शराबबंदी: राष्ट्रीय पहल की जरूरत पर निबन्ध | Essay on Temperance : Need of National Initiative in Hindi!

प्रस्तावना:

देश की समस्या शराब पीना नहीं वरन् शराबखोरी है । जिसके प्रति हम गम्भीर नहीं हैं । हम हर काम प्रचार के लिए करते हैं । शराबबंदी हो ही नहीं सकती, यह तो इन्सान की फितरत में दाखिल है । ऐसा करने से गैर-कानूनी शराब को बढ़ावा मिलेगा ।

जो लोग शराबखोरी के पक्षधर हैं, उनसे पूछा जाना चाहिए कि शराबबंदी से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला, तो वह फिर क्यों इतनी चिन्ता कर रहे हैं, और क्यों परेशान होकर अपनी जान हलकान कर रहे हैं । प्रत्येक समाज सुधार को कानून से करने का प्रयास मूलत: फासिस्ट प्रवृत्ति का द्योतक है ।

जबकि सत्य यह है कि कानून के बल पर शराबबंदी कहीं पर भी सफल नहीं हुई है । चिन्तनात्मक विकास: सम्पूर्ण शराबबंदी एक अव्यावहारिक कल्पना है । शराब के कुप्रभाव से इनार नहीं किया जा सकता । शराब निर्माताओं व सत्ता प्रतिष्ठान की सोची-विचारी साजिश के तहत शहरी और कराई लोगों के बीच शराब का प्रचार होता रहा है ।

इसके अंधाधुंध प्रचार व प्रसार ने असामाजिक व अपराधिक गतिविधियों को भी बढ़ावा दिया है । यह सत्य है कि शराब और अपराध एक-दूसरे के पूरक हैं । दुर्भाग्य से शराब की लत से सबसे ज्यादा गरीब और कमजोर तबके प्रभावित होते हैं । जो पैसे वाले है या प्रभावशाली अधिकारी, उद्योगपति या राजनेता हैं उन पर कोई असर नहीं होता ।

पूर्ण नशाबंदी के लिए कई राज्यों में प्रयास हो रहे हैं । खासकर महिलाएं इस क्षेत्र र्मे ज्यादा सक्रिय हैं । कुछ राज्यों में नशाबंदी लागू की गई है । परन्तु, कई राज्यों में अब भी कार्यक्रम सफल नहीं हुआ है । एक तरफ शराबबंदी के लिए जोरदार प्रयास जारी हैं तो दूसरी तरफ सत्ता तन्त्र राजस्व के मोह व शराब के ठेकेदारों की गिरफ्त में इस कदर जकड़ा हुआ है कि वह तर्क या सामाजिक कल्याण की बातों के प्रति संवेदनाशून्य बना हुआ है ।

आजादी के 50 साल बाद भी सरकार सफलतापूर्वक शराबबंदी लागू नहीं कर सकी है । शराबबंदी के खिलाफ राजस्व के घाटे का हौवा दिखाया जाता है तो कभी आमदनी बढ़ने से विकास की गति तीब्र होने का लालच दिया जाता है ।

गाँधीजी की विरासत पर दाम करने वाले नेताओं व सामाजिक कार्यकर्ताओं के बीच भी एसे मुट्‌ठी भर लोग ही बचे हैं जो नशाबंदी के विरुद्ध जोरदार आवाज या कोई कदम उठाने की क्षमता रखते हों । शराब के कुचक्र और गुलामी के विरुद्ध जागरूक जनमानस लम्बी लड़ाई हेतु तैयार हो तो मुक्ति का मार्ग भी प्रशस्त हो सकता है ।

उपसंहार:

स्पष्टत: कहा जा सकता है कि आज शराबबंदी के लिए जोरदार ढंग से आन्दोलन चलाने की आवश्यकता है । इसके लिए व्यक्ति और समाज दोनों को ही ‘मोबलाइज’ होना पड़ेगा क्योंकि शराबबंदी के लिए साहस व दृढ़ इच्छाशक्ति की जरूरत है । यदि एक वार लोगों की शराब पीने की आदत छूट गई तो उनका नैतिक चरित्र फिर से बन सकता है और अपराधों में भी कमी लाई जा सकती है ।

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नशा क्या है और इसकी शुस्वात कब, कैसे और क्यों होती है ? क्या हमने सामूहिक रुप ये इस अहम मुद्दे पर कभी सोचने या चिन्तन करने की ईमानदारी से जरूरत समझी है ?  ऐसा लगता है कि अभी तक नशेबन्दी पर गम्भीरता से बहुत कम सोचा गया है । क्या कभी हम सबने यानि प्रबुद्ध वर्ग ने यह सोचा है कि दिन पर दिन नशे की लत क्यों बढ़ती जा रही है ?

क्या वजह है कि हम अपने समाज में पुरुषों, महिलाओं, किशोर और नौजवान पीढी को गर्त में जाते हुये देख रहे हैं ? कहीं कोई साजिश जरूर है । इस साजिश का पता लगाना और नशे की लत से मुक्त समाज के लिए पहल जरूरी है ।

पहल हम सबको मिलकर करनी होगी । यह सच्चाई है कि मादक पदार्थों के नशे के लती, समाज के बीच तिरस्कृत होते है और उन्हे घृणा की दृष्टि से देखा जाता है । इस तरह हर नशे के लती को जब पूणा से देखा जाता है तो निश्चित ही इसका प्रभाव उसकी मनोदशा पर पडता होगा और उसे धक्का लगता होगा ।

यही वजह है कि नशेबाज हमेशा समाज से कटा रहता है और उसका अपना समाज नशेबाजों का ही होता है । स्नेह और हमदर्दी के मोहताज ये नशेबाज गर्त में गिरते ही चले जाते हें । आखिर वे कौन से कारण हैं जो नशे का लती बनाकर हमारी पीढियों को नष्ट कर रहे हैं । मीडिया से जुडे लोगो का दायित्व है कि इन कारणों का पता लगायें ।

