युवा असन्तोष एवं आन्दोलन पर निबन्ध | Essay on Young Discontent and Agitation in Hindi!
प्रस्तावना:
भाषा, धर्म, जाति, वंश, लिंग, आयु आदि को लेकर हमारे देश में अनेक रूढ़ियाँ, भेदभाव एवं अन्धविश्वास अभी भी विद्यमान हैं । ऐसी विसंगतियों को बनाये रखने का उत्तरदायिल वस्तुत: हमारे देश की अनेक महान छवियों को जाता है, जो देश एवं समाज को खोखला करती हैं ।
महान छवियों से तात्पर्य यहाँ पर कोई विचारक, विद्वान, नेता, राजनीतिज्ञ अथवा राजनेताओं से नहीं अपितु समाज में प्रतिष्ठित ऐसे महानुभवों से है जो अपने को दूसरों से सदैव ही श्रेष्ठ समझते हैं, भले ही वह संक्कार विहीन ही । एक ऐसी ही छवि प्राय: हमारे देश के युवाओं की भी है । उनकी रूढ़िबद्ध छवि यह है कि वे उग्रवादी, विद्रोही क्रान्तिकारी, विवेकहीन, अपरिपक्व, एवं रूढ़िवादी होते हैं ।
चिन्तनात्मक विकास:
यह सही है कि युवावर्ग बाहरी प्रभावों के प्रति अतिसंवेदनशील होते हैं और दूसरों की नकल हमेशा करते हैं । किन्तु इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं कि युवा वर्ग हमेशा ही विद्रोही, आक्रमणकारी, विध्वंसक, विवेकहीन, अपरिपक्व, रूढ़िवादी एंब आतंकवाद में बिश्वास रखता है ।
जब सामाजिक स्यवस्था में व्याप्त विरोधाभास, राजनीति में उत्पन्न भ्रष्टाचार, आर्थिक असमानताओं के कारण सभी व्यक्तियों में देश एवं समाज के प्रति मोहभंग हो जाता है तो वह किसी न किसी रूप में विद्रोही हो ही जाता है, तो ऐसी स्थिति में युवाओं से ही क्यों आशा की जाती है कि वे ही पारम्परिक नैतिक मूल्यों एवं आदर्शो के अनुसार चलें ।
युवा जब देखते हैं कि समाज की प्रत्येक संस्था चाहे वह शैक्षणिक हो, राजनैतिक, सामाजिक, अथवा अस्थिंक हो उनकी कथनी व करनी में एक चौड़ी खाई है तो उनके भीतर असन्तोष उत्पन्न हो जाता है और यही असन्तोष उनके द्वारा किये जाने वाले उत्तेजनापूर्ण आन्दोलर्नो के रूप में परिवर्तित हो जाता है ।
अत: युवाओं में इन उत्तेजनापूर्ण आन्दोलनों को नियन्त्रित एवं कम करने के लिए माता-पिताओं, शैक्षणिक संस्थाओं, राजनीतिज्ञ, नेताओं और प्रशासन व्यवस्था आदि सभी का पर्याप्त सहयोग अति आवश्यक है ताकि उनके अन्दर आशा, विश्यास, उत्साह, साहस, जागृति, आपसी प्रेम-सहयोग आदि की भावना पैदा हो सके ।
उपसंहार:
कोई भी इतना बेवकूफ और पागल नहीं होता जो बेवजह स्वयं को, अपने परिवार को, समाज को एवं देश को हानि पहुँचाये । प्रत्येक गलत अथवा सही कार्य के पीछे कोई न कोई कारण अवश्य होता है । युवाओं द्वारा व्यक्त किये जाने वाले असन्तोष एवं आन्दोलन के पीछे भी अनेक कारण हैं ।
युवाओं के आन्दोलनों को नियन्त्रित किया जा सकता है । आवश्यकता एकजुट होने की है । परस्पर सहयोग, सद्भावना, सहिष्णुता, आदर, प्रेम, नैतिक मूल्यों एवं आदर्शो को युवाओं में पैदा करने की है । तभी देश का सामाजिक, अत्विक एयं राजनीतिक विकास समन्वित रूप से हो सकता है ।
