नवीन अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था और चुनौतियाँ पर निबन्ध | Essay on New International Economy and Challenges in Hindi!

नवीन अंतरराष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था (NIEO) की उद्‌घोषणा के मुख्य लक्ष्य थे-गरीब राष्ट्रों को उनके आर्थिक विकास में विकसित राष्ट्रों के सहयोग से मदद पहुँचाना तथा विश्व स्तर, राष्ट्रीय और व्यक्तिगत स्तर पर समानता को प्राप्त करना । ‘नीओ’ के उद्‌देश्यों को तीन भागों में बाँट सकते हैं:

. व्यापार संबंधी उद्देश्य : ‘नीओके अंतर्गत:

क. व्यापार को उत्तरोत्तर मुक्त कर विकसित राष्ट्रों के संरक्षणवाद को समाप्त किया जाना चाहिए जिससे कि विकासशील राष्ट्रों को अपनी वस्तुएँ निर्यात करने में अधिक कठिनाई न हो ।

ख. विकसित राष्ट्रों द्वारा अपनी आवश्यकता की अधिकाधिक वस्तुओं को विकासशील राष्ट्रों से आयात किया जाना चाहिए ।

ग. विकासशील राष्ट्रों को निर्यात- क्षम बनाने के लिए औद्योगिक राष्ट्रों द्वारा उनके (विकासशील राष्ट्रों के) औद्योगिकीकरण में सहयोग दिया जाना चाहिए ।

घ. व्यापार की उत्तरोत्तर बिगड़ती शर्तो, जो कि विकासशील राष्ट्रों के लिए लगातार घाटे की होती जा रही थीं, में सुधार करना ।

. सहयोग संबंधी उद्देश्य:

क. विकसित राष्ट्रों को विकासशील राष्ट्र की आर्थिक उन्नति और उनके पिछड़ेपन को दूर करने के लिए प्रौद्योगिक और मौद्रिक सहयोग दिया जाना चाहिए ।

ख. विकसित राष्ट्रों द्वारा पीर्सन कमेटी (१९६८) द्वारा प्रस्तावित राशि को विकासशील राष्ट्रों के विकास हेतु सहयोग राशि के रूप में प्रदान करना चाहिए । सन् १९६८ में पीयर्सन कमेटी ने यह सुझाव दिया था कि यदि विकसित राष्ट्र अपनी समग्र राष्ट्रीय आय का मात्र एक प्रतिशत भी गरीब राष्ट्र को दे दें तो इससे गरीब राष्ट्रों को अपने विकास में काफी मदद मिलेगी ।

ग. विकासशील राष्ट्रों को ऋण के भार से मुक्ति दिलाई जानी चाहिए ।

ADVERTISEMENTS:

घ. विकसित राष्ट्रों द्वारा विकासशील राष्ट्रों में कार्यरत अपने बहुराष्ट्रीय निगमों के कार्यकलापों पर रोक लगानी चाहिए ।

. मौद्रिक संबंधी उद्देश्य:

विकसित राष्ट्रों द्वारा संचालित, किंतु अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं, जिनके अर्द्ध-विकसित और विकासशील राष्ट्र भी सदस्य हैं, जैसे-विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष आदि के निर्वाचन ढाँचे में परिवर्तन किया जाना चाहिए तथा इन संस्थाओं द्वारा अधिकाधिक वित्त विकासशील राष्ट्रों को सस्ती दरों पर तथा आसान शर्तों पर दिया जाना चाहिए ।

द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् विकसित राष्ट्रों ने आपसी सहयोग द्वारा अपनी बिगड़ी हुई अर्थव्यवस्था को सुधारने का व्यक्तिगत और संस्थागत स्तर पर प्रयास करना शुरू कर दिया था । राजनीतिक क्षेत्र में विश्व शांति हेतु राष्ट्र संघ की स्थापना तथा व्यापार क्षेत्र में सहयोग हेतु ‘गैट’ (General Agreement on Trade and Tariffs) तथा मौद्रिक सहयोग हेतु अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष (I.M.F) और विश्व बैंक की स्थापना सन् १९५० के पूर्व हो ही गई थी ।

किंतु इनके सदस्य मुख्यतया विकसित राष्ट्र ही थे । वास्तव में, द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद उपनिवेशवाद की समाप्ति का जो दौर शुरू हुआ, उससे विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष में विकासशील राष्ट्रों की सदस्यता बढ़ती गई, किंतु इन संस्थाओं द्वारा वितरित की जानेवाली धनराशि किन देशों और किन उद्‌देश्यों तथा किन शर्त्तों पर वितरित की जाएगी, इस पर अमेरिका का लगभग एकाधिकार था ।

परिणामत: इन संस्थाओं को अमेरिका समयानुसार अपने आर्थिक और राष्ट्रीय हितों के लिए इस्तेमाल करता रहा तथा कुल मिलाकर ‘मुका आर्थिक व्यापार’ के सिद्धांत का प्रतिपादन करते हुए कुछ गिने-चुने राष्ट्र औद्योगिक स्तर पर सुदृढ़तर होते चले गए । इन सुदृढ़ औद्योगिक राष्ट्रों को ही हम आज ‘उत्तर’ के नाम से जानते हैं ।

