भूमंडलीकरण का अर्थशास्त्र पर निबंध | Essay on Economic Globalization in Hindi!
एडम स्मिथ को मुक्त बाजार की अवधारणा का प्रतिपादक माना जाता है । उनकी मान्यता थी कि यदि आर्थिक प्रक्रिया में राज्य कोई हस्तक्षेप न करे तो उत्पादन में विकास होता जायेगा और एक ‘अदृश्य हाथ’ उसके लाभों को निम्नतम स्तर तक पहुंचा देगा ।
आजकल जिस उदारीकरण की नीति का बोलबाला है, उसका अर्थशास्त्रीय तात्त्विक आधार एडम स्मिथ ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘वेल्थ ऑफ नेशंस’ में 1776 में प्रस्तुत किया था । भूमंडलीकरण इस उदारीकरण का ही स्वाभाविक अनुज, बल्कि उदारीकरण का अंतर्राष्ट्रीय अवतार है । इसका सीधा तात्पर्य यह है कि आर्थिक प्रक्रिया एक स्वायत्त प्रक्रिया है और उसमें हस्तक्षेप विकास को बाधित करता है ।
अर्थशास्त्रीय दृष्टि से भी अनुचित होगा क्योंकि मुक्त बाजार की प्रतिस्पर्धा कीमतों कों कम रखने और आर्थिक सेवाओं को अधिक कुशल बनाने में सहायक होगी, जिसका स्वाभाविक परिणाम होगा उपभोक्ता अर्थात् समाज को कम कीमत में अधिक कुशल उत्पाद या सेवा मिलना ।
बाजार में प्रतिस्पर्धा की कमी एकाधिकारवादी आर्थिक प्रक्रिया का रास्ता सुगम करती है और इसके चलते वह उपभोक्ता के बजाय उत्पादक के लिए अधिक लाभकारी हो जाती है । आदर्श बाजार वह है जिसमें ग्राहक और उत्पादक दोनों पक्षों को मोलतोल करने की पूरी स्वतंत्रता और शक्ति हो और ऐसा केवल मुक्त बाजार की अर्थव्यवस्था में ही संभव है ।
भूमंडलीकरण के समर्थकों का भी तर्क यही है कि यदि कोई देश अपने यहां के उत्पादक बाजार को कुछ सब्सिडी देता या दूसरों की अपेक्षा अधिक सुविधाएं उपलब्ध करवाता है तो यह स्वस्थ प्रतिस्पर्धा को दबाना है, जिसका खामियाजा अंतत: उपभोक्ता अर्थात समाज को उठाना पड़ता है । इसलिए मुक्त बाजार नैतिक और आर्थिक दोनों ही कसौटियों पर खरा उतरता है । यह मानवीय स्वातंस्य की प्रतिष्ठा करता और आर्थिक एकाधिकारवाद को खत्म कर वास्तविक प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देता हुआ उपभोक्ता समाज के हितों का संरक्षण-पोषण करता है ।
एडम स्मिथ ने जब मुक्त बाजार और स्वस्थ प्रतिस्पर्धा की बात की थी, तब इस खतरे से भी सचेत किया था कि आर्थिक शक्ति का केंद्रीकरण बाजार को वास्तविक अर्थों में स्वतंत्र नहीं रहने देगा । जिस प्रकार राजनीतिक सत्ता का केंद्रीकरण समाज के नागरिक राजनीतिक अधिकारों का दमन करता है, उसी प्रकार आर्थिक सत्ता का केंद्रीकरण आर्थिक आयाम में समाज की स्वतंत्रता का अतिक्रमण करता है, क्योंकि एक उपभोक्ता के नाते समाज केंद्रीकृत आर्थिक सत्ता के सम्मुख अपने को बेचारा महसूस करने लग जाता है ।
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इसलिए एडम स्मिथ बाजार में ऐसे बड़े प्रतिद्वंद्वियों को बाहर ही रखना चाहते थे जो एकाधिकारवादी हो सकें । उदारीकृत भूमंडलीकरण जो व्यवस्था बनाता जा रहा है, उसमें बाजार वास्तविक अर्थों में मुक्त होने के बजाय एकाधिकारवादी प्रवृत्तियों में घुटता जा रहा है । बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आपसी समझौते बाजार को वास्तविक अर्थो में प्रतिस्पर्धात्मक नहीं रहने दे रहे हैं ।
