देशी सबप्राइम संकट से दूरी पर निबंध | Essay on Native from the Subprime Crisis in Hindi!

अमेरिकी सब प्राइम संकट से पूर्व कुछ आर्थिक विश्लेषक इस बात को लेकर आश्वस्त नजर आ रहे थे कि आर्थिक विकास दर में कमी, रियल एस्टेट के घटते दाम और कर्ज के बोझ तले दबी आवास ऋण कंपनियों के जरिए उभरे गंभीर वित्तीय संकट जैसे कारक अमेरिका को आर्थिक मंदी की ओर धकेल देंगे ।

अमेरिका की अर्थव्यवस्था में पिछले दिनों जो कुछ भी उथल-पुथल हुई है, उसमें कहीं-न-कहीं सब प्राइम मोर्गेज संकट का भी योगदान रहा है । कम भरोसे वाले कर्जदारों को ऊंची ब्याज दर पर कर्ज देने की प्रवृत्ति करीब एक दशक पुरानी है, लेकिन वर्ष 2006 के बाद से इस प्रकार दी जाने वाली सब प्राइम उधारों का आकार अमेरिकी होम लोन बाजार के पांचवें हिस्से के बराबर हो गया है ।

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कर्ज न चुका पाने के कारण बंधक छुड़ाने का अधिकार छिन जाने या गिरवी रखी गयी संपत्ति को शीर्ष कर्जदाता बैंकों द्वारा कब्जे की बैलेंस शीट पर दिखाई देने लगा । न्यू सेंचुरी फाइनेंशियल कॉर्पोरेशन, अमेक्विस्ट मार्टगेज और एचएसबीसी होल्डींग्स जैसी अमेरिकी आवास ऋण कंपनियां दिवालिया होने की घोषणा करती नजर आने लगीं ।

चूँकि अमेरिका में सब प्राइम लोन को प्रतिभूतियों (सिक्योरिटीज) में बदलते हैं, इसलिए सब प्राइम संकट महज होम लोन कंपनियों तक ही सीमित नहीं रहा, बल्कि इसने उत्तरी अमेरिका, यूरोप, ऑस्ट्रेलिया और यहां तक कि एशिया के बैंकों और वित्तीय संस्थानों को भी प्रभावित किया । आग उगलते ज्वालामुखी की तपिश ने एशियाई शेयर बाजारों को जड़ से हिला दिया । दुनियाभर के वित्तीय तंत्र पर इस संकट का असर हुआ । इसके परिणामों को लेकर अलग-अलग कयास लगाए जा रहे हैं ।

वित्तीय विश्लेषकों के कोलाहल में से हालांकि कुछ एकदम नये दृष्टिकोण सामने आये हैं । उदाहरण के लिए जैसे ही कनाडा में सब प्राइम संकट का असर शुरू हुआ, ‘एडमॉन्टन सन’ के स्तंभकार एलन केपलान का मानना था कि मौजूदा संकट के लिए दोषी न बैंक है और न फेडरल रिजर्व, बल्कि पेटू अमेरिकी उपभोक्ता इसके लिए जिम्मेदार हैं ।

उत्तर अमेरिकी उपभोक्ता हमेशा बड़ी – बड़ी कारों, विशाल बंगलों, समुद्र के किनारे घर और कीमती गैजेट्‌स की चाहत रखते हैं । वैसे कुल मिलाकर अमेरिकी सब प्राइम कर्जदार भारतीय कर्जदार की तुलना में पूरी तरह भिन्न होता है ।

कर्ज के बोझ से दबा भारतीय दो अंकों की दर से ब्याज का भुगतान करता है और वह आम तौर पर एक छोटा किसान या बुनकर होता है, जो सूखे या बाजार में मंदी के कारण कर्ज लेता है, लेकिन अमेरिका या कनाडा के सब प्राइम कर्जदार के पास पहले से ही एक मकान होता है और आमतौर पर वह दूसरे मकान के लिए कोशिश करता है, क्योंकि वहा तुलनात्मक रूप से कम ब्याज पर आसानी से मनचाहा कर्ज मिल जाता है । आसान किस्तों पर मनचाही कार या मकान खरीदना बाजार में तेजी के दौर में सरल होता है, जब अर्थव्यवस्था में विस्तार हो रहा हो और हर साल वेतन-भत्ते तेजी से बढ़ रहे होते हैं ।

