भारत में मिली-जुली सरकारों की सार्थकता पर निबन्ध | Essay on Significance of Alliance Government in India in Hindi!
प्रस्तावना:
स्वातन्त्र्योतर भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में चतुर्थ आम चुनावों के पश्चात् मिली-जुली सरकारों की राजनीति को एक महत्वपूर्ण प्रवृत्ति ही माना जा सकता है । मिली-जुली सरकारों का स्वरूप केवल भारत में ही नहीं अपितु विदेशों में भी देखने को मिला है ।
अनेक राज्यों में संविद सरकारों का निर्माण हुआ और हास ध्या । ऐसे में एकमात्र विकल्प कांग्रेस दल को ही माना गया । जिस शीघ्रता एवं तत्परता से इन सरकारों का निर्माण हुअर उतनी ही शीघ्रता से इनका पतन भी हुआ । अत: यही कहा जा सकता है कि संसदीय शासन प्रणाली का संयुक्त मंत्रिमण्डलों से तालमेल नहीं बन पाया था ।
चिन्तनात्मक विकास:
मिली-जुली सरकार से तात्पर्य है कि कई दल स्पष्ट बहुमत प्राप्त न होने पर मिश्रित सरकार बनाते हैं । इन्हें ‘संविद सरकार’, ‘संयुक्त मोर्चा मंत्रिमण्डल’ आदि भी कहा जाता है । भारत में समय-समय पर संयुक्त मोर्चे की सरकारें बनती रहती र्हे ।
परन्तु इनमें स्थिरता कायम नहीं हो पाई । भारत के अनेक राज्यों में ये सरकारें बनी और इनका पतन भी हुआ । इनकी असफलता का प्रमुख कारण इनमें व्याप्त अन्तर्विरोध थे । भारतीय राजनीतिक व्यवस्था को इन सरकारों ने बुरी तरह से प्रभावित किया । वर्तमान में तो इन सरकारों को बिशेष सफलता प्राप्त नहीं हो सकी किन्तु भविष्य के विषय में अभी भी प्रश्नचिन्ह लगे हुये हें ।
उपसंहार:
भारत र्मे मिली-जुली सरकारों के अस्तित्व ने भारतीय प्रशासनिक व्यवस्था में अस्थिरता को ही जन्म दिया है । यह सरकारें सुसंगठित सिद्ध नहीं हुइं हैं । विभिन्न दलों के परस्पर मतभेद और तनाव के कारण मंत्रिमण्डल की स्थिति डांवाडोल ही बनी रही ।
यह प्रशासन की ओर न तो ध्यान दे सकी और न ही जन-कल्याण की योजनाओं को क्रियान्वित कर सकी । अत: यह आशंका व्यक्त की जाती है कि आगामी चुनावों में शायद संविद सरकारें सत्ता में आयें, किन्तु इनका भविष्य अन्धकारमय ही है, जब तक इनमें आपसी सहयोग स्थापित न हो ।
मिली-जुली सरकार से तात्पर्य है कि कई दलों की मिली-जुली मिश्रित सरकार का बनना । इसे संयुक्त सरकार भी कहा जाता है । संयुक्त सरकार के लिये कई शब्दों का प्रयोग किया जाता है, जैसे संयुक्त मोर्चा मंत्रिमण्डल’ सविद सरकार’ ‘जनता मोर्चासरकार’ मिली-जुली सरकार’ इत्यादि ।
आम चुनावों से पूर्व कुछ दल मिलकर एक निश्चित कार्यक्रम बना लेते हैं, उस निश्चित कार्यक्रम के आधार पर चुनाव लड़ते हैं, चुनावों में आपसी सामंजस्य एवं तालमेल स्थापित करते है, एक-दूसरे के विरुद्ध कोई प्रत्याशी खड़ा नहीं करते और यदि चुनावों के पश्चात इन दलों को बहुमत प्राप्त हो जाता है तो सर्वसम्मति से वे अपना नेता चुन लेते है और नेता द्वारा निर्मित मंत्रिमण्डल में सभी. दलों को यथोचित प्रतिनिधित्व दिया जाता है ।
