वर्तमान समय में क्षेत्रीय दलों की भूमिका पर निबन्ध |Essay on The Role of Regional Parties in Present Situation in Hindi!

प्रस्तावना:

प्रजातन्त्र एक ऐसी शासन व्यवस्था है, जिसमें सभी नागरिकों को अधिकार है कि उनकी आवाज को सुना जाए । कहना न होगा कि क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियां, सन क्षेत्रीय मुद्दों को जो उपेक्षित हैं, प्रजातन्त्र की इस अवधारणा का पोषण करती हैं ।

इससे क्षेत्रीय समस्याओं की तरफ राष्ट्र का ध्यान जाता है और उसके निवारण के लिए प्रयास किये जाते चिन्तनात्मक विकास: क्षेत्रीय दलों का उदय संघीय शासन व्यवस्था का स्वाभाविक परिणाम है । संघीय शासन व्यवस्था में नीतियां एवं कार्यक्रम राष्ट्रीय हितों के मद्देनजर बनाये जाते हैं, जिसके चलते क्षत्रीय समस्यायें या तो उपेक्षित हो जाती हैं या उस पर कम ध्यान दिया जाता है ।

ऐसे में इन क्षेत्रीय समस्याओं को आवाज देने और उस पर देश का ध्यान आकर्षित करने हेतु क्षेत्रीय दलों का उदय होता है । हमारे देश में अनेक क्षेत्रीय दल हैं जिनका उदय विशेष परिस्थितियों के परिणामस्वरूप हुआ है और जो वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था को विभिन्न प्रकार से प्रभावित कर रहे हैं । इसलिए उनका महत्व बढ़ता जा रहा है ।

उपसंहार:

क्षेत्रीय दलों के महत्व व भूमिका को नकारा नहीं जा सकता । इनकी सफलता अथवा असफलता से इनकी प्रासंगिकता में कमी नहीं आई है । सरकार बनाने में उनकी भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है । यदि क्षेत्रीय दल सरकार में शामिल होते हैं तो देश की लोकतान्त्रिक व्यवस्था के लिए शुभ होगा । अत: सत्ता में क्षेत्रीय दुलों की भागीदारी को अतिआवश्यक समझा जाना चाहिए ।

भारत में क्षेत्रीय दलों का इतिहास काफी पुराना है । पंजाब में अकालियों की राजनीति 1920 से चलती आ रही है । कश्मीर में पहले मुक्लिम कांफ्रेंस बनी अगर उसी को ही बाद में नेशनल काग्रेस कहा जाने लगा । उत्तरी पूर्वी भारत और केरल में अनेक क्षेत्रीय दलों की प्रधानता रही । तमिलनाडु में जस्टिस पार्टी का गठन हुआ ।

1949 में द्रमुक की स्थापना की गई । महाराष्ट्र में शिवसेना, औघ्र प्रदेश मे तेलगूदेशम की स्थापना की गई । देश ने बंगला कांग्रेस, केरल कांग्रेस, उत्कल कांग्रेस जैसे कांग्रेसी क्षेत्रीय दलों तथा विशाल हरियाणा पार्टी, गणतन्त्र परिषद, शिवसेना आदि जैसी राज्य पार्टियों का भी उतार-चढ़ाव देखा है ।

ये सभी दल अलग-अलग राज्यों में प्रभावशाली हैं न कि किसी क्षेत्र विशेष में । क्षेत्रीय दलों की कुछ विशेषताएं होती हैं; भारत के क्षेत्रीय दल आमतौर से राज्य स्तरीय दल ही हैं, इन दलों की प्रमुख प्रतिस्पर्द्धा कांग्रेस दल से रही है, इन दलों की संकुचित अपील और आधार होते हैं जैसे उपसंस्कृति, जातीयता और धर्म के तत्व आदि, इन दलों की प्रमुख मांग राज्य स्वायत्तता होती है ?

