वैश्विक निरस्त्रीकरण : एक विचारणीय विषय पर निबन्ध | Essay on Global Disarmament : A Considerable Topic in Hindi!
स्टार वार की योजना, जो अंतरिक्ष में तीसरी पीढ़ी के परमाणु हथियारों के प्रयोग की योजना है, को अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति रीगन ने २३ मार्च, १९८३ को सामने रखी थी, जिसके निर्माता हाइड़ोजन बम के जनक अमेरिका के सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ. एडवर्ड टेलर हैं ।
आरंभ में टेलर ने कहा था कि यदि अंतरिक्ष में पृथ्वी की कुछ कक्षाओं में लेजर उपकरणों के अनेक प्लेटफॉर्म स्थापित किए जाएँ तो वहाँ दर्पण स्थापित करके रूस के सभी परमाणु जखीरों को पलक झपकते ही नष्ट किया जा सकता है; पर अब यह खतरा सामने आने पर कि इन प्लेटफॉर्मो का वही हाल हो सकता है, जो कि उपग्रहों का हो सकता है ।
अमेरिका अब धरातल पर ही लेजर प्लेटफॉर्म स्थापित करने की दिशा में सोच रहा है । इसके प्रयोग में लाया जानेवाला १०० फीट के दर्पण से युक्त उपकरण स्थायी रूप से ३६,००० किलोमीटर ऊपर भूकक्ष में स्थापित किया जाएगा ।
पृथ्वी से निर्देशित लेजर ऊर्जा को यह दर्पण समीकृत करेगा और फिर उसे रूस द्वारा १० हजार किलोमीटर दूर से बैलिस्टिक मिसाइलों के छोड़ने की सूचना मिलते ही उधर निर्देशित करेंगे । २०० बिलियन वॉटवाली लेजर किरणों से मिसाइलों को पिघला दिया जाएगा ।
चूकि लेजर किरणें ३ लाख किलोमीटर प्रति सेकंड की गति से चलती हैं अत: अत्यत तीव्र उपग्रह या मिसाइल को भी नष्ट कर देंगी । लेकिन अमेरिका की यह योजना सुदृढ़ नजर नहीं आ रही है । वैज्ञानिकों ने सिद्ध किया है कि इस उपाय से एक बार ही उपकरण नष्ट हो सकता है, जबकि रूस तथा अमेरिका एक साथ एक हजार से अधिक प्रक्षेपास्त्र छोड़ने में समर्थ हैं । अत: इतने सारे दर्पण लगाने पड़ेंगे ।
इस तरह स्पष्ट है कि अमेरिका अपने देशवासियों को जो विश्वास दिला रहा है कि इन परमाणु प्रक्षेपास्त्रों का एकमात्र सफल बचाव अंतरिक्ष युद्ध की उनकी योजना है, वह सरासर धोखे की बात लगती है । इसके विपरीत, रूस और अमेरिका के बीच विध्वंसक हथियारों की होड़ का खतरा भी बढ गया है । ज्ञात हुआ है कि रूस प्रत्युत्तर में अंतरिक्ष में एक ऐसे भू-उपग्रह को स्थापित करने में लगा है, जहाँ लेजर किरण से जल, थल और नभ पर सुगमतापूर्वक आक्रमण किया जा सकता है ।
इधर, अमेरिका में भी इस योजना के विरोध में आदोलन उठ खड़ा हुआ है । ‘कौंसिल ऑफ इकोनामिक्स प्रायोरिटीज’ के अंतर्गत संगठन ने एक अध्ययन प्रस्तुत किया है कि रूस के पास १,४०० अंतर्महाद्वीपीय प्रक्षेपास्त्र हैं, जिनमें ६,००० से ऊपर स्वतंत्र रूप में लक्ष्यवाले परमाणु बम फिट हैं । इन सबका अंतरिक्ष युद्ध-योजना में प्रतिकार संभव नहीं है । यदि रूस ने अमेरिकी अंतरिक्ष युद्ध से अधिक प्रभावी रास्ता निकाल लिया तो महाविनाश निश्चित है ।
