संयुक्त राष्ट्र संघ एवं अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति पर निबन्ध | Essay on The United Nations and International Peace in Hindi
प्रस्तावना:
अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति स्थापित करने में संयुक्त राष्ट्र संघ कितना सक्रिय रहा है- यह एक ऐसा सवाल है जिसका उत्तर देना अत्यन्त कठिन है । अन्तर्राष्ट्रीय विवादों अथवा मामलों का समाधान करने की दिशा में वास्तव में संयुक्त राष्ट्र संघ को अनेक बाधाओं, असफलताओं, सकारात्मक एवं नकारात्मक उपलब्धियों आदि का सामना करना पड़ा है ।
चिन्तनात्मक विकास:
24 अक्तूबर, 1945 में स्थापित संयुक्त राष्ट्र संघ का मुख्य उद्देश्य विश्व में शान्ति एवं सुरक्षा का वातावरण बनाये रखना था । इस दृष्टि से संयुक्त राष्ट्र संघ ने अपने व्यापक उत्तरदायित्व का परिचय दिया है । यह बात अलग है कि उसे अनेक व्यवधानों का सामना भी करना पडा है । अन्तर्राष्ट्रीय मामलों एवं विवादों के शान्तिपूर्ण निपटारे का सिद्धान्त संयुक्त राष्ट्र संघ के घोषणा-पत्र में उल्लिखित है ।
इसके अतिरिक्त संयुक्त राष्ट्र की युद्ध निवारण सम्बंधी गतिविधियों को घोषणा-पत्र ने सामूहिक सुरक्षा की संज्ञा दी है । सामूहिक सुरक्षा का अर्थ एक ऐसी अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था है जिसके द्वारा किसी भी राज्य पर आक्रमण होने पर सभी राज्य उसकी मदद करेंगे । अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति स्थापित करने में संयुक्त राष्ट्र द्वारा अत्यन्त प्रमुख उपचार निरस्त्रीकरण है । जो अस्त्रों-शस्त्रों के प्रयोग को नियन्त्रित करता है ।
उपसंहार:
यह सत्य है कि अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति स्थापना में संयुक्त राष्ट्र के प्रयासों का मिश्रित परिणाम निकला है । इसकी प्रासंगिकता पर अनेक प्रश्न उठाये गये किन्तु फिर भी विकास एवं शान्ति स्थापना में इस संगठन की अहमियत निर्विवाद है ।
संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना ऐसे समय में हुई जब द्वितीय महायुद्ध अपने भीषणतम रूप में पूरे विश्व को आतंकित कर रहा था । राष्ट्रों की बड़ी हुई सैन्य शक्ति, प्रजातंत्र और मानवीय अधिकारों के लिए संकट का संकेत कर रही थी ।
समय की नजाकत को भांपकर ब्रिटेन के प्रधानमंत्री यिस्टन चर्चिल तथा अमरीका के राष्ट्रपति रूजवेल्ट एटलांटिक महासागर में एक जहाज पर 14 अगस्त, 1941 को मिले और नाजीवाद को समाप्त करने का संकल्प लिया ।
इसके बाद मित्र राष्ट्रों की लगातार बैठकें चलती रहीं और अंतत: सेनफ्रांसिस्को में 26 जून, 1945 को 50 मित्र राष्ट्रों ने इसके चार्टर (घोषणा-पत्र) पर हस्ताक्षर कर दिये । 24 अक्तूबर, 1945 को इस संस्था की विधिवत स्थापना की गयी । अब इसकी सदस्य संख्या 50 से बढ़कर 185 तक पहुँच गई है ।