शराब सिर्फ एक नशा ही नहीं बल्कि परिवार की सुख-शान्ति और उसकी अर्थ-व्यवस्था के लिए भी खतरनाक है । शराब की लत लग जाने पर एक आदमी परिवार को, समाज को तथा अपने आप को भूल जाता है तथा वह अपराध कमी की ओर आसानी से प्रवृत्त होता है ।

दूसरी तरफ शराब सरकार के लिए राजस्व प्राप्ति का एक बड़ा साधन है । इसलिये शराबबंदी लागू करने के बारे में सरकारों में हिचकिचाहट होती हे लेकिन यह एक साहस का काम है क्योंकि शराबबन्दी से जो घाटा होगा उसे पूरा करने के लिए कोई दूसरा रास्ता तलाशना पड़ेगा फिर भी समाज की वर्तमान स्थिति को देखते हुए यही कहा जा सकता है कि घाटा सह कर भी सरकार को शराब पर रोक लगानी चाहिए और समाज को बर्बाद होने से बचाना चाहिए ।

मदिरापान से खोखले हो रहे समाज को बचाने के लिए आज जरूरी है कि शराब पर एक राष्ट्रीय सोच कायम हो ताकि इस बुराई से जड़ से छुटकारा पाया जा सके । युवाओं में शराब के बढ़ते उपयोग से नयी पीढ़ी का शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य इस कदर दुष्प्रभावित हो गया है कि सेना और सशस्त्र बलों में भर्ती के लिए निर्धारित मापदंडों में वह पूरी तरह नहीं उतर पा रही है ।

यह भी गंभीर प्रश्न है कि शराबखोरी की बढ़ती प्रवृत्ति के कारण नष्ट हो रही युवा पीढी के कारण हमारी सैन्य ताकत भी आने वाले समय में उतनी नहीं रहेगी जितनी कि अब तक रही है । शराब ने सबसे ज्यादा नुकसान पारिवारिक जीवन और सामाजिक रिश्तों को पहुंचाया है । शराब की दुःखदायी प्रवृत्ति के चलते जहा हजारों परिवार टूटकर बिखर गये हैं, वहीं शराबजनित अपराधों में भी लगातर वृद्धि हो रही है ।

सबसे दुःखद पहलू यह है कि महिलाओं के प्रति हुए अपराधों और अत्याचारों का कारण अधिकांशत: शराब ही है । महिलाओं के अपहरण और बलात्कार की घटनाएं दिनों-दिन बढती जा रही हैं । आत्महत्याएं भी उसी तेजी से बढती जा रही हैं । शराबखोरी की लत के चलते जहां छोटे किसान अपनी भूमि से बेदखल हो रहे हैं वहीं चोरी, छीना झपटी, लूटमार और राहजनी की घटनाएं लगातर बढ़ रही हैं ।

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एक वक्त था जब मदिरापान सामत वर्ग तक सीमित था । बडे उद्योगपति, बड़े अफसर और सामर्थ्यवान व्यक्ति ही शराब का सेवन करते थे, मगर आज यही शराब उस छोटे दायरे से निकलकर बहुत बडे दायरे में फैल चुकी है । शराब पीना-पिलाना आज आधुनिकता का पर्याय बनता रह है । अभिजात्य वर्ग जो शराब पीता भी है और जीता भी, लेकिन निचला तबका जो शराब पीने में समर्थ तो नहीं है मगर पी रहा है और बेमौत मर रहा है ।

शहरों की तरह गांव भी शराब र्क चपेट में है । गांव-गांव की हालत आज यह है कि पन्द्रह से बीस प्रतिशत किसान शराब के आदी होकर अपनी जमीन गवा चुके है ओर दाने-दाने को मोहताज हैं । शहरों से चली आधुनिकता की हवा ने गावों को भी अपने रंग में रंग लिया है ।

शादी-ब्याह हो, बच्चे का नामकरण संस्कार या और कोई उत्सव का अवसर, महंगी से महंगी शराब पीने और पिलाने का चलन घर-घर में है । सवाल यह है कि सामर्थ्यविहीन व्यक्ति की पहुंच शराब तक कैसे पहुंची या यह लत खुद उस तक कैसे पहुंची ?

अगर कहा जाए कि सामाजिक विकास के चलते कमजोर वर्ग शराब तक पहुचा तो यह भी तार्किक नहीं होगा । इसे सामाजिक विकास तो नहीं कहा जा सकता जहां से बरबादी की शुस्थात हो रही है । निचले वर्ग की समस्या यह है कि पहले तो उसके पास इतना पैसा नहीं कि शराब खरीद सके । अगर किसी तरह शराब खरीद भी ले तो वह बेकाबू होकर अपने परिवार से लडेगा-झगडेगा ।

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नतीजतन परिवार छ रहे हैं । बिखर रहे हैं । यही वर्ग है जो शराब के कारण दुर्धटना का शिकार हो रहा है या अन्य तमाम तरह के अपराधों में लिप्त हो रहा है । इसके लिए व्यवस्था को ही दोषी ठहराया जाएगा, जो शराब के खतरों को नजरअंदाज कर यह भूल जाती है कि सामाजिक ढांचे को बचाये रखना भी उसी की जिम्मेदारी है ।

प्राय: सत्ता मे बैठे लोगों द्वारा यह तर्क दिया जाता है कि शराबबंदी या मद्यपान निषेध जैसे कार्यों में सरकार की तरफ से नहीं बल्कि समाज की ओर से पहल होनी चाहिए । यह सत्य हे कि सामाजिक चेतना और जनता के संकल्प के बिना शराबबंदी का कोई भी सरकारी प्रयास सफल नहीं हो सकता ।

मगर यह भी सत्य है कि राजनीतिक इच्छा स्पष्ट हो तो जनता भी शराबबंदी के निर्णय का हमेशा स्वागत करेगी । शराब के कारोबार में फायदा उठाने वाला वर्ग बहुत छोटा है, जबकि शराब के दुष्परिणामों से आहत होने वाला वर्ग काफी बड़ा । यही वजह है कि देश में प्राय: शराबबंदी के नारे बुलद होते रहते हैं ।