दूसरी तरफ वे राष्ट्र थे, जो मुक्त व्यापार के सिद्धांत के कारण उत्तरोत्तर अमीर राष्ट्रों की अमीरी का साधन बनते रहे तथा आपसी स्पर्द्धा में अपने कच्चे माल को सस्ती दरों पर निर्यात करते रहे और स्वयं का कोई औद्योगिक ढाँचा न होने के कारण लगातार बद से बदतर स्थिति में चले गए ।

इन्हीं गरीब राष्ट्रों को हम आज ‘दक्षिण’ के नाम से जानते हैं और इनमें मुख्यतया एशियाई, लैटिन अमेरिकी और अफ्रीकी राष्ट्र हैं । इसके अतिरिक्त उत्तरोत्तर मुक्त व्यापार की दशाओं के कारण अमीर ‘उत्तर’ और गरीब ‘दक्षिण’ राष्ट्रों के बीच की खाई निरंतर बढ़ती रही ।

अपनी बढ़ती गरीबी और असमानता को दूर करने हेतु विकासशील राष्ट्रों ने फिर संयुक्त राष्ट्र महासभा का सहारा लिया और सन् १९६४ में महासभा की विशेष इकाई संस्था के रूप में ‘अंकटाड’ (UNCTAD) की स्थापना हुई । सन् १९६४ की अंकटाड संस्था में विकासशील राष्ट्र प्रथम बार संगठित होकर सामने आए जिनकी संख्या उस समय मात्र 77 थी, उन्हें समूह-77 का नाम दिया गया ।

विशेषरूप से अंकटाड के भीतर रहकर कार्य करनेवाली यह संस्था तृतीय विश्व के आर्थिक मुद्‌दों के लिए सदैव एकजुट रही है । वास्तव में, सन् १९७४ में संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा ‘नीओ’ की उद्‌घोषणा, अंकटाड के अंदर कार्यरत् समूह और विश्व राजनीतिक मंच पर क्रियाशील निर्गुट राष्ट्र दोलन का प्रत्यक्ष परिणाम थी ।

ADVERTISEMENTS:

विकासशील देशों के मुख्य निर्यातक मालों की कीमतें गिर गईं और दूसरी ओर पूँजीवादी शक्तियाँ तृतीय विश्व के विरुद्ध अधिक संरक्षणात्मक और भेदभावमूलक बाधाएँ खड़ी कर रही थीं । फलस्वरूप विकासशील राष्ट्रों की निर्यात आय घटती चली गई । निजी पूँजी बाजार कतिपय अफ्रीकी, एशियाई और लैटिन अमेरिकी राष्ट्रों की आर्थिक परियोजनाओं के लिए वित्त-पोषण का मुख्य बाह्य स्रोत तैयार हो गया है । उसकी कर्जदारी बढ़ती जा रही है और सरकारी आकड़ों के अनुसार अरबों डॉलर तक पहुँच गई है ।

भूतपूर्व उपनिवेश आर्थिक स्वाधीनता पाने तथा न्यायपूर्ण जनवादी आधार पर अंतरराष्ट्रीय आर्थिक संबंधों का पुनर्निर्माण करने के लिए अपने प्रयास तेज कर रहे हैं । इस परिस्थिति में, विकासशील देशों को पूँजीवाद की अपनी आर्थिक व्यवस्था में बनाए रखने के लिए अधीनता और उत्पीड़न के नए तरीके ढूँढने हैं ।

संयुक्त राष्ट्र के कतिपय नीतिगत दस्तावेजों में नवउपनिवेशवाद का विरोध करने तथा न्यायोचित अंतरराष्ट्रीय आर्थिक संबंधों की स्थापना करने के मुख्य विचार अंकित किए गए । इन दस्तावेजों में शामिल हैं-राज्यों के आर्थिक अधिकारों और कर्तव्यों का घोषणा-पत्र तथा नवीन अंतरराष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था की स्थापना संबंधी घोषणा और अमली कार्यक्रम, जिन्हें सुपर ने प्रस्तुत किया था ।

ये प्रावधान बाद में सातवें गुट निरपेक्ष शिखर सम्मेलन तथा संयुक्त राष्ट्र महासभा के ग्यारहवें विशेष अधिवेशन तथा व्यापार विकास संबंधी संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन के छठे अधिवेशन के प्रस्तावों में अनुपूरित और निर्दिष्ट किए गए थे । नवीन अंतरराष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था संबंधी संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव के कार्यान्वयन में विलंब हो रहा है, जिसका कारण है-पूँजीवादी शक्तियों की, सर्वप्रथम अमेरिका की व्यवधान उपस्थित करनेवाली नीति ।

ADVERTISEMENTS:

विकासशील देश व्यापार-विकास और वित्तीय-मौद्रिक संबंधों के मुख्य प्रश्नों पर भू-मंडलीय वार्ताएं आयोजित करने की माँग करते हैं । इन समस्याओं पर विस्तारपूर्वक विचार-विमर्श से नई अंतरराष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था की स्थापना को बल मिलेगा ।

यद्यपि पूँजीवादी शक्तियाँ ऐसी वार्त्ताओं के आयोजन के लिए सरकारी तौर पर सहमत तो हैं पर ऐसी शर्तें रख देती हैं, जिनसे उसका प्रारंभिक चरण ही अवरुद्ध हो जाता है । साम्राज्यवादी तत्त्व ताकत बनाए रखने के तरीके अपनाना जारी रखे हुए हैं, जिनका शीतयुद्ध के दिनों में व्यापक इस्तेमाल किया जाता था ।

अमेरिका के साथ-साथ अन्य साम्राज्यवादी सरकारें भी राष्ट्रीय मुक्ति आदोलनों को ‘अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद’ के रूप में देखती हैं । अमेरिका विकासशील देशों में हर कीमत पर, यहाँ तक कि शस्त्र-बल के द्वारा भी, अपने हितों की उपयुक्त व्यवस्था कायम करने की दृष्टि से उनके आतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने का अधिकार ग्रहण कर लेता है ।

इसका प्रमाण है- ईरान- इराक युद्ध, लेबनान और ग्रेनाडा का युद्ध, अफगानिस्तान-निकारगुआ का अघोषित युद्ध, इराक और अमेरिका तथा उसके समर्थक देशों का युद्ध इत्यादि । ‘पारस्परिक आर्थिक सहायता परिषद्’ के सदस्य-देशों की शांति-रक्षा तथा अंतरराष्ट्रीय आर्थिक सहयोग संबंधी घोषणा, जो जून १९८४ में मॉस्को में स्वीकृत हुई थी, कहा गया था कि उत्पीड़न के समस्त प्रकारों और अन्य राज्यों के आतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने का दृढ़तापूर्वक विरोध करते हैं ।

ADVERTISEMENTS:

पूर्व के औपनिवेशिक और पराधीन देशों तथा समाजवादी समुदाय के मध्य तीव्र गति से बढ़ते आर्थिक संबंध नवीन अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के लक्ष्यों और सिद्धांतों के कार्यान्वयन का एक महत्त्वपूर्ण और कारगर साधन हैं ।

सन् १९७१ से ११८२ के बीच विकासशील राष्ट्रों के साथ ‘पारस्परिक आर्थिक सहायता परिषद्’ के व्यापार में लगभग २१ प्रतिशत की वार्षिक वृद्धि होती रही । लगभग १०० विकासशील देशों में, जिन्होंने ‘पारस्परिक आर्थिक सहायता परिषद्’ के सदस्य-राज्यों के साथ आर्थिक और प्रौद्योगिकी-सहयोग के समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं, ६ हजार से ज्यादा प्रतिष्ठान बनाए गए हैं या बनाए जा रहे हैं । इनमें से अधिकांश प्रतिष्ठान विकासशील देशों की मुख्य आर्थिक शाखाओं और सार्वजनिक क्षेत्रों में हैं ।

विगत वर्षों के दौरान जो कुछ दिखाई दे रहा था, उसकी पुष्टि वाशिंगटन में संपन्न विश्व बैंक तथा अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष की बैठकों के द्वारा हो चुकी है । बुश-प्रशासन अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष पर पूर्णत: यह दबाव डालने में सफल हो गया है कि ऋणी राष्ट्रों को उधार देने की नीति और वितरण को और कठोर बनाया जाए ।

इतना ही नहीं, विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष के बीच हुई बातचीत का भी स्पष्ट उद्‌देश्य यही था कि विश्व बैंक पर उसके आर्थिक विकास और कर्जों की शर्तों को कठोर बनाने के लिए दबाव डाला जाए । अमेरिकी ट्रेजरी सचिव ने घोषणा की थी कि ‘जरूरतमंद’ देश अपनी देखभाल स्वयं करें और ‘मुका बाजार’ के निजी क्षेत्र का अधिक सहारा लें, बजाय बहुराष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा उनकी सहायता करने के ।

ADVERTISEMENTS:

अमेरिकी प्रतिनिधि ने गरीब देशों की इस माँग को ठुकरा दिया कि अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष के ढाँचे पर विचार करने के लिए सभी देशों का एक राष्ट्रीय सम्मेलन बुलाया जाए और विश्व बैंक वर्तमान संपूर्ण मुद्रा-पद्धति पर पुनर्विचार करे ।

यह कोई छुपी बात नहीं है कि अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष और विश्व बैंक में लगभग सारे गैर-साम्यवादी देश हैं । अमेरिका का इनकी बैठकों में वर्चस्व रहता है । यही बात अन्य संयुक्त राष्ट्र संस्थाओं के बारे में समीचीन है ।

