बाह्य अंतरिक्ष के सैन्यीकरण का औचित्य पर निबन्ध | Essay on Justify the Militarization of Outer Space in Hindi!

संहारक अस्त्रों के क्षेत्र में आज हमने इतनी प्रगति कर ली है कि अब परमाणु अस्त्र भी दो महाशक्तियों के लिए अपने-अपने देशों की रक्षा करने के लिए पर्याप्त नहीं रह गए हैं । अब वे प्रकाश की गति जैसे ऊर्जा-संपन्न अस्त्रों का विकास कर चुके हैं । वह इसलिए ताकि हमलावर देश के प्रक्षेपास्त्रों का प्रक्षेपण के दौरान ही सफाया किया जा सके ।

आधुनिक अस्त्रों का विकास:

भूमि पर, जल में और आकाश में युद्ध लड़ना तो अब आम बात हो गई है । अब अंतरिक्ष में युद्ध लड़ने की तैयारियाँ की जा रही हैं । रूस और अमेरिका एक-दूसरे के विरुद्ध उपग्रहों के द्वारा अंतरिक्ष जासूसी तो पहले ही से कर रहे हैं ।

अमेरिका एक सफल प्रयोग करके इस दिशा में रूस से अग्रणी हो गया है कि यदि दुश्मन का कोई परमाणु मिसाइल उसके देश की ओर बढ़ता है तो उसे बीच आकाश में ही नष्ट कर दिया जाए । यह प्रयोग लॉस एंजिल्स के निकट ‘वाडेन वर्ग’ नामक स्थान पर किया गया ।

वाडेन वर्ग से उसने एक ‘मिनटमैन’ मिसाइल छोड़ी थी । इसके ऊपर एक नकली परमाणु अस्त्र-मुख लगाया गया था । यह प्रक्षेपास्त्र अर्ध-चंद्राकार बनाता हुआ प्रशांत महासागर के ऊपर आगे बढ़ा । इसके ठीक ४० मिनट बाद ४,२०० मील दक्षिण-पश्चिम में प्रशांत महासागर के मार्शल द्वीप से एक छोटा रॉकेट छोड़ा गया था ।

रॉकेट की दिशा इस तरह से निर्धारित की गई थी कि यह उस मिसाइल से टकराए । रॉकेट पर इन्क्रारेड सेंसर लगे हुए थे, जिनका काम यह है कि वह रॉकेट को अपने लक्ष्य अर्थात् मिसाइल तक पहुँचने से भटकने न दे । २२ हजार फीट प्रति सेकंड के वेग से आती हुई मिसाइल को उसने थाम लिया और दोनों ही नष्ट हो गए ।

इस तरह अंतरिक्ष में ही दुश्मन की परमाणु मिसाइल को मार गिराने का प्रयोग संपन्न हुआ । परमाणु अस्त्रों से संबंधित युद्ध-नीति में वास्तव में अब तक अनेक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किए जा चुके हैं । इसके प्रारंभिक चरण में केवल अमेरिका परमाणु अस्त्र-संपन्न देश था ।

हिरोशिमा और नागासाकी पर बहशी प्रदर्शन करके उसने अपनी प्रभुत्व-संपन्नता का परिचय दिया था और अपनी इस शक्ति को उसने विश्व की शक्ति के लिए पर्याप्त भी मान लिया था । किंतु जब भी परमाणु और उदजन (हाइड्रोजन) बमों को तैयार करके उसके समकक्ष लाया गया तब उसका मोहभंग हुआ और उनमें परस्पर होड़ शुरू हुई । इस प्रकार अपना-अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए विश्वशांति दाँव पर लगा दी । इस समय उसी वर्चस्व को कायम रखने की आड़ में सब तरह की तैयारियाँ चल रही हैं ।

इसके बाद अमेरिका ने एक कदम और आगे बढ़कर अपनी प्रहारक-शक्ति में ऐसे अस्त्रों का समावेश किया, ताकि रूस द्वारा उसके समर्थक यूरोपीय देशों पर आक्रमण करने की स्थिति में उसके अस्त्रों और सैन्य दलों का एक साथ सफाया किया जा सके । इस प्रकार परमाणु-संपन्न देशों के मन में एक-दूसरे के प्रति जो विश्वास पैदा हुआ, वह धीरे-धीरे बढ़कर वर्तमान स्थिति में आ पहुँचा है ।

