लोक प्रशासन के पारदर्शिता की आवश्यकता | पर निबंध!
प्राय: यह समझना हमारी भूल होती है कि देश के प्रशासन को सही ढंग से चलाने का मुख्य दायित्व केवल राष्ट्रपति अथवा प्रधानमन्त्री का ही होता है । वास्तव में पूरी प्रशासनिक व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने का उत्तरदायित्व भारतीय लोक प्रशासन पर होता है। क्या कारण है कि देश में जड़ ही नहीं, बल्कि प्रशासन भी भ्रष्ट हो चुका है। वस्तुत: कारणों का कोई अन्त नहीं है।
यह सर्वविदित है कि आज हर क्षेत्र में भ्रष्टाचार अपनी पकड़ मजबूत किये हुये है। देश को अधारभूत ढांचा प्रदान करने के लिए आवश्यक है कि सजनीति एवं नौकरशाही व्यवस्था अपने कर्तव्यों को निष्ठापूर्वक पूरा करे, परन्तु यह बात असम्भव ही लगती है। लोक प्रशासन में सुधार हेतु अनेक कमेटियाँ गठित की गईं, फिर भी कोई सफल परिणाम नहीं निकले । एक तरफ प्रशासन में कर्मठ एवं क्षमतावान लोगों की कमी होती जा रही है तो दूसरी तरफ लाल-फीताशाह, भाई-भतीजावाद, रिश्वतखोरी आदि बुराइयाँ सम्पूर्ण नौकरशाह को कोढ़ग्रस्त बना रही हैं। इन बुराइयों के साथ-साथ नौकरशाही वर्ग पर भ्रष्ट राजनीतिज्ञों की स्वार्थ-चेतना से पिछले कुछ वर्षो से एक नई किस्म की गाज गिरी है। संक्षेप में, भारतीय प्रशासन तन्त्र की स्पष्ट तस्वीर कुछ इस प्रकार है-भ्रष्ट राजनीतिज्ञों के दबाव से पीड़ित बड़े नौकरशाह, उनके आदेशों का पालन करने के लिए विवश छोटे नौकरशाह और बीच में कराहती वैधानिक व्यवस्था। अशिक्षित जनता, दबा-कुचला बड़ा मजदूर एवं किसान वर्ग, भ्रष्ट नौकरशाह एवं नैतिकताविहीन राजनीतिज्ञ-ये सब आपस में मिलकर एक ऐसे सामाजिक तन्त्र का निर्माण कर रहे हैं जिसमें शोषण, रिश्वतखोरी, प्रशासनिक दबिश एवं अवैधानिक कार्यों का सिलसिला सतत रूप से चालू रहेगा । अत: प्रशासनिक व्यवस्था में सुधार हेतु सरकारी कार्यवाही को राष्ट्रीय स्तर पर शीघ्रातिशीघ्र अपनाया जाये, अन्यथा भ्रष्टाचार कैंसर जैसे रोग की भांति समाज की जड़ों को खोखला करता जायेगा ।
बहरहाल स्थिति यह है कि सम्पूर्ण प्रशासन तन्त्र को एक सुधार की जरूरत है और यह जरूरत तभी पूरी होगी जब सुधार के लिए कोई प्रशासनिक सुधार आयोग जैसे किसी आयोग का गठन किया जाए, जो बाजार एवं राजनीति के अनावश्यक हस्तक्षेप को न केवल कम करने के लिए महत्वपूर्ण सिफारिशें दे, बल्कि सरकार को उसे लागू करने में भी सहायोग दे ।
चाणक्य ने कहा था-” सरकारी धन का दुरुपयोग न करना उसी तरह नामुमकिन है, जैसे जीभ पर रखी चीनी को न चखना। तालाब में तैरती मछली कब दो घूंट पानी पी लेती है, पता ही नहीं चलता। ऐसा ही सार्वजनिक धन के साथ भी होता है। लेकिन अब दो घूंट वाली मछलियाँ नहीं, पूरा तालाब पीने वाले हाथी आ गए हैं। इसका दुष्परिणाम यह हो रहा है कि प्रशासन में छोटी-छोटी अनियमितताओं को स्वाभाविक प्रक्रियाएँ मान लिया गया है। ऐसी दशा में प्रशासनिक सुधार हो तो कैसे? तथा कौन करे जब रक्षक ही भक्षक हो? ”