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भूमंडलीकरण के इस रूप को ‘निगमात्मक भूमंडलीकरण’ (कॉरपोरेट ग्लोबलाइजेशन) कहा जा रहा है । डेविड कोरटेन ने अपने अध्ययन ‘वहेन कॉरपोरेशंस रूल दि वर्ल्ड’ में भली-भांति यह सिद्ध किया है कि बाहर से अलग दिखने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों और राष्ट्रीय कंपनियों के आपसी संबंध जुड़ कर इस प्रकार घनिष्ठ हो चले हैं कि अब उन्हें वास्तविक अर्थों में प्रतिस्पर्धा कहना सही नहीं होगा ।
प्रसिद्ध व्यापार-प्रबधक साइरस फ्रीडहीम का निष्कर्ष है कि कुछ ही अरसे में विश्व-अर्थव्यवस्था का नियंत्रण जिस प्रवृत्ति से संचालित होगा, उसे ‘संयुक्त उद्यमिता’ (रिलेशनसिप एंटरप्राइज) कहा जाना चाहिए । इस प्रकार के बहुराष्ट्रीय उद्यमों की आय अधिकतर राष्ट्रों की आय से भी अधिक होगी । स्पष्ट है कि भूमंडलीकरण की यह प्रवृत्ति आर्थिक एकाधिकारवाद की ओर उन्मुख है । लेकिन इस दफा इस एकाधिकारवाद को राजसत्ता द्वारा भी नियंत्रित नहीं किया जा सकेगा, क्योंकि स्वयं राज्य की शक्ति इससे कम होगी ।
डेविड कोरटेन का कहना है कि आज की कॉरपोरेट व्यवस्था एक आयोजित प्रतिस्पर्धा का स्वांग रचती है, जिसका अर्थ है कि एक-दूसरे की प्रतिस्पर्धा में दिखाई देने वाली कंपनियां अधिकांशत: आपस में जुडी होती हैं । दूसरी ओर, वे परिधि पर रहने वाली छोटी कंपनियों के बीच प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देती रहती हैं और इसका परिणाम यह होता है कि लागत का बड़ा हिस्सा इन छोटी कंपनियों को उठाना पड़ता है और लाभ का बडा हिस्सा कॉरपोरेट जगत को मिलता है । इसका एक और उप-परिणाम यह होता है कि छोटी कंपनियां या तो इस कॉरपोरेट भूमंडलीकरण द्वारा अपने में घुला ली जाती हैं या उसकी एजेंट हो जाती हैं ।
अपने तर्क की पुष्टि के लिए कोरटेन ने कृषि-बाजार की दो वैश्विक कंपनियों- कारगिल और आर्चर डेनियल्स मिडलैंड की सयुक्त उद्यमिता का उदाहरण देते हैं जिसका परिणाम यह हुआ है कि पहले खाने पर खर्च होने वाले प्रत्येक डॉलर का 41 प्रतिशत जिस किसान को मिलता था, उसे अब केवल नौ प्रतिशत मिल पा रहा है । दूसरी ओर, उपभोक्ता को पहले से अधिक मूल्य चुकाना पड रहा है । तात्पर्य यह कि न तो इस मुक्त बाजार का लाभ उत्पादक किसान को मिल रहा है और न ही उपभोक्ता समाज को ।
भारतीय कृषि और किसान की हालत तो और भी खराब है । यह व्यवस्था न तो स्वतंत्रता को पुष्ट करती है और न समाज के लिए आर्थिक दृष्टि से लाभप्रद है । नैतिक और आर्थिक-दोनों कसौटियों पर यह खरी उतरती नहीं दिखाई पड़ती । दरअसल, छोटे उद्यमियों को बाजार की वैसी सुविधा नहीं मिल पाती, जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को सहज ही मिल जाती है, इसलिए उनके बीच वास्तविक प्रतिस्पर्धा बन ही नहीं पाती । दूसरे शब्दों में, मुक्त बाजार भी औपचारिक रूप से मुक्त कहला सकता है, पर वास्तविक अर्थो में होता कभी नहीं ।