शराब और शराबियों के कारण सबसे अधिक अपमान और कष्ट माँ और पत्नी के रूप में नारी को ही झेलना पड़ता है और यही वजह है कि देश के विभिन्न हिस्सो में शराब के विरुद्ध नारी आंदोलन हुये । आध्र प्रदेश, केरल, गुजरात और हरियाणा में शराब के खिलाफ नारी दोलनों ने देश का ध्यान अपनी ओर खींचा ।

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इन आदोलनों से समाज मे नयी शक्ति का भी संचार हुआ । लोगों ने भी नारी पुकार को समझा । राज्य सरकारों को भी अपने चुनावी घोषणापत्रों में शराबबंदी को शामिल करना पड़ा । गुजरात, औध्र प्रदेश और अब हरियाणा में शराबबंदी हुई मगर इसका उतना असर देश के गांव-गांव तक फैली इस समस्या पर नहीं हुआ ।

कारण वही समग्र राजनीतिक इच्छा का अभाव रहा । चुनावी वायदे को पूरा करने के लिए राज्य सरकारों ने शराबबंदी भले ही लागू कर दी मगर उससे होने वाले नुकसान की भरपाई भी जनता से ही की गयी । नतीजा यह रहा कि शराबबंदी लोगों के लिए शराब से भी ज्यादा दुःखदायी साबित हुई ।

नशाबंदी की माग को लेकर एक तरफ महिलाएं संघर्ष छेडे हुये हैं और दूसरी ओर भारत में विदेशी शराब की खपत बढ़ती जा रही है । विश्व में तो शराब की खपत प्राय: स्थिर है लेकिन भारत में इसमें 15 प्रतिशत वार्षिक की दर से वृद्धि हो रही है ।

यह दर विश्व स्तर पर भारत को संभवत: सबसे आगे रखती है । इसी वृद्धि का परिणाम है कि दुनिया का शराब उद्योग अपने कारोबार के विस्तार के लिए भारत की विशाल जनसंख्या की ओर टकटकी लगाए हुए है । भारत में शराब की खपत ही नहीं इसके आदी लोगों की संख्या भी बड़ी है ।

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1960 के बाद के वर्षो में शराब के आदी लोगो की सख्या काफी कम थी । एक अनुमान के अनुसार शराब पीने वाले 300 लोगों के बीच मुश्किल से एक व्यक्ति शराब का आदी था । परंतु, स्वास्थ्य सगठनके अनुसार 1980 में भारत में शराब पीने वाले आठ करोड़ लोगों के बीच 30 लाख लोग ऐसे थे जो सामान्य मात्रा की तुलना मे कहीं अधिक शराब हलक के नीचे उतार रहे थे ।

इसके बाद के वर्षों मे भी शराब की बोतलें गेलने की रफ्तार और बढी है । इसलिए विश्व के जाने-माने शराब निर्माता भारतीय बाजार में घुसपैठ के लिए घात लगाए बैठे हैं । पांच हजार करोड़ रुपए के भारतीय मद्य उद्योग में बहुराष्ट्रीय कंपनियों की दिलचस्पी भी बढ़ रही है ।

एक तरफ विदेशी शराब के बाजार में चमक आ रही है तो दूसरी तरफ हरियाणा में शराबबंदी के बाद देश के कई राज्यों मे नशाबंदी की मांग उठ रही है । मौजूदा समय में जहाँ देश में आर्थिक उदारीकरण और खुलेपन की बयार बह रही हो, वहाँ शराबबंदी को पूरे देश में लागू करने की बात राजनीतिक दृष्टि से भले ही अठारहवीं सदी की लगे, मगर देश की सांस्कृतिक पहचान बनाये रखने और सामाजिक ढाचे को बचाये रखने के लिए पूरे देश में शराबबंदी के प्रस्ताव पर विचार करना आज की मार्ग बन गयी है ।

इलेक्ट्रॉनिक संचार माध्यमों से देश की सस्कृति पर यूं भी चौतरफा हमले हो रहे हैं और गांधी का देश शराब के नशे में डूबकर सामाजिक दुराचारों की ओर लगातार बढ़ रहा है । ऐसे में आर्थिक खुलेपन को अलहदा रखकर अधिक ‘खुलेपन’ से इस विषय पर विचार अपरिहार्य हो गया है कि कैसे देश को नशे के चंगुल से बचाकर आने वाली पीढ़ी को स्वच्छ व नशारहित माहौल देकर उसे पूरे विश्व में विख्यात भारतीय संस्कृति के अनुरूप ढाला जा सके ।

पूरे देश में शराबबंदी लागू करने का प्रश्न जितना विकट और दुष्कर है, उतना ही मुश्किल भी । राजनीतिक दलों में इस विषय पर एक राय बनानी होगी । राजनीतिक इच्छा के बिना इस विषय पर सोचा जाना संभव नहीं है । जब तक शराबबंदी के नारे को वोट में बदलने के प्रयास चलते रहेंगे तब तक शराबबंदी कहीं भी कभी भी असरकारक नहीं हो सकती ।

आज भी अधिकांश राजनीतिक दल महज इसलिए शराबबंदी के मुद्दे पर मुंह नहीं खोलते क्योंकि उन्हें भय रहता है कि उनके दलों का पोषक ऐसा वर्ग है जो धनाढ्य है और शराबबंदी का निर्णय इस धनाढ्‌य वर्ग को कभी भी नहीं पच सकता ।

आज स्थिति यह है कि जब भी देश में शराबबंदी जैररे मुद्दे उछलते है हमारा धनाढ्‌य वर्ग, पूंजीपति भ्रष्ट नौकरशाही और पश्चिमी सभ्यता का लबादा ओढे संभ्रांत वर्ग अपने-अपने तरीके रो उसके विरोध मे मैदान में आ खडे होते हैं ।