अमेरिका के पूर्व विदेश मंत्री डीन रस्क साइरस बांस, एडवर्ड मस्की, अवकाशप्राप्त जनरल और एडमिरल टॉम डेविस, नीचेलोकर, जॉन मार्शल तथा सी.आई.ए. के पूर्व निदेशक विलियम कोली ने भी इस योजना को त्याग देने का अनुरोध किया है ।
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इसके बावजूद अमेरिकी राष्ट्रपति ‘हठधर्मी’ की भूमिका निभा रहे हैं । उन्होंने अपने हठ के पक्ष में यह तर्क दिया है कि हथियारों पर अरबों डॉलर खर्च करने के बावजूद ‘स्ट्रैटेजिक अस्त्रों’ के मामले में हम रूस से पिछड़ गए हैं ।
रूस के पास १६० प्रक्षेपास्त्र रोकनेवाले रकिट हैं, जबकि अमेरिका के पास एक भी नहीं । यही नहीं रूस में युद्ध के समय नेताओं के रहने और सुरक्षित युद्ध का संचालन करने के लिए १,५०० सुरक्षित तलगृह (बंकर) हैं, जबकि अमेरिका के पास मात्र ५० हैं ।
वस्तुत: अमेरिका के ये तर्क पूर्ण सत्य नहीं हैं । हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अमेरिका के मध्यम कोटि के नाभिकीय अस्त्र सोवियत धरती तक पहुँचने की क्षमता रखते हैं और जहाँ तक अंतर्महाद्वीपीय प्रक्षेपास्त्रों का प्रश्न है, दोनों देश लगभग समान क्षमतावाले हैं ।
रूस तथा अमेरिका के ये प्रक्षेपास्त्र १२ हजार किलोमीटर ऊपर अंतरिक्ष में पहुँचकर पृथ्वी के गोलार्ध की दूरी ३० मिनट में तय कर लेते हैं । अंतरिक्ष युद्ध-योजना से ३-४ मिनट में ही प्रक्षेपास्त्र नष्ट किया जा सकता है ।
अमेरिका ने यह सफलता प्राप्त कर ली है कि रूस द्वारा छोड़े गए प्रक्षेपास्त्र को वह रकिट के जरिए बीच में ही नष्ट कर दे । उसकी प्रथम परीक्षा काफी पहले ही हो चुकी है, लगभग १६ वर्षों पहले लॉस एंजिल्स के निकट एयरफोर्स स्टेशन से प्रशांत महासागर के ऊपर एक ‘मिनटमेन’ प्रक्षेपास्त्र छोड़ा गया था, जिसके ऊपर एक नकली परमाणु बम लगा था ।
इसके ठीक ४० मिनट बाद प्रशांत महासागर के मार्शल द्वीप से कंप्यूटर-नियंत्रित तथा इन्फ्रारेड सेंसर से युक्त एक रॉकेट छोड़ा गया था । परिणामस्वरूप दोनों आपस में टकराए और हवा में ही नष्ट हो गए । अमेरिका की ‘स्टार वार’ की योजना से हिंद महासागर, दक्षिण एशिया के देशों तथा भारत के लिए भी खतरा उत्पन्न हो गया है ।
इस योजना के दो उद्देश्य हैं:
१. रूसी उपग्रहों को नष्ट करना,
२. रूसी परमाणु प्रक्षेपास्त्रों को नष्ट करना ।
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ये दोनों ही कार्य हिंद महासागर में स्थापित अमेरिकी अड्डों से सुगमतापूर्वक संपादित किए जा सकते हैं । इससे भारत तथा अन्य देशों की स्थिति भयावह हो सकती है । पुन: यदि भारतीय उपमहाद्वीप में १,००० किलोमीटर ऊपर भी कोई परमाणु विस्फोट होता है तो इलेक्ट्रो-मैग्नेटिक किरणों के कारण हमारे इनसेट जैसे उपग्रह तत्काल विनष्ट हो सकते हैं ।