‘क्या होता है, जब तेजी का यह दौर खत्म हो जाता है और बहुतायत में वेतन देने वाली नौकरिया गायब हो जाती हैं, या फिर इससे भी खराब स्थिति होती है जब कंपनियों में छँटनी जरूरी हो जाती है’ यह महत्त्वपूर्ण मुददा उठाते हुए कोपलान इसे एक चींटी और टिड्‌डे की दंतकथा के जरिए स्पष्ट करते हैं । कहानी में टिड्‌डा गर्मी के मौसम में पूरी तरह मौज करता है, जबकि चींटी आने वाली बारिश के मौसम को ध्यान में रखते हुए धीरे – धीरे खाना जमा करती रहती है ।

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बारिश और सर्दी के मौसम में चींटी सुरक्षित रहती है, जबकि टिड्‌डा ठड में ठिठुरता है और उसके पास खाने का इंतजाम भी नहीं होता, इसलिए उसे भूखा रहना पड़ता है । भारत के टिड्‌डे अभी लंबी गर्मी के मौसम के मध्य में मस्त है, जबकि भारत में जीडीपी दर पिछले कुछ वर्ष से लगातार बढ़ रही है और इसी के साथ उपभोक्ता व्यय जारी है ।

आवास ऋण इस कदर तेजी से बढ़ रहा है कि नये ढंग से विकसित आयकर रिटर्न फॉर्म में अब प्रॉपर्टी की घोषणा के लिए विभिन्न कॉलम बने हुए हैं । सभी होम लोन महज इसलिए नहीं फाइनेंस करवाए जा रहे हैं कि एक परिवार को रहने का एक ठिकाना मिले ।

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बहुत से होम लोन रियल एस्टेट मार्केट की तेजी का फायदा उठाने के लिए या अच्छे निवेश के रूप में प्रापर्टी खरीदने के लिए हासिल किये जा रहे हैं । पिछले कुछ वर्ष में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के लोन अकाउंट दोगुने से ज्यादा हो गये हैं । मार्च 2003 में इनकी संख्या 11.47 लाख थी, जो कि मार्च 2006 में बढ्‌कर 25.21 लाख हो गयी । इसी अवधि के दौरान होम लोन पर बकाया राशि 38,703 करोड़ से बढ़ कर 85,832 करोड़ हो गयी ।

विकासशील या ‘संक्रमण काल से गुजर रहे’ भारत की जहाँ आधे से ज्यादा आबादी आज भी अच्छी जिदंगी जीने के लिए संघर्ष कर रही है, वहाँ भोजन, काम या आवास के लिए फाइनेंस मिलना शुभ संकेत हैं । लेकिन मैकिंसे ग्लोबल इनिशिएटिव स्टडी की भविष्यवाणी के मुताबिक 2025 तक भारत दुनिया का पाँचवा सबसे बडा उपभोक्ता बाजार होगा, जो कि फिलहाल 12वें स्थान पर है ।

पिछले दो दशक से अमेरिकी उधार के पैसे से ऐशोआराम की नौकाएं और लंबी – लंबी लिमोजिन कारें खरीद रहे हैं, उनकी खर्च योग्य वास्तविक आय (या वह राशि जो एक परिवार अपनी आमदनी में से निकाल सकता है) लगभग 1.5 फीसदी बढ़ी है, जबकि भारत में औसतन घरेलू आमदनी 3.6 फीसदी बड़ी है । मैकिंजे अध्ययन के मुताबिक भारत में अगले 25 वर्षों में औसत आधार पर खर्च मिलाकर 5.3 फीसदी की दर से बढेगी ।

अब ज्यादा-से-ज्यादा भारतीय गरीबी से निजात पा रहे है और इनसे भी ज्यादा एक दूसरे की देखा-देखी तेजी से उभरते उपभोक्ता बाजार की ओर रूख कर रहे हैं । तो ऐसी स्थिति में स्वास्थ्य की देखभाल, शिक्षा, संचार परिवहन (मसलन कारें और अधिकाधिक कारें) और मनोरंजन पर खर्च ज्यादा-से-ज्यादा बढ़ेगा ।

उपभोक्ता व्यय में कुछ बढ़ोतरी तो परिवारों द्वारा बचाए गये पैसों के खर्च के जरिए है लेकिन इन लोगों का 80 फीसदी खर्च बढ़ती आय के कारण होगा । अमेरिकी नागरिकों की तरह ही भारतीय भी पसंदीदा चीजें महज इसलिए खरीदेंगे, क्योंकि वह ऐसा करने में सक्षम होंगे ।

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