प्राचीन भारत में कक्षा प्रणाली पर निबंध | Essay on Class System in Ancient India in Hindi.

प्राचीन ग्रन्थों में परम्परागत चार वर्णों-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र के कर्तव्यों का विस्तारपूर्वक उल्लेख मिलता है । इन्हें ‘धर्म’ भी कहा गया है । कुछ धर्म सभी वर्णों के लिये समान थे ।

महाभारत के शान्तिपर्व में नौ धर्मों को सभी वर्णों द्वारा पालनीय बताया गया है:

(i) सत्यभाषण,

(ii) क्रोध न करना,

(iii) न्यायशीलता,

(iv) क्षमा,

(v) अपनी विवाहिता पत्नी से ही सन्तानोत्पत्ति,

(vi) पवित्र आचरण,

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(vii) कलह न करना,

(viii) ईमानदारी (आर्जवम्) तथा

(ix) भृत्यों का पोषण करना ।

अर्थशास्त्र में भी ‘अहिंसा, सत्य वचन, पवित्रता, ईर्ष्या न करना, दान तथा क्षमा’ को सभी वर्षों का धर्म अथवा कर्तव्य बताया गया है । तत्पश्चात् हम विभिन्न वर्णों के विशिष्ट कर्तव्यों का निरूपण पाते हैं । कुछ कर्तव्य सामान्य परिस्थिति के थे तथा कुछ आपत्ति की स्थिति में करणीय थे । ऐसे कर्तव्यों को ‘आपद्धर्म’ की संज्ञा प्रदान की गयी है । अग्रलिखित पंक्तियों में चारों वर्णों के विशिष्ट एवं आपत्कालीन कर्तव्यों का विवेचन किया जावेगा ।

(a) ब्राह्मण:

यह समाज का सर्वाधिक पवित्र एवं सम्मानित वर्ण था जिसकी गणना वर्ण-व्यवस्था में सर्वप्रथम की जाती थी । विराट पुरुष अथवा ब्रह्मा के मुख भाग से उत्पन्न होने के कारण वह वाणी अथवा ज्ञान का भण्डार था ।

ब्राह्मण के छ: प्रधान कर्मों का उल्लेख मिलता हैं:

(a) अध्ययन,

(b) अध्यापन,

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(c) यज्ञ करना,

(d) यज्ञ कराना,

(e) दान देना तथा

(f) दान लेना ।

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महाभारत में अध्यापन, आत्मनियंत्रण तथा तप को ब्राह्मण का विशिष्ट धर्म बताया गया है । गीता में शम (अन्त:करण का निग्रह), दम (इन्द्रियों का दमन), शुद्धि, तप, क्षमाभाव, सरलता, ज्ञान-विज्ञान, आस्तिकता को ब्राह्मण का स्वाभाविक कर्म कहा गया है ।

मनुस्मृति में ब्राह्मण का विशिष्ट कर्म अध्ययन एवं अध्यापन कहा गया है । इस प्रकार यह स्पष्ट है कि ब्राह्मण अपने ज्ञान के बल पर ही सामाजिक श्रेष्ठता का अधिकारी था । इसी आधार पर उसे दण्डों से भी छूट मिली हुई थी । वह पुरोहित एवं मन्त्री के पद पर नियुक्त होने का प्रधान अधिकारी था । समस्त धार्मिक क्रियाओं का सम्पादन उसी के द्वारा किया जाता था ।

गौतम धर्मसूत्र में राजा को सलाह दी गयी है कि यह ब्राह्मण को छ: प्रकार के दण्डों से मुक्त रखे:

(i) शारीरिक यातना,

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(ii) कारावास,

(iii) जुर्माना,

(iv) देश-निष्कासन,

(v) अपमान तथा

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(vi) मृत्युदण्ड ।

कौटिल्य ने भी व्यवस्था दी है कि किसी भी प्रकार का अपराध करने वाले ब्राह्मण को मृत्यु अथवा प्रताड़न का दण्ड न दिया जाये । दण्ड के स्थान पर वह सम्बद्ध अपराध को सूचित करने वाला चिह्न ब्राह्मण के मस्तक पर अंकित किये जाने का विधान करता है ।