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अगर अमेरिका ने रूस की परमाणु- क्षमता पर अविश्वास करके उसे अपने लिए चुनौती न माना होता तो वर्तमान स्थिति पैदा न हुई होती और इस अभूतपूर्व विकास कार्यक्रम का स्वरूप कहीं अधिक हितकर और विश्व के उज्ज्वल भविष्य के रूप में होता । इसके बाद अमेरिका के पूर्व रक्षा सचिव चेम्स शलिंगर द्वारा विकसित ‘प्रतिरोधात्मक शक्ति’ पीढ़ी के युद्धास्त्रों का युग आरंभ हुआ ।

यह नीति वास्तव में, जिस अविश्वास के सिद्धांत पर आधारित थी, उसका आधार यह था कि संभव है अमेरिका को कमजोर पाकर रूस उसपर आक्रमण कर बैठे, इसलिए अमेरिका उसे इस बात का पक्का विश्वास दिला देना चाहता था और अब भी इसी कोशिश में है कि वह वास्तव में इतना शक्ति-संपन्न है कि उसने न केवल रूस के प्रमुख नगरों, जनसंख्या, सकल केंद्रों और औद्योगिक क्षेत्रों को अपने अस्त्रों के निशाने के दायरे में लिया हुआ है, अपितु वह उसके सैनिक अड्‌डों को नष्ट करने की क्षमता रखता है ।

अब अमेरिका की आधुनिकतम युद्ध-नीति का सिद्धांत यह विश्वास दिलाता है कि वह रूस के प्रक्षेपास्त्रों को अपनी भूमि और प्रक्षेपास्त्र ठिकानों के निकट पहुँचने से पहले ही हवा में ध्वस्त कर सकता है और इस उद्‌देश्य को पूरा करने का एकमात्र साधन है:

‘नक्षत्र अस्त्रों का विकास ।’

इसके अतिरिक्त अमेरिका और रूस परोक्ष तरीकों से भी अंतरिक्ष को असुरक्षित बना रहे हैं, जिनके प्रभाव संहारक तो हैं ही, प्रदूषणकारी भी हैं ।

संक्षेप में इनको निम्नलिखित तरीकों से समझा जा सकता है:

१. अंतरिक्ष के गौरवमय विकास के साथ-साथ इस बात की भी चिंता होती है कि अंतरिक्ष युद्ध न केवल पर्यावरण को दूषित करके चतुर्दिक् विषैली गैसें प्रक्षिप्त करेगा, अपितु जिस बड़े पैमाने पर आज अंतरिक्ष में उपग्रह भेजे गए हैं और भेजे जा रहे हैं, उनको देखते हुए इस युग से संपूर्ण सृष्टि के विनाश का खतरा भी उत्पन्न हो सकता है ।

अकेले स्काई लैब के गिरने की आशंका से आज से कई वर्षों पहले संपूर्ण विश्व में हाहाकार मच गया था, तो जब प्रतिपल उपग्रह, अंतरिक्ष स्टेशन और अंतरिक्ष शटल टकराकर गिरने लगेंगे तब क्या स्थिति पैदा होगी, यह विचारणीय है ।

२.अंतरिक्ष युद्ध की तैयारियों को लेकर रूस और अमेरिका एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगा रहे हैं, लेकिन वास्तविकता यह है कि दोनों ही देश इसमें परस्पर प्रतिद्वंद्विता कर रहे हैं । यदि रूस ‘सैल्युट-७’ अंतरिक्ष स्टेशन को पिछले कई वर्षों से अंतरिक्ष में स्थापित कर अपने अंतरिक्ष यात्रियों को भेजता और वापस बुलाता रहा है तथा अंतरिक्ष प्रयोग की व्यापक तैयारियाँ कर रहा है तो अमेरिका ने कोलंबिया और चैलेंजर जैसे अंतरिक्ष यानों का निर्माण करके और उनके सफल प्रक्षेपण को प्रदर्शित करके यह साबित कर दिया है कि वह इन यानों के माध्यम से बड़े पैमाने पर अस्त्रों को अंतरिक्ष में भेज सकता है ।