मिली-जुली सरकार की कुछ विशेषताएँ होती हैं गैर-संयुक्त मंत्रिमण्डल का समझौतावादी कार्यक्रम होता है, मिली-जुली सरकार के विविध घटक मिल-जुलकर कार्य करते हैं, विभिन्न दलों के नेता और अस्तित्व होते हुये भी उनका एक सर्वसम्मत नेता होता है और संयुक्त दलों की स्वीकृति से ही महत्त्वपूर्ण राजनीतिक समस्या का हल किया जाता है ।
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भारत में ही नहीं अपितु विदेशों में भी मिली-जुली सरकारें होती हैं । पश्चिमी जर्मनी में भी क्रेश्चियन डेमोक्रेट और सोशल डेमोक्रेट ने मिलकर कई बार शासन सभाला । सन् 1948 के पश्चात् इटली में अनेक बार सयुक्त सरकार बन चुकी है ।
कनाड़ा, फ्रांस में भी कई बार सयुक्त सरकारें बन चुकी हैं । इसी प्रकार सन् 1947 में स्वाधीन लंका के शासन का श्री गणेश भी मिली-जुली सरकार से हुआ और वहाँ प्राय: सयुक्त सरकारें ही कार्य करती रही है । भारत में बहुदलीय व्यवस्था है । चुनावो में अनेक राजनीतिक दल एव निर्दलीय प्रत्याशी भाग लेते है ।
स्वातच्चोत्तर भारतीय राजनीति मे काग्रेस, जनसघ, मुस्लिम लीग, हिन्दू महासभा, समाजवादी दल, साम्यवादी दल आदि अस्तित्व मे आये, किन्तु काग्रेस ही सुसगठित एवं प्रभावशाली दल बना रहा । डॉक्टर लोहिया का उत था कि चुनावी मे काग्रेस की विजय का कारण गैर-काग्रेसी दलों मे एकता का अभाव है ।
उनके मत आपस मे विभाजित हो जाते है और ऐसी स्थिति में कम मत प्राप्त करके भी काग्रेस दल सत्ता में आ जाता है । चुनावों में कांग्रेस की भारी विजय होती रही और दूसरी तरफ देश में राजनीतिक दलों की संख्या निरन्तर बढ़ती जा रही थी । तृतीय आम चुनाव के पश्चात् देश मे असन्तोष बढने लगा, नेहरु के बाद प्रभावशाली नेतृत्व का अभाव सर्वत्र परिलक्षित होने लगा ।
ऐसे समय में डॉक्टर राम मनोहर लोहिया ने गैर-काग्रेस दलो को मिलाने के प्रयास प्रारम्भ किए । वैसे मिली-जुली सरकारी के निर्माण का प्रयास पूर्व में ही हुआ है । अंग्रेज सरकार के रहते पण्डित जवाहरलाल नेहरु के नेतृत्व में जब अन्तरिम सरकार की स्थापना का प्रयास किया गया तो काग्रेस के साथ ही मुख्तिम लीग को भी सम्मिलित करने की व्यवस्था की गई ।
यह केन्द्र में मिली-जुली सरकार बनाने की योजना थी । यद्यपि लीग ने पहले असहयोग की नीति अपनायी और बाद में मंत्रिमण्डल में अडंगा लगाने हेतु ही लीग के नेता मंत्रिमण्डल में सम्मिलित हुये । परिणामस्वरूप विभागों का काम चलाना मुश्किल हो गया था ।
सन 1954 में ट्रावनकोर-कोचीन में मध्यावधि चुनाव के पश्चात् कांग्रेस अपना मंत्रिमण्डल नहीं बना सकी थी क्योंकि सदस्यीय विधानसभा में कांग्रेस को केवल 44 स्थान प्राप्त हो सके थे । कांग्रेस के समर्थन से प्रजा समाजवादी दल ने पट्टम थानु पिल्लई के नेतृत्च में अपना मंत्रिमण्डल बनाया था ।
चतुर्थ आम चुनाव के पश्चात् केरल, हरियाणा, उडीसा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, गुजरात एवं पंजाब में सयुक्त दलों की मिली-जुली सरकारे बनी । इन राज्यों में मिली-जुली सरकारों की कुछ विशेषताएँ शी पहली, मिली-जुली सरकारें अस्थिर थी ।
विभिन्न दलों में आपसी मतभेद होने के कारण ये सरकारें अपदस्थ कर दी जाती थीं । दूसरी, मिली-जुली सरकारें सुविधाओं की आदी थी । उनका गठन राजनीतिक दल के ध्रुवीकरण के सिद्धान्त के आधार पर नहीं हुआ था । तीसरी, इन सरकारों का उद्देश्य कांग्रेस दल से सत्ता छीनना था और उसके राजनीतिक एकाधिकार को तोड़ना था ।