अपराध के अनुसार चिह्न इस प्रकार बताये गये हैं- चोरी करने पर कुत्ते का, हत्या करने पर कवन्ध (सिर-रहित शव) का, गुरूपत्नी के साथ दुराचार करने पर स्त्री की योनि का तथा मदिरा पीने पर मदिरा के बर्तन का चिह्न । इनके द्वारा लोग स्वतः उसके अपराध को जान लेंगे ।

ब्राह्मण के आपद्धर्म का भी उल्लेख प्राचीन साहित्य में प्राप्त होता है । संकट काल में वह क्षत्रिय एवं वैश्य के कर्तव्यों को अपना सकता था । उसे शस्त्र ग्रहण करने तथा शासन करने का अधिकार था । यदि इससे भी उसकी जीविका का निर्वाह न हो तो वह वैश्यवृत्ति अर्थात कृषि, पशुपालन एवं व्यापारादि के द्वारा अपना निर्वाह कर सकता था ।

किन्तु वैश्यवृत्ति ग्रहण करने पर उसे कुछ निषेधों का पालन करना पड़ता था । मदिरा, नमक, तिल, मधु, मांस, पका हुआ अन्न, पशु, मनुष्य आदि की बिक्री वह नहीं कर सकता था और न ही सूद पर धन (कुसीद) देने का कार्य कर सकता था । शूद्रककृत मृच्छकटिक से पता चलता है कि चारुदत्त नामक ब्राह्मण व्यापार द्वारा अपनी जीविका चलाता था ।

इस ग्रन्थ में वह दावा करता है कि उसका परिवार कई पीढ़ियों से इस वृत्ति का अनुसरण कर रहा था । पूर्व मध्ययुग में परम्परागत वर्णों के कर्तव्यों का नये सिरे से निर्धारण हुआ तथा प्रथम बार पराशर स्मृति में ‘कृषि’ को ब्राह्मण वर्ण की वृत्ति निरूपित किया गया ।

इससे पता चलता है कि पूर्व मध्ययुग तक अधिकांश ब्राह्मणों ने कृषि करना या कराना प्रारम्भ कर दिया था । कुछ ब्राह्मण मूर्तिपूजा द्वारा जीविका चलाते थे । उन्हें ‘देवलक’ कहा जाता था । उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा अच्छी नहीं थी । वाराह पुराण उन्हें श्राद्ध से वंचित करता है ।

(b) क्षत्रिय:

समाज का दूसरा महत्वपूर्ण वर्ण क्षत्रिय था । महाभारत में इस वर्ण के विशिष्ट धर्म अध्ययन, प्रजा की रक्षा, यज्ञ करना तथा दान देना बताये गये हैं । ऋग्वेद में इसे ही ‘क्षत्र’ कहा गया है जिसका शाब्दिक अर्थ होता है ‘क्षत्’ अर्थात हानि से रक्षा करने वाला । गीता में कृष्ण ने क्षत्रिय वर्ण के स्वाभाविक कर्मों का उल्लेख किया है ।

तदनुसार शौर्य (शूरवीरता), तेज, धैर्य, चातुर्य्य (चतुरता), युद्ध क्षेत्र से न भागना, दान देना तथा ईश्वरभक्ति, ये क्षत्रियवर्ण के स्वाभाविक कर्म होते हैं । अर्थशास्त्र में ‘अध्ययन, यजन, शस्त्र द्वारा जीविकोपार्जन तथा सभी प्राणियों की रक्षा’ को क्षत्रिय का धर्म कहा गया है ।

मनुस्मृति में ‘प्रजा रक्षण, दान, यज्ञ, वेदपठन तथा विषयों में अनासक्ति’ को क्षत्रिय का कर्तव्य माना गया है । इसमें क्षत्रिय के ऊपर ब्राह्मण की श्रेष्ठता बताते हुए लिखा गया है- ‘दस वर्ष का ब्राह्मण भी सौ वर्ष के क्षत्रिय से श्रेष्ठ होता है । दोनों की स्थिति समाज में पिता-पुत्र जैसी है ।’

