राज्यपाल की भूमिका पर सवाल पर निबंध | Essay on Question Mark on Governor’s Role in Hindi!

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राज्यपाल जैसे महत्वपूर्ण एवं संवैधानिक पद पर राजनेताओं की नियुक्ति एवं उनके बार-बार स्थानांतरण के बहाने एक बार फिर राज्यपालों की नियुक्ति, उनके अधिकारों को लेकर कुछ सवाल उठने लगे हैं कि राष्ट्रपति की भांति राज्यपाल का भी क्यों निर्वाचन नहीं किया जाता? एक बार यह प्रस्तावित किया गया था, लेकिन इस विचार को रद्द कर दिया गया ।

संघीय प्रणाली में राज्यपाल प्रांत का उसी तरह सांविधानिक प्रमुख होता है जैसा कि केंद्र में राष्ट्रपति । भारतीय लोकतंत्र इन दोनों की अक्षुण्णता पर निर्भर करता है । संविधान सभा में 30 दिसंबर, 1948 को डॉ बी. आर. अंबेडकर राष्ट्रपति द्वारा प्रधानमंत्री की नियुक्ति और लोकसभा को भंग करने के अधिकार पर विचार व्यक्त कर रहे थे तब मोहम्मद ताहिर ने उनसे पूछा कि इस आधार पर राज्यों में राज्यपाल और मंत्रियों की स्थिति की व्याख्या कैसे की जायेगी, जहाँ विवेकाधिकार राज्यपाल के पास होगा? जवाब में डॉ. अंबेडकर ने कहा कि राज्यपाल की स्थिति राज्य में ठीक वैसी ही होगी, जैसी कि केंद्र में राष्ट्रपति की ।

बहरहाल जब 30 मई, 1949 को राज्यपाल पर संविधान सभा में बहस शुरू हुई तो स्थिति स्पष्ट की गई । हमने पिछले कुछ वर्षो में देखा है कि राज्यपाल संविधान के साथ मनमाने ढंग से खिलवाड़ करते हैं, लेकिन तब तक उनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता, जब तक वे केंद्र के सत्ताधारी दल के अनुसार काम करते रहते हैं । आमतौर पर राज्यपालों की नियुक्ति ही इसी हिसाब से की जाती है कि राज्यों में शासन करने वाले विरोधी राजनीतिक दल के खिलाफ वे केन्द्र के सत्ताधारी दल के प्रतिनिधि के रूप में काम करें ।

राज्यपालों की नियुक्ति और बर्खास्तगी के केंद्र के अधिकार के आड़े कोई अवरोध नहीं है । वे पुलिस के दरोगा की तरह कहीं भी स्थानांतरित किये जा सकते हैं । अनुच्छेद 156(6) कहता है कि राज्यपाल राष्ट्रपति की मर्जी के मुताबिक अपने पद पर रह सकता है । उसके कार्यकाल की भी कोई सुनिश्चितता नहीं है, जबकि नियुक्ति पांच वर्ष के लिए होती है । फिर भी वह राष्ट्रपति की भांति अधिकारों का पूरा उपभोग कर सकता हैं । संविधान के अनुच्छेद 361 के अनुसार राज्यपालों को राष्ट्रपति के बराबर अधिकार है ।

राष्ट्रपति और राज्यपाल अपने अधिकारों व कर्त्तव्यों के पालन के संदर्भ में किसी भी अदालत के प्रति जवाबदेह नहीं होंगे । यह भी प्रावधान है कि अनुच्छेद 61 के तहत राष्ट्रपति पर लगाए गए आरोपों की जांच संसद द्वारा कराई जा सकती है । राज्यपालों के संदर्भ में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है । राज्यपाल या राष्ट्रपति के खिलाफ उनके कार्यकाल के दौरान न तो कोई आपराधिक कार्रवाई संस्थापित की जा सकती, न ही जारी रखी जा सकेगी ।

चूँकि राज्यपाल के खिलाफ महाभियोग चलाने का प्रावधान नहीं है, इसलिए जब तक केंद्र उस पर प्रसन्न है, तब तक उसे नहीं हटाया जा सकता है । निश्चित ही संविधान के निर्माताओं की ऐसी कोई मंशा नहीं रही होगी । सरकारिया आयोग और प्रशासनिक सुधार आयोग ने इस बेतुकी स्थिति पर ध्यान खींचा है ।