इस प्रकार रूस एवं उसके समर्थित देश और अमेरिका तथा उसके समर्थित देश ऐतिहासिक रूप में अस्त्र-शस्त्रों के मामले में दो महाशक्तियाँ बन गई हैं । यही तथ्य विश्व मामलों में उनके स्थान, उनकी भूमिका तथा दायित्व-सीमा का बहुत हद तक निर्धारण करता है, किंतु यहाँ उनमें सादृश्य समाप्त हो जाता है ।
वस्तुत: ये दोनों महाशक्तियों विचारधाराओं तथा जीवन पद्धतियोंवाली सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्थाएँ हैं । उनके बीच गहरे विरोध विद्यमान हैं । दोनों शक्तियों को इस समाधानपरक समन्वय-मार्ग पर सहानुभूतिपूर्ण दृष्टि डालनी होगी कि इन विरोधों को बल-प्रयोग से नहीं, बल्कि शांतिपूर्ण स्वस्थ प्रतिस्पर्धा से दूर किया जा सकता है ।
एक ही विकल्प है- सभी देशों के बीच शांतिमय सह-अस्तित्व । यह सह-अस्तित्व तब दृढ़तर होगा, जब संसार में हथियार कम होंगे, सशस्त्र युद्धों का, विशेषत: नाभिकीय शस्त्रास्त्रोंवाले युद्ध का खतरा कम होगा । विगत ८८ वर्षो से दोनों महाशक्तियाँ संघके को समाप्त करनें के लिए साधन के रूप में निरस्त्रीकरण का समर्थन तथा युद्ध का विरोध करती आ रही हैं, फिर भी दोनों की प्रतिक्रियाएँ भिन्न-भिन्न हैं, वहीं सामरिक सोच एक- दूसरे को नीचा दिखाती रहती हैं ।
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हालाकि विश्व-शांति के प्रसंग में निरस्त्रीकरण की समस्या पर शताब्दियों से विचार होता आया है । कभी इस समस्या का संबंध केवल शांति स्थापित रखने से था, किंतु अब इसकी गंभीरता इतनी बढ़ गई है कि न केवल विश्व-शांति, वरन् मानव सभ्यता का भविष्य भी इसी पर निर्भर है ।
आधुनिक राष्ट्र विज्ञान के वरदान अथवा अभिशापस्वरूप इस प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों से सज्जित हैं कि यदि इस समस्या का सर्वसम्मत हल नहीं तलाशा गया तो हमारी सभ्यता का अस्तित्व ही इस धरा से निःशेष हो सकता है ।
अतएव यह स्मरणीय है कि संप्रति निरस्त्रीकरण के लिए चल रहे प्रयत्नों का उद्देश्य संसार में युद्ध की संभावनाओं को समाप्त कर देना ही नहीं है, क्योंकि युद्ध को मानव-मन से सदैव के लिए निकाल देना असंभव है, अपितु इन प्रयत्नों का मूल उद्देश्य मानव सभ्यता को महाविनाश से बचा लेना है ।
इसी दृष्टि से हरारे में आयोजित ‘आठवें गुट-निरपेक्ष सम्मेलन’ की प्रभावकारी सर्वसम्मत प्रतिक्रिया सामने आई । सन् १३०४ में रीगा, १७१३ में डेनमार्क तथा १७१५ में लीज की किलेबंदी को विनष्ट कर इसी प्रकार का निरस्त्रीकरण संपन्न किया गया था । सन् १७७५४ में तुर्की को क्रीमिया में किलेबंदी न करने का आदेश दिया गया था । १८१७ में मैहान झीलों के क्षेत्र में १८१८ में कनाडा में, १८५६ में कालासागर में तथा १८६३ में आयोनियन द्वीपों में असैनिकीकरण द्वारा निरस्त्रीकरण की स्थापना हुई थी ।