सातवीं शती के चीनी यात्री हुएनसांग ने क्षत्रियों को ‘राजाओं की जाति’ बताया है । पूर्व मध्यकालीन लेखक भी युद्ध तथा शासन को क्षत्रियों की स्वाभाविक वृत्ति मानते हैं और उनकी शूरवीरता की प्रशंसा करते हैं । प्राचीन साहित्य में कुछ क्षत्रिय शासकों के नाम मिलते हैं जो अपने दार्शनिक ज्ञान के लिये प्रख्यात थे तथा उन्होंने ब्राह्मणों तक को शिक्षा प्रदान किया था ।

विदेह के राजा जनक ने याज्ञवल्क्य को शिक्षा दी तथा धार्मिक वाद-विवाद में उन्होंने ब्राह्मणों को पराजित किया था । पाञ्चल के राजा प्रवाहण जैबलि, कैकय नरेश अश्वपति आदि भी अपने ज्ञान के लिये प्रख्यात थे जिन्होंने ब्राह्मणों को शिक्षा दी थी ।

अपनी शक्ति के बल पर कभी-कभी क्षत्रिय, ब्राह्मणों के सामाजिक श्रेष्ठता के दावे की चुनौती दे देते थे । बुद्ध काल में उनकी प्रतिष्ठा ब्राह्मणों से अधिक हो गयी । स्वयं बुद्ध ने क्षत्रिय को ब्राह्मण से श्रेष्ठ बताया है । किन्तु प्राचीन शास्त्रों में क्षत्रिय को वेद पढ़ाने, दान लेने तथा यज्ञ कराने का अधिकार नहीं दिया गया है ।

क्षत्रिय का आपातकालीन धर्म वैश्यवृत्ति, कृषि एवं व्यापार था । मनुस्मृति में कहा गया है कि यदि वह व्यापार करें तो उसे तिल, नमक, पशु, मनुष्य, विष, मधु, मांस आदि का क्रय-विक्रय तथा व्यापार नहीं करना चाहिए । उसे सूदखोरी से भी विरत रहने की सलाह दी गयी है । रांगा, सीसा, हड्डी, चमड़ा, लोहा आदि के व्यापार का भी वह अधिकारी नहीं था ।

(c) वैश्य:

समाज का तीसरा वर्ण वैश्यों का था जो धन एवं सम्पत्ति के स्वामी थे । महाभारत में उनका प्रधान कर्म अध्ययन, दान देना, यज्ञ करना तथा सही ढंग से धन अर्जित करना बताया गया है । गीता में उनका स्वाभाविक कर्म ‘कृषि, गोरक्षा तथा वाणिज्य’ बताया गया है (कृषि गौरक्ष्य वाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम्) ।

कौटिल्य ने उनके प्रधान कर्म अध्ययन करना, यज्ञ करना तथा दान देना बताया है, लगता है कि बाद में वैश्यों ने अध्ययन करना छोड़ दिया तथा अपने को पूर्णतया व्यापार-वाणिज्य में लगा दिया । वार्ता उनका प्रधान विषय था जिसमें कृषि, पशुपालन एवं वाणिज्य आते थे । (कृषि पशुपाल्या वाणिज्या च वार्ता) । विद्याध्यायन से विरत हो जाने के कारण कुछ वैश्यों की गणना शूद्रों की कोटि में होने लगी । पूर्व-मध्यकाल के अरब यात्री अल्बरुनी ने वैश्यों की गणना शूद्रों में किया है । कुछ वैश्यों ने अपने पास अतुल सम्पत्ति संचित कर लिया था ।

सम्पत्ति के बल पर समाज में उन्हें अत्यन्त प्रतिष्ठित स्थान दिया जाने लगा । बुद्धकाल में उन्हें ‘गहपति’ कहा जाता था । कुछ वैश्य करोड़पति तक थे । उन्होंने बौद्ध संघों को प्रभूत धन दान में दिया । गुप्तकाल तक आते-आते उनकी सामाजिक स्थिति में परिवर्तन आया ।