क्षेत्रवाद का उदय केन्द्र के विरुद्ध विद्रोह से होता है, भारतीय राजनीति में राज्य दलों का वर्चस्व सनू 1967 के चतुर्थ आम चुनावों के पश्चात् बढने लगा और इनका प्रमुख उद्देश्य सत्ता प्राप्ति ही होता है इत्यादि । वैसे यह कहना गलत न होगा कि इन दलों की सफलता का आधार उचित नेतृत्व ही रहा है ।

इनका इतिहास तो यही बताता है कि इनकी सफलता के दो तत्व प्रमुख रहे हैं-एक, निजी पहचान कायम रखने का या इसके निमित्त अपने राज्य हेतु विशेष व्यवहार उपलब्ध कराने का आग्रह तथा एक नेता विशेष की छवि । भारत में इन क्षेत्रीय दलों के उदय के अनेक कारण हैं । पहला प्रमुख कारण जातीय, सांस्कृतिक एवं भाषायी विभिन्नताए हैं । भारत एक बहुभाषी, बहुजातीय, बहुक्षेत्रीय और विभिन्न धर्मो का देश है ।

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इन प्रदेशो में रहने वाले लोगों की अपनी बहुत सी समस्यायें होती हैं जिनपर राष्ट्रीय दलों या केन्द्रीय नेताओं का कोई ध्यान नहीं जाता परिणामस्वरूप क्षेत्रीय दलों का उदय होता है । दूसरा, केन्द्र एवं राज्यों के सम्बधों में स्थिरता नहीं होती क्योंकि केन्द्र अपनी शक्तियों का प्रयोग मनमाने ढंग से करता रहा है ।

अत: केन्द्र की शक्तियों के केन्द्रीयकरण की इस प्रवृत्ति के फलस्वरूप अनेक क्षेत्रीय दलों का उदय हुआ । तीसरा, उत्तरी भारत की प्रधानता को लेकर आशंकाएं भी क्षेत्रीय दलों के उदय का कारण बनी । चौथा, क्षेत्रीय दलों के उदय का एक प्रमुख कारण कांग्रेस दल की संगठनात्मक भूलें भी है । केन्द्र में तो कांग्रेस की स्थिति मजबूत थी किन्तु राज्यों में कांग्रेस-संगठन बिखरता जा रहा था ।

फलत: काग्रेस में संगठन-सम्बन्धी फूट और कमजोरिया आ गई थीं । स्वाभिमानी नेताओ और कार्य कर्ताओ की उपेक्षा होने लगी तो सभी स्तरों पर मौका परस्त लोगो की पौध उग आई । राज्य-स्तर के अनेक नेताओं ने, जो केन्द्र की कार्य-शैली से परेशान थे, क्षेत्रीय दलों के गठन मे प्रमुख भूमिका अपनायी ।

पांचवा, जातीय असन्तोष भी इन दलों के गठन का कारण था । भारत में पहले अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए आरक्षण लागू किया गया और अब अन्य पिछडी जातियों के लिए किया जा रहा है । राष्ट्र के ‘नवनिर्माण’ हेतु यह अति आवश्यक भी है कि इन्हें सामाजिक न्याय मिले किन्तु ये दल जाति की दुहाई के पीछे जाति-विभाजन को चिरस्थायी बना रहे हैं और अपना वोट-आधार मजबूत करने की संकीर्ण भावना को अपना रहे हैं ।

भारत में प्रमुख रूप से तीन प्रकार के क्षेत्रीय दल हैं; प्रथम, वे दल जो वस्तिव में जाति, धर्म, क्षेत्र अथवा सामुदायिक हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं और उन पर आधारित है । इनके प्रमुख उदाहरण द्रमुक, अकाली दल, नेशनल कांफ्रेंस, शिवसेना, झारखण्ड पार्टी, उत्तर पूर्व में कुछ आदिवासी सगठन जैसे नागालैण्ड नेशनल डेमोक्रेटिक पार्टी, मिजो नेशनल फ्रण्ट आदि हैं । द्वितीय, ये वे दल हैं जो सदस्यो की धुथता के कारण या किसी समस्या विशेष को लेकर राष्ट्रीय दलों विशेष रूप से काग्रेस से पृथक् होकर बने हैं ।