आधुनिक समय में राष्ट्र एव राज्य का प्रमुख कार्य सामाजिक विकास, लोककल्याण, राष्ट्रीय सुरक्षा तथा न्याय की स्थापना करना है । आदिम युग मे शक्ति के सिद्धांत पर तानाशाही व्यवस्था रही । कालान्तर में अनेक राजा ऐसे भी हुए जो मानव कल्याण तथा सामाजिक विकास को अहमियत देते हुए शासन-प्रशासन व्यवस्थाओं मे अपेक्षित सुधार करते रहते थे । 17 वीं और 18 वीं शताब्दी मे एक समय ऐसा भी आया जब यह माग की जाने लगी कि ‘ अस्तक्षेपवादी राज्य ‘ की स्थापना हो अर्थात् ‘ राज्य का कार्य केवल सीमा सुरक्षा करना तथा अतिरिक व्यवस्था बनाए रखना है। व्यक्ति को पूर्णतया स्वतत्र छोड़ दो ताकि वह अपना सर्वांगीण विकास कर सके । ‘ किन्तु शीघ्र ही मानव जाति की यह समझ में आ गया कि पशु जगत का यह सिद्धांत (योग्यतम का जीवित रहना) मानव कल्याण नही कर सकता। इसी का परिणाम है कि आज सभी देशों मे सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक विकास के लिए राज्य एक अविकल्पनीय संस्था के रूप में स्थापित है। राज्य के कार्यों, नीतियों तथा कानूनों के क्रियान्वयन के लिए प्रशासन तंत्र कार्यरत है। भारतीय लोक प्रशासन ब्रिटिश साम्राज्य की संतान माना जाता है ।
भारतीय लोक प्रशासन को जनसाधारण की अपेक्षाओं तथा परिवर्तित परिस्थितियों के अनुरूप ढालने के लिए भारत सरकार द्वारा अनेक समितियाँ तथा आयोग समय-समय पर गठित हुए हैं। संपूर्ण लोक प्रशासन पर सामान्य सर्वेक्षण तथा सुधारों के लिए अब तक लगभग 30 प्रशासनिक सुधार समितियाँ गठित हुईं हैं।
किसी मंत्रालय या विभाग विशेष की कार्यप्रणाली तथा समस्या को लेकर गठित हुए आयोगों तथा समितियों की समग्र संख्या को जोड़ा जाए तो यह संख्या 300 से भी अधिक बताई जा रही है। उल्लेखनीय है कि इन समितियों से प्राप्त प्रतिवेदन अधिकांशत: सरकार द्वारा स्वीकार किए गए थे। लेकिन विगत में प्रशासनिक क्रियाकलापों कार्यकुशलता तथा जवाबदेही में कोई उल्लेखनीय परिवर्तन आया हो ऐसा कहा नहीं जा सकता है । भारत का नागरिक यहाँ के प्रशासनिक तंत्र से आकंठ दु:खी है।।
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प्रशासनिक सुधारो पर प्राप्त हुए प्रतिवेदनों के उपरांत भी यदि अपेक्षित सुधार नजर नहीं आये हैं तो इसके दो ही कारण हैं या तो सुझाये गये उपाय व्यावहारिक नहीं थे अथवा सरकार ने उन्हें पूर्ण मनोयोग से कार्यान्वित नहीं किया । यद्यपि सभी समितियों के प्रतिवेदन महत्वपूर्ण हैं तथापि ” प्रशासनिक सुधार आयोग( ए. आर.सी.) ” के प्रतिवेदन सबसे विस्तृत गंभीर व्यावहारिक तथा उल्लेखनीय माने जाते हैं। 5 जनवरी, 1966 को श्री मोरारजी देसाई की अध्यक्षता में ” प्रशासनिक सुधार आयोग ” का गठन हुआ । मार्च 1967 मे उपप्रधानमंत्री बन जाने के कारण श्री देसाई ने प्रशासनिक सुधार आयोग की अध्यक्षता छोड़ दी तथा आयोग के सदस्य के. हनुमन्तैया अध्यक्ष बने । अन्य सदस्य थे-एच.वी. कामथ, देवव्रत मुखर्जी, टी.