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जब अमेरिकी अंतरिक्ष यान ‘चैलेंजर’ को अंतरिक्ष में भेजकर एक उपग्रह की मरम्मत की गई थी तब इस बात का प्रमाण मिल एका था कि अमेरिका युद्ध की तैयारी में पूरी तरह जुट गया है ।

३.यदि केवल अंतरिक्ष प्रयोगों तक इस तरह के अभियानों का लक्ष्य होता तो कोई बात नहीं थी, लेकिन वास्तविकता यह है कि इन उपग्रहों और यानों के माध्यम से पृथ्वी का चप्पा-चप्पा छान लिया जाता है ।

रूस ने जो प्रयोगशाला अंतरिक्ष में स्थापित की है, इसके लिए धरती से खाद्य-सामग्री और ईंधन भेजा जाता है, ताकि उसमें कार्यरत अंतरिक्षयात्री किसी तरह की परेशानी महसूस न करें, अत: आवश्यकता पड़ने पर इस प्रयोगशाला को अस्वगृह भी बनाया जा सकता है ।

उसी प्रकार अंतरिक्ष शटल ‘कोलंबिया’ और ‘चैलेंजर’ में ढोकर कुछ भी ले जाया जा सकता है । कोलंबिया की भुजा ५० फीट लंबी है, जिससे अंतरिक्ष में किसी शत्रुपक्षीय उपग्रह या यान को खींचकर या धक्का देकर उसको पथभ्रष्ट करके ध्वस्त किया जा सकता है ।

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इसके अतिरिक्त इस तरह की भुजा से उपग्रहों को पकड़कर उनको बंदी भी बनाया जा सकता है । इस भुजा में कंधों, कोहनियों और कलाइयों की करामातें भी हैं, जो कि इस तरह के कार्यों के लिए दक्ष हैं । इसके साथ ही, इसी भुजा में लगे कैमरे शटल के चारों ओर और उसके आस-पास का सारा दृश्य अंदर बैठे अंतरिक्षयात्रियों तथा धरती पर स्थित नियंत्रण-कक्ष को दिखाने में समर्थ हैं ।

४.अमेरिका ने जो नई योजना तैयार की है, उसके अंतर्गत अब ‘एफ- १५’ से एक ऐसा उपग्रहवेधी प्रक्षेपास्त्र छोड़ा जा सकेगा, जो कम ऊँचाई से ही उपग्रहों को नष्ट करने में समर्थ होगा । यद्यपि अमेरिका की नई सैनिक तैयारियों की ओर विश्व का ध्यान गया है तथापि वास्तविकता यह है कि रूस इस दृष्टि से अमेरिका से कहीं आगे है ।

उसने उपग्रह-ध्वंसक आयुध ही नहीं तैयार कर लिये हैं, अपितु बम बरसानेवाला एक ऐसा अंतरिक्ष यान बनाने और उसका परीक्षण करने में सफलता प्राप्त कर ली है, जो अंतरिक्ष में अपनी कक्षा के अंतर्गत परिक्रमा करता हुआ बम बरसा सकता है ।

अमेरिकी अधिकारियों के अनुसार, नक्षत्र अस्त्रों के विकास पर एक सौ अरब डॉलर से अधिक धनराशि खर्च करनी पड़ सकती है, क्योंकिरूस आधुनिकतम प्रतिरक्षात्मक अस्त्रों का विकास करने में काफी प्रगति कर चुका है ।

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अमेरिका जिस प्रकार के अंतरिक्ष अस्त्रों को बनाना चाहता है, वे हैं अंतरिक्ष में अस्त्रों की व्यूह-रचना करने के लिए क्षिप्र गति कंप्यूटर, अंतरिक्ष आधारित प्रक्षेपास्त्रों की जासूसी करनेवाले अवरक्त किरण (इन्फ्रारेड) सेंसर, महाद्वीपीय युद्धास्त्र केंद्रों को सही इंगित करने और खोज करने में सक्षम लेजर किरण प्रौद्योगिकी और ऐसे विशाल दर्पणों का विकास एवं निर्माण, जो प्रक्षेपित अस्त्रों को लेजर किरणों से खंड-खंड कर नष्ट कर सकें ।