इस प्रकार के दलों में भारत क्रान्तिदल, बगला कांग्रेस, उत्कल काग्रेस, केरल कांग्रेस, तेलंगाना प्रजा समिति, विशाल हरियाणा इत्यादि दल हैं । तृतीय, ये वे दल हैं जो विचारधारा तथा लक्ष्यों के आधार पर तो राष्ट्रीय दल हैं, किन्तु उनका समर्थन केवल कुछ लक्ष्यों तथा कुछ मामलों में केवल कुछ ही क्षेत्रों तक सीमित है ।

इस प्रकार के दल फारवर्ड ब्लॉक, सोशलिस्ट यूनिटी सेण्टर, मुस्लिम लीग तथा क्रान्तिकारी सोशलिस्ट पार्टी इत्यादि हैं । अत: क्षेत्रीय दलों का अस्तित्व केवल नाममात्र का नहीं है । न ही यह दल केवल स्थानीय स्तर पर केवल कांग्रेस अथवा अन्य राष्ट्रीय दलों का दूसरा रूप हैं अपितु ये अपने आप मे स्वायत्त एवं महत्वपूर्ण हैं और राज्यस्तर की राजनीति में इनकी विशेष भूमिका है ।

अकाली दल सिक्यो की मुख्य राजनीतिक व सामाजिक सस्था है । यह एक राज्य-स्तरीय दल है क्योकि यह पजाब तक ही सीमित है । 1920 में सिक्सों द्वारा शिरोमणि अकाली दल की स्थापना की गई । इनका स्वरूप धार्मिक-राजनीतिक रहा है । स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् इस दल ने गुरुद्वारो पर नियन्त्रण हेतु आन्दोलन चलाया था ।

जब भाषा के आधार पर राज्यों के पुनर्गठन का प्रश्न उठा तो अकाली दल ने पंजाबी भाषी राज्य की मांग की । 1966 में पंजाबी भाषी राज्य का गठन हुआ । डस समिति का मख्य कार्यालय अमृतसर में है । जून, 1977 के विधानसभा चुनावों के पश्चात् अकाली दल ने जनता पार्टी के साथ मिलकर एक संयुक्त सरकारे का गठन किया ।

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1980 में पंजाब में दरबार सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस (आई) की सरकार बनी । इन चुनावों में पराजय के पश्चात् अकाली नेताओ को निराशा ने घेर लिया । अकाली दल कई भागो में बंट गया । कई मुद्दों को लेकर उन्होंने पंजाब की कांग्रेस सरकार और भारत सरकार के विश्व आन्दोलन छेड़ दिया ।

धीरे-धीरे अकाली आन्दोलन एक खतरनाक मोड़ पर पहुँच गया । जून, 1984 में पंजाब में फौजी कार्यवाही की गई । स्वर्ण मन्दिर में सेना के प्रवेश और भिंडरवाले के अन्त के बाद पंजाब की समस्या हेतु राजनीतिक समाधान की आवश्यकता थी । 24 जुलाई, 1985 को अकाली दल और केन्द्र सरकार के मध्य समझौता हुआ ।

इस समझौते के अन्तर्गत चण्डीगढ शहर पंजाब को और बदले में पंजाब के हिन्दी क्षेत्र हरियाणा को दिये जाने हैं । सितम्बर, 1985 में पंजाब विधानसभा चुनावों में पहली बार अकाली दल को स्पष्ट बहुमत मिला । जुलाई, 1986 में अकाली दल का फिर से विभाजन हुआ ।

अकाली दल में सदैव से ही दो या अधिक गुटों में विभाजन की स्थिति रही है और फरवरी, 1992 में पजाब विधानसभा और पंजाब से लोकसभा चुनाव के समय चार अकाली दल थे: अकाली दल मान, अकाली दल (बादल), अकाली दल (लोंगोवाल), और अकाली दल (काबुल सिंह) ।

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चुनावों में अकाली दल (काबुल) को भारी पराजय का सामना करना पडा । बेअंत सिंह के नेतृत्व में पंजाब में कांग्रेस (आई) ने सत्ता सम्भाली । क्षेत्रीय दलों में द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम और अन्ना द्रविड़ मुन्नेत्र कडगम बेजोड़ हैं । चुनावों के दौरान सभी राष्ट्रीय दलों को इन क्षेत्रीय दलों के साथ तालमेल बिठाना पड़ता है ।

