भूख को राक्षस बनने से रोकें पर निबंध |
देश की आर्थिक नीतियों के सामने संपन्नता जितनी बड़ी चुनौती है, भूख उससे कई गुना बड़ी चुनौती है । परेशानी यह है कि संपन्नता और भूख, दोनों ही विकास के खूँटे से बंधे हैं । नीति-निर्माताओं का अंशमात्र एकतरफा रूझान इस खूँटे को उखाड़ सकता है ।
पिछले बीस साल के अनुभव चेतावनी दे रहे हैं कि ग्लोबलाइजेशन के नाम पर सिर्फ रेशमी धागों से बना आर्थिक नीतियों का ताना-बाना देश के लिए कतई कारगर और क्रियाशील सिद्ध नही हो पाएगा । भूख को बायें या दायें के चश्मे से देखना नही है और न ही इस मुद्दे की बहस है ।
भूख आज आपके सामने हाथ पसारे खड़ी है तो इसके मायने यह कतई नही है कि वह हमेशा ही ऐसे खड़ी रहेगी । भूख मनुष्य की प्राथमिक जरूरत है । इस मसले पर सरकार को मनुष्यता के समग्र पहलुओं को ध्यान में रखकर अर्थतंत्र की प्राथमिकताओं को बुनना और बनाना होगा । हमेशा ध्यान में रखना होगा कि भूख को राक्षस बनने से रोकना समाज और व्यवस्था की पहली आवश्यकता है ।
भूख का राक्षस जाग उठा तो कोई भी तंत्र, कोई भी वाद, कोई भी व्यवस्था टिक नहीं पाएँगे । जबकि पाँच सितारा सपनों का कोहराम मचा हुआ है, भूख-प्यास और बेगारी की तरफदार दलीलें खोटे मुहावरों की तरह संपन्नता के कानों में चुभती हैं । इसके बावजूद संतुलन के बिंदुओं की तलाश में किसी-न-किसी तरीके से लगातार इन बातों को उठाते रहना वर्तमान की जरूरत है ।
कई वर्ष पूर्व दिल्ली में संसद भवन के सामने प्रदर्शन के लिए पहुँचे अठारह राज्यों के पच्चीस हजार वनवासी आदिवासियों की गुहार में भूख आगाह कर रही थी कि उन्हें राक्षस बनने के लिए मजबूर नही किया जाए । एकता परिषद् ने वनवासियों की जनादेश यात्रा का आयोजन गाँधीगिरी की ताकत को दिखाने की गरज से सत्याग्रह की तर्ज पर किया था ।
एकता परिषद् के अध्यक्ष श्री बी.वी राजगोपाल के नेतृत्व में निकली यात्रा कई अर्थो में अद्भुत थी । इसने आर्थिक नीतियों को लेकर लोगों के सामने कई सवाल खड़े किए हैं । रैली ने अपने सत्याग्रही और शांत तौर-तरीकों से सोचने को भी मजबूर किया है कि गाँधीवादी प्रवाह की धाराएँ और उनकी ताकत अभी भी कायम है । कोशिश की जाए तो यह फिर हावी हो सकती है ।
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बहरहाल जनादेश यात्रा के इस गाँधीवादी उपक्रम का उद्देश्य देश में भूमि सुधारों के लिए सरकार पर दबाव बनाना है । आजादी के बाद से ही देश में भूमि सुधारों को राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने क्रियान्वयन की दृष्टि से सबसे ऊपर और जरूरी माना था, फिर भी भूमि सुधारों का इतिहास कदापि उल्लेखनीय नहीं रहा है ।
भूमि सुधारों से जुड़े समूचे घटनाक्रम का खतरनाक पहलू यह है कि कोई डेढ़ दशक पहले आए ग्लोबलाइजेशन के दौर में बनी आर्थिक विकास की नीतियों में इन मुद्दों को लगभग दरकिनार कर दिया गया है । देश में तीन-चौथाई से ज्यादा आबादी यानी कोई अस्सी करोड़ लोग अपने जीविकोपार्जन के लिए सीधे-सीधे खेती से जुड़े हुए हैं ।
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1990 के बाद आर्थिक नीतियों में आए बदलावों से खेती ने किसानों पर सबसे ज्यादा असर डाला है । खाद बीज और अलग-अलग तरीके से खेती को दी जाने वाली रियायतों को समेटने और क्रमश: समाप्त करने का सिलसिला शुरू हो गया है । वैश्वीकरण की अर्थव्यवस्था के कारण देश की आर्थिक विकास की परिकल्पनाएँ लगभग बदल गई हैं ।
समानता और न्यायपूर्ण आर्थिक व्यवस्था के सिद्धांत को देखकर यह माना जाने लगा है कि आर्थिक वृद्धि में ही सारी समस्याओं के समाधान अंतर्निहित हैं इसलिए खेती-किसानी से जुड़े सभी पहलुओं का चाहे वह बीज-खाद का मसला हो या जमीन का, बाजारीकरण हो रहा है । बाजारीकरण की इन घटनाओं का दर्दनाक तथ्य है कि अब सरकार स्वयं किसानों के बजाय उन तत्वों की मददगार बन रही है, जो अस्सी करोड़ लोगों की भूख से सीधी जुड़ी खेती-किसानी को गोरखधंधों में तब्दील करना चाहते है ।