चार्टर के प्रथम अनुच्छेद में संस्था का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए कहा गया कि इसका मुख्य कार्य, अन्तर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा स्थापित करना, राष्ट्रों के बीच जनसमुदाय के समान अधिकारी तथा आत्मनिर्णय के सिद्धांत पर आधारित मित्रतापूर्ण संबंधों का विकास करना, आर्थिक, सामाजिक, तथा मानव जाति के लिए प्रेम, अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं को सुलझाने में अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग प्राप्त करना तथा इन सामान्य उददेश्यों की पूर्ति के लिए राष्ट्रो के कार्यों को समन्वित करना होगा ।
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चार्टर की धारा 2 में समानता, अहस्तक्षेप, शांतिपूर्ण साधन, दायित्वों का ईमानद्रारी से पालन तथा अनाक्रमण की नीति को काम करने का आधार घोषित किया गया । इन सिद्धांतों की परीक्षा तो उसी दिन शुरू हो गयी जब अमरीका, रूस, ब्रिटेन, फ्रांस व चीन ने अपने निजी स्वार्थों को तरजीह देते हुए सुरक्षा परिषद में वीटो का अधिकार प्राप्त कर लेया ।
इसे लेकर काफी उंगलियां उठी और आगे चलकर इस व्यवस्था ने संगठन को महाशक्तियों 338 सत्ग्रिर्भल हिन्दी निमन की राजनीति का अखाड़ा बना दिया । युद्ध के दौरान दोनों महाशक्तियों के बीच पैदा हुआ मतभेद, युद्ध की समाप्ति पर जब परवान चढ़ा और शीतयुद्ध की शुक्लात हुई तो नव स्वतंत्र राष्ट्रों की सदस्यता को लेकर खासा विवाद हुआ ।
पूर्व सोवियत संघ के समक्ष एक लक्ष्य था पूरी दुनिया को साम्यवाद के रंग में रंगना और अमरीका को ऐसा होने से रोकना । इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए दोनों ने जमकर वीटो के अधिकार का दुरुपयोग किया । सबसे पहले रूस ने 16 फरवरी, 1946 को वीटो का प्रयोग किया और 1980 तक कुल 112 बार इसका प्रयोग किया गया । अमरीका भी पीछे नहीं रहा, और 1 अगस्त, 1975 तक पांच बडे राष्ट्रों ने 139 बार वीटो का प्रयोग किया ।
संगठन में राष्ट्रों के प्रवेश को लेकर किस तरह जोर आजमाइश हुई इसका उदाहरण चीन है । 1971 तक साम्यवादी चीन को संगठन की सदस्यता इसलिए नहीं मिल सकी क्योंकि अमरीका उससे नाराज था और ज्यों ही दोनों के संबंध सुधरे उसे सदस्यता मिल गयी ।
हालाकि शीतयुद्ध की समाप्ति व सोवियत रूस के पतन के बाद इस अधिकार के दुरुपयोग में कमी आयी है किंतु इससे एक बात जरूर स्पष्ट हो गयी है कि संयुक्त राष्ट्र पांचों स्थायी सदस्यों आमतौर पर अमरीका व रूस की मर्जी के बिना कुछ नहीं कर सकता ।
वास्तव में सुलहनामा एक ऐसी प्रक्रिया है जो विवादों के समाधान हेतु एक सही दिशा है । अन्तर्राष्ट्रीय विवादों के शान्तिपूर्ण निपटारे के लिए सयुक्त राष्ट्र संघ ने अपने घोषणा-पत्र में निम्न प्रावधान किये हैं: ”सभी सदस्य राष्ट्र अपने अन्तर्राष्ट्रीय विवादों का शान्तिपूर्ण तरीकों से इस प्रकार समाधान करेगे जिससे शान्ति, सुरक्षा तथा न्याय के उद्देश्यों को प्राप्त करने में कोई खतरा न हो ।”
अन्तर्राष्ट्रीय विवादों के शान्तिपूर्ण समाधान के लिए मुख्य सामान्य प्रक्रियाओं का वर्णन, घोषणा-पत्र की धारा तेंतीस के प्रथम अनुच्छेद में इस प्रकार किया गया है: “ऐसे किसी भी विवाद, जिसके चलते रहने से अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति तथा सुरक्षा को खतरा हो, से सम्बंधित सभी पक्ष, विवाद के समाधान की दिशा में, सबसे पहले वार्तालाप, जाँच, मध्यस्थता, सुलह, पंच निर्णय, न्यायिक समझौतों के कदम उठायेंगे, क्षेत्रीय संगठनों का सहारा लेंगे तथा अपनी पसंद के अन्य शान्तिपूर्ण साधनों का सहारा लेंगे ।”