असन्तोष किसे कहते हैं ? असन्तोष क्या है ? राजनैतिक असन्तोष किसे कहते हैं ? आर्थिक असन्तोष किसे कहते हैं ? सामाजिक असन्तोष क्या है अथवा छात्र असन्तोष क्या है ? इत्यादि प्रश्नों का एक ही उत्तर हैं-अशान्त स्थिति । यह अशान्त स्थिति फिर चाहे किसी भी क्षेत्र में हो । यह स्थिति वास्तव में मोहभंग और नाराजगी की स्थिति होती है ।
ADVERTISEMENTS:
यदि एक विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों में असन्तोष है तो उसे छात्र आन्दोलन की समस्या के रूप में नहीं लिया जाएगा अपितु जब सम्पूर्ण देश में विद्यार्थी शिक्षण-प्रशिक्षण संस्थाओ में प्रवेशो, पाठ्यक्रमों, परीक्षा प्रणाली और शैक्षिक समितियो प्रतिनिधित्व आदि जैसे सामूहिक मामलों पर कुंठित होते है तब हम कहते हैं कि युवाओ में सन्तोष की समस्या है ।
इसी प्रकार सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक क्षेत्रों में भी असन्तोष ही स्थिति उत्पन्न हो जाती है, किन्तु सभी क्षेत्रों में असन्तोष के कारण भिन्न-भिन्न होते हैं । युवा असन्तोष की परिभाषा इस प्रकार की जा सकती है कि द द यह समाज में युवाओ द्वारा पामूहिक कुण्ठा की अभिव्यक्ति है ।
छात्रों में व्याप्त असन्तोष ही छात्र आन्दोलन का कारण बनता ट्रे । युवा असन्तोष तीन रूपों में देखा जा सकता है; (1) युवाओं में असन्तोष, (2) युवाओं के कारण प्रशान्ति, (3) देश में सामाजिक अशान्ति और उसका युवाओं पर प्रभाव । वास्तव में असन्तोष अन्याय ते प्रति घृणा की अभिव्यक्ति है । सामाजिक विरोध और प्रतिवाद एक ऐसे विचार अथवा व्यवहार नीति की अस्वीकृति की अभिव्यंजना है जिसे रोकने या टालने में एक व्यक्ति शक्तिहीन होता है ।
यह प्रत्यक्ष कार्यवाही न होकर असन्तोष व्यक्त करने का एक तरीका है । सामाजिक विरोध के महत्वपूर्ण तत्व हैं; (1) कार्यवाही किसी शिकायत को व्यक्त करती है, (2) यह अन्याय के प्रति दृढ विश्वास को इंगित करता है, (3) विरोधी सीधे ही अपने प्रयत्नों से इस स्थिति को नहीं सुधार सकते हैं, (4) कार्यवाही लक्षित समूह को सुधारक कदम उठाने के लिए उकसाती है और (5) विरोधी लक्षित समूह को प्रेरित करने के लिए बल प्रयोग, समझाना-बुझाना, सहानुभूति और डर के सम्मिश्रण का प्रयोग करते हैं ।
सामाजिक विरोध के कारण ही आक्रमण और आन्दोलन हो सकते हैं । यह आक्रमण अकारण हमला है । यह वह व्यवहार है जिसका उद्देश्य किसी व्यक्ति को चोट अथवा हानि पहुंचाना है । जहाँ तक उत्तेजनापूर्ण आन्दोलन का प्रश्न है तो इसका उद्देश्य शिकायत और अन्याय को सत्तारूढ व्यक्तियों के ध्यान में लाना होता है । यह सत्ताधारियों को सचेत करने, प्रभावित करने, उत्तेजित करने, चिन्तित करने और घबरा देने के लिये किया जाता है ।
