रेलवे दुर्घटना | Essay on Train Accident in Hindi!

२५ फरवरी, २००५ । न धूप में तेजी और न जाड़े की ठिठुरन । मौसम सुहावना और यात्रा के लिए सुखद था । मुझे अपने एक संबंधी की पुत्री के विवाहोत्सव में सम्मिलित होने के लिए आगरा से मेरठ जाना था । २६ फरवरी को पाणिग्रहण संस्कार संपन्न होनेवाला था, इसलिए मैंने २५ फरवरी की रात की गाड़ी से मेरठ के लिए प्रस्थान करने का निश्चय किया ।

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गाड़ी राजामंडी स्टेशन से ३ बजकर १० मिनट पर छूटती थी । मेरे घर के आस-पास रिक्शा, ताँगा आदि का अड्‌डा नहीं था । ऐसी दशा में भोजनादि से निवृत्त होकर मैंने रात्रि के १० बजे ही स्टेशन जाना उचित समझा । मेरे साथ एक सूटकेस और होल्डाल था ।

एक रिक्शा मँगाकर मैंने उस पर अपना सामान रखा और इष्टदेव का स्मरण कर स्टेशन की राह ली । सड़क सूनी पड़ी थी । उसके एक ओर बिजली की बत्तियाँ टिमटिमा रही थीं । मेरा रिक्शा उछलता-कूदता भागा चला जा रहा था । आधे घंटे में वह स्टेशन पहुँच गया ।

मुझे रिक्शे से उतरता देख एक कुली मेरी ओर लपका । उमने मामान अपने सिर पर लादा और मुझे प्रतीक्षालय में पहुँचा दिया । गाड़ी आने में पाँच घंटे की देरी थी, इसलिए मैं एक खाली बेंच पर अपना होल्डाल खोलकर लेट गया । गहरी नींद तो नहीं आई, पर झपकियाँ अवश्य लेता रहा ।

ढाई बजे यात्रियों का कोलाहल सुनकर मैं उठ बैठा । मेरा कुली भी ठीक समय पर आ गया । मैंने मेरठ का टिकट खरीदा और उसके साथ प्लेटफॉर्म पर पहुँचा । थोड़ी देर बाद गाड़ी आ गई । मैं उसमें अपना सामान रखवाकर बैठ गया । करीब दो-तीन मिनट बाद ही गाड़ी रवाना हो गई ।

राजामंडी से जब गाड़ी छूटी तब चारों ओर घना अंधकार फैला हुआ था और ठंडी-ठंडी हवा बह रही थी । खिड़कियाँ खुली हुई थीं, नींद के झोंके आ रहे थे । पूरा डिब्बा यात्रियों से भरा हुआ था । अपनी नींद से लड़ता-झगड़ता मैं चुपचाप बैठा रहा । कई स्टेशन आए और निकल गए । एक्सप्रेस ट्रेन थी । बड़े-बड़े स्टेशनों पर ही रुकती थी ।

फरीदाबाद पहुँचने के लिए उसे तीन स्टेशन पार करने थे । सवेरा हो गया था और सूर्य का प्रकाश चारों ओर फैल गया था । फरीदाबाद पहुँचकर मै चाय पीने का विचार कर रहा था । तीसरा स्टेशन पार कर ट्रेन ज्यों ही फरीदाबाद पहुँची त्यों ही एक जोरदार धमाका हुआ । बहुत जोर का धक्का लगा ।

ट्रेन रुक गई और मैं उछलकर अपने मुँह के बल अपनी सीट से नीचे गिर पड़ा । सीट मेरे हाथ में आ गई । दो दाँत भी टूटकर गिर पड़े । मुँह से रक्त बहने लगा । किसी तरह उठकर देखा तो डिब्बे के यात्रियों का बुरा हाल था । ऊपर से भारी-भारी सामान गिरने के कारण प्राय: सभी यात्री घायल हो गए थे और पीड़ा से कराह रहे थे ।

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यह भयानक दृश्य देखकर मेरे रोंगटे खड़े हो गए । साहस बटोरकर मैं उठा । खिड़की से झाँककर देखा तो मालूम हुआ, एक्सप्रेस एक मालगाड़ी से भिड़ गई है । अपना सामान छोड़कर मैं नीचे उतर पड़ा और इंजन की ओर बड़ा । वहाँ का भीषण दृश्य देखकर मैं चेतनाशून्य हो गया । इंजन उलट गया था ।

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उसके पासवाले दो डिब्बे छिटककर पटरी से दूर जा गिरे थे । उनमें बैठे अधिकांश यात्री बुरी तरह घायल हो गए थे । किसी का सिर फूट गया, किसी के हाथ-पैर बेकार हो गए और कुछ तो अपने जीवन की यात्रा समाप्त कर चुके थे । घायल स्त्रियों व बच्चों की चीख-पुकार और उनका विलाप सुनकर हृदय फटा जा रहा था । उस समय फरीदाबाद का स्टेशन श्मशान भूमि बन गया था । दुर्घटना का दृश्य इतना बीभत्स और हृदय-विदारक था कि उसे जड़ लेखनी अंकित नहीं कर सकती ।

रेल-दुर्घटना फरीदाबाद स्टेशन पर हुई थी, इसलिए डॉक्टरों और प्राथमिक उपचार करनेवालों की सहायता तुरंत प्राप्त हो गई । फोन से दुर्घटना का समाचार दिल्ली भेज दिया गया । वहाँ से शीघ्र ही सहायता आ पहुँची । गंभीर रूप से घायल यात्री दिल्ली भेज दिए गए और साधारण घायल यात्री फरीदाबाद के अस्पताल में भरती कर लिये गए । मलबा हटाने का कार्य भी आरंभ हो गया । टूटे डिब्बों के नीचे दबी हुई कई लाशें मिलीं ।

यात्रियों के सामान की देखभाल के लिए सिपाही नियुक्त कर दिए गए । करीब चार बजे तक मृतकों की खोज होती रही । इसी बीच दिल्ली से कई संवाददाता घटना-स्थल पर आ पहुँचे । दर्शकों की भीड़ जुट गई । रेलवे कर्मचारी घायलों और मृतकों की पते सहित सूची बनाने लगे । संवाददाताओं ने घूम-घूमकर यात्रियों के बयान दर्ज कराए । मैंने भी अपना बयान दिया । फरीदाबाद स्टेशन के अधिकारियों के भी वयान लिये गए ।

ज्ञात हुआ कि स्टेशन मास्टर की असावधानी से यह भीषण दुर्घटना हुई थी । उन्होंने एक्सप्रेस को उसी पटरी का सिगनल दे दिया था, जिस पर मालगाड़ी खड़ी थी । उनकी असावधानी से १५० यात्री यमलोक चले गए और ३५० यात्री गंभीर रूप से घायल हुए जिनमें से लगभग ५० यात्रियों के बचने की कोई आशा नहीं थी ।

प्राथमिक उपचार के बाद मैं कुछ स्वस्थ हो गया और २७ फरवरी को वहाँ से अपने घर लौट आया । दुर्घटना का भयानक दृश्य मेरे मन-मस्तिष्क पर इतना छा गया था कि मुझे मेरठ जाने का साहस ही नहीं हुआ । आज भी जब उस दुर्घटना की याद आती है तो उसका भयानक दृश्य आँखों के सामने साकार हो उठता है, तब मैं भय से सिहर उठता हूँ ।

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