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चौथी, मिली-जुली सरकारें संसदीय सिद्धान्तों के प्रतिकूल थी । पाचवीं, इन सरकारी के कार्यकाल में तनाव एवं मतभेद की राजनीति का उदय हुआ । मुख्यमत्री और राज्यपाल के मध्य मतभेद, उपमुख्यमत्री और मंत्रियों के बीच मतभेद बढ़े ।
छठी, महत्त्वपूर्ण निर्णय सविद के घटक दल लेते थे और मत्रिमंडल की स्थिति पुष्टिकरण करने वाले निकाय के समान हो गई थी । सातवीं, मत्रिमण्डल के आकार का निश्चय सरकार के घटक दल करते थे, जिससे मुख्यमंत्री-पद कठपुतली बन गया ।
आठवीं, जिन राज्यों में मिली-जुली सरकारें थीं, उन्होंने सदैव केन्द्रीय सरकार के प्रति विरोध की नीति अपनायी । नौंवी, मिली-जुली सरकारों के निर्माण एवं विघटन का प्रमुख कारण दल-बदल रहा है । दसवीं, चतुर्थ आम चुनाव के पश्चात् काग्रेस ही सबसे बड़ा दल था । गैर कांग्रेसी दलों ने मिली-जुली सरकारें बनाकर सत्ता का स्वाद चखने का प्रयास किया ।
अत: यह सभी विशेषताएँ ही मिली-जुली सरकारों के हास का कारण नती रही हैं । हरियाणा राज्य की स्थापना नवम्बर, 1966 में हुई । चतुर्थ आम चुनाव हरियाणा के लिए सबसे पहला चुनाव था । इस चुनाव में कांग्रेस को पूर्ण बहुमत प्राप्त हुआ और विधानसभा के स्थानों में से उसे 48 स्थान मिले ।
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किन्तु हरियाणा काग्रेस में शीघ्र ही दरारे दिखाई देने लगीं । जून, 1987 के हरियाणा विधानसभा चुनावों में जनता दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त हुआ । जून, 1971 के विधानसभा चुनावी के पश्चात् हरियाणा में देवीलाल के नेतृत्च में लोकदल एवं भाजपा की मिली-जुली सरकारें गठित हुई ।
केरल में 1951-52 के चुनावी में कांग्रेस ने सबसे अधिक सीटें जीती लेकिन उसे पूर्ण बहुमत प्राप्त नहीं हुआ । अत: काग्रेस व ‘तमिलनाडु-त्रावणकोर नेशनल कांग्रेस’ की सहायता से मंत्रिमंडल बनाया गया, किन्तु छह माह के अन्दर ही नेशनल कांग्रेस ने अविश्वास प्रस्ताव के पक्ष मे मत देकर सरकार को पराजित कर दिया ।
चतुर्थ आम चुनावों में केरल मे मुस्लिम लीग एवं वामपन्थी दलो का सयुक्त मोर्चा बना किन्तु शीघ्र ही सयुक्त मोर्चा सरकार मे दरार पडने लगी । मार्च, 1977 के चुनावों में केरल में लोकसभा व विधानसभा दोनों में सत्ताधारी सयुक्त मोर्चे ने आशार्तोत सफलता प्राप्त की । इस संयुक्त मोर्चा मंत्रिमंडल ने अपने मतभेद के कारण त्यागपत्र दे दिया । 20 जनवरी, 1980 को केरल विधानसभा के चुनाव हुये ।
मार्क्सवादी-साम्यवादी दल के नेतृत्च वाले सात-सदस्यीय वामपन्थी मोर्चे को अष्ट-सदस्यीय केरल विधानसभा मे 93 स्थान मिले और उसे पूर्ण बहुमत प्राप्त हो गया । इसके बाद कांग्रेस हां ने के करुणाकरण के नेतृत्च में एक अन्य मिली-जुली सरकार का गठन किया ।