उत्तेजनापूर्ण आन्दोलन में दबाव-समूह के दावपेज हमेशा होते हैं, परन्तु सामाजिक आन्दोलन में वे हो भी सकते हैं और नहीं भी । वस्तुत: छात्र आन्दोलन एक ऐसा व्यवहार है जिसका उद्देश्य किसी को हानि अथवा चोट पहुँचाना नहीं होता, वरन् यह एक सामाजिक विरोध है ।
यह न तो अन्तर्जात विध्वसक प्रवृत्ति है और न ही कुण्ठाओं के प्रति अन्तर्जात प्रतिक्रिया । इसे सीखना पड़ता है । युवा उत्तेजनापूर्ण आन्दोलन के कई रूप हैं; प्रदर्शन, नारेबाजी, हडताल, भूख-हडताल, रास्ता रोको, घेराव, परीक्षा का बहिष्कार आदि ।
उत्तेजना से परिपूर्ण छात्र आन्दोलन हिसंक एवं अहिंसक दोनों ही तरह के हो सकते है । 1988 में भारत में 5,838 विद्यार्थी उत्तेजक आन्दोलनों में से केवल 18 प्रतिशत हिंसक थे, जबकि 1987 में 15 प्रतिशत उत्तेजनापूर्ण आन्दोलन, 1986 में 43 प्रतिशत, और 1985 में 19.0 प्रतिशत हुये ।
इसके अतिरिक्त 1988 में विद्यार्थियों के उत्तेजनापूर्ण आन्दोलनों में से 560 प्रतिशत गैर-शैक्षिक विषयों से, और 25.0 प्रतिशत बस के किराये अथवा साम्प्रदायिक तनाव से सम्बधित थे । उत्तर भारत के कई विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में अगस्त और सितम्बर, 1990 में आरक्षण के मामले पर विद्यार्थियो के उतेजनापूर्ण आन्दोलनों की समस्या उठ खडी हुई थी और वे लगभग दो महीने बंद रहे ।
ADVERTISEMENTS:
गुजरात में 1985 में आरक्षण विरोधी उत्तेजनापूर्ण आन्दोलन हुआ, असम मे 1984 मे हुआ । पंजाब में खालिस्तान के लिए उग्रवादियों का उत्तेजनापूर्ण आन्दोलन तथा जम्पू और कश्मीर में स्वतन्त्र कश्मीर के लिए और बिहार में झारखण्ड राज्य के लिए जनजातियों की मांग भी सम्बंधित सच्चा में युवाओ की कुण्ठा के रूप में समझी जा सकती है ।
यह आवयश्क नहीं कि छात्र आन्दोलन सदैव ही दमनकारी अथवा हिसंक होते हैं । वे कई बार प्रत्ययकारी तकनीक का भी उपयोग करते हैं । छात्र असन्तोष अथवा आन्दोलन के कई प्रकार हैं । जैसे; प्रथम, प्रत्ययकारी उतेजनापूर्ण आन्दोलन । यहाँ युवा छात्र सतारूढ़ व्यक्तियों के साथ बैठकर अपनी समस्याओं पर उनसे चर्चा कर उनकी प्रतिक्रियाओं को परिवर्तित करने का प्रयास करते है और अपने दृष्टिकोण पर उनकी सहमति के लिए दबाव डालते हैं ।
इसका दायरा कम महत्वपूर्ण विषयों (परीक्षाओं को आगे सरकाना, प्रवेश तिथि को आगे बढ़ाना) से लेकर महत्वपूर्ण विषयों (शैक्षिक समितियों में प्रतिनिधित्व देना, विद्यार्थियों को निर्णयात्मक प्रक्रियाओं के साथ सम्बद्ध करना) दोनों तक होता है ।
द्वितीय, विरोधात्मक उत्तेजनापूर्ण आन्दोलन । इन आन्दोलनों का मुख्य उद्देश्य सत्तारूढ़ व्यक्तियों को अपने दायरें में रखना होता है । अधिकारी वर्ग द्वारा किये गये कई परिवर्तन युवाओं एवं छात्रों को परेशान करने वाले होते हैं और उन्हें लगता है कि उनके कई बहुमूल्य वर्ष व्यर्थ में गंवाए जा रहे हैं, या उनके न्यायसंगत अवसरों से उन्हें वंचित किया जा रहा है या उनकी जीविकाओं पर खराब असर पड़ने वाला है ।