शराबबंदी के किसी भी प्रयास को दबाने के लिए धनशक्ति और बुद्धिबल से सम्पन्न यह वर्ग अपने-अपने तर्को रने सत्ता में बैठे नीति-निर्धारकों को समझा देता है कि शराबबंदी किसी भी तरह से देशहित में नहीं हे । राजनीतिक दलों की मजबूरी है कि उसे सत्ता के द्वार तक पहुंचने के लिए इसी धनाढ्‌य वर्ग को सीढी बनाना पड़ता है ।

नशाबंदी की मांग वैसे तो आजादी रो पहले भी उठ रही थी, पर राष्ट्रीय नीति के रूप में यह कभी विकसित नहीं हो सकी । अनेक प्रांतों में नशाबंदी के प्रयोग होते रहे, पर पूर्ण नशाबंदी का मामला टलता रहा । हालांकि अधिकांश राजनेता शराब के विरूद्ध थे फिर भी धीरे-धीरे यह विषय अंधेरे के गर्त्त में चला गया ।

रचाधीनता से पूर्व जनवरी, 1925 में नशाबंदी के लिए 30 हजार महिलाओं के हरताक्षरों से युक्त एक मांगपत्र वायसराय को दिया गया था । रजयं राष्ट्री य कां ग्रे रा ने अपने कार्य क्रमों में दवा के उपयोग को छोड सभी नशों पर पूर्ण प्रतिबंध की मांग की थी । महात्मा गांधी तो शराब के इतने खिलाफ थे कि राष्ट्रीय उत्थान के कार्यक्रमों में उन्होंने नशाबंदी को प्रमुख स्थान पर रखा था ।

उन्होंने तो एक बार ‘यंग इंडिया’ में यहां तक लिखा था कि अगर मैं केवल एक घंटे के लिए भारत का सर्वशक्तिमान शासक बना दिया जाऊं तो पहला काम यह करूंगा कि शराब की सभी दुकानें बिना कोई मुआवजा दिए तुरंत बंद करा दूंगा ।

लेकिन वह समय नहीं आ सका । उल्टे जो राजनेता शराब के विरुद्ध थे और देश में नशाबंदी की मांग कर रहे थे, गांधीजी की मृत्यु के बाद शराब सम्बंधी उनके विचारों को तुच्छ समझने लगे । स्वार्थ के मारे अधिकांश नेतागण गाँधीजी को भूल गए ।

गांधीवादी सिद्धांतों पर चलने वाली अखिल भारतीय नशाबंदी परिषद की समय-समय पर उठने वाली आवाज भी नक्कारखाने में तूती की आवाज बनकर रह गई । यह सच है कि हर सामाजिक बुराई के उम्पूलन के लिए समाज को ही पहल करनी होती है । मगर यह पहल तभी सार्थक होती है जब शासन भी सकारात्मक कदम उठाये । शराब हमारे देश में लम्बे समय से ‘हेय’ वस्तु मानी जाती रही है, लेकिन यह भी दुर्भाग्यपूर्ण है कि इसका सेवन भी उतना ही बढा है ।

नैतिकता और अनैतिकता के बीच शराब मुख्य मुद्दा रहा है । अनेक समाज सुधारकों ने नैतिक, धार्मिक और सामाजिक मापदंडों के बीच मद्यपान को पतन की ओर ले जाने वाला बताया है । महात्मा गांधी ने अपने राष्ट्रीय आन्दोलन में शराबबंदी को भी प्रमुख विपदा बताया तो निःसंदेह देश का ध्यान भी इस बुराई की ओर गया और जनता इसके खिलाफ एकजुट हुई ।

आज देश को फिर उसी गांधी आंदोलन की जरूरत है ताकि नशे की अंधी गली में खो रहे समाज को नयी राह मिल सके । दूसरी ओर, सुप्रसिद्ध लेखक खुशवंत सिंह का कहना है कि मेरा बस चलता तो मैं भारत में एक ऐसे समाज की स्थापना की कोशिश करता जिसमें लोग स्वय समझ पाते कि शराब का बहुत अधिक सेवन हानिकारक है ।

किसी अन्य व्यक्ति या संस्था को उन्हें मदिरापान करने से रोकने का अधिकार नहीं होना चाहिए । मेरा लक्ष्य होता ‘आत्म संयम ही, नशाबंदी न ।’  नशाबंदी लादने का मेरा विरोध दो प्रकार का है: नैतिक और न्यायोचित । मेरा नैतिक विरोध प्रत्येक वयस्क व्यक्ति के इस अधिकार पर आधारित है कि वह अपने लिए स्वय निर्णय करे कि उसे क्या खाना या पीना चाहिए बशर्ते इससे दूसरों को नुक्सान न पहुंचता हो और इस मामले में उस पर कुछ थोपा नहीं जा सकता ।

मैं मदिरापान की स्वतंत्रता को वैसा ही मूलभूत अधिकार मानता हूं जैसा कि अपनी इच्छानुसार देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना तथा अपने मन की बात कह सकने की स्वतंत्रता है । मैं इस तर्क से प्रभावित नहीं हूं कि बापू गांधी नशाबंदी चाहते थे, न ही यह कि हमारे संविधान की यह एक निर्देशक धारा है । इस मामले में बापू गांधी सही नहीं थे । निर्देशक धारा को समाप्त कर देना चाहिए जिसमें पूर्ण नशाबंदी के लिए सरकार द्वारा कदम उठाने की बात कही गई है ।

मैं फिर से दोहराता हूं कि कोई भी व्यक्ति जो बहुत अधिक मदिरापान करता है या तो अपने परिवार को कंगाल बना देता है या समाज के लिए एक बुराई बन जाता है जैसे कि पीकर गाडी चलाना या हिंसक बन जाना, तो उसे ऐसा करने से रोकना होगा और जरूरत हो तो दंडित करना होगा । नशाबंदी थोपने से यह हासिल नहीं होता, न ही किया जा सकता है ।

नशाबंदी के प्रति मेरा दूसरा विरोध औचित्य का है । प्रत्येक देश में जहां सरकार द्वारा नशाबंदी थोपने का प्रयत्न किया गया वह असफल रहा । यह अमरीका में बुरी तरह असफल रहा, भारत में जिस भी समय राज्य में इसका प्रयत्न किया गया, असफल ही रहा ।