1925 में ब्राह्मणवाद के विरुद्ध रामास्वामी नापकर ने एक आन्दोलन चलाया, जिसका उद्देश्य छुआछूत और जात-पांत के बंधनों को मिटाना था । 1944 में रामास्वामी के समर्थकों ने जस्टिस पार्टी के साथ मिलकर ‘द्रविड कड़गम’ की स्थापना की । 1949 में एक नवीन दल द्रविड मुन्नेत्र कडगम का गठन किया 1957 में पहली बार द्रविड मुन्नेत्र कड़गम ने चुनावों में हिस्सा लिया और पन्द्रह प्रतिशत मत प्राप्त किये ।

इसके बाद इसने तीव्र प्रगति की । 1962 में इस पार्टी ने विधानसभा की पचास सीटों पर अधिकार स्थापित कर लिया । इस वर्ष इसने हिन्दी के विरुद्ध जबरदस्त आन्दोलन चलाया । 1967 के चुनावो में द्रमुक ने भारी सफलता प्राप्त की ।

बाद में धीरे-धीरे द्रमुक की लोकप्रियता घटती गई फलस्वरूप अन्नाद्रमुक लोकप्रिय बनने लगी । 1977 के आम चुनावों में इसने स्पष्ट बहुमत प्राप्त किया । 1980 व 1984 के विधानसभा चुनावों में भी अन्नाद्रमुक ही विजयी रही ।

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बाद में इनमें फूट पडने लगी और पुन: 1989 के विधानसभा चुनावो में द्रमुक ने सफलता हासिल की किन्तु लोकसभा चुनावों में यह पार्टी जीत हासिल न कर सकी । 1991 के लोकसभा चुनाव में अन्नाद्रमुक और काग्रेस (आई) के गठबंधन ने उल्लेखनीय सफलता हासिल की ।

इन दोनों दलों की नीतियों में कोई विशेष अन्तर नहीं है । दोनों का ही उद्देश्य है कि समाज के पिछड़े वर्गो को समान अवसर दिये जायें तथा छुआछूत को पूरी तरह समाप्त किया जाये, तमिल भाषा व संस्कृति का प्रचार किया जाए और हिन्दी के जबरन लादे जाने का विरोध किया जाए, राज्यों को अधिक स्वायत्तता और वित्तीय साधन दिये जायें तथा श्रीलंका में रहने वाले तमिलों के हितों की रक्षा हेतु भारत सरकार उचित कदम उठाये आदि ।

क्षेत्रीय दलों बहुजन समाज पार्टी का भी अपना विशेष स्थान है । इनका लक्ष्य ‘ब्राह्मणवाद’ का विरोध है । इनके ब्राह्मणवाद का विरोध उस व्यवस्था के खिलाफ है जिसके अन्तर्गत सदियों तक दलितों को अत्याचार का सामना करना पड़ा । इनके सर्वाच्च नेता कांशी राम ने अनुसूचित जातियों, जनजातियों और अन्य पिछड़ी जातियों हेतु ‘आरक्षण’ को ‘बैसाखी’ का नाम दिया है ।

अत: ऐसी व्यवस्था की जाये जिसमें किसी भी वर्ग या जाति के लिए आरक्षण की जरूरत न रहे । 1993 के विधानसभा चुनावों में बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी ने उत्तर प्रदेश में संयुक्त मोर्चे की सरकार बनाई । एक अन्य क्षेत्रीय दल तेलगूदेशम है । यह आध प्रदेश में नवनिर्मित राज्य स्तरीय दल है ।

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आन्ध्र प्रदेश कांग्रेस का गढ रहा है किन्तु जनवरी, 1983 में विधानसभा चुनावों में इसे भारी बहुमत प्राप्त हुआ । इस सरकार का नेतृत्व प्रसिद्ध फिल्म अभिनेता एन.टी. रामाराव ने किया । नवम्बर, 1984 में मुख्यमन्त्री की सिफारिश पर आध विधानसभा भंग कर दी गई । मार्च, 1985 के चुनावों में तेलगुदेशम ने विधानसभा की दो-तिहाई से अधिक सीटें जीतीं । तेलगूदेशम के नेता एन.टी. रामाराव ने राष्ट्रीय मोर्चे के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी ।