अब शूद्रों को भी कृषि तथा व्यापार के अधिकार मिल गये । पूर्वमध्यकाल तक वैश्यों तथा शूद्रों की सामाजिक स्थिति लगभग एक जैसी हो गयी । पूर्व इस काल के समाज में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन यह हुआ कि वैश्यों की सामाजिक स्थिति में गिरावट आ गयी ।

कृषक के रूप में शूद्रों ने उनका स्थान ग्रहण कर लिया । पूर्वमध्यकाल का प्रथम चरण व्यापार-वाणिज्य की दृष्टि से पतनोन्मुख रहा । इस कारण वैश्य अत्यन्त निर्धन स्थिति में पहुंच गये । इस काल के कुछ ग्रन्थों में वैश्यों की दीन-हीन दशा का चित्रण मिलता है ।

स्कन्दपुराण में उल्लेख मिलता है कि- ‘कलियुग में व्यापारियों का पतन होगा । इनमें कुछ तेली तथा अनाज फटकने वाले होंगे तथा अन्य राजपूतों पर आश्रित होकर रहेंगे ।’ विष्णु पुराण में कहा गया है कि- ‘कलियुग में वैश्य कृषि तथा व्यापार छोड़ देंगे और अपनी जीविका दासकर्म एवं कलाओं द्वारा कमायेंगे ।’

इनमें यहाँ तक कहा गया कि वैश्य वर्ण का वस्तुतः विलोप हो जायेगा । अल्वरुनी के विवरण से सूचित होता है कि ग्यारहवीं शती तक आते-आते वैश्यों को वेद पाठ के अधिकार से भी वंचित कर दिया गया । किन्तु ग्यारहवीं-बारहवीं शती में व्यापार-वाणिज्य के पुनरुत्थान के साथ वैश्यों की आर्थिक स्थिति में सुधार हो गया ।

वैश्य के लिये आपातकाल में क्षत्रिय तथा शूद्र की वृत्ति अपनाने का विधान मिलता है । बौद्धायन ने उसे ‘गो’, ब्राह्मण तथा वर्ण की रक्षा के लिये शस्त्र ग्रहण करने का अधिकार दिया है । महाभारत में भी यही व्यवस्था दी गयी है । गौतम तथा मनु आपातकाल में वैश्य के लिये शूद्रवृत्ति अपनाने का विधान बताते हैं ।

इस स्थिति में उसे समाज के उच्च वर्षों की सेवा द्वारा अपनी वृत्ति चलानी होती थी । किन्तु संकटकाल समाप्त होते ही वह शूद्रवृत्ति को छोड़कर अपनी स्वाभाविक वृत्ति में चला जाता था । समाज के उपर्युक्त तीन वर्ण ‘द्विज’ कहे जाते थे । इनका उपनयन संस्कार के द्वारा दूसरा सामाजिक जन्म होता था ।

(d) शूद्र:

समाज का चतुर्थ एवं सबसे निम्न वर्ण शूद्र था । विराट पुरुष अथवा ब्रह्मा के पैरों से उत्पन्न होने के कारण उसे समाज के सभी वर्णों का भार ढोना पड़ता था । उसका मुख्य कर्म द्विजातियों अर्थात ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य की सेवा करना था । उसे अत्यन्त हेय समझा जाता था जो सभी प्रकार के अधिकारी एवं संस्कारों से रहित था ।

उसका जीवन पूर्णतया अपने स्वामी की दया पर निर्भर था । विभिन्न ग्रन्थों में उसके प्रति हीन भावों का उल्लेख प्राप्त होता है । रामशरण शर्मा ने प्राचीन भारतीय समाज में शूद्रों की स्थिति का विस्तारपूर्वक विश्लेषण किया है । उनका मत है कि पूर्व तथा उत्तर-वैदिककाल तक शूद्र को अपवित्र नहीं माना जाता था ।