एक वरिष्ठ अमेरिकी अधिकारी के शब्दों में- ”अमेरिका को इतने ‘रोबस्ट’ यानी सुदृढ़ रक्षा प्रणाली का विकास करना है, जो रूसियों को इस बात का एहसास करा दे कि उनके प्रतिरोधी रक्षात्मक उपाय उनके काम नहीं आएँगे ।”

नक्षत्र उस्त्रों की आलोचना:

‘स्टॉकहोम अंतरराष्ट्रीय शांति अनुसंधान संस्थान’ (सिप्री) द्वारा स्टॉकहोम में ‘एक्सरे लेजर’ पर आयोजित एक परिसंवाद में भाषण देते हुए अमेरिकी शासन की सुरक्षा नीतियों के प्रबल आलोचक अमेरिका के एक अग्रणी भौतिकविज्ञानी मैसाचुसेट्‌स ईस्ट-कूट ऑफ टेस्नोलॉजी के प्रोफेसर कोस्टास ट्‌सीपिस ने कहा कि अमेरिकी राष्ट्रपति के अंतरिक्ष युद्ध के मूल में एक्सरे लेजर किरण की कल्पना अवास्तविक है ।

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उसमें उन्होंने चार मुख्य दोष बताए जो निम्नलिखित हैं:

१. लेजर किरण को क्रियाशील बनाने के लिए पर्याप्त मात्रा में ऊर्जा तैयार करना संभव नहीं है ।

२. रूस की ओर से आक्रमण होने पर अमेरिका को कभी इतना समय नहीं मिल

पाएगा कि वह लेजरयुक्त प्रक्षेपास्त्र का प्रयोग कर सके । पृथ्वी के बजाय यदि उसने उन्हें पृथ्वी की कक्षा में स्थापित किया तो बम द्वारा उनको नष्ट करने का खतरा रहेगा । लेजर द्वारा प्रयुक्त ऊर्जा को उन्मुक्त करने के लिए परमाणु विस्फोट करना आवश्यक होगा ।

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इसके फलस्वरूप रूसी आक्रमण की टोह लेनेवाले उपग्रह के साथ-साथ अमेरिकी सैनिक भी चकाचौंध के कारण ध्वस्त हो जाएँगे । लेजर किरण को अप्रभावी बनाने के लिए प्रतिरोधी उपाय करना सरल है । इसके लिए रूस अपने प्रक्षेपास्त्रों को स्वयं ढक सकता है या उनपर एल्युमिनियम का पतला-सा खोल चढ़ाकर सुरक्षित कर सकता है ।

प्रो. कोस्टास के अलावा उदजन बम बनानेवाले अमेरिकी वैज्ञानिक डा. रॉबर्ट टेलर, जो अंतरिक्ष अस्त्रों के पक्षधर हैं, के साथ हेय बेथे और रिचर्ड गार्विन भी इस योजना को इसलिए असंभव बताते हैं, क्योंकि अंतरिक्ष स्थित अथवा भू-अंतरिक्ष लेजर किरणों से देश को पूरी सुरक्षा प्रदान नहीं की जा सकती । कारण-अंतरिक्ष में स्थित उनके यंत्रों को आसानी से निशाना बनाया जा सकता है ।

भारत का विरोध:

जुलाई १९८४ में अंतरिक्ष के शांतिपूर्ण उपयोग से संबंधित संयुक्त राष्ट्र समिति के दस दिवसीय सम्मेलन में सबसे पहले भारत ने अंतरिक्ष अस्त्रों के विकास और उनके परीक्षण पर रोक लगाने की माँग की थी । प्रो. यू.एस. राव का कहना था कि किसी ऐसे परीक्षण पर, जिसमें अंतरिक्ष के शांतिपूर्ण उपयोग के लिए खतरा पैदा होता हो, रोक लगाई जानी चाहिए । इसके पहले कि अंतरिक्ष विनाशकारी अस्त्रों से भर जाए हमें इस प्रश्न पर गंभीरता से विचार करना चाहिए ।