1989 के संसदीय चुनावों में पार्टी को भारी पराजय का सामना करना पड़ा और कांग्रेस (आई) की सरकार सत्ता मे आई । 1991 में तेलगूदेशम ने पुन: चुनाव जीतकर एक बार फिर अपनी शक्ति का परिचय दिया । मार्च, 1992 में इस पार्टी का विभाजन हो गया । दिसम्बर, 1995 में हुये विधानसभा चुनावों मे तेलगुदेशम अप्रत्याशित बहुमत से विजयी हुई । अगस्त, 1995 में इसका पुन: विभाजन हो गया ।

तेलगुदेशम का विभाजन पार्टी के नेता एन.टी. रामाराव की कार्यशैली के विरुद्ध पार्टी में आन्तरिक विद्रोह का ही परिणाम कहा जा सकता है । असम का प्रमुख क्षेत्रीय दल असम गण परिषद है । असम आर्थिक दृष्टि से एक पिछडा हुआ राज्य था । असमिया मूल के लोगों में यह शका बैठ गई थी कि वे अल्पसंख्यक बन जाएंगे क्योंकि भारत की सीमा पार से लाखों लोग आकर बसते जा रहे थे ।

इसलिए 1978 में वहाँ एक बड़े आन्दोलन की शुरुआत हुई । अत: असम गण परिषद का उदय असम आन्दोलन (1979-85) की कोख से हुआ । अगस्त, 1985 में असम समझौता हुआ जिसके तहत व्यवस्थित रूप से चुनाव हुये ।

असम आन्दोलनकारियों ने चुनाव लडने के लिए असम गण परिषद के नाम से एक क्षेत्रीय दल का गठन किया, जिसने विधानसभा में पूर्ण बहुमत हासिल किया । जून, 1991 में असम में कांग्रेस (आई) ने सत्ता सम्भाली थी ।

मुस्लिम लीग देश के विभाजन के बाद भारत से लगभग समाप्त हो गया था । सन् 1970 के लगभग यह केरल व तमिलनाडु में सक्रिय हो गया । केरल, तमिलनाडु, गुजरात, महाराष्ट्र उत्तर भारत के कुछ राज्यों में यह दल अपने प्रभाव के लिए सचेष्ट है ।

इसका मुख्य उद्देश्य भारतीय मुसलमानों के हितों की रक्षा करना है । केरल में इसका अच्छा प्रभाव है और तमिलनाडु के मुस्लिम बहुल इलाके में इसने अपना स्थायी निर्वाचन आधार बना लिया है । इसने राष्ट्रीय स्तर पर अधिकतर काग्रेस दे का समर्थन किया है । अपने कार्यक्रम और लक्ष्य से यह एक समुदाय अभिमुख रत्न है । जन्तु-कश्मीर की क्षेत्रीय पार्टी नेशनल काग्रेस 1931 में बनी थी ।

इस समय इसका नाम जम्मूकश्मीर मुस्लिम कान्क्रेंस था । 1939 में इस पार्टी का नाम द मुस्लिम कान्क्रेस से बदलकर ‘नेशनल कान्क्रेंस’ कर दिया गया है । हरियाणा में हरियाणा पार्टी अच्छा प्रभाव रखती थी । रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इण्डिया का प्रभाव महाराष्ट्र, तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश और पंजाब में है ।

इनका एक मात्र उद्देश्य अनुसूचित जातियों के हितो की रक्षा करना है । मेघालय में तीन प्रमुख क्षेत्रीय दल हैं; आल पार्टी हिल लीडर्स कांफ्रेंस, हिल स्टेट डेमोक्रेटिक पार्टी तथा हिल्स पिपुल यूनियन । इसी प्रकार मिजोरम एवं मणिपुर में भी अनेक क्षेत्रीय दल हैं ।

अत: स्पष्ट होता है कि कांग्रेस दल के कमजोर होने के कारण क्षेत्रीय एवं राज्यस्तरीय दलों का महत्व निरन्तर बढ़ता जा रहा है । वर्तमान राजनीति में क्षेत्रीय दलों की बिशेष भूमिका है । जो भी क्षेत्रीय दल किन्हीं भी परिस्थितियों में बना हो, आज के समय में उन परिस्थितियों के अभाव में उनकी भूमिका भी बदल गई है ।