जब समाज कृषि प्रधान हो गया तथा वर्णों में विभाजित हो गया तब उच्च वर्ग के लोग अपने लिये विशेष अधिकार तथा सुविधाओं की मांग करने लगे । तभी शूद्र को अपवित्र घोषित कर दिया गया । मूलतः शूद्र श्रमिक वर्ग के लोग थे । उत्तर वैदिककाल तक कोई भी कार्य अपने स्वरूप के कारण अपवित्र नहीं माना जाता था ।

यहाँ तक कि चमड़े का काम भी घृणा से नहीं देखा जाता था । शारीरिक श्रम के प्रति सम्मान का भाव मिलता है । शूद्र राजनैतिक जीवन में भी भाग ले सकते थे । रत्नियों की सूची में भी उनके नाम मिलते हैं, जैसे रथकार तथा तक्षन् ।

राजसूय एवं राज्याभिषेक जैसे- समारोहों के अवसर पर शूद्र प्रतिनिधि उपस्थित रहते थे । उत्तर वैदिककाल तक वर्षों का अन्तर प्रबल और व्यापक नहीं था । इस काल के अन्त में शूद्र के प्रति हीनता के भाव का विकास हुआ ।

शतपथ ब्राह्मण में प्रथम बार हम चारों वर्णों को बुलाने के लिये चार संबोधनों का उल्लेख पाते हैं:

(a) एहि,

(b) आगहि,

(c) आद्रव तथा

(d) आधाव ।

अब उसे अध्ययन, उपनयन आदि से वंचित कर दिया गया । वह यज्ञ में भाग नहीं ले सकता था तथा उसे अपवित्र घोषित किया गया । मांगलिक कार्यों के समय उसकी उपस्थिति दर्शन, स्पर्श आदि पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया । शर्मा की धारणा है कि शूद्रों को यज्ञों से वंचित शायद उनकी निर्धनता के कारण किया गया क्योंकि वे उन पर धन व्यय करने में समर्थ नहीं थे ।

कुछ धनी शूद्र यज्ञ में भाग ले सकते थे । उपनिषदों में कहीं-कहीं शूद्रों की हीनता का विरोध किया गया है । वृहदारण्यक तथा छान्दोग्य उपनिषदों में बताया गया है कि- ‘ब्रह्म लोक में सभी समान माने जाते हैं तथा चाण्डाल को भी यज्ञ का अवशेष पाने का अधिकार है ।’

शूद्रों की स्थिति धर्मसूत्रों के काल (ई. पू. 600-300) में सर्वाधिक दयनीय हो गयी तथा उन्हें पूर्णतया द्विजों की मर्जी पर छोड़ दिया गया । उनकी तुलना पशु से की गयी तथा उनका एकमात्र कार्य उच्च वर्णों की सेवा करना बताया गया । गौतम ने व्यवस्था दी कि शूद्र को उच्च वर्णों के भोजन का उच्छिष्ट (जूठन) ग्रहण करना चाहिए तथा उनके द्वारा उतार फेंके गये जूते, छाता, चटाई, वस्त्रादि का उपयोग करना चाहिए ।

एक स्थान पर बताया गया है कि जो वस्त्र चूहों द्वारा कटकर चिथड़ा कर दिये जाते थे, वे ही शूद्र के उपयोग के लिये होते थे । शूद्रों के ऊपर आर्थिक अशक्ततायें लाद दी गयी तथा उन्हें बेगार के लिये मजबूर किया गया । राजनैतिक संगठन में शूद्र का कोई स्थान नहीं रह गया तथा न्याय के मामले में भी उसके साथ भेदपूर्ण व्यवहार होने लगा ।

उसके लिये कठोरतम दण्ड का विधान किया गया । आपस्तम्ब तथा बौद्धायन ने यह विधान किया कि शूद्र की हत्या करने वाले व्यक्ति के लिये वही प्रायश्चित होता है जो कौवे, उल्लू मेढक, कुत्ते आदि की हत्या के लिये है । समाज में अस्पृश्यता का उदय हुआ तथा शूद्र को अछूत माना जाने लगा ।