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निरस्त्रीकरण की परंपरागत धारणा का प्रदर्शन सन् १९०५ में स्वीडेन-नार्वे सीमांत प्रदेश, १९११ में राइन सीमांत प्रदेश, १९२० में फिनलैंड की खाड़ी तथा सिरज-बर्णन के असैनिकीकरण में परिलक्षित होता है । इस प्रकार के निरस्त्रीकरण में वस्तुत: विजित पक्ष अथवा क्षेत्र विशेष को ही निरस्त्र बनाया जाता था । अवसर मिलते ही, यह स्थिति बदल जाती थी और फिर युद्ध की तैयारियां आरंभ हो जाती थीं ।
प्रथम महायुद्ध के पश्चात् विजित जर्मनी को जिस प्रकार अस्त्र-शस्त्रविहीन कर पंगु बना दिया गया था, उसे वह भूला नहीं था । हिटलर का नेतृत्व प्राप्त कर जर्मनी ने जिस प्रकार वारसा की संधि की अवहेलना कर अपने को अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित किया तथा संसार को द्वितीय महायुद्ध की विभीषिका में धकेल दिया था, वह भी किसी को विस्मृत नहीं हुआ है ।
अतएव यह बात अब स्पष्ट हो गई है कि एकपक्षीय निरस्त्रीकरण से विश्व-शांति स्थायी नहीं हो सकती । यदि विश्व में शांति-व्यवस्था बनाए रखना है और शताब्दियों की साधना से अर्जित अपनी सभ्यता का भविष्य समुज्ज्वल बनाना है तो हमें एकपक्षीय नहीं, वरन् सर्वपक्षीय निरस्त्रीकरण को ही ध्येय बनाकर उसकी सिद्धि के लिए प्रयत्न करना होगा ।
इतिहास पर यदि दृष्टि-निक्षेप करें तो ज्ञात होगा कि पूर्ण तथा सर्व राष्ट्रव्यापी निरस्त्रीकरण की भावना सर्वप्रथम सर १८१६ में रूस के सम्राट् जार (प्रथम) के मस्तिष्क में आई थी । इसके १ वर्ष पूर्व वियना शांति संधि द्वारा यूरोप के कई देशों ने अपने युद्धास्त्रों पर सीमा बंधन स्वेच्छा से स्वीकार किए । सन् १८३१ में पेरू और बोलीबिया ने भी परस्पर समझौते द्वारा अपने युद्धास्त्र सीमित कर लिये थे ।
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१८७० में प्रिंस बिस्मार्क के विरोध के फलस्वरूप शस्त्रास्त्रों के परिसीमन प्रयोग को धक्का सा लगा था । १८७७ में रूस ने तुर्की पर केवल इसलिए आक्रमण किया था कि वह अपना सैन्य-बल घटाने को तैयार नहीं हुआ था । ११०७ में हेग कॉन्फ्रेंस विफलता का कारण जर्मनी का अपनी नौसेना को घटाने के लिए तैयार न होना ही था ।
प्रथम महायुद्ध में जर्मनी की पराजय के पश्चात् वाशिंगटन में सन् १९२१-१९२२ में फिर से कॉन्फ्रेंस हुई थी, जिसमें ग्रेट ब्रिटेन, अमेरिका, जापान, फ्रांस तथा इटली की नौसेनाओं का परस्पर अनुपात निश्चित किया गया । युद्धपोतों के प्रकारों पर भी कुछ समझौता हुआ, पर वह स्थायी न हो सका तथा एक के बाद एक अंतरराष्ट्रीय कॉन्फ्रेंस होती रहीं और विश्व धीरे- धीरे दूसरे महायुद्ध की ओर अग्रसर होता रहा । सर ११३९-१९४५ तक विश्वव्यापी महायुद्ध हुआ-ऐसा युद्ध जैसा मानव इतिहास में पहले कभी नहीं हुआ था ।
उसका अंत आणविक बम के प्रयोग से हुआ । केवल एक-दो आणविक बम कैसी विनाशकारी लीला कर सकते हैं, यह देखकर सारी दुनिया सन्त रह गई । आणविक युद्ध के अतिरिक्त द्वितीय महायुद्ध ने एक दूसरा चमत्कार भी दिखाया, वह था अंतरराष्ट्रीय राजनीति के रंगमंच पर रूस का अष्णुदय ।