परिणाम के तौर पर विकासशील देश, न केवल विश्व बैंक और मुद्राकोष से खाली हाथ लौटते हैं बल्कि अंकटाड और यूनिडो जैसी संस्थाओं से भी । स्थिति की गंभीरता का इस तथ्य से पता चलता है कि विकासशील देशों के फोरम- २४ सुप के ‘एक्यान प्रोग्राम’ में दिए गए सभी सुझावों को एक तरफ रख दिया गया था ।

विकासशील देशों में विकास-दर नकारात्मक है, प्रति व्यक्ति आय गिर रही है और कर्जों का भारी बोझ है । इस स्थिति को ध्यान में रखते हुए ‘एक्यान कार्यक्रम’ ने अनेक बातें तुरंत उपायों के रूप में रखी हैं, जिनमें कोष के स्रोत में वृद्धि, विश्व बैंक की सामान्य पूँजी में वृद्धि, अधिक सरकारी विकास सहायता, ऋण-भार को हलका करने के लिए उपाय आदि ।

एक महत्त्वपूर्ण सुझाव यह भी दिया गया कि वित्तीय संस्थाओं के कुल मतदान में विकासशील देशों का भाग ५० प्रतिशत तक बढ़ाया जाए । इस समय पूरे विकासशील देशों का मतदान में हिस्सा केवल ३८ प्रतिशत है, अर्थात् सभी निर्णय विकसित देशों द्वारा ही ले लिये जाते हैं, क्योंकि मतदान में उनका भाग अधिक रहता है । अमीर देश इस स्थिति को बनाए रखना चाहते हैं, इसीलिए वे वर्तमान पद्धति में कोई परिवर्तन नहीं चाहते ।

आर्थिक सहायता और पूँजीनिवेश:

सर्दी, गरमी और बाढ़ से मरने तथा बेसहारा लोगों की खबरें आज साल-दर-साल का एक अटूट सिलसिला बन गई हैं । सहारा रेगिस्तान के दक्षिण के विशाल अफ्रीकी महाद्वीप में लाखों की संख्या में लोग वर्षों से भूख से तिल-तिलकर मरते आ रहे हैं ।

लैटिन अमेरिका संबंधी संयुक्त राष्ट्र आर्थिक आयोग के उच्च कार्य-सचिव एन. गोंजालेज द्वारा प्रस्तुत एक रिपोर्ट के अनुसार, लैटिन अमेरिका की कुल ४० करोड़ की आबादी में लगभग १० करोड़ लोग घोर गरीबी के शिकार हैं ।

इस भुखमरी तथा गरीबी का मूल कारण है, पश्चिमी जगत् का पिछले जमाने का औपनिवेशिक शोषण और आज के युग में जारी नव-औपनिवेशिक दोहन । आर्थिक सहायता और ऋण, पूँजी-निवेश, व्यापार, अंतरराष्ट्रीय संपर्क का हर साधन इस दोहन का हथियार बना डाला गया है और इनमें भी ऋणों की भूमिका सर्वाधिक प्रत्यक्ष और कमर-तोड़ है ।

व्यापार में पश्चिमी देश और उनकी कंपनी कच्चे मालों, खनिजों और कृषि पैदावारों के दाम गिराकर, बीजक में माल की मात्रा कम दिखाकर अपने पक्के मालों के दाम बढ़ाकर, मात्रा ज्यादा दिखाकर तथा तरह-तरह की संरक्षणवादी युक्तियों का सहारा लेकर, अपनी पूँजी-निवेश के हर डॉलर पर ३ से ४ डॉलर का वार्षिक लाभ पैदा करती हैं ।

इससे विकासशील देशों के वित्तीय साधनों का क्षय होता जाता है और वे तरह-तरह के कर्ज लेने पर मजबूर होते हैं । इस कर्ज पर पश्चिमी बैंक, विशेषत: अमेरिकी बैंक ब्याज-दरें लगातार बढ़ाते रहे हैं । साथ ही डॉलर की कीमत भी बढ़ती जा रही है, जिससे ऋण की राशि अपने आप बढ़ जाती है ।

अब स्थिति यह है कि ब्याज पर दी गई पूँजी विकासशील देशों के आर्थिक शोषण का एक मुख्य साधन बन गई है । विकासशील देश कर्ज और सूद की अदायगी के लिए बार-बार कर्ज लेने के लिए विवश होते हैं, जिससे भुगतान की राशि बढ़ती जाती है ।

इस प्रकार यह एक दुम्बक्र का रूप धारण कर लेता है । लैटिन अमेरिकी देशों की ऋण ग्रस्तता ने तो मैक्सिको, ब्राजील तथा अर्जेंटीना में भी भूचाल ला दिया है । ‘फाइनेंशियल टाइम्स’ के अनुसार लैटिन अमेरिकी देश अपने कच्चे माल के निर्यात से जितना कुछ अर्जित करते हैं, वह सबका सब कर्ज-अदायगी में चला जाता है, फलत: विकास-कार्य में पूँजी निवेश अवरुद्ध होते से दिख रहा है ।