आपस्तम्ब के अनुसार शूद्र द्वारा स्पर्श किया गया अन्न ब्राह्मण के लिये त्याज्य है । गौतम के अनुसार स्नातक को शूद्र का पानी तक नहीं पीना चाहिये । इसी काल में जैन तथा बौद्ध धर्मों का उदय हुआ । महावीर तथा बुद्ध ने छुआ-छूत का विरोध करते हुए मानव मात्र की समानता का उपदेश दिया ।

इससे शूद्रों की स्थिति में कुछ सुधार तो हुआ लेकिन वर्ण व्यवस्था के प्राचीन ढाँचे में कोई खास परिवर्तन नहीं आया । निम्न वर्ण की स्थिति यथावत् बनी रही । शूद्रों को सेवक रखने पर किसी को आपत्ति नहीं हुई । स्वयं बुद्ध का झुकाव भी कुलीन वर्ग की ओर था । वे वैश्य या शूद्र को क्षत्रिय वर्ण के ऊपर रखने को प्रस्तुत नहीं थे । इस काल के अन्त तक वैश्यों के शूद्रों में मिल जाने से उनकी संख्या और अधिक बढ़ गयी ।

शर्मा ने शूद्र वर्ण की उत्पत्ति के लिये आर्थिक कारणों को ही उत्तरदायी ठहराया है । उनके अनुसार लोहे के औजारों के प्रयोग से गंगा घाटी में बड़े-बड़े कृषि क्षेत्र अस्तित्व में आ गये । भूमि का वितरण असमान रहा । कुछ लोगों के पास बहुत अधिक भूसम्पदा थी ।

महाजनपदों के उदय के कारण बड़े-बड़े अधिकारियों का उदय हुआ जिन्हें घरेलू काम के लिये नौकरों की आवश्यकता पड़ी । धनी पुरोहितों को भी सेवकों की आवश्यकता थी । राजाओं के लिये हथियार तथा कृषकों के लिये औजार बनाने के लिये बड़े पैमाने पर शिल्पियों एवं मजदूरों की आवश्यकता पड़ी ।

इस प्रकार की परिस्थिति में जिस समाज की रचना हुई उसमें दासों, कर्मकारों, शिल्पियों एवं घरेलू सेवकों को ‘शूद्र’ की संज्ञा प्रदान की गयी । उन पर जो भारी अशक्ततायें लादी गयी उनके पीछे यह उद्देश्य था कि वे बराबर उच्च वर्गों की सेवा करें, अपने श्रम को उनकी सुख-सुविधा के लिये अर्पित करें तथा उनके विरुद्ध किसी प्रकार का विद्रोह न करें ।

मौर्यकाल तक आते-आते हम शूद्रों की स्थिति में सुधार के कुछ चिह्न देखते हैं । अर्थशास्त्र में उनका धर्म द्विजातियों की सेवा के साथ ही साथ ‘वार्ता’ अर्थात् कृषि, पशुपालन और वाणिज्य भी बताया गया है । ‘शूद्र कर्षक’ का भी उल्लेख मिलता है जिसका अर्थ है शूद्र किसान ।

स्पष्ट है कि मौर्य काल में शूद्र वार्तावृत्ति द्वारा भी अपना जीवन-निर्वाह करते थे । वे विभिन्न शिल्पों का अनुसरण करते थे । कौटिल्य ने उन्हें सेना में भर्ती होने की भी छूट दी । उन्हें सम्पत्ति रखने का भी अधिकार था । मनुस्मृति से भी पता चलता है कि शूद्र सम्पत्ति रखते थे ।

अशोक के लेखों से पता चलता है कि दासों और सेवकों के साथ उदार व्यवहार होता था । अशोक ने दण्ड तथा व्यवहार में भी समता स्थापित कर दिया । रोमिला थापर, रामशरण शर्मा जैसे विद्वान मौर्यकालीन समाज में शूद्रों की स्थिति के अत्यन्त दयनीय होने की बात करते हैं ।

