेंद्रीकरण की अनुपस्थिति में वे ‘संघटित परंपरावादी समाजवाद’ को ‘मृत्यु-तुल्य’ मानते थे । राष्ट्रीयकरण की समाजवादी व्यवस्था का तो उन्होंने अनुमोदन किया, किंतु उसे समस्त आर्थिक और सामाजिक व्यवस्थाओं की परेशानियों का एकमात्र उपचार स्वीकार नहीं किया ।

उन्होंने भारतीय समाज की संरचना में उन निर्णायक तत्त्वों का विश्लेषण किया, जो विशेषाधिकार के आधार पर समाज का शोषण कर रहे हैं । इसी के साथ उन्होंने उन वर्गों को रेखांकित किया, जो इन विशेषाधिकारों के आधार पर अधिक-से-अधिक समाज का शोषण करते हैं ।

विशेषाधिकारवाले शोषण-वर्ग का वर्गीकरण वे निम्नलिखित रूप में करते हैं:

१. विशेषाधिकारवाला वर्ग-संपत्ति, जाति और भाषा के आधार पर ।

२. वर्गों का गठन- (

क) नौकरशाह अधिकारी, (ख) उच्च मध्यम वर्ग,  (ग) निम्न मध्यम वर्ग, (घ) सर्वहारा वर्ग ।

समाज में व्याप्त विसंगतियों को समझने के पश्चात् डॉ. लोहिया ने इन विसंगतियों को दूर करने के लिए ७ नीतियों का प्रतिपादन किया, जो निम्नलिखित हैं:

(१) जाति-नीति, (२) भूमि-नीति, (३) अन्न-नीति, (४) आय-नीति, (५) मूल्य-नीति,  (६) राष्ट्रीय भ्रम-नीति, (७) भाषा-नीति ।

पाँच स्तंभीय विचार:

डा. लोहिया अपनी समाजवादी व्यवस्था में केंद्रित और विकेंद्रित व्यवस्था के मध्य समवाद स्थापित करने के पक्षधर थे । उनके वे चार स्तंभ हैं- (क) ग्राम, (ख) मंडल (जिला), (ग) प्रांत, (घ) केंद्र-सरकार, (ड.) विश्व सरकार । वे चाहते थे कि प्रशासन के ये पाँचों स्तंभ व्यावसायिक लोकतंत्र के आधार पर कार्य करें ।

इस प्रकार के राज्य की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:

१.सरकारी नियोजन के लिए निश्चित धनराशि का एक चौथाई धन ग्राम, जिला तथा पंचायतों द्वारा व्यय किया जाएगा ।

२.ग्राम, नगर तथा जिला पंचायतों का पुलिस के ऊपर पूर्ण नियंत्रण होगा ।

३.जिलाधीश का पद समाप्त कर उसके कार्यों को जिले के अन्य पदाधिकारियों के मध्य विभाजित कर दिया जाएगा ।

४.कृषि, उद्योग तथा संपत्ति के ऊपर जहाँ तक संभव होगा, वहाँ तक ग्राम, नगर तथा जिला पंचायतों का नियंत्रण होगा ।

५.लघु मशीनों के प्रयोग के द्वारा आर्थिक और राजनीतिक विकेंद्रीयकरण के लक्ष्य को पूरा करने का प्रयत्न किया जाएगा ।

सप्त क्रांति पर एक दृष्टि:

डॉ. लोहिया ने ७ क्रांतियों की अवधारणा इस रूप में प्रस्तुत की है :

१. नर-नारी की समानता के लिए ।

२. रंग भेद के कारण राजकीय, आर्थिक तथा वैचारिक असमानता के विरुद्ध ।

३. संस्कारगत, जन्मजाति, जाति-प्रथा के विरुद्ध तथा पिछड़े वर्गों को विशेष अवसर प्रदान करने के लिए ।

४. परदे की गुलामी के खिलाफ स्वतंत्रता तथा विश्व लोक-राज्य के लिए ।

५ व्यक्तिगत पूँजी संबंधी विषमताओं के विरुद्ध तथा आर्थिक समानता के लिए ।

६. निजी जीवन में अनधिकार आवश्यक हस्तक्षेप के विरुद्ध तथा लोकतंत्रीय पद्धति के लिए ।

७. अस्त्र-शस्त्रों के विरुद्ध तथा सत्याग्रह के लिए ।

ADVERTISEMENTS:

डॉ. लोहिया के शब्दों में- ”आज संसार में बड़े-बड़े आदोलनों और क्रांति का युग है । इनको समझना उतना ही जरूरी है कि हम संसार की उन्नति में अपना हिस्सा बंटाएं, इसलिए कि हमें आजादी की लड़ाई लड़ने में मदद मिले ।

हम अपनी क्रांति को विश्वक्रांति के साथ जोड़कर उससे लाभ उठाएँ । संसार के चारों ओर एक बहुत बड़ी जंजीर कसी हुई है । इसकी कुछ कड़ियों में अगर हिंदुस्तान और चीन धँसा हुआ है तो कुछ में इंगलिस्तान और इटली जैसे साम्राज्यशाही या फासिस्ट देशों के मजदूर ।

अगर इस जंजीर के कड़े कहीं भी टूटते हैं तो उससे सभी दलितों की जंजीर के कड़े कमजोर होते हैं । अब समय आ गया है कि दलिर्तों के सामूहिक प्रयत्नों से यह जंजीर हमेशा के लिए टूटे ।”

विश्ववादी व्यक्तित्व:

डॉ. लोहिया एक विश्ववादी व्यक्तित्व-संपन्न व्यक्ति थे । वे अंतरराष्ट्रीय एकता पर बल देते थे । वे राष्ट्रवाद के भी पक्षधर थे । वे विश्व-एकता के अधिक्ता थे । उन्होंने अपनी एक अंग्रेजी पुस्तक में लिखा है- ”शुद्ध रूप में अंतरराष्ट्रवाद तब तक उत्पन्न नहीं हो सकता जब तक कि उसके समर्थक इस तथ्य को अनुभव नहीं करते कि

विदेश-नीतियों का वर्तमान संघर्ष । सभ्यताओं का संघर्ष है और जिसके ऊपर विजय विश्व के मस्तिष्कों को एक करके प्राप्त की जा सकती है ।”

एक बार डॉ. लोहिया ने भारत की विदेश-नीति की आलोचना करते हुए कहा था- ” वह कल्पनाओं का आवरण मात्र है ।” वे इस बात पर बल देते थे कि भारत की विदेश-नीति का आधार होना चाहिए कि सब व्यक्ति बराबर हैं और उन्हें विश्व-संगठन की रचना सक्रिय रूप से करनी चाहिए ।

उन्होंने सदैव विश्व-नागरिकता का स्वप्न देखा । उनका विश्व-दर्शन एक आत्मानुशासित जन समूह का आत्मदर्शन है । ऋषित्व के गुणों से परिपूर्ण एक ऐसी कल्पना है, जो जन्म लेकर साकार होने के लिए बेचैन है । उनका विचार था- ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ में स्थायी सदस्यता और वीटो पावर (अवरोधक वोट) कुछ बड़ी शक्तियों तक ही सीमित है; इसलिए संयुक्त राष्ट्र संघ से आशा करना कि वह विश्व-नागरिकता की रक्षा करने में समर्थ होगा, नितांत भ्रम पैदा करनेवाला है ।

आज नहीं तो कल, वर्तमान संयुक्त राष्ट्र संघ का विकल्प हमें खोजना ही पड़ेगा । इसलिए उस दिन के लिए दूसरे विकल्प की तैयारी हमें आज इसी क्षण से करनी चाहिए । वह दिन दूर नहीं है जब विश्व के सभी देश एक स्वर से इस बात को कहेंगे कि संयुक्त राष्ट्र संघ का विकल्प खोजा जाए ।

यदि हम आज ही से उसी दिशा में कार्यरत रहेंगे तो हम उस निर्णय के क्षण में कह सकेंगे कि हमारा दूसरा विकल्प ‘विश्व-संसद्’, ‘विश्व-सरकार’, और ‘विश्व विकास समिति’ के रूप में तैयार है । जो भी विकल्प चुना जाए वह इन्हीं आधारों पर गठित हो ।

इतिहासबोध:

ADVERTISEMENTS:

डॉ. लोहिया के इतिहास-विषयक विचार अरस्तू के सिद्धांत से समानता रखते हैं । उन्होंने मार्क्स के ‘आर्थिक विवेचन के सिद्धांत’ को अस्वीकार कर दिया है । इतना ही नहीं उन्होंने हीगलवादी दृष्टिकोण को भी स्वीकार नहीं किया । डॉ. लोहिया ने इतिहास के संबंध में अपने विचारों का प्रसार अपनी कृति ‘Wheels of History’ (१९५५) में किया है ।

वे इतिहास की प्रगति को एक सीधी रेखा के रूप में स्वीकार नहीं करते । ‘अरस्तु’ के अतिरिक्त उनके विचार टॉयनबी, सोरोकिन, नॉर्थट्राय और स्पैंगलर के विचारों से मिलते-जुलते हैं । व्यक्ति की अनंत संभावनाओं और उसकी दुर्बलताओं को ध्यान में रखते हुए डॉ. लोहिया ने ‘मानवीय इतिहास’ की व्याख्या की । उन्होंने मानवीय सांस्कृतिक उपलब्धियों का भी विशेष अध्ययन किया है ।

उन्होंने गतिमान काल के साथ संस्कृति को भी गतिशील माना है । उन्होंने अपनी कृति ‘Interval during politics’ में योग से लेकर भारतीय पुरातत्त्व, इतिहास, धर्म और अध्यात्म-सबका विवेचन किया है । उन्होंने पत्थरों की भाषा पढ़ने की कोशिश की है । मूर्तियों के माध्यम से मनुष्य की जातीय स्मृति और अभिज्ञान को रेखांकित करने का प्रयास किया है ।

महात्मा बुद्ध और जैन धर्म के तीर्थंकर महावीर स्वामी की मूर्तियों का परिशीलन करते हुए उन्होंने लिखा है : ”महावीर की प्रतिमा में जैन धर्म की तपस्या और कायिक वेदनाओं का तनाव बराबर दिखता है । यह तनाव बुद्ध की मूर्तियों में नहीं मिलता, क्योंकि बुद्ध का मार्ग सहज था और उस सहजता में बुद्ध की मूर्तियों को देखने से ऐसा लगता है कि सारे तनाव तिरोहित हो गए ।”

इसी प्रकार उन्होंने कोणार्क, नालंदा, अता, एलोरा आदि में अंकित मूर्तियों और भित्ति-चित्रों में एक दिव्य प्रतिभा के दर्शन किए हैं । एक स्थान पर अजंता के चित्रों में काले रंगों का प्राचुर्य देखकर कहा है कि इन चित्रों में स्थानीयता का समन्वय अतीव कलात्मक शैली में हुआ है । इस प्रकार हम पाते हैं कि उनके विचारों में अनेकता दृष्टिगोचर होती है ।

Home››Essays››