ये सभी साधन अन्तर्राष्ट्रीय कानून तथा व्यवहार में, विवादों के समाधान के लिए संयुक्त राष्ट्र की स्थापना से पूर्व भी, शुरू से शामिल रहे हैं । अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं के समाधान की दिशा में संयुक्त राष्ट्र संघ का योगदान कितना कारगर रहा है- यह एक ऐसा प्रश्न है जो न केवल जटिल है वरन् आत्मनिष्ठ भी ।
वास्तव में इस दिशा में संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रयास सकारात्मक, उपलब्धियो, व्यवधानी तथा असफलताओं का मिश्रित दर्शन कराता है । कुछ प्रकरणो में तो स्थाई एवं पक्के समझौते हो पाये । जैसे सोवियत संघ को 1946 में ईरान तथा 1988 में अफगानिस्तान से अपनी सैनिक टुकड़ियां वापिस बुलानी पडी । इंडोनेशिया की सन् 1950 में एक स्वतन्त्र राज्य के रूप में स्थापना से यहाँ के संकट का हल हो ही गया ।
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इसी तरह, 1990 में नामीबिया की स्वतन्त्र सरकार की स्थापना के पश्चात् नामीबिया विवाद भी हल हो गया । लेबनान, सीरिया तथा स्वेज संकट में संयुक। राष्ट्र के हस्तक्षेप के कारण ब्रिटिश तथा फ्रैंच सैनिक टुकडियों की वापसी हुई ।
सन् 1908 में बर्लिन संकट संयुक्त राष्ट्र से हटकर सीधे सम्पर्क के आधार पर हुये समझौते से हुआ, किन्तु इस समझौते तक पहुंचने में संयुक्त राष्ट्र ने अपनी सक्रिय भूमिका निभाई थी । ग्रीस तथा उसके पडोसी राज्यो के मध्य बलकान सघर्ष में ऐसा ही हुआ, कुछ विवादास्पद मामलों को सुरक्षा परिषद के आइवान पर अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय के निर्णयार्थ भी ले जाया जा सका ।
1946 का कौर्फू चैनल विवाद इसी श्रेणी में आता है । इस संगठन के योगदान के कारण ही यद्यपि कश्मीर एवं फिलीस्तीन जैसे देशों के लड़ाई-झगड़े कम हुये हैं किन्तु फिर भी कोई अन्तिम समझौता नहीं हो पाया है । कुछ मामलों में इन्हें गतिरोधों का सामना करना पडा है तथा हताश भी होना पड़ा ।
दक्षिण अफ्रीका महासभा द्वारा पारित प्रस्तावों को लगातार नकारता रहा तथा रंगभेद को समाप्त करने के सभी प्रयासों का विरोध करता रहा । संयुक्त राष्ट्र संघ कई बार तो कुछ मामलों के सम्बंध में अपने कर्तव्यों का पालन करने मे असमर्थ भी रहा है । 1950 में कोरिया संकट तथा 1991 में खाड़ी युद्ध इसकी प्रमुख असफलता है ।
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इसके द्वारा की जाने वाली गतिविधियों का परिणाम जो भी रहा हो, इसकी कार्यवाही विविध विपक्षी देशों के मध्य कारगर सम्पर्क बनाने में भी सफल न हो पाई । इस दिशा में सामूहिक सुरक्षा सम्बंधी कार्यवाही के पश्चात् भी कोई आशातीत प्रगति नहीं हो पाई बल्कि यह विवादों के घेरे में खड़ा ही दिखाई दिया इसकी निष्पक्षता पर प्रश्न चिन्ह लग गया ।
