श्रम की महत्ता पर निबन्ध | Essay on Dignity of Labour in Hindi!
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”श्रम-साधना में जुटे कठोर हाथ मेरे लिए पूज्य हैं । अनगढ़ चेहरे, सभी मौसमों के प्रहारों से झुलसे, भूमि से जुड़े, अपरिष्कृत बुद्धि वाले श्रम-साधक भी मेरे लिए श्रद्धेय है ।”
ये शब्द डेढ़ सौ वर्ष पहले चर्चिल ने कहे थे, जबकि शारीरिक श्रम को सम्मान की दृष्टि से नही देखा जाता था । प्राचीन समय में पढ़े-लिखे तथाकथित ‘ शिक्षित ‘ लोग मजदूरों से अछूत का सा व्यवहार करते थे । अपना छोटे से छोटा कम भी दूसरों से कराने में वे अपना सम्मान समझते थे ।
श्रम की महत्ता को प्रतिपादित करने वाली पं. विद्यासागर की कहानी को सभी जानते हैं । एक बार साफ-सुथरे कपड़े पहना एक युवक गाँव के स्टेशन पर खड़े होकर कुली का इंतजार कर रहा था । पं. विद्यासागर वहां से गुजर रहे थे, युवक ने उन्हें सामान उठाने के लिए कहा । उन्होंने युवक का सामान उठा लिया जिसके बदले में युवक ने उन्हें मजदूरी देनी चाही । बाद में उनका परिचय प्राप्त होने पर युवक बहुत लज्जित हुआ । छोटे से काम के लिए दूसरों पर आश्रित होना पं. विद्यासागर को पसंद नहीं था ।
जब हमारी जिन्दगी सीधी-सादी थी सामाजिक व्यवस्था में जटिलता नहीं थी, तब निर्धन और धनी मिलकर शारीरिक कार्य करते थे । लेकिन श्रम-विभाजन के कारण शारीरिक श्रम को असम्मानजनक रूप में देखने का दृष्टिकोण पनपा । आधुनिक समाज के जटिल रूप और मशीनों के आगमन के कारण श्रम को तुच्छ समझा जाने लगा ।
कुछ विशिष्ट कार्य कुछ विशिष्ट वर्ग के व्यक्तियों के लिए आरक्षित हो गए और अन्य कार्यो को आम आदमी के लिए निर्धारित कर लिया गया । धनी, शिक्षित और महत्वपूर्ण व्यक्तियों ने विचार किया कि शारीरिक श्रम करना उनके लिए कठिन है, उन्होंने आम लोगों के लिए परिश्रम के कार्यो को छोड़ दिया । कालान्तर में इन्ही हाथ से काम करनेवाले गरीब व्यक्तियों को छोटा समझा जाने लगा ।
कुछ और समय के बाद सेवक स्वामी के संबंधों की स्थापना हुई । प्रारंभ में धनी वर्ग शारीरिक श्रम करने वाले सेवक को तुच्छ समझता था, बाद में कार्य के प्रति भी उनके मन में घृणा उत्पन्न हो गई । मशीनी युग के आरंभ से प्राय: सभी हाथ से किए जाने वाले कार्य मशीनों से किए जाने लगे ।
लेकिन मशीन में कार्य करने वाले इस प्रकार के कुछ कार्यो को हीन दृष्टि से देखने की परम्परा हमारे समाज में आरम्भ हुई । यह विचार दुर्भाग्यपूर्ण है, क्योंकि कोई भी कार्य बड़ा या छोटा नहीं होता । प्रत्येक कार्य जिससे समाज अथवा राष्ट्र का हित होता है, सम्मानजनक है ।
यदि हमें बार-बार यह याद दिलाया जाए कि कोई कार्य छोटा और तुच्छ है, तो हम उस कार्य को ठीक प्रकार से नहीं कर सकते हैं । श्रम को सम्मान की नजर से देखने के दृष्टिकोण से उत्पादन भी अधिक होगा । इसलिए शारीरिक श्रम से जुड़े व्यक्तियों को श्रम की महत्ता को समझना चाहिए । श्रम सम्मान ही अधिक उत्पादन को प्रेरित करता है ।
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उच्च पदों पर विराजमान व्यक्ति स्वयं तो श्रम नही करते, लेकिन अपना कार्य निकालने के लिए अशिक्षित मजदूरों को श्रम का पाठ पढ़ाते हैं । जब तक स्वयं श्रमिकों के हृदय में शारीरिक श्रम को महानता की भावना उत्पन्न नही होगी, तक तक श्रम की महता की स्थापना नही हो सकती है ।
जिस क्षण उन्हें इस सच्चाई का भान होगा, उसी क्षण से कोई कार्य हीन अथवा तुच्छ नहीं रहेगा, वे कार्य करने में अपमानित, भाग्यहीन और उपेक्षित महसूस नही करेगें । जीवन में नवीन स्कूर्ति का संचार होगा । अत: आज समाज के श्रमिक वर्ग की बढ़ती शक्ति के कारण श्रम के सम्मान और महत्ता की भावना को बल मिला है ।
मानव का दृष्टिकोण ही किसी कार्य को छोटा अथवा बड़ा बनाता है । प्रत्येक कार्य की महत्ता समान होती है, क्योंकि देश के आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक निर्माण में सभी सक्रिय भूमिका निभाते है । शारीरिक श्रम के प्रति और हीन दृष्टिकोण के पीछे कोई तर्क नहीं है ।
एक कृषक और राजा दोनों का समान महत्व हैं । दोनो के कार्यो की प्रकृति में अंतर है, एक में बौद्धिक-बल होना चाहिए दूसरे में शारीरिक-बल । दोनों के कार्यो की महत्ता है, एक कार्य को दूसरे से हीन मानने का कोई कारण नहीं, दोनों अपने आप में महान हैं ।
विश्व श्रम की नींव पर ही टिका है । जो व्यक्ति सम्पूर्ण विश्व को सुख सुविधाएँ उपलब्ध कराते हैं, उनको हीन किस प्रकार समझा जा सकता है । कार्य तो एक साधना है, साधक को तुच्छ समझना पाप है ।