देशी-विदेशी अर्थतंत्र का शिकंजा इतना मजबूत हो चला है कि सर्वहारा वर्ग के कंधों पर बैठी बंगाल की मार्क्सवादी सरकार के घर में ही नंदीग्राम जैसे हादसे होने लगे हैं । फिर कांग्रेस या भाजपा शासित सरकारों से कोई किसानी- अपेक्षा करने के बारे में सोच पाना ही संभव नहीं है ।
सरकार जनता के वोटों से, जनता के नाम पर, जनता के लिए बने लेकिन जनकल्याणकारी नीतियों को निर्धारित करने की शक्तियाँ दिन-ब-दिन सीमित होती जा रही है । उस पर गरीबी के बजाय संपन्नता को पोषित करने का दबाव ज्यादा है ।
वैश्वीकरण के नाम पर बनी आर्थिक नीतियों में देश के नबे फीसदी खेतिहर ग्रामीण समाज को विकास के हाशिए पर धकेलने का जो उपक्रम शुरू हुआ है, वह ऊँचाइयों की बजाय खाइयों की ओर धकेलता है । हमारे वनवासी और किसान जिन आकड़ों के आधार पर जनादेश लेकर सरकार के पास पहुँचे हैं, यदि उन पर गौर नही किया गया, तो सब कुछ उलट-पलट हो जाएगा । वनवासियों का यह जनादेश तथ्यों का वह आईना है जिसमें आर्थिक नीतियों के चेहरे पर फफोले साफ नजर आते हैं और उनके इलाज के लिए आगाह करते हैं ।
आर्थिक नीतियाँ में खेती, किसानी और ग्रामीण समाज की अनदेखी का नतीजा ही है कि आजादी के बाद से बेरोजगारी की मात्रा नौ करोड़ से बढ्कर उनतीस करोड़ तक हो गई है । आँकडों की स्याह सच्चाई के बावजूद यदि देश के शासक यह सिद्ध करने में जुटे हैं कि गरीबी, भुखमरी, पलायन और बेरोजगारी का एकमात्र इलाज औद्योगिक विकास ही है तो यह प्रयास खतरनाक हो सकता है ।
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औद्योगीकरण विकास का एक पहलू हैं, समग्र नही । भारतीय रिजर्व बैंक के साथ-साथ एशियन विकास बैंक और संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम की रिपोर्टो में यही तथ्य उभरा है कि कृषि आधारित विकास के बिना गरीबी उन्मूलन संभव नहीं है ।
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भारत में गरीबी की सच्चाइयाँ भयावह है । उन पर गंभीरता से गौर करना होगा । आठ साल की तथाकथित विकास नीतियों के कथानक में साढ़े पाँच लाख से ज्यादा गाँव पेट बाँध कातर भाव से उपेक्षाओं के हाशिए पर खड़े है । भूमि कानूनों की विवेचना के लिए सिर्फ यही तथ्य काफी है कि हट 61 वर्षो में चार करोड़ लोगों को विकास के नाम पर विस्थापित किया जा चुका है । भूमि-सुधारों को लेकर एकता परिषद् के शोध चौंकाने वाले हैं ।
ये बातें सिहरन पैदा करती है कि वन संरक्षण कानून के चलते पचास लाख वनवासियों को अपनी ही मातृभूमि पर अतिक्रमणकर्ता घोषित कर दिया गया है । आजाद भारत में 224 राष्ट्रीय पार्को और अभ्यारण्यों के नाम पर 56 लाख वनवासियों को उजाड़ा जा चुका है । छत्तीसगढ़ में गत पाँच वर्षो में पचास हजार एकड़ भूमि औद्योगीकरण के लिए अधिगृहित की गई है ।
आजाद भारत में कथित भूमि सुधारों के 272 कानून तथा 13 संवैधानिक संशोधन के जरिए व्यवस्थाओं को सुधारने के प्रयास किए गए हैं । लेकिन जमीन का यथार्थ अन्याय की दर्दनाक कहानियों से भरा पड़ा है । देश में 78 प्रतिशत बड़े किसान उच्च वर्ग के हैं तो 83 प्रतिशत सीमांत किसान आदिवासी और दलित तबके के हैं ।
जनगणना के मुताबिक 64 प्रतिशत दलित और 16 प्रतिशत आदिवासी परिस्थितियों का वस्तुनिष्ठ आकलन करके आर्थिक नीतियों में इनकी आवश्यकताओं को समायोजित नहीं किया गया, तो वनवासियों की अहिंसक और सत्याग्रही जनादेश यात्रा ग्लोबलाइजेशन में सराबोर सरकार के सोच में परिवर्तन के लिये मील का पत्थर साबित हो, यह अपेक्षा सबके लिए कल्याणकारी सिद्ध हो सकती है ।