फिर भी अन्तर्राष्ट्रीय मामलों अथवा विवादों के समाधान की दिशा में इसका योगदान विशेष रूप से सराहनीय रहा है । इसके योगदान की एक विशेषता इसका व्यवहारवादी दृष्टिकोण रहा है । प्रत्येक मामले में इसने ऐसे आधार ढूंढने के प्रयत्न किए जिससे विवादास्पद मुददे पर बातचीत करने के लिए उस विवाद से सम्बंधित सभी पक्ष स्वेच्छा से तैयरि हो जायें ।
यदि किसी भी पक्ष को कोई सिफारिश ठीक नहीं लगी तो संयुक्त राष्ट्र संघ ने अन्य कोई विकल्प खोजने का प्रयत्न किया । उदाहरणार्थ लेबनान, ईरान एवं सीरिया विवादों में प्रत्यक्ष बातचीत हेतु की गई अपील ही पर्याप्त रही, किन्तु स्वेज सकट तथा कश्मीर जैसे विवादास्पद मामलों में इसका कोई प्रभाव नहीं हुआ ।
इसी प्रकार बलकान संकट में भी इसका कोई विशेष असर नहीं हुआ । इन सबके अतिरिक्त अन्तर्राष्ट्रीय विवादों के शान्तिपूर्ण हल के लिए महासभा की तुलना में सुरक्षा परिषद् की भूमिका अत्यधिक कारगर रही जिसकी चार्टर के निर्माताओं ने अपेक्षा की थी ।
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अन्त में जिन विवादो अथवा मामलों का हल हो पाया उन्हें सुरक्षा परिषद ने संचालित किया था और जिन विवादों में अडँचनें उत्पन्न हुईं, उनका संचालन या तो केवल महासभा ने किया था, या महासभा तथा सुरक्षा परिषद ने मिल-जुलकर किया ।
सुरक्षा परिषद शान्तिपूर्ण समझौते कराने सम्बधी अपने उत्तरदायित्व के निर्वाह में कभी पीछे नहीं हटी । सुरक्षा परिषद हमेशा हर मामले अथवा विवाद का ऐसा हल ढूंढती रही जो सामान्यत: सभी पक्षों द्वारा स्वीकार्य हो ।
संयुक्त राष्ट्र सघ अन्तर्राष्ट्रीय विवादों के समाधान शान्तिपूर्ण ढंग से, निष्पक्षता एवं विवेकपूर्ण तरीके से करती रही, किन्तु इसकी वास्तविक सफलता महाशक्तियों के समर्थन पर निर्भर करती हे । इसने अभी तक ऐसा कोई फैसला नहीं किया जो महाशक्तियों को स्वीकार्य न हो ।
निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि अन्तर्राष्ट्रीय विवादो का समाधान करने अथवा उन्हें निक्रिय करने में इसकी कार्यवाही उत्साहजनक रही है । कई विवाद संयुक्त राष्ट्र के समक्ष इसलिए भी लाये जाते हैं क्योंकि उनके समआन का कोई रास्ता नहीं होता ।
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सामूहिक सुरक्षा से तात्पर्य एक ऐसी अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था से है जिसके तहत सभी सम्बंधित देश किसी एक पर भी होने वाले आक्रमण की स्थिति में उसकी सहायतार्थ वचनबद्ध होते हैं । इसका उद्देश्य सामूहिक बल प्रयोग द्वारा आक्रमण को रोकना है ।
सामूहिक सुरक्षा पद्धति में न तो पूर्व निर्धारित सहयोग ही होते हैं और न पूर्व निर्धारित दुश्मन ही । सामूहिक सुरक्षा एक ऐसा अविवेकपूर्ण, खतरनाक एवं असाध्य सिद्धान्त है, जिससे युद्धों का स्थायीकरण होने के बजाय उनके विश्वयुद्ध में परिवर्तित होने का खतरा बना रहता है ।
सामूहिक सुरक्षा पद्धति में तटस्थ राज्यों का कोई स्थान नहीं है । किन्तु हाल ही में तटस्थ राज्यों को इसकी सदस्यता प्रदान की गई, बावजूद इसके कि शान्ति की स्थापना की दिशा में सगठन द्वारा की गई कार्यवाही से वे अपने-आपको अलग रखना अधिक लाभकारी मानते है ।