एन. सिह तथा वी. शंकर। विभिन्न क्षेत्रो के इन विद्वान सदस्यों ने देश भर की प्रशासनिक व्यवस्था का गंभीर अध्ययन किया तथा सन् 1966 से 1970 के दौरान भारत सरकार को 20 प्रतिवेदन प्रदान किए जो क्रमश: नागरिकों के कष्टों व शिकायतों को दूर करने की समस्याएँ, नियोजन की दफ्तरी व्यवस्था, सरकारी क्षेत्र के उद्यम, वित्त, लेखे तथा लेखा परीक्षण, आर्थिक प्रशासन, जीवन बीमा प्रशासन, केन्द्रीय प्रत्यक्ष कर प्रशासन, संघीय क्षेत्र तथा नेफा प्रशासन, कार्मिक वर्ग प्रशासन, वित्तीय तथा प्रशासनिक शक्तियों का हस्तांतरण केन्द्र राज्य संबंध, रध्य प्रशासन, छोटे पैमाने का क्षेत्र, रेलें, राजकोष, भारतीय रिजर्व बैंक, डाक-तार तथा वैज्ञानिक विभाग से संबंधित थे। सरकार ने आयोग की अधिकांश सिफारिशें स्वीकार तो की, किंतु व्यावहारिक रूप से पालन करने का आलमयह है कि आयोग द्वारा सुझायी गई ‘ लोकपाल संस्था ‘ आज तक स्थापित नहीं हुई । लोकसभा में लोकपाल विधेयक विभिन्न प्रधानमंत्रियों के कार्यकाल में प्रस्तुत होता रहा तथा राजनीतिक अनिच्छा के कारण व्यावहारिक स्वरूप नहीं ले पाया।
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पॉल एच. एपलबि (अमरीकी विद्वान) की अनुशंसा पर ‘ भारतीय लोक प्रशासन संस्थान, नई दिल्ली ‘ तथा केन्द्रीय मंत्रिमंडल सचिवालय में ‘ संगठन एवं प्रक्रिया (ओ एंड एम) संभाग ‘ गठित करने तथा गृह मंत्रालय में ‘ प्रशासनिक सुधार विभाग ‘ की स्थापना जैसे महत्वपूर्ण कदम ही प्रशासनिक सुधार के लिए उठाए गए । इस दिशा में राजीव गांधी ने व्यक्तिगत रुचि प्रकट करते हुए सन् 1985 में मंत्रालयों का पुनर्गठन किया । गृह मंत्रालय के कार्यभार को देखते हुए उससे ‘ प्रशासनिक सुधार विभाग ‘ हटाया गया । इसी तरह जन शिकायतों के त्वरित निस्तारण के लिए मंत्रिमंडल सचिवालय में ‘ लोक शिकायत निदेशालय ‘ की स्थापना की गई । ‘ कार्मिक, लोक शिकायत तथा पैंशन मंत्रालय ‘ के रूप में स्वतंत्र मंत्रालय की स्थापना की तथा इस मंत्रालय को स्वयं अपने अधीन रखा । तेजी से बदलती सामाजिक-आर्थिक संरचनाओं तथा वैश्वीकरण के इस युग में भारतीय ‘ जड़ प्रशासन ‘ लोक कल्याण लक्ष्यों को कैसे हासिल करेगा, यह अनुत्तरित है क्योंकि प्रशासनिक संरचना तथा कार्यप्रणाली साठ वर्ष पुरानी है।
विगत कुछ वर्षों से यह मांग जोरों से उठायी जाने लगी है कि भारत में सूचना के अधिकार को सुदृढ़ स्वरूप प्रदान किया जाए । राजस्थान में ‘ मजदूर किसान शक्ति संगठन ‘ ने इस दिशा में आदोलन भी चला रखा है । इस दिशा में कर्नाटक तथा मध्य प्रदेश पहले ही पहल कर चुके हैं। श्री भैरोसिंह शेखावत का कहना है कि-‘ ‘ वे सिद्धांत: सूचना के अधिकार तथा प्रशासन में पारदर्शिता के लिए सहमत हैं, किंतु इसके दुरुपयोग की ओर भी विचार किया जाए । ” दरअसल इस अधिकार का दुरुपयोग हो नहीं सकता यदि दी गई सूचना तथा किया गया कार्य दोनों सत्य हों । हमारे संविधान के अनुच्छेद 19 (1) क में भाषा एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्रदान की गई है। यह प्रकरण कई बार न्यायपालिका के सम्मुख आ चुका है कि प्रेस की स्वतंत्रता सूचना प्राप्ति के अधिकार पर ही निर्भर करती है । सन् 1982 में सर्वोच्च न्यायालय ने श्रीमती प्रभादत्त बनाम भारत संघ के मामले में कहा था कि वादी गण (हिंदुस्तान टाइम्स की संवाददाता) को कुख्यात अपराधी रंगा और बिल्ला से जेल में साक्षात्कार करने का अधिकार है। जेल अधिकारियों ने श्रीमती प्रभादत्त को मना करके प्रेस के विशेषाधिकार का हनन किया है ।