आज सभी प्रमुख राजनीतिक दल एक-दूसरे को फुसलाने में व्यस्त हैं । क्योंकि उन्हें यह बात समझ आ गई है कि किसी को भी स्पष्ट बहुमत नहीं मिलेगा । आखिर इसकी वजह क्या है ? नए उभरते नियम अपनी भूमिका निभा रहे हैं ।

भारतीय राजनीतिक व्यवूस्था के मंडलीकरण से उपजा ये नियम है-जाति और सम्प्रदाय के नाम पर ध्रुवीकरण । इसने व्यवस्था का ढांचा तथा इसके साथ गतिशील और कारगर विकल्पों में ही क्रांतिकारी परिवर्तन कर दिया है । चुनावी अखाड़े में लगभग 17 क्षेत्रीय व छोटे दलों के बाहुल्य से यह स्पष्ट है ।

साथ ही यह भी समझा जा रहा है कि इन दलों की कीमतें बहुत ऊँची हैं । आज राजनीतिक महाकुण्ड में क्षेत्रीय दलों को जो अहमियत दी जा रही है, उसका देश के एकात्मक संघीय ढांचे पर गम्भीर बहुमुखी प्रभाव पड़ेगा । हमारे नवजात लोकतंत्र में क्षेत्रीय दलों का उदय कुछ सीमा तक एक स्वागत योग्य परिवर्तन है क्योंकि इससे विभिन्न क्षेत्रीय आकांक्षाए परिलक्षित होती हैं ।

जब तक इसका प्रभाव-क्षेत्र सम्बन्धित क्षेत्रों तक ही सीमित था, तब तक तो ठीक था मगर राष्ट्रीय विचारों से रहित इन पार्टियों का राष्ट्रीय स्तर पर प्रक्षेपण, भारतीय राजनीतिक व्यवस्था के लिए कोई ठोस स्वागत योग्य कदम नहीं है ।

साथ ही साथ यह कहना भी उचित नहीं होगा कि क्षेत्रीय आकांक्षाओं को राष्ट्रीय स्तर पर परिलक्षित नहीं किया जाना चाहिए । फिर भी, राजनीतिक दलों द्वारा समग्र राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखकर ही ऐसा किया जाना चाहिए ।

दुर्भाग्यवश, भारत के क्षेत्रीय दलों पर अभी भी मुहल्ला मानसिकता का प्रभुत्व है जिससे उसकी तार्किकता इससे आगे नहीं बढती कि पार्टी के लिए क्या अच्छा है । इनके प्रभाव का दायरा कम से कम मुहल्ला तथा अधिक से अधिक राज्य स्तर तक सीमित है । इसके लिए राष्ट्रीय दल ही पूरी तरह जिम्मेदार है ।

सालों से, चुनाव दर चुनाव राष्ट्रीय दल की क्षेत्रीय आकांक्षाओं को निर्लज्जता से कुचलके रहे हैं तथा घिसी-पिटी बातों तथा वायदों से बहला-फुसलाकर अपनी सनक व रुचि के मुताबिक जोड-तोड़ करते रहे हैं ।। विरोधाभास यह है कि राष्ट्रीय दलों के क्षय और धीरे-धीरे हास के कारण ही इन गैर-मिलनस दलों का उदय हुआ जिनके राजनीतिक उद्देश्य किसी एक वर्ग से ही जुड़े हैं ।

राजनीतिक व्यवस् का यह मंडलीकरण तब दिखाई पड़ा जब 1993 और 1994 के विधानसभा चुनाव हुए जिनमें क्षेन दलों ने निर्णायक ढंग से यह सिद्ध कर दिया कि अब कांग्रेस अथवा भाजपा अथवा जनता के पिछलग्गू नहीं रह गए हैं ।