गुजरात, आध प्रदेश, तमिलनाडु और नागालैंड में भी मद्यनिषेध है । वहाँ के अधिकारियों द्वारा मदिरापान के खिलाफ कानून लागू करने के लिए कोई भी गंभीर प्रयत्न नहीं किए जाते । संबधित राज्यों को एक जैसे प्राप्त होने वाली आमदनी से वचित होना पडता है, गैर-कानूनी शराब का बनना (शराब बन बहुत आसान और अत्यधिक लाभपूर्ण है) रोकने के लिए निरर्थक प्रयत्नों मे धन की बर्बादी करने पड़ती है और मदिरापान से संबधित अपराधो में वृद्धि होती है ।

दुर्भाग्य से जो लोग पीना चाहते है, शराब के लिए चाहे जितने खतरे उठाने पड़े, वह उसे हासिल कर ही लेगे । एल्ड्रन हक्सले ने सही टिप्पणी की थी कि मदिरापान के अपने अधिकार का उपयोग करने में ज्यादा लोगों ने अपनी जान की बाजी लगाई है, बजाय अपने धर्म या देश के लिए ।

जबकि नशाबंदी जिन अनेक राज्यो में लागू की गई वहां उसका महत्व एक कागजी कानून से ज्यादा नहीं रहा, हरियाणा के बंसी लाल इसके नवीनतम पैरोकार हैं । बंसी लाल आदर योग्य हैं । वे एक ईमानदार प्रशासक हैं तथा उन्होंने हरियाणा के लिए पिछले सभी मुख्यमंत्रियों द्वारा किए गए कामों को मिला कर देखने पर भी सबसे ज्यादा काम किया है ।

इसमें कोई संदेह नहीं है कि नशाबंदी लागू करने के वायदे से उन्हें अपने पक्ष में महिलाओं के वोट हासिल करने में सहायता मिली है । वे सूक्ष्मदर्शी हैं एक बात तो यह है कि उन्होंने हरियाणा में शराब निर्माताओं, होटलों और रेस्तराओं के लाइसेंस वापस लेकर पिछली सरकारों द्वारा किए गए सौदों को समाप्त कर एक अस्वास्थ्यकर परम्परा डाली है ।

दूसरी बात यह है कि हरियाणा के पड़ोसी राज्यों में शराब मुक्त रूप से उपलब्ध है : पंजाब, दिल्ली और राजस्थान-सभी में हरियाणा में किसी भी स्थान से आसानी से पहुंचा जा सकता है । इसमें कोई सदेह नहीं कि हरियाणा में नशाबदी शुरू हो ही नहीं पाएगी और इसकी कीमत राज्य को बहुत अधिक चुकानी पड़ सकती है ।

दूसरी तरफ केन्द्रीय पर्यटन मंत्री का सोचना है कि नशाबंदी को पूरे देश में लागू कर दिया जाना चाहिए और यह कि इससे विदेशी पर्यटकों के आने पर कोई असर नहीं पड़ेगा । वह इससे गफलत में रहते है कि विदेशी हमारे देश में हमारे ऐतिहासिक स्मारक और सास्कृतिक जीवन देखने के लिए खिंचे चले आएंगे चाहे हम उन्हें मदिरापान कराएं या न कराए ।

जाहिर है कि यह सज्जन आधुनिक पर्यटन के बारे में कुछ नहीं जानते । पर्यटन की हत्या करने का सबसे विश्वसनीय तरीका नशाबंदी लागू कर देना है । कोई भी विदेशी हमारी अतरराष्ट्रीय उडानों से यात्रा नहीं करेगा, यदि उन्हें मदिरा न दी जाए । हमारे सभी पंचतारा होटलो को जैसे ही मदिरालय बंद करने का आदेश दिया जाएगा घाटे में पहुंच जाएंगे ।

खुशवंत सिंह जी अग्निवेश जैसे और अन्य धर्मोपदेशक सामाजिक कार्यकर्ताओं से पूरी तरह सहमत हैं, जो लोगों को शराब न पीने की चेतावनी देते रहते हैं । शराब पीने मे कमी या इसका पूरी तरह परित्याग स्वैच्छिक रूप से होता है तो यह प्रशंसनीय है ।

यदि सरकार द्वारा इसे लादा जाता है तो यह मूलभूत अधिकारों का उल्लंघन तथा एक मूर्खतापूर्ण निरर्थक कार्रवाई के रूप में भर्त्सना योग्य है । ज्यादा समझदारी की बात तो यह ह्रीगी कि ऐसे स्वास्थ्यवर्धक अल्कोहल पेय पदार्थ बनाए जाएं जो कम कीमत पर बालिग लोगों को आसानी से उपलब्ध हों और उनका इस्तेमाल करने या उन्हें अस्वीकार कर देने की बात लोगो पर छोड़ दी जाए ।

विडम्बना यह है कि स्वाधीनता से पहले शराब के ठेकों परे धरेने दिये जाते थे मगर स्वाधीनता के बाद शराब की जडें नित्यप्रति इस देश की धरती में गहरी और मजबूत होती चली जा रही हैं । आज देश में शराब की खपत जिस तेजी से बढ रही है उसी तेजी से शराब से मौतो का सिलसिला बढ़ रहा है ।

सरकार जहां आबकारी कर से होने वाले लाभ के कारण नयी-नयी शराब की दुकानें खोलकर शराबखोरी को बढावा देती है वही शराब पीकर होने वाली मौतों से सरकार कोई सबक नहीं लेती । भारतीय समाज, स्वास्थ्य विभाग, पत्र-पत्रिकाएं, कानून शराब के खिलाफ कितना भी प्रचार-प्रसार करें मगर यह सत्य है कि देश मे शराबखोरी का दायरा लगातार बढता जा रहा है ।

विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में शराब की खपत का दायरा प्रति दशक 15 प्रतिशत बढ़ रहा है । साठ के दशक मे शराब पीने वाले प्रति 300 लोगों में से एक व्यक्ति शराब की लत का शिकार था लेकिन 90 के दशक तक शराब पीने वालो की संख्या में खतरनाक ढंग से बढोतरी हुई है ।

दस करोड़ लोगों में से चालीस से पचास लाख तक लोग शराब के नशे के आदी हो गये । इन आंकडो से सहज यह अनुमान लगाया जा सकता है कि देश में शराब की लत लोगों मे कितनी तेजी से बढ़ रही है । एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार पहले शराब की खपत शहरी क्षेत्रों मे अधिक होती थी और शहरी क्षेत्रों मे शराब की लत लोगों में ज्यादा थी मगर ताजा सर्वेक्षण से पता चलता है कि भारत में अब शराब की लत के शिकार होने वाले लोगो में ग्रामीण क्षेत्रो के लोगों की संख्या अधिक है ।

उत्तर प्रदेश के बड़े शहरों को छोड दिया जाए तो पूर्वी भाग की तुलना में देश के पश्चिमी भाग में शराब की खपत ज्यादा है । वर्ष 1991-92 के आंकडो के अनुसार प्रतिवर्ष देशी शराब की खपत 18 करोड 20 लाख बोतल है जो देश में बनने वाली अंग्रेजी शराब की तुलना में छत गुना अधिक है ।

देश मे मौजूदा समय में कि ! के दो सौ से अधिक ब्राण्ड, रम के पचास, ब्रडि के तीस, जिन के दस और बीयर के पचास ब्रांड उपलब्ध हैं जबकि देशी शराब 250 किस की लोगों को मुहैया है । देश में शराब की खपत बढने का अंदाजा इस बात ने लगाया जा सकत है कि भारत में अल्कोहल की खपत प्रति व्यक्ति 1.25 लीटर जबकि आस्ट्रेलिया में 1.9 लीट और अमरीका मे 4.7 लीटर है ।

शराब की उपलब्धता और अनुपलब्धता ही देश में शराब की मौतों का कारण रही है । शराब न मिलने पर इस लत के आदी विभिन्न तरीको से बनायी गयी अवैध कच्ची शराब पीते हैं अएए मौत के मुंह मे समा जाते हैं । पिछले वर्षों में दिल्ली, गुजरात, औध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश और मा प्रदेश में जहरीली शराब से हुई सैकड़ों मौतें इस बात का परिणाम है कि सरकार ने कभी शर के दुष्परिणामों पर अधिक राजस्व के चक्कर में नहीं सोचा ।

लगभग तीन वर्ष पूर्व मुम्बई में जहरी शराब पीने से सौ से अधिक लोगों की मृत्यु हुई । शराब में मिथाइल अल्कोहल की मात्रा आइदृ होने से ये मौते हुई वही सैकडों लोगों की आखों की रोशनी चली गयी । गुजरात में भी बू वर्ष पूर्व जहरीली शराब पीने से 28 लोगों की मृत्यु हो गयी थी ।

गौरतलब बात यह है कि गुजर की एक दवा कम्पनी ने उक्त जहरीली शराब बनायी थी जिसे पीकर लोग मौत के आगोश समा गये । शराब की बोतलों पर दवा का लेबल लगाकर लोगों की जिंदगी से खेल रही न दवा कम्पनी की कारगुजारियों पर सरकार ने राजस्व के कारण ही ध्यान नहीं दिया, नतीजा रहा कि कितने ही लोगों को जानें गंवानी पडीं ।

देश की राजधानी दिल्ली मे भी जहरीली शराब पीने से कुछ वर्ष पूर्व 190 लोगों की चली गयी थी । यह शराब भी एक दवा कम्पनी ने ही बनायी थी । हालाकि कम्पनी ने शराब बोतलों पर लेबल दवा का ही लगाया था मगर न आबकारी बिभाग ने, न सरकार ने कभी जानने को कोशिश की कि ‘कर्पूर आसव सुरा’ नाम से बेची जा रही उक्त दवा की दिल्ली में इतनी खपत क्यों है ।

न ही कभी स्वास्थ्य विभाग ने यह सोचा कि जिस रोग में यह दवा आती है क्या वाकई में यह रोग दिल्ली में इस कदर फैला है कि धडाधड उक्त दवा की हो रही है जैसे कि दवा न हो मदर डेयरी का दूध हो । दवाओं के नाम पर देश मे जहरीली शराब या नशीले द्रव्यों की बिक्री आज भी खुले जारी है ।

ऐसी दवाओं के निर्माता दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की कर रहे हैं जबकि आम ऐसी नशीली दवाओं का आदी होकर अन्दर से खोखला होता जा रहा है । राजस्थान, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में ‘अशो’ और अश्व गंधा, संजीवनी, सुरा या आसव नाम से नशीली दवाएं भी निर्बाध गति से बन रही हैं और बिक रही हैं । इन दवा निर्माताओं को राजनीतिक संरक्षण है ।

यही कारण है कि कोई चाहकर भी उनके खिलाफ उंगली नहीं उठा सकता । इस तरह दवाओं में अल्कोहल की मात्रा 40 से 50 प्रतिशत तक है जबकि देशी और अंग्रेजी शराब में मात्र 30 से 40 प्रतिशत तक ही होती है । शराब की तुलना में सस्ता नशा यदि बाजार में है तो वह है ये दवाएं, जो निम्न वर्ग की पहुंच तक हैं ।

यही कारण है कि जहरीली शराब से मरने वाले लोगों में झुग्गी-झोंपडियों और पुनर्वास बस्तियों में रहने वालों की संख्या अधिक उत्तर प्रदेश के वाराणसी, मेरठ, गाजियाबाद जिलों में मिथाइल अल्कोहल से शराब वाली दर्जनों इकाइयां हैं जो लोगों को मौत के मुंह में धकेल रही हैं ।