दूसरी ओर, सामूहिक उतरुदायित्व के सिद्धान्त को सदस्य राष्ट्रों के आत्मरक्षा के अधिकार से जोड़ना पडा है । सयुक्त राष्ट्र को ही यदि यह तय करने का अधिकार दिया होता कि कब कौन-सा देश आत्मरक्षा के अधिकार का तर्कसंगत प्रयोग कर रहा है तो इससे सामूहिक आत्मरक्षा के अधिकार की आवश्यकता ही नहीं पड़ती ।
संयुक्त राष्ट्र के घोषणा-पत्र की धारा-51 सामूहिक सुरक्षा का अधिकार प्रदान करती है । किन्तु इस अधिकार के प्रयोग पर अनेक प्रतिबंध भी लगे हुये हैं । उदाहरणार्थ, संयुक्त राष्ट्र के किसी सदस्य के विरुद्ध सशस्त्र हमला होता है तो इस अधिकार का उपयोग उस समय तक नहीं किया जा सकता जब तक ऐसा करने के लिए शान्ति व सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक समुचित कार्यवाही न कर ले, यदि इन दोनों शर्तो के पूर्ण होने से पूर्व, कोई राज्य आत्मरक्षा के लिए कोई कदम उठाता है तो उसे उसके विषय में सुरक्षा परिषद को प्रतिवेदन भेजकर सूचित करना होगा ।
सामूहिक सुरक्षा का एक आधारभूत सिद्धान्त यह भी है कि सामूहिक निर्णय लेने में सभी राज्यों को अपनी बात करने का समान अवसर मिलना चाहिए । वास्तव में सामूहिक सुरक्षा के मामलों में लघु राज्यों का पलडा भारी रहना चाहिए, क्योकि बड़े राष्ट्रों के मुकाबले में वे सामूहिक सुरक्षा पर अधिक निर्भर रहते हैं ।
परन्तु सामूहिक सुरक्षा सम्बंधी गतिविधियों की सफलता एवं असफलता शक्तिशाली राष्ट्रों पर निर्भर करती है, क्योंकि जब तक उनके स्वयं के राष्ट्रीय हितों पर दुष्प्रभाव नहीं पड़ता तब तक वे सामान्यत: समुचित कार्यवाही करने में आनाकानी करते हैं ।
कोरिया तथा खाड़ी युद्धो ने कुछ मुख्य प्रश्नों को जन्म दिया है । पहली बात तो यह है कि अन्तर्राष्ट्रीय पुलिस कार्यवाही के सामूहिक उद्देश्यों तथा सामूहिक कार्यवाही में भाग लेने वाले देशों के राष्ट्रीय हितों के बीच विभाजन की रेखा खींचना एक अत्यन्त जटिल कार्य है ।
दूसरी ओर, संयुक्त राष्ट्र द्वारा की गई कार्यवाही का रूप वास्तव में सामूहिक नहीं रहा, क्योंकि अधिकांश देशों ने संयुक्त राष्ट्र की बहुत कम मदद की । दोनों क्षेत्रों में संयुक्त राष्ट्र की गतिविधियों का एकाधिकार अमरीका के पास रहा ।
इसके अतिरिक्त, सयुक्त .राष्ट्र के सदस्यों ने महत्वपूर्ण निर्णय करने तथा रणनीतियां अपनाने में अपने स्वतन्त्र विवेक से काम लेने के विपरीत अपने उत्तरदायित्वों से बचना बेहतर समझा । यह भी देखने में आया है कि सामूहिक सुरक्षा के लिये कार्यवाही करने की जितनी अधिक शक्ति होगी, उतने ही उसके दुरुपयोग की सम्भावना अधिक होगी । सेना के प्रयोग से प्रतिक्रिया की शृंखला के रूप में हिंसा के बड़े पैमाने पर भड़क उठने का खतरा बना रहेगा ।
अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति एवं सुरक्षा बनाये रखना इसका प्रमुख कार्य है । जैसे-जैसे शीतयुद्ध से उत्पन्न तनावों में कमी आई है, अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय सयुक्त राष्ट्र की ओर क्षेत्रीय संकटों का समाधान ढूंढने की दिशा मे अग्रसर होता जा रहा है ।