अपने इरादों के अनुरूप उन्होंने अपना हिस्सा वसूल किया । निस राजनीतिक नैतिकता के ताने-बाने के पूरी तरह नष्ट हो जाने और बिखर जाने के कारण ही करना आसान हुआ । इसने प्रत्येक राष्ट्रीय दल की सत्ता और गद्दी की नंगी लोलुपता पर पर्दे को टुकड़े-टुकड़े कर दिया ।

राष्ट्रीय दलों की इस कमजोरी के कारण क्षेत्रीय दलों को यह अच्छा मौका हाथ ला वह इन दलों तथा विशेष रूप से केन्द्र सत्तारूढ़ दल को ब्लैकमेल करके, धोंस पट्टी से अपनी मांगों को पूरा करा सकें । साथ ही साथ यह भी स्पष्ट हो गया कि वह अपना समर्थन भी समय वापस लेकर इन राष्ट्रीय दलों को नग्न कर सकते है ।

अर्थात् चित्त भी मेरी भी मेरी । दुर्भाग्यवश, इन क्षेत्रीय वोट बैंकों को दलाली करने तथा इनकी ब्लैकमेल के समक्ष के कारण राष्ट्रीय दल स्वयं अपने बुने मकड़जाल में फंस गए हैं । उन्होंने एक ऐसा नीतिक निरप्क 37 कर दिया है जिसे काबू करना उनके वश में नहीं है । आकांक्षाओं को कुचला जा सकता परन्तु वोट देने वाले अगले को नहीं काटा जा सकता ।

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पूरी तरह यह जानते हुए कि राष्ट्रीय सें का शासन उनके समर्थन का मोहताज हे, क्षेत्रीय दलों ने और अधिक समय तक बेडियों जकड़े जाने से इन्कार कर दिया है । नतीजन क्षेत्रीय दलों ने राष्ट्रीय दलों के प्रति न केवल और अनन्य रुख अख्तियार किया अपितु राष्ट्रीय स्थिरता की भी रत्ती भर परवाह नहीं ।

इसी कारण मिली-जुली सरकारें ज्यादा समय तक नहीं चल पाई, कोई सरकार कुछ दिनों क ही चली तो कोई कुछ महीने । दलील दी जा सकती है कि यही तो लोकतंत्र है । परन्तु उल्लेखनीय है कि इनमें से अधिकांश ।

जनीतिक गठबधन जो कि दलितों की भलाई हेतु समाज के लोकतंत्रीकरण का जरिया है तथा कब तक इसके मताधिकारी वर्ग बने हुए थे, उनका अपना संगठनात्मक ढांचा तथा उनके कार्य करने का तरीका पूरी तरह अलोकतांत्रिक है ।

राजनीतिक व्यवस्था की वर्तमान विखंडित दशा को देखते हुए, पार्टियों के लिए पूरी तरह मनिवार्य हो गया है कि वे एकजुट हो ताकि एक ताकत के रूप में उन्हें पहचाना जा सके । इसमें होई आपत्ति की बात नहीं है । परन्तु जब गठबंधन की बात आती है तो आदर्शो और उद्देश्यों की दरार सामने आती है ।

केन्द्र में सत्ता में आने की इतनी उत्सुकता है कि आज तक किसी मुद्दे एक मत होने तथा अंदरूनी तथा बाहरी चुनौतियों से मिलकर निपटने की बात पर कोई ध्यान नहीं दिया गया है । अगर 1996 के चुनावों से कोई सबक सीखा जा सकता है, तो वह छोटी तथा क्षेत्रीय पार्टियों का नाटकीय रूप से उत्थान है । देश की व विभिन्न क्षेत्रों की राजनीति में यह पार्टियां एक महत्वपूर्ण खिलाडी के रूप में सामने आई हैं । क्षेत्रीय सहयोग दल इस बार देश के सत्ताधीशो के चयन मे महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले बने हैं ।

इन चुनावों ने इस बार यह सन्तुलन इन दलों के हाथों में ला दिया है । इसीलिए राष्ट्रीय राजनीतिक दलों को क्षेत्रीय दलों के महत्व का आभास हुआ है । इस परिवर्तन को देश के मतदाताओं की कमजोरी के रूप में अथवा उनकी अपरिपक्वता के रूप में नहीं समझा जाना चाहिए ।