आयुर्वेदिक दवाओं के पर उत्तर प्रदेश में मादक द्रव्य सुरा के दो सौ से अधिक कारखाने हैं । इन कारखानों में जैसी नशीली दवाइयां बनती हैं तो बाकी में अस्सी से नब्बे प्रतिशत तक अल्कोहल वाले बनाये जाते हैं । पूरे देश में शराबबंदी के मुद्दे पर राज्यों का रुख भी अलग ही है ।

राज्य आर्थिक हितों के कारण शराबबंदी जैसे अति महत्वपूर्ण बिन्दु पर विचार करने की नहीं उन्हें सदैव डर बना रहता है कि यदि राज्य में शराबबंदी की जाए तो उनका राजकोष कम जाएगा और उसकी भरपाई के लिए अनाप-शनाप कर लगाने होंगे, जो जनता को उनसे दूर करें यही कारण है कि राज्य इस विषय पर नहीं सोचते ।

आज देश में अगर कुछ राज्य सरकारों ने शराबबंदी को लागू करने का साहस भी है तो उसके पीछे भी शराब के खिलाफ चला जनता का तीव्र आदोलन ही है । शराब विरोधी की शुरुआत केरल, आध्र प्रदेश व हरियाणा में महिलाओं की तरफ से हुई तो वहां के राज्य सरकारों ने अपनी पहली प्राथमिकताओं में रखा ।

पुरुषों में शराब की लत के अत्याचार सबसे ज्यादा महिलाओं को ही सहने पड़े हैं, अत: महिलाएं ही शराब आंदोलन में आयीं । जिन राज्यों में शराबबंदी लागू हुई वहां उसे पर्याप्त जनसमर्थन मिला । शराब की से पीड़ित लोगों ने जहां राहत की सांस ली वहीं महिलाओं को भी उनके संघर्ष का मिला ।

जिन राज्यों में शराबबंदी हुई वहां की जनता को अब बस यही शंका रहती है कि कहीं राज्य सरकार किसी दबाव में आकर शराबबंदी के निर्णय को वापस न ले ले और उनकी के पुराने दिन लौट न आयें । ऐसे हालात उन राज्यों में बनते नजर आ रहे हैं, जहां राज्य सरकार के समक्ष अधिक संकट गहरा रहा है ।

आज आध्र प्रदेश में शराबबंदी हुए दो वर्ष होने को आये मगर शराबबंदी से हुए घाटे की भरपाई का इंतजाम राज्य सरकार अभी तक नहीं कर सकी है । शराबबंदी से आध्र प्रदेश के प्रतिवर्ष बारह सौ करोड रुपये की राजस्व हानि होती है । अभी तक इस घाटे को पाटने के लिए अन्य साधनों की तलाश भी नहीं की जा सकी है । शराबबंदी से बेरोजगार हुए लोगों को अभी तक स्थायी रोजगार मुहैया नहीं हो सका है ।

राज्य में हाल ही में किये गये एक सर्वेक्षण में पता चला है कि शराबबन्दी का यहां कोई खास असर नहीं पडा है । राज्य में देशी और विदेशी शराब हर जगह उपलब्ध है, जबकि राज्य सरकार को अपने शराबबंदी के कानून को लागू करने के लिए अलग से काफी पैसा खर्च करना पड़ रहा है ।

इसके चलते जहां राज्य में विकास कार्यो की गति रुक गयी है वहीं कानून व्यवस्था भी लाचार होती जा रही है । सर्वेक्षण में राज्य के लोगों का मानना है कि सरकार की राजनीतिक इच्छा की कमी के कारण राज्य में शराबबंदी पूरी तरह असफल साबित हुई है ।

राज्य सरकार के समक्ष भारी सकट खड़ा हो गया है कि वह अपने कर्मचारियों को वेतन कहा से दे । ऐसे मे यह आशका प्रबल होती जा रही है कि हो सकता है कि राज्य सरकार को जल्दी ही शराबबंदी का निर्णय वापस लेना पड़े ।

हालांकि 1993 में तत्कालीन केन्द्र सरकार ने भी शराबबदी जैसे कार्यक्रमों को प्रोत्साहन देने का निर्णय लिया था । केन्द्र सरकार ने तब प्रावधान किया था कि शराबबंदी से राज्य सरकारों को होने वाली राजस्व हानि के आधे हिस्से की भरपाई केन्द्र राज्यों को करेगी ।

लेकिन केन्द्र का यह वादा भी आध प्रदेश के मामले में टूट गया है । केन्द्र सरकार राज्य सरकार को उसके 1400 करोड के राजस्व घाटे का आधा हिस्सा देने की स्थिति मे नहीं है और दे भी कहां से केन्द्र सरकार स्वयं अरबों रुपये के विदेशी कर्ज के बोझ तले दबी हुई है ।

आध्र प्रदेश और हरियाणा का उदाहरण देकर शराबबंदी के विरोधी शायद यह तर्क देंगे कि जब केन्द्र सरकार पूर्व के निर्णयों के मुताबिक राज्यों को शराबबंदी से होने वाले नुकसान कई भरपाई करने में ही सक्षम नहीं हैं तो पूरे देश में शराबबंदी का निर्णय लागू होने की स्थिति में केन्द्र सरकार क्या करेगी ।

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अनुमान है कि पूरे देश में शराबबंदी होने पर सरकार को तेरह हजार करोड़ रुपये की राजस्व हानि होगी, जिसे अन्य मदों से वसूल पाना किसी भी सरकार के बूत् की बात नहीं होगी । तर्क दिया जा सकता है कि देश मे शराबबदी निर्णय से हजारों लोगे बेरोजगार हो जाएंगे जबकि वास्तविकता यह है कि जीविकोपार्जन के ऐसे साधनों को त्यागक ऐसे साधनों की खोज करनी होगी जो नयी पीढी को शराब जैसी बुराई से बचाकर उसे संरक्षि कर सके ।