यद्यपि रूस ने भारत के इस प्रस्ताव का समर्थन किया था, तथापि अमेरिका ने पश्चिमी देशों के समर्थन के साथ इसे ठुकरा दिया । वैसे अमेरिकी सीनेट ने उपग्रहवेधी अस्त्र का परीक्षण करने पर प्रतिबंध लगा दिया है ।

पूर्व राष्ट्रपति जिमी कार्टर, पूर्व राज्य सचिव डीन-रस्क आदि ४६ प्रमुख राजनेताओं ने इस बात की चेतावनी दी है कि अमेरिका की ‘नक्षत्र युद्ध’ प्रक्षेपास्त्र सुरक्षा योजना से सन् १९७२ की एंटी बैलिस्टिक मिसाइल (ए.बी.एस.) संधि का उल्लंघन होगा । इसलिए अरबों डॉलर के उस खर्च पर प्रतिबंध लगाने के लिए हम अमेरिकी कांग्रेस को तैयार करने का प्रयत्न कर रहे हैं ।

अंतरिक्ष और तीसरा विश्वयुद्ध:

सच तो यह है कि आज अमेरिका तथा रूस, दोनों के वैज्ञानिक शोध संस्थानों तथा सैनिक अनुसंधान केंद्रों में भविष्य के लिए गुप्त-रीति से नई पीढ़ी के शस्त्रास्त्र विकसित करने की होड़ सी लगी हुई है । इन शस्त्रास्त्रों का वेग प्रचंड होगा तथा विध्वंस क्षमता असीम होगी । इनमें कुछ ही मिनटों के अंदर अंतरिक्ष में पहुँचकर सभी भू-उपग्रहों को नष्ट कर डालने की शक्ति होगी ।

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यहाँ तक कि शत्रु का अंतर्महाद्वीपीय प्रक्षेपास्त्र पृथ्वी पर स्थित लक्ष्य पर पहुँच सके, उसके पूर्व ही ये उसे वायुमंडल में ही नष्ट कर सकेंगे । इस उद्‌देश्य की पूर्ति के लिए सामान्यत: दो प्रक्रियाओं में से एक को अपनाने की बात सोची जा रही है । पहली क्रिया में आवेशित कणों (जैसे-इलेक्ट्रॉन, प्रोटीन या आयन) की तीन बौछारें कराकर लक्ष्य को नष्ट किया जाएगा ।

दूसरी प्रक्रिया में लेजर किरणों के जरिए लक्ष्य को गला दिया जाएगा । २० हजार वट की औद्योगिक लेजर किरणें कुछ ही सेकंड में ३ सेंटीमीटर मोटे इस्पात को काट देती हैं । रूस तथा अमेरिका के सैनिक शोधकर्ता इस समय ५० लाख वट का लेजर तैयार करने के लिए प्रयत्नशील हैं ।

लेजर गन का उपयोग करके वायुयान तथा प्रक्षेपास्त्र को मार गिराने का प्रदर्शन अमेरिका पहले ही कर चुका है । अब गन के आकार को अपेक्षाकृत छोटा करने तथा विध्वंसक किरणों को समुचित रूप में केंद्रीकृत करने की प्रक्रिया पर अनुसंधान जारी है ।

रूस भी इन दोनों प्रक्रियाओं के उपयोग में कौशल प्राप्त करने के लिए कृत-संकल्प है । कृत्रिम भू-उपग्रहों को आधार बनाकर विश्व की इन दोनों महाशक्तियों ने अपनी-अपनी जो सैनिक तैयारियों की हैं, उन्हें देखते हुए यह कहना ही पड़ता है कि अगर तृतीय विश्वयुद्ध होगा, तो वह अंतरिक्ष में ही आरंभ होगा ।

यद्यपि सन् १९६७ की संधि द्वारा अंतरिक्ष के सैन्यीकरण पर रोक लगा दी गई ढ़ै और अमेरिका व रूस ने उसपर हस्ताक्षर किए हैं, तथापि रूस और अमेरिका के शक्ति- परीक्षण के कारण विश्व को नियंत्रित करने के लगातार प्रयासों के कारण यह संधि मात्र कागज का एक टुकड़ा बनकर रह गई है ।

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