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बुनियादी समस्याओं से उपजी सामाजिक अंधता पर निबंध | Essay on Social Blindness from Basic Problems in Hindi!

रोटी, कपड़ा और मकान की बुनियादी समस्याओं से जूझ रहे समाज का मौजूदा आतंकवाद ने संतुलन बिगाड़ दिया हैं । समाज इस विषय में सोच रहा है, और उसे अंदर तक महसूस भी कर रहा है । फिर भी आतंकवाद सिमटने की बजाय बढ़ता ही जा रहा है । धृतराष्ट्र बने समाज को प्रतीक्षा है कि कोई करिश्मा हो जाए …… ।

आतंकवादी संगठन समाज के निचले तबके के अनाथ युवकों को निशाना बनाते हैं जो औरों से अधिक गुस्सैल और महत्वाकांक्षी होते हैं । धीरे-धीरे ये मासूम युवक खतरनाक उपद्रवी बन जाते हैं जिस तरह अनेक हाथों से बंदूक और गोलों से बम अलग करना मुमकिन नही, उसी तरह अनेक ख्यालों से नफरत निकाल पाना संभव नही हो पाता।

आतंकवादी संगठनों ने इस बात को बखूबी समझ लिया है कि आतंकवादी पैदा नहीं होते, उन्हें बनाया जाता है, और युवाओं से अधिक निपुण पूँजी उनके लिये क्या हो सकती है । आंतकवाद के पीछे लाखों लोगों का हाथ नहीं है । वे लोग तो गिने चुने ही है, बस उन्होंने आंतकवादी ‘गढ़ना’ शुरू कर दिया है ।

आज इराक और फिलिस्तीन में अधिकतर आत्मघाती हमलावर 12 से 24 वर्ष के मध्य के हैं । कश्मीर की घटना में मारे गये उपद्रवियों में से करीब 20 प्रतिशत 25 वर्ष की आयु से छोटे होते हैं । उत्तर पश्चिम की वादियों में हजारों युवा विद्यालयों के स्थान पर उपद्रवी छावनियों में शिक्षित होते है । जितनी विस्तृत शिक्षा उन्हें दी जाती है, उतने ही वृहत और दर्दनाक उनके नतीजे होते हैं ।

आज इसी कारण हम पायेंगे कि गरीब देश आतंकवाद पकाने वाली भट्‌टियाँ बन गये हैं । एशिया और अफ्रीका के वह देश, जो आर्थिक रूप से सुदृढ़ नही हैं, उनमें आतंकवाद को पेशे का दर्जा मिल चुका है । इस असंपत्र राज्यों के उपद्रवी जो अपने कंधो पर पूरे विश्व की मुक्ति का जिम्मा उठा लेते हैं । उस समाज के खिलाफ प्रतिद्रोह करना चाहते हैं, जो उनकी असंपत्रता को रौंदकर संपन्न हो उठा है ।

ये उपद्रवी ताउम्र यही समझते हैं कि वह समाजरूपी दैत्य के विनाश में महत्वपूर्ण हाथ बँटा रहे हैं । उन बेसहारा, बेचारों के नजरिए देखने का प्रयास कीजिए और आप पायेंगे कि उनके मन में जो जहर घोला गया है, वह दरअसल कड़वा सच है ।

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यह सच है कि उनके मन में सच का रूप बिगड़ा हुआ है, पर सच यह भी है कि हम भी अपनी क्षमतानुसार समाज के प्रति अपने दायित्वों को नही निभाते । कई बार तो हम यह भी भूल जाते हैं कि हम एक समाज में रहते हैं और हमारी उस समाज के प्रति कई जिम्मेदारियाँ भी है । आखिर समाज क्या है, कौन है? समाज तो वही है जो उसके सदस्य उसे बनाना चाहते हैं और उसके सदस्य यदि अपनी जिम्मेदारियों को ही नजरदांज करने लगे, तो ऐसे समाज का क्या कहना ।

पर न समाज कभी अपनी गलती मानेगा और न ही कभी आतंकवादी आतंकवाद का समर्थन करना छोड़ेगें । दोनों को सफेद और काले के दो दूरस्थ छोरों में विभाजित करना किसी अपराध से कम नहीं होगा । दोनों की व्याख्या ‘ग्रे’ तत्वों के माध्यम से की जा सकती है ।

आतंकवाद का जन्म सामाजिक त्रुटियों के फलस्वरूप ही हुआ है । जैसे शैतान कभी भगवान का पुजारी था, उसी तरह आतंकवाद ने कई दशकों तक समाज के भीतर ही शरण ली । पर अब वही शरणार्थी, शैतान ही किस तरह अपने-अपने जन्मदाता पर धावा बोल चुका हैं किन्तु समाज अभी भी सजग नहीं हुआ है । वह इतने मनन के बाद भी आतंकवाद रूपी दावानल को हवा दिए जा रहा है ।

समाज की उत्पत्ति के साथ ही असामाजिक तत्वों ने भी जन्म लिया । जिस तरह कोई कुटुम्ब सदियों तक एकजुट नहीं रह सकता, उसमें फूट डालने वाले कपूत जन्म लेते हैं, ठीक उसी तरह समाज को भी समय-समय पर ऐसे तत्वों का सामना करना पड़ता है जो उसकी नींव को हिलाने की कोशिश करते हैं । सामाजिक संपन्नता का सही मापदंड यही है कि समाज इन विकारों को कितनी स्फूर्ति से दरकिनार करता है और कितनी कुशलता से इनका संपूर्ण सफाया करता है ।

इसलिए यदि हम ऐसी सामाजिक व्यवस्था का निर्माण करने की तमन्ना मन में रखते हैं जिसका अस्तित्व सदियों तक बना रहे, जो समाज के एक-एक अंग को, चाहे बड़ा हो अथवा छोटा, अमीर हो, अथवा गरीब, प्रभावशाली हो अथवा नहीं, ज्ञानी हो अथवा नहीं, यह दृढ़ संकल्प करना होगा कि हम इन असामाजिक दानवों को कदापि बढ़ावा नही देंगे और साथ-रही-साथ अपनी क्षमतानुसार उनसे लड़ने में पूरे समाज की मदद करेंगे, और हम पाएँगे कि धीरे-धीरे ही सही, हम एक आदर्श समाज के स्वप्न को साकार कर लेंगे ।

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