‘अंत: अमेरिकी विकास बैंक’ के अनुसार, विकास बैंक की उपेक्षा के कारण लैटिन अमेरिकी देश में कुल घरेलू उत्पादन वृद्धि या स्थिर रहने की बजाय १० प्रतिशत गिर गया है । ब्राजील, मैक्सिको और चिली में बड़ी मात्रा में उत्पादन में गिरावट आई है ।

यह जानलेवा दुम्बक्र है । अब तो कच्चे माल की कीमतों में ही नहीं, उनके कुल उत्पादन में भी गिरावट आने लगी है । उधर, बैंक-दरें चढ़ती ही जा रही हैं । लैटिन अमेरिकी देशों पर कर्जदारी का यह शिकंजा कसता और उन्हें तीव्र गति से सर्वनाश की ओर धकेलता जा रहा है ।

इस स्थिति को ध्यान से देखते हुए ‘एक्तान कार्यक्रम’ में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा-पद्धति को सुधारने की बात कही गई थी, जिससे कि एक ओर विनिमय और मुद्रा की स्थिरता के उद्‌देश्य प्राप्त किए जा सकें, तो दूसरी ओर विकासशील देशों पर विशेष ध्यान दिया जा सके ।

इस ओर भी ध्यान दिलाया गया कि पहले सुधार के चरण में केवल फुटकर और आशिक प्रयत्न हुए हैं । जब से इन संस्थाओं का गठन हुआ था, तब से अब तक अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में अनेक मूलभूत परिवर्तन हुए हैं और बहुत से स्वतंत्र विकासशील देशों का उदय हुआ है, इसीलिए कार्य-पद्धति में सुधार की नितांत आवश्यकता है ।

‘ग्रुप ऑफ २४’ ने इस बात की ओर ध्यान दिलाया कि विश्व बैंक और क्षेत्रीय बैंकों के उधार देने के कार्यक्रम अपर्याप्त सिद्ध हुए हैं । निजी पूँजी का प्रवाह भी अस्थिर रहा है । इसी प्रकार सहायता प्रदान करने के लिए कोष की सामर्थ्य भी उसके स्रोतों के अपर्याप्त विकास के कारण अवरुद्ध रही है ।

कोष द्वारा ऋण प्राप्तकर्ताओं से तो उग्रता का व्यवहार किया जाता है और बड़े औद्योगिक देशों की नीतियों पर इसका कोई प्रभाव न होने से तालमेल की प्रक्रिया असंतुलित हो जाती है । अमेरिका को व्यापार और आर्थिक विकास विनिमय की वर्तमान प्रणाली से कोई शिकायत नहीं है, जिसके अंतर्गत मूल्य-कटौतियों में जारी वृद्धि के कारण विकासशील देशों से विपुल मुद्रा-दोहन जारी रखने की सुविधा है ।

इसके अतिरिक्त ब्याज-दर और डॉलर-दर में वृद्धि विकासशील देशों में उसके मुनाफों को दसियों अरब डॉलर तक बड़ा लेता है । इसमें तनिक भी आश्चर्य की बात नहीं है कि लैटिन अमेरिका, जो अंतरराष्ट्रीय बैंक के शिकंजे में छटपटा रहा है, से अमेरिका पहुँचने वाली पूँजी विगत बीस वर्षों में १५० अरब डॉलर से अधिक हो गई है ।

जहाँ तक समाजवादी और विकासशील देशों के बीच वित्तीय संपर्क-सूत्रों का संबंध है, यह बात याद रखनी चाहिए कि अधिकांश नवोदित राज्य किसी-न-किसी हद तक विश्व-पूँजीवादी अर्थतंत्र के घेरे में बने हुए हैं, इसीलिए नवोदित राज्यों के विकास के लिए समाजवादी देश, जो वित्तीय सहायता प्रदान करते हैं, उसके अधिकांश का भुगतान होता है और उसे लौटाया जाता है अन्यथा पश्चिम समाजवादी राष्ट्रों के यहाँ से संसाधन निकाल लेगा ।

ऋण समाजवादी देशों की वित्तीय सहायता का मुख्य रूप है, जिसका लक्ष्य है-नवोदित देशों के विकास को सरल बनाना । पिछले पैंतीस वर्षों में इन ऋणों की कुल रकम चालीस गुनी हो गई है । पश्चिम अपनी द्विपक्षीय सरकारी सहायता का एक छोटासा हिस्सा ही उद्योग और कृषि के लिए देता है ।

औद्योगिक पूँजीवादी देश इसके लिए भरसक कोशिश कर रहे हैं कि विकासशील राष्ट्रों को बढ़ते उद्योग का वित-पोषण निजी क्षेत्र में ही हो । पश्चिमी अंतरराष्ट्रीय संगठन तृतीय विश्व को मिलनेवाली समाजवादी राज्यों की वित्तीय सहायता और पश्चिम की सरकारी विकास सहायता के बीच तुलना करने के लिए हिसाब की पक्षपातपूर्ण प्रणाली का इस्तेमाल करते हैं ।