अमेरिका प्रथम महायुद्ध के बाद से ही अपने प्रभाव के कारण संसार का आकर्षण-बिंदु बन रहा था । रूस के उदय के साथ दोनों राष्ट्र एक-दूसरे को मल्ल-युद्धरत प्रतिद्वंद्वियों की भाति आमने-सामने आ गए । आज स्थिति यह है कि संसार भर की दृष्टि इन्हीं दोनों के कार्य-कलाप पर लगी रहती है ।
अह्माविक-पारमाणविक शक्तियाँ यद्यपि ग्रेट ब्रिटेन, फ्रांस, पाकिस्तान, चीन तथा भारत के पास भी हैं और इनमें से कोई भी संसार का विनाश करने में समर्थ है, तथापि उनसे उतना भय नहीं है जितना कि अमेरिका तथा सोवियत संघ के परस्पर विरोधी आदर्शो से प्रेरित विग्रह से ।
इसी कारण १४ मार्च, १९६२ को जेनेवा में १७ देशों का निरस्त्रीकरण सम्मेलन हुआ था, जिससे अंतरराष्ट्रीय परिवेश में शांति का अस्तित्व कायम हुआ था । इसी आधार पर ५ अगस्त, १९६३ को सोवियत रूस, अमेरिका तथा ग्रेट ब्रिटेन ने आशिक अणु परीक्षण निषेध पर समझौता किए थे, जिस पर लगभग १०० से अधिक देशों ने हस्ताक्षर करके अपनी सहमति जताई ।
यह समझौता १० अक्तूबर, १९६३ को लागू हुआ था । भारत, चीन तथा उसके सहयोगी राष्ट्र और फ्रांस अभी तक उसका बहिष्कार कर रहे हैं । इस समझौते के बाद विश्व में कुछ घटनाएँ इतनी तीव्र गति से घटित हुई, जिनकी पहले किसी ने कल्पना तक न की थी ।
अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति केनेडी की हत्या, भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू का निधन, रूस के प्रधानमंत्री खुश्चेव का पतन तथा उसके तुरंत बाद चीन द्वारा अणु बम विस्फोट से हमारे समक्ष विकट समस्याएँ आ खड़ी हुईं ।
इनके अतिरिक्त वियतनाम के संघर्ष में अमेरिका का पूर्ण रूप से हस्तक्षेप, दक्षिण-पूर्व एशिया में मलेशिया-हिंदेशिया का टकराव, श्रीलंका की भंडारनायके सरकार का पतन, तदुपरांत हिंदेशिया का राष्ट्र संघ से अलगाव-ये सब ऐसी घटनाएँ रहीं, जिनके कारण संपूर्ण विश्व का राजनीतिक संव्यूहन ही आदोलित हो उठा था ।
इनके चलते अंतरराष्ट्रीय संपर्कों में अनिश्चितता का जो दौर आया, वह वर्तमान तथा भावी वर्षों में, संसार का भाग्य निश्चित करनेवालों के लिए चिंता का विषय बन गया । संसार के समक्ष रूस-अमेरिका विवाद, भारत-चीन सीमा विवाद, भारत-पाकिस्तान विवाद, उत्तर कोरिया और ईरान परमाणु विवाद, इसक-सुयंक्त राज्य अमेरिका विवाद आदि कुछ ऐसी चिंतनीय समस्याएँ चली आ रही हैं, जिनसे कभी और कही भी विश्वव्यापी युद्ध के विस्तार की आशंका बनी रहती है ।
चीन की विस्तारवादी नीति ने चौतरफा आक्रमण कर अपना साम्राज्य विस्तार करने का जो अंतरराष्ट्रीय कुचक्र चलाया था, उसमें उसे भी विफलता मिली है । दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों को अपने परमाणविक विस्फोट द्वारा आतंकित करने पर भी वह संभवत: अपने कुटिल चक्र में सफल नहीं हुआ ।