प्रशासन में पारदर्शिता लाने तथा जनसाधारण को वांछित सूचना देने में सबसे बड़ी बाधा है- ” शासकीय गुप्त बात अधिनियम 1923.” इसी अधिनियम की आड़ में शासन की नीतियों, राष्ट्र की सुरक्षा, एकता और अखंडता के नाम पर लोकसेवक कोई भी सूचना इच्छुक व्यक्ति को प्रदान नहीं करते हैं । यह सभी जानाते हैं कि राष्ट्र की सुरक्षा, विदेश नीति, व्यापारिक रहस्यों के बारे में एक आम आदमी कुछ पता करने को इच्छुक भी नहीं होता है। उसे तो सामान्य-सी जानकारी चाहिए उसके ऋण का क्या हुआ? पंचायत ने एक लाख कहाँ व्यय किए? पदोन्नति कब तक हो जाएगी? पासपोर्ट क्यों नहीं बन रहा? किस आधार पर उसे नौकरी नहीं मिली? क्या ये सूचनाएँ देने से प्रशासन का कुछ अहित हो जाएगा? कदापि नहीं । तो समस्या क्या है? दरअसल भारतीय लोक प्रशासन ब्रिटिश प्रशासन का ही प्रेत है । पहले से कहीं अधिक विशाल और कुर । सेवा नियमों में स्पष्ट प्रावधानों के बावजूद कितने सरकारी कर्मचारियों को उनकी सेवा पुस्तिका तथा गोपनीय प्रतिवेदन दिखाया जाता है? ब्रिटिश काल में उच्च प्रशासनिक अधिकारियों को शांति और कानून व्यवस्था बनाए रखने तथा जनता से दूर
रहने का प्रशिक्षण दिया जाता था । आज का लोक प्रशासन उन नियामकीय कार्यो से दूर, पूर्णतया विकासोन्मुख है और विकास की अवधारणा में प्रशासन के साथ जन सहभागिता प्रमुख शर्त है । अत: ब्रिटिश मॉडल पर आधारित आई.ए.एस. प्रशिक्षण में परिवर्तन किया जाना अपेक्षित है।
न्यायपालिका द्वारा प्रदर्शित की जा रही सक्रियता से प्रश्न उठ रहा है कि प्रशासन तंत्र क्यों कर निष्क्रिय बना रहता है? दिल्ली में सफाई? आवास आवंटन? प्रदूषित औद्योगिक इकाइयों को हटाना तथा समान कार्य के लिए समान वेतन ऐसे प्रकरण हैं जो न्यायपालिका में जाने ही नहीं चाहिए थे । किंतु हर तरह से थका-हारा, कुठित-सा, कुछ ठगा हुआ-सा नागरिक मजबूरन न्यायपालिका का दरवाजा खटखटाने के अतिरिक्त कर क्या सकता है? भारतीय प्रशासन की दशा को तो एक कवि ने यूं बताया-
‘काम मत कर, काम का फिक्र कर,
फिक्र भी मत कर? फिक्र का जिक्र कर।। ‘
सरकारी दफ्तरों के कामकाज में विलम्ब को दूर करने के लिए यह सुझाव दिया गया है कि सहायक कर्मचारी फाइल को पूरी तरह से तैयार कर उसे सीधे संबंधित अधिकारी के पास निर्णय के लिए दे तथा उस पर सीधे अपनी टिप्पणी अंकित करे, न कि फाइल विभिन्न चरणों से घूमते हुए अधिकारी के पास पहुँचे । किसी भी फाइल की जांच-पड़ताल एक चरण पर हो तथा उसे यथाशीघ्र निर्णय करने वाले अधिकारी के पास भेजा जाए । फाइलों को अनावश्यक रूप से वैकल्पिक चरणों में भेजने की व्यवस्था समाप्त करनी चाहिए । फाइलों से संबंधित पत्र-व्यवहार की जिम्मेदारी संबंधित कर्मचारी पर होनी चाहिए न कि उसके लिए एक पूरी दफ्तरी शृंखला का उपयोग किया जाए। दफ्तरी कामकाज के कम्प्यूटराइजेशन तथा टेलीफोनों के उपयोग से कागजी कामकाज में भारी कमी लाई जा सकती है।