ADVERTISEMENTS:
उदाहरणार्थ, विश्वविद्यालय को इस निर्णय का कि उत्तरपुस्तिका के पुनर्मूल्यांकन पर घटा कर अंक दिये जायें तो विद्यार्थियों ने उत्तेजनापूर्ण आन्दोलन करके इसका विरोध किया फलस्वरूप शैक्षिक परिषद को अपना यह निर्णय बदलना पड़ा ।
तृतीय, क्रान्तिकारी उतेजनापूर्ण आन्दोलन । इसका उद्देश्य शैक्षणिक एवं सामाजिक व्यवस्था में व्यापकस्तरीय परिवर्तन लाना होता है । उदाहरणार्थ, अधिकारियों को बाध्य किया जाता हे कि विद्यार्थी को अनुत्तीर्ण न कर उसे आगे की कक्षाओं में चढ़ा दिया जाये आदि ।
इन सभी आन्दोलनों में प्राय: वही छात्र भाग लेते हैं जो अपने को समाज से कटा हुआ अनुभव करते हैं एवं अलगाव का अनुभव करते हैं, जो जीवन में सन्तोषजनक भूमिका प्राप्त करने में असफल रहते हैं, जिनके अपने परिवारों से घनिष्ठ सम्बंध नहीं होते, वे युवा जो अपनी जाति, धर्म एवं भाषा आदि को स्वीकार नहीं करते और असुरक्षित, अप्रसन्न चिन्तित रहते हैं, प्रवासी युवाओं को किसी बड़े समुदाय से जुड़ने के अवसर प्राप्त नहीं होते । अत: उन्हें उत्तेजनापूर्ण आन्दोलनों से जुडने का अवसर प्राप्त होता है ।
यदि उतेजनापूर्ण आन्दोलनों में भाग लेने वाले युवाओं की संख्या कम है तो वह अधिक दिन नहीं चलता, किन्तु यदि संख्या अधिक है और सत्तारूढ़ व्यक्तियों का ध्यान आकर्षित करने हेतु पर्याप्त है तो आन्दोलन में स्थिरता आ जाएगी और युवाओं में समर्पण एवं जोश की भावना भी उत्पन्न हो जाएगी ।
ADVERTISEMENTS:
ADVERTISEMENTS:
छात्रों की भावनाएं, रोष एवं पूर्वाग्रह भी उत्तेजनापूर्ण आन्दोलनों को प्रेरणा प्रदान करते हैं । क्या विद्यार्थी अध्यापकों के विरूद्ध नारेबाजी करेंगे ? स्कूलों अथवा विश्वविद्यालयों की सम्पत्ति को नष्ट करेंगे ? क्या वे प्रधानाचार्य या कुलपति को कोई नुकसान पहुँचाएंगे ? क्या वे असामाजिक तत्वों से सहायता लेंगे ? क्या वे दमनकारी साधनों से जनता से चंदा लेंगे आदि ? इन सबका निर्णय युवाओं के नैतिक विचारों अथवा मूल्यों एवं लोकाचार पर निर्भर करता है । इसके अतिरिक्त उत्तेजनापूर्ण आन्दोलनों को बाइय नियन्त्रणों के कारण कुछ सीमाओं का सामना करना पड़ता है ।
1960 की विश्वविद्यालय अनुदान आयोत्ने समिति ने विद्यार्थियों के उत्तेजनापूर्ण आन्दोलनों के यह कारण बताये थे, (1) शुल्क कम करना, छात्रवृत्ति बढ़ाना आदि जैसे आर्थिक कारण, (2) प्रवेश, परीक्षाओं और अध्यापन के चालू प्रतिमानों में परिवर्तनों की मांग करना, (3) महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में ठीक से काम नहीं होना, जैसे प्रयोगशालाओं हेतु रसायनों और उपकरणों या पुस्तकालयों के लिए पुस्तकें और पत्रिकाओं की खरीद नहीं करना, (4) विद्यार्थियों एवं अध्यापकों के बीच टकराव के संबंध, (5) प्रांगण में अपर्याप्त सुविधाएं, जैसे अपर्याप्त छात्रावासों, छात्रावासों में खराब भोजन, थैन्टोन का न होना और पेयजल की सुविधाओं का अभाव और (6) युवा नेताओं का राजनीतिज्ञों द्वारा भड़काया जाना ।