हिंदेशिया की क्रांति तथा चीनी तत्त्वों की समाप्ति से चीन की प्रतिष्ठा को न केवल गहरी चोट लगी है, बल्कि उसके विस्तार का स्वप्न भी भंग हो गया है । अब चीन की स्थिति यह है कि वह गंभीर रूप से अपने आतरिक सैद्धांतिक विरोधों-अंतर्विरोधों में उलझकर रह गया है । इधर, अमेरिका और चीन में सैद्धांतिक विरोध निरंतर उग्र होता जा रहा है ।
ईरान-इराक के बीच में जो कुत्सित युद्ध की निरंतरता बनी हुई है, उसमें चीन और अमेरिका मुख्य कारक हैं । खुले रूप में चीन ईरान की मदद कर रहा है । कुछ वर्षो पूर्व ईरान ने चीन के साथ १.६ अरब डॉलर के हथियारों की आपूर्ति का एक समझौता किया था, जो अमेरिका की आँखों की किरकिरी बन रहा है ।
रूस तो अपेक्षाकृत अत्यधिक शालीन है, किंतु अमेरिका अपनी दोमुँही नीति का लोभ-संवरण नहीं कर पा रहा है । क्या कारण है कि अमेरिका के राजनीतिक तथा सैनिक नेता प्राय: इसलामाबाद का आतिथ्य स्वीकार करते रहते हैं ? पाकिस्तान में अमेरिका के उत्साहपूर्ण कार्य-कलाप का सीधा कारण यह है कि इस क्षेत्र में अपने प्रमुख मित्र ईरान के शाह को खो देने के बाद वाशिंगटन ने पाकिस्तान को दक्षिण-पश्चिम और दक्षिण एशिया में अपनी सैनिक तथा राजनीतिक घुसपैठ के प्रमुख सेतु का स्वरूप देने का निर्णय किया है । अमेरिका को इसलामाबाद की आवश्यकता मुख्य रूप से निम्न तीन कारणों से है-
१. फारस-खाड़ी क्षेत्र में काररवाई के लिए तूफानी दस्ते के छलाँग-स्थल के रूप में ।
२. लोकतांत्रिक अफगानिस्तान के विरुद्ध अघोषित युद्ध के प्रमुख अड्डे के रूप में ।
३. भारत-विरोधी अमेरिकी नीति के साधन के रूप में ।
जहाँ तक फारस-खाड़ी क्षेत्र का संबंध है, कार्टर प्रशासन के अधीन पेंटागन के रणनीतिज्ञों ने एक सिद्धांत निश्चित किया, जिसमें पाकिस्तान को ‘ तूफानी दस्ते ‘ का महत्त्वपूर्ण ट्रांसशिपिंग केंद्र बनाने की योजना है, यदि तूफानी दस्ते को फिलीपींस अथवा डियागो-गार्शिया से खाड़ी क्षेत्र में भेजना हो ।
इस संबंध में अमेरिका ने जो कुछ सोच रखा था, उनमें से अधिकांश हाल के वर्षो में कार्यान्वित किया जा चुका है । पेंटागन पाकिस्तान में सैनिक सुविधाएँ निर्मित कर रहा है, जिनका उपयोग खाड़ी के तटवर्ती राज्यों पर हमले में किया जा सकता है ।
उल्लेखनीय है कि ये अनेक विमान क्षेत्र हैं, जो मात्र एफ- १६ लड़ाकू बमवर्षकों के लिए नहीं, प्रत्युत विमानों की कुछ ऐसी किस्मों के लिए भी उपयोगी हैं, जो पाकिस्तान के पास नहीं हैं; किंतु ऐसे विमानों की संख्या अमेरिकी वायुसेना में बहुत अधिक है ।
