भारत में पारिवारिक प्रणाली पर निबंध | Essay on Family System in India in Hindi.

भारतीय  कुटुम्ब अथवा परिवार का अर्थ (Meaning of Indian Family Organization / System):

प्राचीन सामाजिक संस्थाओं में कुटुम्ब या परिवार का विशिष्ट स्थान है । यह प्राचीन जीवन की मूलभूत इकाई है । परिवार के माध्यम से ही मनुष्य अपना उत्कर्ष करता है । परिवार से ही समाज का निर्माण होता है तथा यही नागरिक जीवन की प्रथम पाठशाला है ।

कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जो परिवार से संबद्ध न हो । हमारी आवश्यकतायें परिवार के माध्यम से ही पूरी होती है । परिवार के अभाव में समाज का अस्तित्व ही संभव नहीं है । परिवार मनुष्य के जीवन की रक्षा करता है तथा जैविकीय आवश्यकताओं को पूरा करता है । समाज की निरंतरता परिवार के माध्यम से ही बनी रहती है ।

बर्गेस तथा लॉक ने परिवार को ऐसे व्यक्तियों का समूह बताया है जो विवाह, रक्त या गोद लेने के संबन्धों से निर्मित होता है । इसमें एक ऐसी गृहस्थी का निर्माण होता है जिसमें पति-पत्नी, पुत्र-पुत्री तथा भाई-बहन एक दूसरे को प्रभावित करते हुए तथा परस्पर सम्पर्क रखते हुए एक सामान्य संस्कृति की रचना करते तथा उसे सुरक्षित बनाये रखते हैं । इस प्रकार परिवार के सदस्य परस्पर रक्त-संबंध से आबद्ध होते हैं ।

परिवार में पति, पत्नी, पुत्र-पुत्री तथा दूसरे निकट संबंधी सम्मिलित होते हैं । परिवार का प्रधान आधार विवाह होता है । इसका प्रारम्भ एक प्रजनक अथवा जैविक संस्था के रूप में हुआ जो बाद में मनुष्य के लिये सर्वाधिक महत्वपूर्ण सामाजिक इकाई बन गया । सामाजिक महत्व की दृष्टि से कोई भी संगठन परिवार का अतिक्रमण नहीं कर सकता है ।

भारतीय कुटुम्ब अथवा परिवार संस्था का विकास (Growth of an Indian Family or Family Organization / System):

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भारत में परिवार संस्था का अस्तित्व अत्यन्त प्राचीन काल से ही विद्यमान रहा है । आर्यों के प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद से इस संस्था के स्वरूप पर प्रकाश पड़ता है । ज्ञात होता है कि पूर्व वैदिक काल में संयुक्त परिवार की प्रथा थी जिसमें माता-पिता, पति-पत्नी, भाई-बहन, पुत्र-पुत्री आदि के साथ ही साथ अन्य सम्बन्धी भी निवास करते थे ।

वे सब एक ही घर में रहते थे, साथ-साथ भोजन करते थे, एक धर्म का पालन करते थे तथा परिवार की सम्पत्ति पर सभी का अधिकार होता था । परिवार पितृसत्तात्मक होता था । इसमें पिता परिवार का निरंकुश शासक होता था तथा सभी सदस्यों को उसकी आज्ञाओं का पालन अनिवार्य रूप से करना होता था ।

ऐसा पता चला है कि संयुक्त परिवार में चार पीढ़ियों तक के सदस्य रहते थे । पिता का परिवार के सदस्यों पर असीमित अधिकार होता था । आवश्यकता पड़ने पर वह उन्हें कठोर दण्ड दे सकता था । वैदिक साहित्य में पिता द्वारा पुत्र को बेचे जाने, दान में दिये जाने, आँखें निकलवा लेने तक के उदाहरण मिलते हैं ।

किन्तु सामान्यतः पिता तथा पारिवारिक सदस्यों के सम्बन्ध सौहार्दपूर्ण हुआ करते थे तथा पिता उनका पालन-पोषण, देख-रेख, शिक्षा-दीक्षा, सुरक्षा आदि का समुचित प्रबन्ध करता था । उत्तर वैदिक काल में भी संयुक्त परिवार की प्रथा बनी रही । कभी-कभी पुत्र अपने पिता के जीवन-काल में ही पारिवारिक सम्पत्ति को बँटवा लेते थे जिससे पिता को महान कष्ट होता था । सूत्रों के समय में पारिवारिक जीवन को व्यवस्थित करने के लिये अनेक विधान बनाये गये ।