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उनके अनुसार मौर्यकाल में राजकीय नियंत्रण अत्यन्त कठोर था । प्राकृतिक साधनों के अधिकाधिक उपयोग की लालसा से राज्य में शूद्र वर्ण को रोमीय हेलाटो की स्थिति में ला दिया । थापर ने बताया है कि अशोक ने कलिंग युद्ध के डेढ लाख युद्ध बन्दियों को बंजर भूमि साफ कराने तथा नई बस्तियाँ बसाने के कार्य में नियोजित कर दिया ।

शर्मा मौर्यकालीन समाज की तुलना यूनान तथा रोम के समाज से करते हुए लिखते है कि- यूनान तथा रोम में जो कार्य दास करते थे वही भारतीय समाज में शूद्र करते थे यद्यपि भारतीय समाज दास समाज नहीं था । शर्मा ने आगे बताया है कि अशोक की बहुविध घोषणायें एक आदर्शवादी शासक द्वारा इस प्रकार की कठोर नीतियों को छोड़ने की इच्छा मात्र को व्यक्त करती हैं जिन्हें यथार्थरूप कभी नहीं दिया जा सका ।

किन्तु मौर्य समाज का यह चित्रण हमारी लोकोपकारी शासन की मान्यताओं के विपरीत है तथा प्राचीन इतिहास में प्रत्येक वस्तु को शक्ति एवं सम्पत्ति के आधार पर आंकने का प्रयास है । यहाँ भारतीय सामाजिक व्यवस्था को मार्क्सवादी आधार पर विवृत करने का प्रयत्न किया गया है, जो भारतीय प्रमाणों के प्रकाश में समीचीन नहीं लगता ।

इस बात के लिये कोई आधार नहीं है कि अशोक ने डेढ़ लाख युद्धबन्दियों को बंजर भूमि साफ करने के लिये निवासित कर दिया । अशोक कहीं अपने उद्देश्य पर प्रकाश नहीं डालता । निर्वासन के लिये अन्य कारण भी रहे होंगे । संभव है कि विद्रोह की आशंका को समाप्त करने के लिये उन्हें हटाया गया हो ।

इसी प्रकार मात्र कार्यों की समता के आधार पर हम यूनानी-रोमन दासों की कोटि में भारतीय दासों को कदापि नहीं रख सकते । जो कार्य प्राचीन समय में यूनानी-रोमन दास करते थे, वे सभी कार्य आज के मजदूरों द्वारा किया जाता है । किन्तु मात्र कार्यों के आधार पर ही आधुनिक मजदूरों को हम दास नहीं कह सकते ।

यदि हम यूनानी-रोमन दासों को भारतीय शूद्र मान लें तो मानना पड़ेगा कि यहाँ शूद्र स्वतंत्र किसान नहीं थे । अर्थशास्त्र के प्रमाण से स्पष्ट हो जाता है कि मौर्य काल में शूद्र को सम्पत्ति रखने, कृषि करने, पशुपालन तथा व्यापार के स्वतंत्र अधिकार मिले हुए थे ।

उसे कृषियोग्य भूमि खरीदने का भी अधिकार था । दायगत नियमों में वर्णसंकर जातियों तक की उपेक्षा नहीं की गयी है । अत: मौर्यकालीन शूद्रों की दशा यूनानी-रोमन दासों से कहीं अधिक अच्छी थी । गुप्तकाल तक आते-आते शूद्रों ने वैश्यों का स्थान ग्रहण कर लिया । वे पूर्णतया कृषि तथा व्यापार का कार्य करने लगे । गुप्तकालीन स्मृतियाँ शूद्रों को सभी प्रकार के वस्तुओं की बिक्री का अधिकार प्रदान करती हैं । वैश्यों ने कृषिकर्म त्याग दिया तथा यह पूर्णतया शूद्र वर्ण का एकाधिकार हो गया ।