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कड़ी सुरक्षा के बीच अमेरिकी विशेषज्ञों के निर्देशन में पाकिस्तान अरब तट पर कम आबादीवाले क्षेत्रों में सैनिक अड्डे बना रहा है, साथ ही हथियारों और गोला-बारूद रखने के गोदाम तथा जासूसी केंद्र भी । अमेरिकी सशस्त्र सेनाओं द्वारा इन अड्डों, विमान- क्षेत्रों तथा बंदरगाहों का उपयोग न केवल फारस-खाड़ी क्षेत्र की स्थिति के भयावह हो जाने पर, बल्कि एशियाई महाद्वीप के किसी भी देश में ‘अवांछनीय’ परिस्थितियाँ उत्पन्न हो जाने की स्थिति में भी किया जा सकता है ।
पेंटागन ने इस क्षेत्र में निरंतर बढ़ती हुई सशस्त्र अमेरिकी सेनाओं से संबद्ध व्यवस्थाओं के लिए विशेषीकृत कमान यूनिट ‘मध्य कमान’ की स्थापना की है, जिसका दायित्व- क्षेत्र अफ्रीका तथा एशिया के १९ देशों तक फैला है । रणनीतिज्ञ अपने विस्तारवादी लक्ष्यों की प्राप्ति में पाकिस्तानी सेना के अधिकारियों तथा जवानों का उपयोग करने की योजना बना रहे हैं ।
इस बात का प्रामाणिक साक्ष्य यह है कि सन् १९८४ में मई-जून के महीने में वाशिंगटन के इशारे पर इसलामाबाद ने फारस-खाड़ी क्षेत्र में संभावित तैनाती के लिए २५,००० की दुर्दात हमलावर टुकड़ी, जो ‘अमेरिकी तूफानी दस्ते’ का ‘पाकिस्तानी संस्करण’ है, को तैयार कर रखा है ।
इन दिनों अमेरिका भारत-विरोधी नीति में भी पाकिस्तान का व्यापक उपयोग करने के लिए प्रयत्नशील है । पाकिस्तान ने अमेरिका प्रदत्त अधिकांश आधुनिकविनाशक हथियार भारतीय सीमा के निकट जमा किए गए हैं तथा नाभिकीय क्षमतावाले एफ-१६ विमानों के लिए हवाई क्षेत्रों का निर्माण इस क्षेत्र में किया जा चुका है ।
एफ-१६ विमान अनेक भारतीय नगरों में पहुँच सकते हैं । अमेरिका की नीति में कितनी विसंगतियाँ हैं, इसका सहजता से अनुमान लगाया जा सकता है । एक तरफ तो वह रूस से मिल-बैठ निरस्त्रीकरण की सार्थकता को रेखांकित करने की बात उठाता है, वहीं दूसरी ओर दोहरे चरित्र की बारीकियों में उलझाकर साजिश रचता है ।
इस मानसिकता को आप किस रूप में रेखांकित करेंगे कि अमेरिका ने पिछले २५ वर्षो से शस्त्रास्त्र-नियंत्रण समझौते पर एक भी हस्ताक्षर नहीं किए हैं, इससे उसके दोहरे चरित्र का सहज ज्ञान हो जाता है । नाभिकीय हथियारों के परीक्षण पर पूर्ण और सार्वभौम प्रतिबंध लगाने के समझौते को अंतिम रूप देने के अवसर को धूमिल कर दिया है, यूरोप में मध्यम कोटि के प्रक्षेपास्त्रों के संबंध में वार्त्ताओं को भंग कर दिया है तथा समस्त हथियारों के परिसीमन के मसलों में अवरोध खड़ा कर दिया है ।
हिंद महासागर में अमेरिका की सैन्य-उपस्थिति में वृद्धि की चर्चा होते ही इससे संबद्ध अधिकारी इस मामले को इस ढंग से पेश करते हैं कि संसार को यह विश्वास हो जाएकि अमेरिकी सैन्य-शक्ति में वृद्धि का उद्देश्य सागर-संचार की सुरक्षा की निरापदता है, जो सभी राष्ट्रों के हितों के अनुकूल है; किंतु वास्तविकता यह है कि हिंद महासागर में अमेरिका की सैन्य गतिविधि, तटवर्ती देशों के प्राकृतिक संसाधनों की अबाध लूट-खसोट के सुनिश्चय के साथ-ही-साथ महासागर की संपदा के व्यापारिक उपयोग के उसके प्रयत्नों से प्रत्यक्ष रूप में जुड़ी हुई है ।