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गृह्म सूत्रों में बड़े-बड़े परिवारों का उल्लेख मिलता है । सभी सदस्य गृहस्वामी (पिता) की आज्ञा का पालन करते थे । पिता की मृत्यु के पश्चात् उसका बड़ा पुत्र गृहपति बनता था । बौद्ध काल में भी संयुक्त परिवार की प्रथा थी जिसमें सबसे ज्येष्ठ आयु का व्यक्ति गृहपति बनता था ।

कभी-कभी परिवार के सदस्य पिता की आज्ञा के विरुद्ध भिक्षु जीवन में प्रवेश कर जाते थे । बौद्धों तथा जैनों ने गृहत्याग तथा मठ जीवन का आदर्श सामने रखा । इससे संयुक्त परिवार की व्यवस्था को गहरा आघात पहुँचा । पुरुषों के साथ-साथ कभी-कभी स्त्रियां भी अपना परिवार छोड़कर भिक्षुणी बन जातीं तथा घर से दूर मठों में निवास करती थीं ।

ऐसी स्थिति में संयुक्त परिवार के टूटने का संकट उत्पन्न हो गया । हिन्दू शास्त्रकारों ने परिवार को व्यवस्थित रखने के उद्देश्य से अनेक नियमों का विधान प्रस्तुत किया । मनुस्मृति में इस प्रकार के विधानों का विस्तृत विवरण प्राप्त होता है ।

पूर्व मध्यकाल में मनु तथा याज्ञवल्क्य की स्मृतियों पर भाष्य लिखे गये जिनमें कुटुम्ब सम्बन्धी नियमों की विस्तारपूर्वक व्याख्या प्रस्तुत की गयी । इन्हीं नियमों द्वारा हिन्दू समाज आज तक शासित एवं व्यवस्थित हो रहा है ।

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प्राचीन ग्रन्थों से पता चलता है कि संयुक्त परिवार की सम्पत्ति में सभी सदस्यों का अधिकार होता था तथा विभाजन के समय सभी को अपना भाग प्राप्त होता था । ऋग्वैदिक काल में तो परिवार की सम्पत्ति पर पिता का एकाधिकार होता था किन्तु बाद में यह अधिकार घटने लगा ।

अधिकांश शास्त्रकार इस मत के हैं कि पारिवारिक सम्पत्ति का विभाजन पिता की मृत्यु के बाद ही किया जाना चाहिए । कहीं-कहीं इसका विरोध भी मिलता है । पूर्व मध्यकाल में हम सम्पत्ति के अधिकार सम्बन्धी परस्पर विरोधी मतों का प्रतिपादन पाते हैं ।

याज्ञवल्क्य स्मृति के भाष्यकार विज्ञानेश्वर ने अपने ग्रंथ मिताक्षरा में इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया कि पुत्रों का अधिकार है कि वे पिता से सम्पत्ति का विभाजन करा लें । विज्ञानेश्वर ने पुत्र के उत्पन्न होते ही सम्पत्ति में उसका अधिकार माना है ।

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इससे भिन्न मत प्रकट करते हुए जीमूतवाहन ने अपने ग्रन्थ दायभाग में लिखा है कि पिता की मृत्यु के वाद ही पुत्र को उसकी सम्पत्ति में अधिकार मिलता है । किन्तु दोनों इस विचार के समर्थक हैं कि पिता का पारिवारिक सम्पत्ति पर पूर्ण अथवा निरंकुश अधिकार नहीं होता है ।

उत्तर वैदिककाल में पारिवारिक सम्पत्ति के अन्तर्गत पशु, भूमि, आभूषण आदि सभी सम्मिलित थे तथा इन सबका बँटवारा किया जाता था । किन्तु मध्यकाल से यह सिद्धान्त प्रतिपादित हुआ कि संयुक्त परिवार की सम्पत्ति के अन्तर्गत सदस्यों की निजी कमाई, दान आदि सम्मिलित नहीं है तथा इन पर प्राप्तकर्ता का ही पूर्ण स्वामित्व होता है । स्त्री की निजी सम्पत्ति ‘स्त्रीधन’ कही गयी है जो वह दहेज या उपहार में प्राप्त करती थी ।

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