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यह सरकार विधानसभा स्पीकर के निर्णायक मत के आधार पर कुछ दिनो तक ही टिकी रही । 23 मार्च, 1987 को केरल विधानसभा के चुनाव हुये और वही वामपन्थी लोकतान्त्रिक मोर्चा विजयी हुआ । मई-जून, 1991 के चुनावों में केरल में वामपंथी मोर्चा पराजित हुआ और कांग्रेस के नेतृत्च वाला लोकतान्त्रिक मोर्चा विजयी रहा ।
करुणाकरण के नेतृत्च मे मिली-जुली सरकार बनी । ज्ञातव्य है कि केरल में मत्रिमण्डलों के बहुमत थोडे समय तक चलने का इंतिहास रहा है, किन्तु संयुक्त मोर्चे की सरकार ही मात्र ऐसी सरकार थी जिसे अपने पूरे कार्यकाल तक सत्ता में बने रहने का मौका मिला ।
उडीसा में चतुर्थ आम चुनाव में जन काग्रेस के समर्थन से मिली-जुली सरकार बनी । यह सरकार जनवरी, 1971 तक ठीक ढंग से कार्य करती रही किन्तु इसका विघटन भी शीघ्र हो गया । 5 मार्च, 1971 को नये चुनाव हुये, जिसमें किसी दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं हुआ ।
उत्कल कांग्रेस ने स्वतन्त्र दल, झारखण्ड पार्टी का निर्दलीय सदस्यों से मिलकर मोर्चा बनाया, जिसके नेता विश्वनाथ दास चुने गए किन्तु यह भी अधिक दिन तक सत्ता में बनी न रह सकी । उडीसा में फरवरी, 1974 मे निर्वाचन हुये । भारतीय साम्यवादी दल ने काग्रेस के साथ चुनाव समझौता किया तथा सरकार बनाने में उसका सहयोग दिया ।
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इसी प्रकार उडीसा में श्री सिंहदेव द्वारा निर्मित मोर्चा सरकार लगभग चार वर्ष तक सफलतापूर्वक कार्य करती रही । इसकी सफलता का राज था कि यह सरकार केवल दो दलों का ही संयुक्त मोर्चा थी । उत्तर-प्रदेश में चौथे अदूम चुनाव मे काग्रेस दल को विधानसभा में पूर्ण बहुमत नहीं मिल सका 15 मार्च, 1967 को सभी विरोधी दलो के प्रतिनिधियो ने ‘संयुक्त विधायक दल’ का निर्माण किया और रामचन्द्र शुक्ल को नेता चुना ।
इनमें भी दरारे पड़नी शुरा हो गईं क्योंकि सभी घटकों के बीच नीति सम्बंधी मतभेद थे । जून, 1977 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में जनता पार्टी को स्पष्ट बहुमत प्राप्त हुआ और भारतीय लोकदल घटक के रामनरेश यादव मुख्यमन्त्री बने ।
यह जनता सरकार यथार्थ में भारतीय लोकदल और जनसंघ की मिली-जुली सरकार ही थी । धीरे-धीरे दोनों गुटों में मतभेद बढ़ने लगे । नवम्बर, 1993 के विधानसभा चुनावों के पश्चात् उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में समाजवादी पार्टी-बहुजन समाज पार्टी की मिली-जुली सरकार बनी ।
राजस्थान का आविर्भाव 1948-50 में देशी रियासतों के एकीकरण के परिणामस्वरूप हुआ । चौथे आम चुनाव में पूर्ण काग्रेस को पराजित करने हेतु जनसंघ और स्वतन्त्र दल ने आपस में चुनाव-समझौता कर लिया । जून, 1977 के चुनावों के पश्चात् राजस्थान विधानसभा में जनता पार्टी को स्पष्ट बहुमत प्राप्त हुआ और जनसंघ घटक के भैरोसिंह शेखावत मुख्यमंत्री बने । भारतीय लोकदल घटक के नेता असन्तुष्ट थे ।
अत: भारतीय लोकदल और जनसंघ घटक के बीच सत्ता की प्रतिस्पर्द्धा चलने लगी । राजस्थान मे फरवरी, 1990 में विधानसभा चुनावों में किसी भी एक दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं हुआ और भाजपा के भैरोसिंह शेखावत के नेतृत्व में राजस्थान में मिली-जुली सरकार बनी ।