इनके अतिरिक्त युवा आन्दोलनों के अन्य कारण भी हैं । सबसे प्रमुख कारण है-युवाओं में व्याप्त पर्याप्त असन्तोष । ऐसे क्रुद्ध युवक घोर अन्याय से पीडित होते हैं । स्वाधीनता के पश्चात् भारत में युवाओं ने भ्रष्टाचार, असमानता, शोषण, राजनीतिक सात- गांठ, पुलिस की ओर नृशंसता, धार्मिक कट्टरवाद, प्रशासनिक निर्दयता आदि शोषण बिना किसी सामाजिक विरोध के सहन किया है ।
ADVERTISEMENTS:
वस्तुत: इतना व्यापक असन्तोष उतेजनापूर्ण आन्दोलनों के लिए आग में तेल का काम करता है । प्राय: वे ही युवक इन आन्दोलनो मे भाग लेते हैं जो अप्रसन्न हैं, कुण्ठित हैं जिनके जीवन में धन एवं पूर्ति का अभाव होता है, जो अपने लक्ष्यो एवं उद्देश्यों को प्राप्त नहीं कर पाते, तुलनात्मक दृष्टि से जो अपने को कम प्रतिभाशाली महसूस करते हैं अवसरों का अभाव, बेरोजगारी, जाति पर आधारित स्मरक्षण, उच्च शिक्षा की सीमाएं और प्राय: ऐसे युवक जिनमें बहुमूल्य वस्तुओं को पाने की लालसा होती है, परन्तु उन्हें यह नहीं मालूम होता कि इन चीजों को प्राप्त करने हेतु क्या कुछ नहीं करना पड़ता ।
ये सब कारण ऐसे हैं जिनसे युवक अत्यधिक दुखी हो जाते हैं फलस्वरूप छात्र असन्तोष एव युवा नेतृत्च का उतेजनापूर्ण आन्दोलनों एव आन्दोलनों की तीव्रता और दिशा पर भारी असर पड़ता है । युवा नेता के प्रमुख कार्य हैं; प्रथम, अपने समूह के सदस्यों के साथ उत्तरदायी, विश्वसनीय और भद्र संबंध स्थापित करना । वह उनकी भावनाओं को समझता है और उनकी भाषा बोलता है । द्वितीय, सदस्यो के साथ उनकी समस्याओं और शिकायतों का जोशीला तकाजा करके एक भावात्मक घनिष्ठता स्थापित करना ।
वह उन्हें एक उद्देश्य से दूसरे उद्देश्य की ओर अपनी गतिविधि करने के लिए प्रेरित करता है । तृतीय, लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए कार्यवाही का सुझाव देना । यह प्रदर्शन., रास्ता रोको घेराव, हड़ताल, और कक्षाओं के बहिष्कार का रूप धारण कर सकता है ।
यह कार्य केवल उन्हीं युवा नेताओं द्वारा सफलतापूर्वक किये जा सकते हैं जिनमें विशेष गुण होते हैं और जिनकी कुछ पृष्ठभूमि होती है । चंचल सरकार (1960) को विभिन्न विश्वविद्यालयों के विद्यार्थी संघों के पदाधिकारियों और नेता बनाने वाले छात्रों के अध्ययन ने यह उद्घाटित किया है कि संघ के नेता प्रमुख रूप से वे हैं; (1) जिसके पास पैसा है, (2) जिनकी ऊँची अकादमिक आकांक्षाएं नहीं हैं, (3) जिनको कुछ राजनैतिक समर्थन प्राप्त है, (4) जो अच्छे वक्ता हैं और (5) जो जोड़ तोड़ कर सकते हैं ।
युवाओं के द्वारा किये जाने वाले उत्तेजनापूर्ण आन्दोलनों में पुलिस की भूमिका उस समय प्रारम्भ होती है जब युवा हिंसा एवं दमनकारी प्रवृत्तियों में लिप्त होते हैं, जनसम्पत्ति को नष्ट करते है, प्रशासनिक अधिकारियों का घेराव करते हैं, बंध का आस्वान करते हैं, और दुकानदारों को बाजार बन्द करने के लिए बाध्य करते हैं ।