शराबबदी से बेरोजगार होने वाले लोगो के विषय में कार्यक्रम तैयार किया जा सकत् है, जिससे वे सम्मानजनक स्थिति में आजीविका कमा सके । मगर इसके लिए सरकार की दृष्टि इच्छा शक्ति की जरूरत होगी, जिससे वह राजनीतिक लाभ-हानि पर सोच-विचार किये बि; ईमानदारी से गांधीजी के स्वप्न को पूरा कर सके ।

राज्यों में शराबबंदी की विफलताओं को लेकर विरोधियों के अपने तर्क हो सकते हें लेकिन इस वास्तविकता को भी नकारा नहीं जा सकता कि राज्यों में शराबबंदी तब तक सफल न हो सकती जब तक कि पूरे देश में इसे लागू न किया जाए । अलग-अलग राज्यों में अलग-अल्प समय में की गयी शराबबंदी की विफलता का कारण यह रहा कि उनके पडोसी राज्यों में शराबबं नहीं थी ।

नतीजतन पडोसी राज्यों से शराब की तस्करी को बढावा मिला । शराब के कारछ एक राज्य से उठकर दूसरे राज्यों में चले गये और समस्या वहीं की वहीं रह गयी । राज्यों शराबबंदी की विफलता का एक कारण जनमानस का शराबबंदी के लिए तैयार न होना भी है ।

प्रबल नैतिक आंदोलन की कमी के कारण राज्य में सामाजिक दबाव न बनने पर लोग शराबा जैसे निर्णयों को गंभीरता से नहीं लेते । वहीं मुफ्त शराब का आदी वर्ग, भ्रष्ट नौकरशाही और शराब के धंधे में लगे उद्योगपति ही शराबबदी जैसे फैसलों के विरुद्ध सरकार के लिए समस्या बन खड़े होते हैं ।

शराबबदी के बाद नये करों का बोझ भी सत्तारूढ़ दलों को बिगाडता है । साथ ही विरोधी दल भी शराब के दुष्परिणामों को एक तरफ रखकर करों में वृद्धि को अपनी राजनीति को चमकाने का अस्त्र बना लेते हैं । यही वजह है कि सत्तारूढ दल नैतिक दृष्टि से सही हुए भी शराबबंदी जैसे निर्णयों को पूरी ईमानदारी से लागू करने से हिचकिचाते हैं ।

आज भ्रष्टाचार में डूबे राजनीतिक दलो के पास इस दृढ इच्छा शक्ति का भी नितांत है कि वे सोचें कि पूरे देश में शराबबंदी लागू की जाए या नहीं । इस महत्वपूर्ण बिन्दु पर सोचने विचारने के लिए उनके पास वक्त ही कहां है । भ्रष्टाचार में आकण्ठ डूबे राजनेताओं को फुर्सत नहीं कि वे यह सोचें कि जिन राज्यों में शराबबदी की गयी वहां वह असरकारक क्यों रही, शराबबंदी के सकारात्मक परिणाम क्यों नहीं मिले ।

शराब के समर्थक अभिजात्य वर्ग को छ करने और शराब माफिया को राज्जो में पैर पसारने की अनुमति देकर राजनेता किस तरह गांधीवादी विचारधारा को ओढ़ने का ढोंग कर रहे हैं और किस तरह गांधीजी के शराबबंदी राष्ट्रीय आदोलन को मूर्तरूप दे रहे हैं आज यह देश की जनता के सामने है ।

हरियाणा मे शराबबदी है तो उससे सटे राजस्थान में राज्य की सरकार ने हरियाणा लै पर ही एक बडे शराबखाने के निर्माण को मजूरी दे दी । जिस दिन से हरियाणा में हुई, राज्य से सटे राजस्थान व उत्तर प्रदेश के हिस्सों में शराब की खपत बढ गयी ।

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विगत कुछ समय पूर्व बीकानेर के सम्भागीय आयुक्त और पुलिस महानिरीक्षक ने स्वीकार किया कि हरियाणा में शराबबन्दी के पश्चात् राजस्थान में शराब की बिक्री अप्रत्याशित रूप से बढ़ रही है । जाहीर है कि करोडो रुपये की लागत से राजस्थान के अलवर जिले में बनाया जा रहा शराब कारर अपने पड़ोसी राज्यों को ही शराब की आपूर्ति करेगा, भले ही वहा शराबबदी लागू हो ।

शराबबदी को लेकर कुल मिलाकर यही निष्कर्ष निकलता है कि यदि पूरे देश में इसे साथ एक समय में लागू नहीं किया जाता तो इसका कोई फायदा नहीं मिलने वाला । के तत्काल बाद देश में शराबबदी ही ऐसा मुख्य राष्ट्रीय आदोलन था, जिसकी जरूरत तब देशवासी ने महसूस की थी ।

अंग्रेज जो बुराई हम देशवासियों के लिए छोड़ गये थे उसके से उन्तुलन के लिए चला आदोलन तब भी सार्थक था आज भी सार्थक है । तब से पाठ निर्माताओं ने पूर्ण मद्यनिषेध को राष्ट्रीय लक्ष्य के रूप में निबद्ध किया था । लोकसभा में सन् 1956 में एक प्रस्ताव पारित कर पूरे देश मे शराबबंदी के लक्ष्य को प्राप्त करने का संकल्प लिया था ।

आज फिर उसी संकल्प को दोहराने की आवश्यकता आन पडी है । देश के सांस्कृतिक मान सम्मान और सभ्यता की रक्षा के लिए जरूरी है कि 1956 में शुरू किये गये उस राष्ट्रीय को नये सिरे से खड़ा किया जाए और उस लक्ष्य को पाया जाए जिसमें हमारी आने वाली शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ रह सके ।

भावी पीढी का स्वास्थ्य ही सुंदर देश के निर्माण में सहायक है अत: शराबबदी जैसे मुद्दे पर समग्र भारत हेतु दृष्टिगत होकर सोचा जाना आवश्यक है । भारतीय सस्कृति को हमलों से बचाने के लिए भी जरूरी है कि शराबबंदी जैसे कवच से देश की रक्षा की जाए, क्योंकि यह माना ही जा चुका है कि शराब ही हर गलत कार्य की जननी है ।

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