अब लोग केवल अपने-अपने राज्यों में सरकार का चयन करके ही सीमित नहीं रहना चाहते हैं बल्कि वे सरकार बनाने व उसकी नीतियां निर्धारण करने में भी अपना पूर्ण योगदान करना चाहते हैं । कांग्रेस के शासन में एक लम्बी अवधि तक रहने के उपरान्त अब अगर कोई तटस्थ होकर देखे तो उसे इस बात का अहसास हो सकता है कि अब सत्ता के विकेन्द्रीयकरण व अधिकारों के विकेन्द्रीयकरण की मांग, व्यावहारिक रूप से कार्यान्वित होने की स्थिति में आ गई है ।

क्षेत्रीय दलों के बारे में एक प्रासंगिक प्रश्न यह पूछा जा रहा है कि यह क्षेत्रीय दल कब तक एक शक्ति के रूप मे एकजुट रह सकेगे । क्या यह चौथी शक्ति के रूप में उभर कर आ सकते हैं ? क्या यह अपने सिद्धांतो तथा घोषित तध्यो पर दृढ रह सकेंगे ?

या फिर वे रबड की मुहर की भाति कार्य करेंगे जिस तरह कभी तमिल पार्टियों का उपयोग केन्द्र सरकार करती रही है चाहे वह सरकार किसी भी पार्टी की रही हो ? केन्द्र में सत्तारूढ दल इन पार्टियों की सदस्य सख्या के आधार पर अपना बहुमत सिद्ध करने का प्रयास करते रहे ।

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सबसे प्रमुख बात यह है कि क्या यह क्षेत्रीय दल और उनके सदस्य आर्थिक सौदेबाजी या मत्री पदों के लालच से बच जाएंगे ? केन्द्र मे सरकार के गठन से पूर्व और अब केन्द्र में अल्पमत सरकार के सत्तारूढ हो जाने के उपरान्त इस प्रक्रिया में तेजी आ जाएगी ।

इस प्रकार अब सौदेबाजी की प्रक्रिया के बढ़ की सम्भावनाओं से इंकार नहीं किया जा सकता है । हो सकता है कि सत्ता पक्ष और विरोधी ट्ट अपने-अपने ष्प्र में सदस्यों को तोड़ने के लिए इस खेल में जुट जायें । एक ऐसे चुनाव जिसमें राजनीतिक भ्रष्टाचार को एक मुख्य मुद्दा बनाया गया था तथा एक त्साही मुख्य चुनाव आयुक्त व उनके सहयोगियों ने जिसे धन के भारी भरकम खर्चे से मुक्त नाए रखने का प्रयास किया था, का परिणाम अंतत: ‘सरकार’ को बनाने तथा उसे बचाने के नए धन के भारी-भरकम इस्तेमाल के रूप में सामने नहीं आना चाहिए ।

निर्दलीय सदस्यों की नेमत अधिक .बताई जा रही थी । इन अफवाहों तथा चर्चाओं में कितनी सच्चाई है इसका अनुमान आकलनकर्ता ही लगा सकते हैं । उद्योगपतियों, मीडिया मुगुलों, सत्ता के दलालों की इन दिनों ओड् एकत्र रही ? यह लोग इस बात क्य प्रयास करते रहे कि ‘चौथे मोर्चे’ के कितने सदस्यों को प्रभाव में लाकर अपनी मनपसंद सरकार का गठन करवायें ।

पार्टी के नेता यह आश्वासन देते रहे हैं कि उनकी पार्टी बहुमत के लिए इसौदेबाजी का हारा नही लेगी । आमतौर पर यही समझा जाता है कि नेतागण इस तरह के बयान देते ही हैं । बवाल तो यह है कि अंतत: वास्तविकता क्या होगी ?

अब बदले हुए घटनाक्रम में उनका क्या रुख होता है यह देखने की बात है । यह उनकी परीक्षा का समय है । सरकार के गठन के लिए निर्णायक स्थिति में होने के कारण अब इन क्षेत्रीय इलों के हर कदम पर देश की जनता की नजर है । उनका कोई भी कदम उनके राजनीतिक मविष्य को बना सकता है और बिगाड़ भी सकता है ।

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