पश्चिम आरोप लगाता है कि समाजवादी देश, विकासशील देशों को उनकी आर्थिक समस्याओं का निराकरण करने के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कम मदद देते हैं, किंतु संयुक्त राष्ट्र की सिफारिशों के आधार पर, जिन्हें पश्चिमी संगठन किसी-न-किसी कारण से ठुकरा देते हैं, नव-स्वतंत्र देशों के विकास में पूर्वी और पश्चिमी योगदान के वस्तुगत मूल्यांकन पर पहुँचा जा सकता है ।

ज्ञातव्य है कि नव-स्वतंत्र देश औद्योगिक पूँजीवादी राज्यों से जो ऋण प्राप्त करते हैं, उनका समाजवादी देशों की सहायता से कोई सामंजस्य नहीं है । औद्योगिक पूँजीवादी राज्यों द्वारा दिए जानेवाले ऋणों का ६० प्रतिशत से ज्यादा निजी बैंर्स्थ्यै प्राप्त होता है जो आजकल वार्षिक १०-१५ प्रतिशत और यहाँ तक कि २० प्रतिशत ब्याज वसूलते हैं ।

वस्तुत: बहुराष्ट्रीय कंपनियों के विरुद्ध संघर्ष हमारे युग का एक प्रमुख कार्य है । इस संघर्ष में विकासशील देश प्रमुख भूमिका निभा रहे हैं । गुट निरपेक्ष दोलन के दस्तावेजों की एक शृंखला से पता चलता है कि अधिकांश विकासशील राष्ट्रों, एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के देशों की राष्ट्रीय स्वतंत्रता और सामाजिक प्रगति के लिए नव-उपनिवेशवाद के आसन्न संकटों से पूरी तरह से परिचित हैं ।

इन देशों ने संयुक्त राष्ट्र में यह माँग रखी थी कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों के मनमानेपन तथा उनकी नव-उपनिवेशवादी नीतियों को समाप्त किया जाए । विकासशील देश इसका अनुभव करते हैं कि उनकी अधिकांश समस्याओं का मूल इस बात में है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ उनकी राजनीतिक तथा आर्थिक स्वतंत्रता की न्यायोचित माँगों की उपेक्षा करती रहती हैं ।

उनकी माँग है कि ये बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ उनकी राजनीतिक परिपाटियों का सम्मान करें और एक ‘मानकी कृत’ आदर्श थोपने के लिए उनका दमन न करें । इस प्रकार की आचार संहिता के प्रस्तावित प्रारूप पर बड़ी आशाएँ लगी हुई हैं ।

बहुराष्ट्रीय कंपनियों की गतिविधियों पर नियंत्रण लगने कशिवकासशील देशों का संघर्ष, जिसे समाजवादी देशों का सक्रिय समर्थन भी प्राप्त है, एक नवीन अंतरराष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था के न्यायोचित लोकतांत्रिक आधार पर निर्माण के लिए अंतरराष्ट्रीय संबंधों की संपूर्ण प्रक्रिया के पुनर्गठन की माँग कर रहा है ।

हथियारों की होड़ के परिणाम:

सैनिक तैयारियाँ खतरनाक ही नहीं हैं, बल्कि अपव्ययी भी हैं । संसार में वार्षिक सैनिक व्यय पहले से ही ८ खरब डॉलर से अधिक हो गया है, जिसमें एक खरब ३० अरब डॉलर विकासशील देशों द्वारा व्यय किए जाते हैं । यह उसके सैनिक-व्यय की तुलना में पाँच गुनी अधिक राशि है ।

जहाँ तक विकासशील देशों का संबंध है, उनके क्षेत्रों में अमेरिकी अड्‌डों तथा सैनिक स्थलों की स्थापना, अपने अर्थतंत्र को अमेरिका के लिए रणनीतिक महत्त्व के कच्चे माल की पूर्ति की दिशा में उन्मुख करना, उनपर व्यापार की भेदभावपूर्ण शर्तों का थोपा जाना, अमेरिका से शस्त्रास्त्रों को मँगाना आदि असंगत नीतियाँ देखने को मिलती हैं ।

हथियारों की होड़ न सिर्फ विकासशील देशों के संसाधनों को चट कर जाती है, अपितु उन्हें विदेशों से प्राप्त सहायता के परिमाण और कार्य-क्षमता को नकारात्मक रूप में प्रभावित भी करती है, साथ ही सहायता-राशि में वृद्धि करने के विचार के क्रियान्वयन में बाधा डालती है ।

बाह्य-आंतरिक सैन्यीकरण की शुरुआत हथियारों की होड़ का एक ऐसा चक्र आरंभ करेगी, जो क्षेत्र-विस्तार, लागत तथा संभावित विध्वंसक परिणामों की दृष्टि से अभूतपूर्व होगा । इससे ‘निरस्त्रीकरण’ की अवधारणा, तृतीय विश्व के दर्जनों देशों की विदेशी ऋण से मुक्त होने की आशाओं, अपने आर्थिक पिछड़ेपन को समाप्त करने की आशाओं, रोग एवं निरक्षरता से मुक्ति पाने के करोड़ों लोगों के स्वप्नों, नाभिकीय सर्वनाश की दिशा में तेजी से बढ़ते जाने आदि को रोकने के समस्त धरती के लोगों के विश्वास को गहरा आघात लगेगा ।