सन् 1988-89 की अवधि में ही इसने नई पाँच कार्यदाहियों का भार सम्भाला । अगले दो वर्षों में ऐसी नई कार्यवाहियों की सख्या दुगुनी हो गई । यह वृद्धि असाधारण थी । सितम्बर 1988 में नौर्वेजियन नोबेल कमेटी ने संयुक्त राष्ट्र शान्ति सेना को शान्ति पुरस्वगर से सम्मानित भी किया ।
सैनिकों, पुलिस दस्तों तथा नागरिको से मिली-जुली शान्ति सेना से विविध प्रकार के कार्य सम्पन्न कराने की माग जोर पकड़ती जा रही है । संयुक्त राष्ट्र शान्ति सैनिको को निरस्त्र अथवा हल्के अस्त्रों से सुसज्जित भेजा जा सकता है । उन्हें किसी स्थिति विशेष का अवलोकन कर महासचिव को प्रतिवेदन देने के लिए भेजा जा सकता है ।
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सेनाओं के कार्यो का निरीक्षण करने हेतु भेजा जा सकता है या समझौतों अथवा संधियों का पालन सुनिश्चित करने के लिये भेजा जा सकता है । उनसे युद्ध विराम के उल्लंघन की जांच करने के लिए कहा जा सकता है तथा मध्यवर्ती क्षेत्रों में गश्त लगाने का कार्य भी सौंपा जा सकता है ।
इसके अतिरिक्त संयुक्त राष्ट्र शान्ति सैनिकों को चुनावों का निरीक्षण करने, कानून एवं व्यवस्था की स्थिति की जाँच करने आदि के लिए भेजा जा सकता है । ये उपयुक्त स्वास्थ्य सेवायें भी प्रदान करते हैं । शरणार्थियों के पुनर्वास में सहायता प्रदान करते हैं । वे युद्ध में संलग्न पक्षों को यह भी स्मरण कराते रहते हैं कि सम्पूर्ण विश्व उनकी गतिविधियों पर दृष्टि रखे हुये है ।
इसके घोषणा-पत्र में भी कहा गया है कि जब कभी सुरक्षा परिषद को कहीं भी शान्ति के लिए खतरा दिखाई दे, शान्ति का उल्लंघन हो, आक्रमण हो, तो ऐसी स्थिति में वह यह तय करेगी कि शान्ति बनाये रखने अथवा उसकी पुनर्स्थापना करने हेतु संयुक्त राष्ट्र को क्या कदम उठाने चाहिएं ।
सर्वप्रथम तो यह विवाद को शान्तिपूर्ण ढंग से सुलझाने का प्रयास करेगी । यदि सम्बंधित पक्ष इनकी सिफारिशो को स्वीकार नहीं करे तो यह अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय से समुचित कार्यवाही करने का आग्रह कर सकती है तथा सदस्य राष्ट्रों से अपने सैनिक दस्ते उपलब्ध कराने का निवेदन भी कर सकती है ।
संयुक्त राष्ट्र की स्थापना के पश्चात् से अब तक केवल दो सकट कालों में सैनिक कार्यवाही कर चुकी है । 1950 तथा 1990 में अपने कई प्रस्तावो के द्वारा सदस्य राष्ट्रों से मिल-जुलकर सामूहिक रूप से हमलावर के विरुद्ध सशस्त्र कार्यवाही करने का आग्रह किया जिससे कि आक्रमण को रोका जा सके ।
संयुक्त राष्ट्र की शान्ति बनाये रखने संबंधी कार्यवाही के अन्तर्गत प्रारम्भ से ही सेनाओ का प्रयोग युद्ध करने, आधिपत्य जमाने, किसी भी समूह अथवा शक्ति के हितों की रक्षा हेतु न करके राज्यों के मध्य अथवा राज्जो के विधि समुदायो के बीच विवादो के नियन्त्रण तथा समाधान के लिए किया गया है ।