इस सरकार में भाजपा तथा जनता दल शामिल हुये । मध्यप्रदेश में चतुर्थ आम चुनाव के पश्चात द्वारिकाप्रसाद मिश्र सर्वसम्मति से कांग्रेस विधानमंडल के नेता चुने गए और मुख्यमंत्री बने । मध्यप्रदेश में मिली-जुली सरकार के मंत्रिमण्डल की रचना एवं अन्त कांग्रेस की दल-बदल की घटना के कारण ही हुआ । इनमें एकता का अभाव ही इनके पतन का कारण बना और मुख्यमंत्री की स्थिति भी दुर्बल ही रही ।
जून, 1977 में मध्यप्रदेश में विधानसभा चुनावों में जनता पार्टी को स्पष्ट बहुमत प्राप्त हुआ । जनता पार्टी की यह सरकार जनसंघ और सोशलिस्ट घटकों की मिली-जुली सरकार ही थी । इन दोनों घटकों में आये दिन तनाव और मतभेद उत्पन्न होते रहे । यह विरोध इतना बढ गया कि उन्हें जनवरी, 1 के लोकसभा चुनावों के पश्चात् पद से त्यागपत्र देना पड़ा ।
फरवरी, 1980 तक यह जनता सरकार इसलिए चलती रही क्योंकि विधानसभा में जनसंघ की स्थिति काफी सुदृढ़ थी । पश्चिम बंगाल में 20 वर्ष तक कांग्रेस दल लगातार सत्ता में रहा, परन्तु 1967 के आम चुनावों में उसे पूर्ण बहुमत प्राप्त नहीं हुआ ।
25 फरवरी, 1967 को संयुक्त वामपंथी मोर्चे और जनवादी संयुक्त वामपंथी मोर्चे के कुछ गुटों ने मिलकर एक संयुक्त लोकतन्त्रात्मक मोर्चे की स्थापना की, किन्तु शीघ्र ही इनमें दरारें पड़ने लगी । मार्च, 1971 में चुनाव हुये और लोकतान्त्रिक संयुक्त मोर्चे का निर्माण हुआ, इसमें कांग्रेस भी सम्मिलित हुई ।
मार्च, 1972 में पुन: चुनाव हुये और कांग्रेस की सरकार बनी । कांग्रेस पार्टी की यह सरकार आपातकाल के दिनों में भी बनी रही । जून, 1977 के विधानसभा चुनावों में मार्क्सवादी-साम्यवादी दल ने जीत हासिल की । 1982 1987 तथा 1991 के विधानसभा चुनावों में भी मार्क्सवादी पार्टी के नेतृत्व वाले मोर्चे को बहुमत प्राप्त हुआ और ज्योति बसु के नेतृत्व में मिली-जुली सरकार बनी ।
गुजरात में कांग्रेस दल की स्थिति हमेशा सुदृढ़ रही है । इसके बाद यहाँ ‘जनता मोर्चा’ एक नवीन प्रयोग था । जब जनता मोर्चे को स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं हुआ, तो उसने किसान मजदूर लोकपक्ष की सहायता से सरकार बनाई । मार्च, 1979 के पश्चात पुन: दल-बदल के फलस्वरूप मोर्चे की सरकार सत्ता में आ गई ।
जनता मोर्चे में पांच दल शामिल थे-संगठन कांग्रेस, जनसंघ, सोशलिस्ट पार्टी, राष्ट्रीय मजदूर पार्टी और भारतीय लोकदल । मार्च, 1977 के लोकसभा चुनावों के बाद जनता मोर्चे की सरकार ‘जनता पार्टी’ के नाम से जानी-जाने लगी । फरवरी, 1990 में विधानसभा चुनावों में किसी को राजनीतिक निबन्ध 43 भी स्पष्ट बहुमत नहीं मिला फलस्वरूप जनता दल और भाजपा की मिली-जुली सरकार बनी ।
बाद में कांग्रेस हो के समर्थन से चिमनभाई की सरकार चलने लगी । महाराष्ट्र में भी मार्च, 1995 के विधानसभा चुनावों में शिवसेना-भाजपा की मिली-जुली सरकार बनी । मार्च, 1977 में भारतीय राजनीति ने एक नवीन मोड लिया । चार विरोधी दलों-संगठन कांग्रेस, भारतीय जनसंघ, भारतीय लोकदल और सोशलिस्ट पार्टी ने अपने स्वतन्त्र अस्तित्व को समाप्त कर एक नयी पार्टी ‘जनता पार्टी’ बनाई ।