तथाकथित साम्राज्यवादी ताकतें विश्व स्तर पर हथियारों की होड़ शुरू करने के बाद एशिया, अफ्रीका तथा लैटिन अमेरिका के नए देशों को इसमें घसीट रही हैं । इसका मुख्य कारण है कि साम्राज्यवाद अपने लिए ऐसी स्थितियाँ चाहता है, जिनमें वह विकासशील देशों के अंदरूनी मामलों में मुका रूप से हस्तक्षेप कर सके, खनिज संपदा से घने इलाकों में अपना राजनीतिक, सैनिक और आर्थिक प्रभुत्व बनाए रखने तथा नवोदित देशों की जनशक्ति और प्राकृतिक संपदा का नव उपनिवेशवादी शोषण करता रहे ।

इन लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए अमेरिका ने हस्तक्षेपकारी उड़न फौज और केंद्रीय कमान, जिसका कार्य- क्षेत्र उत्तर-पूर्व अफ्रीका और फारस की खाड़ी है, का गठन किया है और ‘नाटो’ की गतिविधियों का क्षेत्र बढ़ाने के लिए हर तरह की कोशिश कर रहा है ।

एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका में हथियारों की होड़ का एक और बड़ा कारण यह है कि पश्चिमी देश राष्ट्रीय-मुक्ति आदोलन के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष का अधिकाधिक भार साम्राज्यवाद समर्थक देशों पर डालना चाहते हैं । ‘एशियार्ड’ के आर्थिक स्वरूप को बदलकर उसे सैनिक राजनीतिक मोरचे का रूप देने और साम्राज्यवाद के मार्ग पर चल रहे हिंद-चीन देशों के विरुद्ध उसके इस्तेमाल के लिए बड़ी कोशिश चल रही है ।

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ईरान में शाह के पतन के बाद अमेरिका ने दक्षिण और दक्षिण-पश्चिमी एशिया में पुलिस की भूमिका पाकिस्तान को सौंप दी । अफगानिस्तान के विरुद्ध पाकिस्तान की धरती से अघोषित युद्ध में वृद्धि और भारत से लगी सीमा पर पाकिस्तान की सैनिक तैयारी से इसकी पुष्टि होती है ।

लाल सागर क्षेत्र में उपक्षेत्रीय सैनिक-गठजोड़ों के लिए कोशिश चल रही है । आंकड़े बता रहे हैं कि तृतीय विश्व की सामाजिक और आर्थिक समस्याएँ नितांत गंभीर हैं । ‘अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन’ के अनुसार ४५.५ करोड़ व्यक्ति बेरोजगार हैं ।

औद्योगिक पूँजीवादी देशों में बेरोजगारों के मुकाबले यह संख्या सतहत्तर गुना अधिक है । संयुक्त राष्ट्र संघ के अर्किडों के अनुसार, एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका में ८० करोड़ व्यक्ति गरीबी, भूख और कुपोषण का सामना कर रहे हैं; ७० करोड़ अशिक्षित हैं और डेढ़ अरब चिकित्साहीनता की स्थिति प्राप्त कर चुके हैं ।

अर्थव्यवस्था के सैन्यीकरण के परिणामों का विश्लेषण करने पर स्पष्ट हो जाता है कि नवोदित देशों में राज्य मुख्य आर्थिक शक्ति है और आवश्यक पूँजी-विनियोग में अधिकांश केंद्र सरकार के परिव्यय से प्राप्त होता है । इसलिए सैनिक-व्यय में वृद्धि का अर्थ है इन देशों की राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में विनियोग की खासी कटौती ।

जो देश व्यापक स्तर पर हथियार नहीं बनाते, वे आयात करते हैं, जिससे व्यापार में घाटा होता है । एक बात यह भी है कि सैनिक आयात से प्राप्ति में बढ़ोतरी नहीं होती, निर्यात नहीं बढ़ता और इस कारण कर्ज की अदायगी संभव नहीं हो पाती ।

विकासशील देशों पर पश्चिमी देशों का ८१ हजार करोड़ डॉलर का कर्ज है । सैनिक साजो-सामान के आयात से साधनों की बरबादी होती है, क्योंकि न तो उपभोग बढ़ता है और न ही उत्पादन । तोहफे के तौर पर जब हथियार दिए जाते हैं तब भी गरीब देशों को रख-रखाव, मरम्मत और संबद्ध सेवाओं के लिए व्यय करना पड़ता है ।