इस अध्ययन में एक अन्य रोचक बात यह कही गई है कि किसी भी कर्मचारी या अधिकारी की कार्यकुशलता का पैमाना इस बात से नापा जाना चाहिए कि वह किसी मामले को व कार्य को कितनी कुशलता से निपटाता है, न कि उसके द्वारा फाइल पर अनावश्यक टिप्पणियाँ लिखने या पत्र-व्यवहार करने के काम के विस्तार पर। किसी भी अधिकारी व कर्मचारी को अपने को मिले अधिकारों का समुचित रूप से त्वरित गति से उपयोग करने की प्रवृत्ति अपनानी चाहिए तथा इस बारे में किसी प्रकार के अनावश्यक संदेह व अविश्वास को मार्ग में आड़े नहीं आने दिया जाना चाहिए। सरकार से अपना कामकाज कराने के इच्छुक सभी लोगों के काम् बिना किसी भेदभाव के लिए जाने चाहिए तथा उनमें किसी भी प्रकार का विलम्ब करने या लटकाने की प्रवृत्ति नहीं अपनाई जानी चाहिए। जिससे कि अनावश्यक कागजी कामकाज का विस्तार न हो। किसी भी शिकायत व समस्या के निपटारे के लिए सीमित चैनल होने चाहिए । इस प्रकार एक या दो चैनलों को ही किसी भी मामले में फैसला लेने का अधिकार दिया जाना चाहिए । प्रशासनिक व दफ्तरी कामों में खुलेपन व पारदर्शिता से कार्यालयों में अनावश्यक कागजी-कामकाज काफी घट सकता है।
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अत्यधिक परिपत्रों का जारी होना भी समस्या को उलझाता ही है। जबकि हरेक काम के लिए इस समय हमारे पास पर्याप्त कानून है तो फिर बार-बार संशोधन के लिए नए परिपत्र जारी करने की क्या आवश्यकता होती है। आमतौर पर यह परिपत्र जनता की नजरों में नहीं आते हैं तथा कार्यालयों का अधीनस्थ स्टाफ इन्हें जनता को पेरशान करने के लिए इस्तेमाल करता है । बेहतर तो यह है कि जिन अधिकारियों को निर्णय लेने के अधिकार दिए गए हों, उन्हें वर्तमान कानूनों तथा नियमों के अनुसार फैसला लेने दिया जाना चाहिए।
सरकार में एक ऐसा सैल किसी वरिष्ठ अधिकारी के अंतर्गत होना चाहिए जो कि केन्द्र व राज्य सरकारों के वर्तमान कानूनों व नियमों की समीक्षा करे तथा इस बात को देखे कि उन्हें किस तरह से जनता की सुविधा के लिए तथा सरकार द्वारा उन्हें कार्यान्वित करने के लिए सरल बनाया जा सकता है । कानूनों को इस प्रकार से बनाया जाना चाहिए जिससे उनकी व्याख्या सरलता से हो जाए तथा उसके अनेक अर्थ न लगाए जा सकें । कानूनों को सरल व स्पष्ट रूप से बनाया जाना चाहिए। अन्य अनेक अधिकारियों ने भी सरकारी कार्यालयों के कामकाज तथा इसी प्रकार की समस्याओं का अध्ययन किया होगा तथा समस्याओं को हल करने व कामकाज में सुधार लाने के लिए उन्होंने सुझाव दिए होंगे। क्यों नहीं, इन सुझावों पर विचार कर उन्हें प्रयोग के तौर पर कायान्निवत किया जाता?