उपरोक्त सभी परिस्थितियों में युवा उतेजनापूर्ण आन्दोलनी को नियन्त्रित करना अति आवश्यक हो जाता है । इस संदर्भ में हम कुछ सुझाव दे सकते हैं; पहला, एक सामान्य युवा पुरुष प्राय: कल्पनाशील, प्रतिस्पर्द्धी एवं व्यक्तिवादी होता है । उसके जोश एवं उत्साह को नियन्त्रित करने के लिये उनका मार्गदर्शन करना अत्यधिक आवश्यक है ।
ADVERTISEMENTS:
युवकों को अपने रोष एवं गुबार को अभिव्यक्त करने की क्षमता उत्पन्न करना सीखाना चाहिए चूंकि यदि वह अपने रोष एवं गुबार को अभिव्यक्त नहीं करते तो उसे निकालने के लिए वह आन्दोलनों का सहारा लेते है । दूसरा, युवाओं एवं छात्रों, माता-पिता, प्राध्यापकों शैक्षणिक प्रशासकों, राजनीतिज्ञों और राजनीतिक दलों को युवाओं की समस्याओ को समझना चाहिए तथा उनकी विभिन्न समस्याओ के उचित समाधान हेतु उन्हें दिशा-निर्देश देने चाहिएं ।
तीसरा, प्रत्येक शिक्षण-प्रशिक्षण संस्थाओं में छात्रों के साथ प्राध्यापकी, शैक्षणिक प्रशासकों का सहसम्बंध होना चाहिए ताकि यह युवा छात्रों की शिकायतों की पहचान कर उनका समाधान करें । शिकायतों के समाधान के लिए प्रभावी उपाय यह हैं, (1) वरिष्ठ अधिकारियों तक पहुँच, (2) शिकायत पर कार्यवाही कम से कम एवं निश्चित समय पर हो सके, (3) मानीटर प्रणाली की स्थापना और प्राध्यापकी एवं अधीनस्थ प्रशासनिक स्टाफ के नियमित रूप से रिपोर्ट लेना और (4) कुलपति या डीन या जो व्यक्ति सत्ता में है उनके द्वारा अकस्मात निरीक्षण ।
चौथा, शैक्षणिक प्रशासन की प्रक्रिया में छात्रों की भागीदारी की सीमा के प्रश्न पर और उसका स्वरूप क्या हो, शीघ्रातिशीघ्र निर्णय लेना चाहिए । पांचवा, सभी राजनीतिक दलों में छात्रों के राजनीति में भाग लेने के सम्बंध में एक आम आचार संहिता पर सहमति होनी चाहिए । छठा, शैक्षणिक संस्थाओं में पुलिस हस्तक्षेप के सम्बंध में सुस्पष्ट नियम बनाये जाने चाहिएं इत्यादि । यह सभी कुछ उपाय हैं जो युवाओं में व्याप्त असन्तोष एवं आन्दोलन को कम एव नियन्त्रित कर सकते हैं ।
निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि अब वह समय आ गया है कि भारत देश की इस विशाल युवा शक्ति को जो अभी तक उपेक्षित रही है उचित नेतृत्च एव मार्गदर्शन द्वारा विकासात्मक कार्यों, सामाजिक एवं राजनैतिक अन्याय एवं शोषण को दूर करने हेतु और राष्ट्रीय सामूहिक लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु लगाया जाये ।
उनमें दमन, हिंसा एवं टकराव के स्थान पर आस्था, विश्वास, साहस, धैर्य, सहिष्णुता, त्याग, प्रेम, सद्भाव जैसे गुणो को विकसित किया जाये । आवश्यकता ऐसा वातावरण तैयार करने की है और युवाओं को संगठित करने की । तभी समस्त राष्ट्र का विकास सम्भव है ।