24 मार्च, 1977 को मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की एक मिली-जुली सरकार बनी, किन्तु जनता पार्टी के मंत्री और नेताओं में वैचारिक और सैद्धान्तिक प्रश्नों पर मतभेद थे । 29 जुलाई, 1979 को काग्रेस व जनता पार्टी ने चौधरी चरणसिंह के नेतृत्व में मिली-जुली सरकार बनाई ।
अन्तत: भारत की जनता ने मिली-जुली सरकारों को अस्वीकार कर केन्द्र में स्थायी शासन की स्थापना का निर्णय लिया क्योंकि जनता और लोकदल की मिली-जुली केन्द्रीय सरकारों के इतिहास ने यह सिद्ध कर दिया था कि इनसे शासन में ढिलाई और विघटनकारी प्रवृत्तियाँ ही उभरती हैं ।
नवीं लोकसभा चुनावों के पश्चात् वीपी सिंह के नेतृत्व में केन्द्र में राष्ट्रीय मोर्चे की सरकार गठित की गई, किन्तु यह अल्पमतीय सरकार थी जिसे बाहर रहकर भाजपा और मार्क्सवादी पार्टी समर्थन दे रही थी, किन्तु राष्ट्रीय मोर्चे के घटक दलों में जनता दल, द्रमुक, तेलगुदेशम, असम गण परिषद आदि दल थे । यह सरकार मिली-जुली सरकार ही थी ।
उपरोक्त परिस्थितियो का अध्ययन करने के पश्चात् यही निष्कर्ष निकलता है कि अधिकतर राज्यों में मिली-जुली सरकारों को विशेष सफलता नहीं मिली क्योंकि उनके मध्य स्वार्थो की टकराहट, नीति-विहीनता एव अनेक अन्तर्विरोध व्याप्त थे । यह सरकारें अपने पतन का कारण स्वयं बनी थीं क्योंकि इनमें अवसरवादिता एवं साम्प्रदायिकता की भावना थी । दल-बदल और प्रतिदल-बदल की घटनाएं आम बात थी ।
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प्रारम्भ में तो विरोधी दल पारस्परिक समझौता करके सरकार बना लेते थे किन्तु कुछ ही दिनों बाद उनके पतन की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती थी । मिली-जुली सरकारों के पतन का कार इनमें वैचारिक मतभेदों का पाया जाना था, क्योंकि साम्यवादी और जनसंघ, स्वतन्त्र पार्टी और एस.एस.पी. दलों में वैचारिक दृष्टि से काफी अन्तर पाया जाता है ।
मिली-जुली सरकारों के विधायकों और नेताओं में स्वार्थ और पदलोलुपता की भावना अत्यधिक थी । राज्यों में तो ये सरकारें राजनीतिज्ञों का तमाशा बन गई जो स्वार्थी, अवसरवादी, सत्ता के भूखे और अनैतिक थे, उन्हें अपने व्यक्तिगत स्वार्थो के अतिरिक्त और कुछ नहीं दीखता था ।
राज्यों में निर्मित मिश्रित सरकारों का लक्ष्य हमेशा यही रहा है कि जहाँ तक सम्भव हो कांग्रेस दल की सरकार नहीं बनने दें और यदि जिन राज्यों में कांग्रेस सरकार बन जाती थी तो उसे सामूहिक रूप से गिराने के प्रयत्न किये जाते थे ।
मिली-जुली सरकारों में मंत्रिमण्डल बनाने के अतिरिक्त किसी कार्यक्रम पर आम सहमति नहीं होती थी । जिन लोगों के वे प्रतिनिधि थे, उनके विषय में वे कठिनाई से ही सोच पाते थे और उनके लिए उन्नति की योजनायें और नीतियां भी कठिनाई से ही बना पाते थे ।
मिली-जुली सरकारों वाले राज्यों में विभिन्न दलों द्वारा निर्मित समन्वय समिति की कार्य-प्रणाली ऐसी थी कि वहाँ मंत्रिमण्डल की सत्ता का पतन होने लगा था क्योंकि राज्य का मुख्यमंत्री एक कठपुतली की भांति दिखायी देता था । इस प्रकार मिली-जुली सरकारें प्रशासन को प्रभावशाली नेतृत्व प्रदान करने में असमर्थ रही ।