वास्तव में, स्वयं एडम स्मिथ ने ही इस खतरे की ओर इशारा कर दिया था । उनका कहना था कि एक ही व्यापार के लोग जब आपस में मिलते हैं तो उनकी बातचीत का केंद्र अधिकांशत कीमतें बढ़ाना हो जाता है अर्थात् उनका एक समूह में बधना समाज के खिलाफ एक साजिश का रूप लेता है ।
सच तो यह है कि यदि वे वास्तविक अर्थों में प्रतिस्पर्धी तो तभी माने जा सकते हैं जब वे अपने माल को दूसरे से कम कीमत में मुहैया करवाए । लेकिन यदि वे कीमतें बढ़ाने के लिए मिल जाते हैं तो इसका सीधा मतलब यह है कि उनकी प्रतिस्पर्धा एक आभासी प्रतिस्पर्धा मात्र है, वास्तविक नहीं ।
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इसकी निष्पत्ति यह है कि जिस मानवीय स्वतंत्रता की दुहाई दी जाती है, वह इस उदारीकरण-भूमंडलीकरण में आभासी स्वतंत्रता है और समाज के जिस आर्थिक लाभ की बात की जाती है, वह भी आभास ही रहता है ।
विडंबना यह भी है कि अपने को मानवीय स्वतंत्रता का हामी बताने वाले भूमंडलीकरण को विश्व बैंक, विश्व व्यापार संगठन और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसी नियम की संस्थाएं छोटे राष्ट्रों को राजनीतिक संप्रभुता अर्थात स्वतंत्र निर्णय के उनके अधिकार का अतिक्रमण करती हुई अपनी शर्ते उन पर थोपती हैं । उल्लेखनीय है कि सयुक्त राज्य अमेरिका जैसे देश में संवेदनशील लोगों को इस अतिक्रमण का अहसास होने लगा है ।
वस्तुत: एडम स्मिथ की अवधारणा में आर्थिक या राजनीतिक, किसी भी तरह की सत्ता के केंद्रीकरण की कोई गुजाइश नहीं है । लेकिन भूमंडलीकरण न केवल अर्थसत्ता का कुछ कॉरपोरेट संस्थाओं में केंद्रीकरण करता है, बल्कि राज्यों को नियंत्रित करने का सामर्थ्य भी प्राप्त कर लेता है, जिसका तात्पर्य है कि अर्थसत्ता के साथ राजसत्ता का भी केंद्रीकरण होने लगता है ।
एडम स्मिथ ने जब मुक्त प्रतिस्पर्धा की बात की थी तो उनका तात्पर्य मानवीय उद्यम की स्वतंत्रता को पुष्ट करना था, उस स्वतंत्रता को कॉरपोरेट के नियंत्रण में लाना नहीं । स्वयं कीन्स ने कहा था कि दर्शन, कला, साहित्य आदि को तो वैश्विक संदर्भ में देखा जा सकता है लेकिन उत्पाद तो स्वदेशी-होमस्पन-होने चाहिए और अर्थव्यवस्थाएं राष्ट्रीय ही बेहतर हैं ।
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दरअसल, एडम स्मिथ जिस मुक्त बाजार की बात कर रहे हैं, वह विकेंद्रीकृत अर्थव्यवस्था में ही सभव है और जिस राष्ट्रीय उत्पाद की बात कीन्स करते हैं, वह केवल ‘स्वदेशी’ में । वास्तविक लक्ष्य मानवीय स्वातंत्र्य है । क्योकि न केवल वह नैतिक और इसलिए सांस्कृतिक है, बल्कि मानवता के आर्थिक-राजनीतिक-सामाजिक कल्याण का भी आधार है । इसी अर्थ में नैतिक और आर्थिक परस्पराश्रित और परस्परपोषी होते हैं । भूमंडलीकरण की आर्थिकी ने केवल निरर्थक, बल्कि नैतिक-आर्थिक स्तरों पर हानिकारक साबित हुई है ।