संविधान सभा में 30 एवं 31 मई, 1949 को हुई बहस को याद करते हुए आज दुःख होता है । राष्ट्रपति द्वारा नामांकित करने के प्रावधान के बावजूद संविधान के निर्माताओं ने राज्यपाल की स्वतंत्रता और निष्पक्षता सुनिश्चित करने की दिशा में कोई खास जोर नहीं दिया । इस बहस में हस्तक्षेप करने वाले प्रमुख नेताओं में पंडित जवाहरलाल नेहरू, कृष्णास्वामी अय्‌यर एवं टीटी कृष्णामाचारी तीनों ने इस बात पर जोर दिया था कि राष्ट्रपति द्वारा राज्यपाल नियुक्त करते समय प्रांत के मुख्यमंत्री की अनिवार्य सहमति होनी चाहिए ।

संविधान सभा द्वारा राष्ट्रपति को राज्यपाल नियुक्त करने का प्रावधान इसी बहस के आधार पर स्वीकार किया गया था । सुप्रीम कोर्ट ने 4 मई 1979 को डॉ. रघुकुल तिलक के मामले में जोरदार शब्दों में एक कानूनी व्यवस्था दी ।

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इसमें कहा गया कि इस बात पर कोई संदेह नहीं है कि राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है और निश्चित ही प्रकारांतर से यह केन्द्र शासन से प्रभावित होती है, लेकिन यह सिर्फ नियुक्ति का तरीका मात्र है । यह आधार राज्यपाल को केन्द्र सरकार का कर्मचारी या उसका अधीनस्थ नहीं बनाता । सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा था कि उसका कार्यकाल भारत सरकार के अधीनस्थ नहीं है, वह अपने अधिकारों व कर्त्तव्यों का निर्वहन करते हुए न तो कोई निर्देश मानने को बाध्य है और न ही जवाबदेह ।

वह एक स्वतंत्र सांविधानिक संस्था है । यह तो कानून की बात हुई । अब वास्तविकता क्या है? 3 अगस्त, 1983 को बैंगलूरू में केन्द्र-राज्य संबंधों पर आयोजित एक सेमिनार को संबोधित करते हुए कर्नाटक के तत्कालीन मुख्यमंत्री रामकृष्ण हेगड़े ने टिप्पणी की कि आज राज्यपाल केन्द्र के महिमंडित नौकर के रूप में तब्दील हो चुके हैं । कर्नाटक के तत्कालीन राज्यपाल ने नाराजगी भरे लहजे में इसका खंडन किया ।

हेगड़े ने इस चुनौती को स्वीकार किया व 17 अगस्त को राज्यपाल के पद व कार्यालय पर केंद्रित वह चर्चित श्वेतपत्र जारी किया जिसमें राज्यपाल की सांविधानिक स्थिति और राजनीतिक सरोकारों का पूरा दस्तावेजी वृतांत था । राज्यपाल के पद पर जो स्थिति 25 – 30 साल पहले थी, उसमें रत्ती भर भी सुधार नहीं आया, उल्टे उत्तरोत्तर इस पद की गरिमा का क्षरण ही हुआ है ।

ऐसी बात नहीं कि राज्यपाल के निर्वाचन के प्रावधान की बात कभी आयी ही न हो । सरदार पटेल ने प्रोंविशिल कांस्टीट्‌यूशन कमेटी की रिपोर्ट संविधान सभा को अग्रेषित की थी, जिसमें राज्यपाल के निर्वाचन का प्रावधान था, लेकिन जब फरवरी 1948 को संविधान का ड्रापट प्रकाशित किया गया तो राज्यपाल के निर्वाचन के प्रावधान को खारिज कर नामांकन के प्रावधान को इस आधार पर स्वीकार किया गया कि सुझाये गये प्रावधान से दो निर्वाचित शक्ति केन्द्र बन जायेंगे । डॉ. अंबेडकर ने कहा कि राज्यपाल की शक्तियां सीमित हैं, इसलिए सांविधानिक राज्यपाल के निर्वाचन का क्या औचित्य है?

राज्यपालों की नियुक्ति की नई प्रणाली विकसित होनी चाहिए । इसका विकल्प यह है कि राज्य की विधानसभा प्रतिनिधित्व के आधार पर तीन या चार नामों का एक पैनल बनाए और राष्ट्रपति उन्हीं में से एक को राज्यपाल नियुक्त करें ।

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