अर्थव्यवस्था के सैन्यीकरण से मुद्रा-स्फीति बढ़ती है; सेना के रख-रखाव पर व्यय बढ़ता है और सीमित कुशल श्रम और वैज्ञानिक तकनीकी क्षमता असैनिक उद्योगों को नहीं मिल पाती, परिणामस्वरूप पश्चिम का सैनिक औद्योगिक तंत्र विकासशील देशों से ‘सैनिक सहयोग और भागीदारी’ से करोड़ों का लाभ प्राप्त करता है, उन देशों से खरीदे गए कच्चे माल पर हुए व्यय को पूरा करता है तथा ये देश कुछ वस्तुओं, सर्वोपरि तेल के मूल्य, जो यदा-कदा बढ़ा देते हैं, उसका बदला लेता है ।

इस प्रकार, सैन्यीकरण तृतीय विश्व के राष्ट्रीय विकास के कार्यों के विपरीत है, क्योंकि अफ्रीका और लैटिन अमेरिका में साम्राज्यवाद द्वारा शुरू की गई हथियारों की होड़ का नकारात्मक परिणाम विश्व में गरीबी बनाए रखने तथा करोड़ों लोगों को भूख, अशिक्षा और बीमारी में बनाए रखने के इजारेदार पूँजी के ऐतिहासिक दायित्व की एक अभिव्यक्ति है ।

इन सबसे निष्कर्ष निकलता है कि अमीर देश गरीबों की कोई चिंता नहीं करते । अंतरराष्ट्रीय मुद्रा में वित्तीय संकट से मुख्यत: अविकसित देश प्रभावित होते हैं और इस प्रकार से आर्थिक संबंधों की वर्तमान पद्धति का दिवालियापन प्रकट करते हैं । इस घोर संकट का कारण अमेरिका द्वारा द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् से अब तक अपनाई गई नीतियाँ हैं ।

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उस समय सन् १९४४ में हुए ‘ग्रेट ब्रिटेन बुड् सम्मेलन’ में अमेरिकी डॉलर के प्रभुत्व को स्वीकार किया गया था और सोने के मुकाबले इसे मुख्य अंतरराष्ट्रीय संपत्ति के रूप में स्वीकार किया गया था । इस प्रकार मुद्रा वित्तीय क्षेत्र में इस देश का वर्चस्व स्थापित हो गया था और उसने अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष और विश्व बैंक पर अपना वर्चस्व बना लिया था ।

इतना ही नहीं, अमेरिका ने अपनी व्याजदरों में वृद्धि कर न केवल विकासशील देशों को मुसीबत में डाल दिया है, प्रत्युत अमेरिका के व्यापारिक भागीदारों पर भी इसका कुछ प्रभाव पड़ा है । इस स्थिति से निबटने का केवल एक ही उपाय है कि बराबरी के आधार पर एक नई स्थायी और विश्वव्यापी अंतरराष्ट्रीय वित्तीय तथा मुद्रा पद्धति की स्थापना की जाए जिसका उधार देने और मतदान करने का दृष्टिकोण जरूरतमंद देशों की वास्तविक सहायता करना हो, न कि उसके कुछेक सदस्यों की आर्थिक शक्ति का प्रदर्शन ।

नवीन पद्धति का उद्‌देश्य यह होना चाहिए कि विकासशील देशों का भुगतान संतुलन विकृत न होने पाए और उनकी आवश्यकताओं को वास्तविकता के धरातल पर लिया जाए । अब प्रश्न यह है कि उपर्युक्त वातावरण में तृतीय विश्व अथवा ‘दक्षिणी’ राष्ट्रों का आर्थिक भविष्य क्या होगा ? अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष विश्व बैंक और अंकटाड तीनों ने ही अपनी हाल की वार्षिक आख्याओं में, जहाँ यह इंगित किया है कि विकसित राष्ट्रों की बेरोजगारी और मंदी की समस्याएँ शनै शनै समाप्त हो रही हैं वहीं दूसरी ओर ये आख्याएँ विकासशील राष्ट्रों के भविष्य को लेकर बहुत आशान्वित नहीं हैं ।

दूसरे शब्दों में-जहाँ एक ओर विकसित राष्ट्रों की विकास-दर बढ़ने की संभावना है, वहीं आगामी कुछ वर्षों में विकासशील राष्ट्रों की विकास-दर घटने की भी संभावना है । स्पष्ट है कि आगामी वर्षों में ‘उत्तर-दक्षिण’ की असमानता और भी बढ़ेगी ।

इन परिस्थितियों में ‘गुट-निरपेक्ष आंदोलन’ द्वारा प्रस्तावित ‘सामूहिक आत्मनिर्भरता’ ही विकासशील राष्ट्रों के सामने विकल्प रह जाता है । इस दिशा में ‘दक्षिण-एशियाई क्षेत्रीय सहयोग’ जैसी अवधारणाओं को बढ़ावा देना चाहिए किंतु ये दक्षिणी राष्ट्र अपने आपसी मतभेद को भुलाकर एक-दूसरे के कितने निकट आएँगे अथवा प्रयास करेंगे, यह आनेवाला समय ही बताएगा ।

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