भारतीय राजनीतिक व्यवस्था पर मिली-जुली सरकारी का काफी प्रभाव पड़ा । पहला, इन सरकारों के समय मे मंत्रिमण्डलीय शक्ति का हास होने लगा था क्योंकि मंत्रिमण्डल की सर्वोच्चता ‘समन्वय समिति’ की भूमिका के समक्ष काफी धुंधली पड़ गई थी । दूसरा, इससे संसदीय प्रणाली एवं प्रचलित संसदीय अभिसमयों पर विपरीत प्रभाव हुये थे ।
तीसरा, इन सरकारों में अस्थिरता व्याप्त थी । चौथा, मत्रिमण्डलों की अस्थिरता से नौकरशाही की शक्ति में वृद्धि हुई । पांचवा, मिली-जुली सरकारों के बनने से केन्द्र व राज्यों के बीच तनावपूर्ण स्थिति उत्पन्न हो गई थी । वस्तुत: मिली-जुली सरकारी की व्यवस्था से राष्ट्रीय विकास के लक्ष्यों को प्राप्त करने में बाधाएं पहुँची क्योंकि राज्यो एव केन्द्र के मध्य सहयोग का अभाव था ।
आज भारतीय राजनीति बदलाव के जिस दौर से गुजर रही है उसमें किसी तरह की भविष्यवाणी करना उचित नहीं है क्योंकि किसी भी संविद सरकार की सफलता में तीन तत्त्वों का विशेष महत्त्व होता है-पहला, राजनीतिक विचारधारा की समानता, दूसरा, एक सर्वमान्य नेता और तीसरा है, किसी एक दल के पास सर्वाधिक सीटें होना ।
वास्तव में समाधान तो देश विशेष की राजनीतिक स्थिति मे ही खोजना पडेगा । किस देश में कितने दल होने चाहियें, इसका फैसला वहां की सामाजिक जरूरतें पूरी करती हैं, क्योकि हर समाज की अपनी परंपराएं होती हैं । उसका अपना उतार-चढ़ाव होता है । भारतीय राजनीति की मौजूदा स्थिति को देखते हुए इतना तो कहा ही जा सकता है कि केन्द्र के लिए राजनीतिक स्थिरता महत्त्वपूर्ण है ।
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यदि केन्द्र में राजनीतिक स्थिरता नहीं होगी तो राज्जो की रही-सही स्थिरता भी समाप्त हो जाएगी । यदि केन्द्र नीतियां नहीं बना पाएगा, तो राज्यो की स्थिति और बदतर होगी । कुछ वर्षों में भारत मे जिन मुद्दो और मूल्यों का प्रलोभन दिखाकर मतदाता वर्ग कुाई राजनीतिक पार्टियां अपने पक्ष में करने में लगी हैं उससे तो पार्टियों का चुनावी गणित और समीकरण ही बदल गया है ।
इससे मतदाताओ का पार्टियों में बिखराव हुआ है, जिसने विभिन्न पार्टियों को जीवित रहने और सांठगांठ करने की खुराक दी है । कांग्रेस जैसी सबसे पुरानी पार्टी तो पिछले दो दशकों के भीतर पनपे दलों की वजह से काफी कुछ गंवा चुकी है और उसके लड़खड़ाते रहने का सिलसिला अभी थमा नहीं है ।
ये सच्चाई हमारी राजनीतिक सामंजस्यता और स्थिरता के लिए खतरा है । यहा इस तथ्य का उल्लेख जरूरी है कि संविद सरकार के भविष्य की तस्वीर इस वजह से भी धुंधलके में है कि हमारे राजनीतिक दलों के पास कोई एक सर्वमान्य नेता नहीं है ।
निष्कर्षत:
हम कह सकते हैं कि भारतीय राजनीति के संक्रमण के मौजूदा दौर में राजनीतिक दली की अलग-अलग सोच, मान्यताये तथा एक सर्वमान्य नेता की गैर-मौजूदगी हाल-फिलहाल स्थायी सविद सरकार नहीं दे पाने के मुख्य कारण हैं ।
चूँकि आगामी वर्षों में राजनीतिक पार्टियों की सोच और उनका नेतृत्व संकट के कई पडाव तय करेगा, इसलिए भी संविद सरकार के भविष्य पर इस वक्त कोई टिप्पणी करना न तो आसान है और न ही उचित ।