सैन्य नियोजन तथा सैनिकों की तैनाती की दृष्टि से दक्षिण-पूर्व एशिया और हिंद महासागर पर ही बल दिया गया है । हिंद महासागर के सैन्यीकरण के लिए ३,००० करोड़ डॉलर की राशि पंचवर्षीय कार्यक्रम के लिए निर्धारित की गई है ।
छठे या सातवें अमेरिकी नौसैनिक बेड़े के एक या दो विमानवाही जहाज अपने सहयोगी जहाजों के साथ निरंतर अरब सागर में गश्त लगाते रहते हैं । अब अमेरिका ने हिंद महासागर में एक विशेष नौसैनिक बेड़ा तैनात करने की ‘आधारभूत आवश्यकता’ का उल्लेख करना आरंभ कर दिया है ।
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अरब सागर और फारस की खाड़ी में इस समय तैनात अमेरिकी विमानवाही जहाज और उनके सैकड़ों गश्ती विमान छोटे नाभिकीय हथियारों से सुसज्जित हैं । अमेरिका के राजनयिक कहते हैं कि शीघ्र ही युद्धपोतों के विमानों को हजारों किलोमीटर मार कर सकनेवाले क्रूज मिसाइलों से लैस कर दिया जाएगा, जिनमें हिंद महासागर की वायु-सीमा में गश्त लगानेवाले तथा ऑस्ट्रेलिया स्थित अड्डों से उड़ान भरनेवाले अमेरिका का सामरिक बमवर्षक बी-५२ भी सम्मिलित है ।
इसने केन्या, सोमालिया, सऊदी अरब, ओमान, पाकिस्तान और मिस्र के तटवर्ती क्षेत्रों में अपने नौ सैनिक तथा वायु सैनिक अड्डों का जाल फैला रखा है । अमेरिका की इस सुनियोजित साजिश के तहत डियागो-गार्शिया स्थित विशाल सैनिक अड्डा उसके इस जाल के केंद्र की भूमिका निभा रहा है, जिसे अधिक सुदृढ़ीकरण तथा आधुनिकीकरण के लिए आधा अरब डॉलर की राशि निर्धारित कर दी गई ।
वहाँ बी-५२ विमानों के लिए हवाईपट्टी की भी व्यवस्था है तथा ट्राइडेंट मिसाइलों से लैस विमानवाही जहाजों व पनडुब्बियों के ठहरने की भी व्यवस्था की गई है, साथ ही परंपरागत और नाभिकीय हथियारों का जखीरा तैयार किया जा चुका है ।
१६ सितंबर, १९५६ को आयोजित संयुक्त राष्ट्र महासंघ के इकतालीसवें अधिवेशन में संकट की इन स्थितियों पर संगठन के सदस्यों ने चिंता जताई । नामीबिया की मुक्ति का प्रश्न जोरदार ढंग से उठाया गया है । बेहतर होता, यदि इस अधिवेशन में निरस्त्रीकरण की समस्या तथा अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद पर भी विशेष रुचि ली जाती ।
पाकिस्तान की दोमुँही नीति के तहत पैन एम. विमान अपहरण कांड, इराकी राजनयिक की हत्या, रूसी राजनयिक की हत्या, हिंद महासागर को अमेरिका द्वारा सामरिक अड्डा स्थापित करने, दक्षिण अफ्रीका की रंगभेदी नीति, पाकिस्तान-भारत का तनाव, अमेरिका का अतार्किक शक्ति-प्रदर्शन, ईरान-उत्तरी कोरिया की परमाणु नीति तथा चीन की अतिक्रमण नीति आदि पर विशेष रूप से चिंता करने की आवश्यकता है, क्योंकि जब भी ये सभी कारण एक साथ सामने दिखाई देते हैं तब एक हृदय विदारक दृश्य दिलोदिमाग पर छा जाता है-महाविनाश- सर्वनाश का डरावना दृश्य !