पूर्वमध्यकाल में शूद्र कृषक ही थे । शूद्रों की स्थिति में यह परिवर्तन सामन्ती प्रवृत्तियों के विकसित हो जाने के कारण हुआ । भूमि अनुदानों की अधिकता के कारण सामन्तों तथा भू-स्वामियों की संख्या अधिक हो गयी । इन्हें अपने खेतों पर काम कराने के लिये घड़ी संख्या में श्रमिकों की आवश्यकता पड़ी ।

इसकी पूर्ति शूद्र वर्ण द्वारा ही संभव थी । प्रभूत उत्पादन के कारण शूद्रों को भी कृषि की आय का अच्छा लाभ प्राप्त होने लगा जिससे उनकी आर्थिक दशा काफी अच्छी हो गयी । इस प्रकार शूद्रों ने कृषि को वैश्यों के अधिकार से छीन लिया । बी. एन. एस. यादव का विचार है कि बारहवीं शती तक समाज में जाति प्रथा के विरोध की जो भावना प्रबल हुई उसके लिये निम्न वर्गों की आर्थिक स्थिति में सुधार होना भी एक प्रमुख कारण था ।

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पूर्व मध्यकालीन समाज में शूद्रों की संख्या बहुत अधिक बढ़ गयी । शूद्रों का एक वर्ग पवित्र आचरण युक्त था तथा शास्त्रों के आदेशानुसार धार्मिक क्रियाओं का सम्पादन करता था । इसे समाज में प्रतिष्ठित स्थान मिला हुआ था । पूर्वमध्य युग के टीकाकार मेधातिथि एवं विश्वरूप ने उन्हें व्याकरण आदि विषय के ज्ञान प्राप्त करने का अधिकार देते हुए यह व्यवस्था दी कि वे स्मृति विहित सभी धार्मिक कार्यों को कर सकते हैं ।

लक्ष्मीधर के अनुसार विशुद्ध मन तथा मस्तिष्क वाला शूद्र व्यक्ति पतित ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य वर्ण के व्यक्ति की अपेक्षा श्रेष्ठतर होता है । नारद स्मृति के टीकाकार असहाय ने मत व्यक्त किया कि शूद्र आपातकाल में क्षत्रिय की वृत्ति अपना सकता है ।

किन्तु समाज में शूद्रों का एक अन्य वर्ग भी था जो हीन वृत्ति एवं अपवित्र आचरण वाला था । इन्हें चाण्डाल आदि कहा गया तथा इनकी सामाजिक प्रतिष्ठा अच्छी नहीं थी । इनकी गणना अछूतों में की जाती थी । अछूतों को ‘अन्त्यज’ कहा गया है जो गाँवों तथा नगरों की सीमा के बाहर निवास करते थे । अनेक पेशेवर जातियाँ इस समय अछूतों की श्रेणी में शामिल कर ली गयीं तथा अस्पृश्यता सम्बन्धी नियमों को विस्तृत बना दिया गया ।

अल्बरूनी के अनुसार धोबी, मोची, बाजीगर, मछुआरे, शिकारी, जुलाहे आदि भी अन्त्यज माने जाते थे । धर्मशास्त्रों, मिताक्षरा आदि में सात प्रकार के अन्त्यजों का उल्लेख मिलता है जिनमें ‘चाण्डाल’ प्रमुख थे । अपरार्क तथा विज्ञानेश्वर जैसे टीकाकारों ने यहां तक कहा है कि चाण्डाल की छायामात्र पड़ने से मनुष्य दूषित हो जाता है ।

कल्हण के विवरण से पता चलता है कि उसके समय में अस्पृश्यता का भय बहुत बढ़ गया था । इस काल के स्मृतिकारों ने बौद्ध, जैन, वाममार्गी शाक्त आदि सम्प्रदायों के अनुयायियों तक को अस्पृश्य घोषित कर दिया । प्रायः अभी शास्त्रकारों ने शूद्र को आपत्काल में वैश्यवृत्ति द्वारा जीविका निर्वाह करने की अनुमति प्रदान की है ।

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