अभी तक शान्ति कायम रखने सम्बधी अनेक कार्यवाहिया की गई हैं । इनमे से कुछ में शान्ति सेनाओं तथा अन्य कुछ में सैनिक पर्यवेक्षक मिशनी ने भाग लिया । कभी-कभी तो सयुक्त राष्ट्र के शान्ति कायम रखने वाली गतिविधियो में लगभग 300 शान्ति कार्यकर्ताओं ने भाग लिया ।
संयुक्त राष्ट्र का 1991 के खाडी युद्ध के पश्चात्, इराक तथा कुवैत के मध्य सेना-रहित क्षेत्र की निगरानी के लिए इराक-कुवत पर्यवेक्षण मिशन, फरवरी 1992 से गृह युद्ध ग्रसित युगोस्लाविया मे शान्ति बनाये रखने के लिए शान्ति सेना का भेजा जाना तथा अप्रैल 1992 से कम्बोडिया मे कार्यरत संयुक्त राष्ट्र शान्ति सेना इसके ज्वलंत उदाहरण हैं ।
दोनों विश्वयुद्धों से हुये विनाशों ने दुनिया भर के लोगो के दिमाग में यह बात अच्छी तरह बिठा दी है कि यदि मानवता के अस्तित्व को बचाये रखना है तो सभी प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों को सीमित करना होगा । निरस्त्रीकरण से अभिप्राय दो अथवा दो से अधिक राष्ट्रो द्वारा, अपने ऐच्छिक समझौतों के माध्यम से सभी अथवा कुछ विशेष प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों को सीमित करने, घटाने, नष्ट करने, या नियन्त्रण करने से है ।
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युद्ध से भयभीत करने के बजाय, राष्ट्रों का उग्र प्रतिरोधात्मक शक्ति से सामना करके, निरस्त्रीकरण ऐसे हालात पैदा करने का प्रयत्न करता है जिससे किसी भी एक राष्ट्र को यह आश्वासन मिल सके कि अन्य राष्ट्र उस पर आक्रमण करने के न तो इच्छुक हैं और न ही निकट भविष्य में उनमें ऐसा करने की क्षमता है ।
संयुक्त राष्ट्र ने निरस्त्रीकरण की दिशा मे तीन प्रकार की भूमिका निभाई है: प्रथम, इसने वार्तालाप शुरू कराने की पहल की है तथा उन्हें जारी रखने का उत्तरदायित्व निभाया है । द्वितीय, इसने परामर्श की ऐसी प्रक्रिया स्थापित की है जिसके द्वारा सम्बंधित राष्ट्रों को विचारों के आदान-प्रदान तथा सुझावों के विचार-विमर्श के लिए एक मंच पर इकट्ठा किया जा सके ।
तृतीय, इसने निरस्त्रीकरण को सभी राष्ट्रों की चिंता का विषय बना दिया है जिससे कि लघु तथा अल्पशक्ति वाले राष्ट्र भी उन समस्याओं से भली-भांति अवगत हो जायें जिनसे सम्बंधित वार्तालापों पर इसका प्रभाव बढ़ता जा रहा है ।
संयुक्त राष्ट्र के आरम्भ के वर्षों में महाशक्तियों ने निरस्त्रीकरण सम्बंधी विचार-विमर्शों में हिस्सा लिया, लेकिन उनमें से अधिकतर या तो असफल रहे या फिर उनमें गतिरोध उत्पन्न हो गया । यद्यपि निरस्त्रीकरण के उद्देश्यों एवं सिद्धान्तों का इसके घोषणापत्र में प्रतिपादन नहीं किया है किन्तु फिर भी संयुक्त राष्ट्र द्वारा शस्त्र नियन्त्रण एवं निरस्त्रीकरण से सम्बंधित वार्तालापों का आयोजन किया जाता रहा है ।
सन् 1990 के दशक के बदले हुये शीतयुद्धोपराज सन्दर्भ में, जहाँ सोवियत संघ का एक महाशक्ति के रूप में विलोप हो चुका है, रूस एवं अमेरिका के मध्य मुकाबले का सवाल ही नहीं उठता । आपसी सहयोग के इस नवीन युग में निरस्त्रीकरण से सम्बंधित विचार-विमर्श में प्रगति हुई है किन्तु फिर भी इस नये युग में निरस्त्रीकरण को प्रोत्साहन देना संयुक्त राष्ट्र के समक्ष एक सबसे बडी चुनौती है ।