वास्तव में राजनीति और प्रशासन मे भ्रष्टाचार को समाप्त न किया गया तो इसके परिणाम विनाशकारी ही होंगे । सरकारी कर्मचारियों को आपस में भी एक-दूसरे की मुट्ठी गर्म करनी पड़ती है और राजनीतिक आकाओं की भी, ताकि वह वैसा कुछ पा सकें, जिसको पाने के वे सामान्य तौर पर ही हकदार हैं । वर्तमान संस्कृति की बलिहारी कि अब यह सुस्पष्ट है कि अनेक अधिकार सम्पन्न लोग भी ऐसा सोचने लगे हैं, जिन्हें राजनीतिक और नौकरशाह आकाओं का संरक्षण भी प्राप्त है कि वे लूट-खसोट और लाभ उठाने के लिए उस हद तक अपने ही तौर-तरीके खोज सकते हैं, जहाँ तक उन्हें उनकी बुद्धि सुझाती है और उनकी आत्मा उन्हें इजाजत देती है। यह बात व्यापक तौर पर मान्य है कि राजनीतिज्ञो व नौकरशाही का रिश्ता अनेक वर्षों से ऐसी राह अपना चुका है कि जब तक पारस्परिक लाभ उठाना संभव हो हर एक उठा सकता है और सामान्य रूप से कोई सवाल नहीं उठाया जाएगा ।
यह बात महत्वपूर्ण है कि जनसाधारण (और मतदाता) जो इस विद्यमान विषाक्त माहौल से, जो सार्वजनिक प्रशासन के क्षेत्र तक में व्याप्त है, अत्यधिक पीड़ित होते हैं। उन्हें भ्रष्टाचार का मुद्दा बनाए जाने की निस्सारता के बारे में किए जा रहे प्रेरित प्रचार से गुमराह नहीं होना चाहिए। दरअसल यही सर्वाधिक महत्वपूर्ण मुद्दा है जो हमारे देश में ‘ प्रशासन ‘ को प्रभावित कर रहा है। यदि इसे विचार करते समय प्रमुखता नहीं दी गई और सही निष्कर्ष पर नहीं पहुँचा गया तो वह दिन दूर नहीं जब जीवन की श्रेणी की चर्चा तो दूर की बात है हमारे अस्तित्व तक के लिए गंभीर खतरे उपस्थित हो जाएंगे।
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इसलिए आवश्यक है कि प्रशासन के विकासोम्मुख लक्ष्यों तथा जनमत को देखते हुए लोकसेवकों की जवाबदेही सुनिश्चित की जाए। विकास तथा सुधारों को शोध कार्यों से प्रत्यक्षत: जोड़ते हुए नवाचारों का प्रयोग हो। लोक प्रशासन में, विश्वविद्यालयों में श्रेष्ठ अनुसंधान हुए हैं, उनका सदुपयोग हो। जनसाधारण को सूचना का अधिकार देते हुए लोकसेवक तथा राजनेता अपना आचरण श्रेष्ठ बनायें । यह प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह गलत बात के प्रति विरोध जताये। भारतीय प्रशासनिक अधिकारियों के लिए अनेक प्रकार के प्रशिक्षण पादयकम आयोजित करने वाले ‘ भारतीय लोक प्रशासन संस्थान ‘ को चाहिए कि सेवारत लोक सेवकों के लिए मानव संबंध, व्यवहार तथा अन्तवँयक्तिक संबंधों पर अधिकाधिक पाठ्यक्रम आयोजित कर लोक सेवकों को जनता के प्रति संवेदनशील बनाए।