संसदीय सुधुारों का समय | Essay on Parliamentary Reformation Time in Hindi!
कुछ समय पूर्व विधानमंडल में सचेतकों के अखिल भारतीय सम्मेलन में संसद के दोनों सदनों के पीठासीन अधिकारियों ने विधायी निकायों के गिरते स्तर पर चिंता जताई थी । उन्होंने जनप्रतिनिधियों को चेतावनी भी दी थी कि किस प्रकार वे संसद की छवि और लोकतांत्रिक वातावरण को खराब कर रहे हैं ।
इस मुद्दे पर ध्यान खींचने के लिए दोनों पीठासीन अधिकारी बधाई के पात्र है लेकिन उन्हें यह याद दिलाना जरूरी है कि इस समस्या का समाधान इतना सरल नहीं है । हमारे लोकतांत्रिक निकाय जनता की निगाह में तब तक आदर नहीं प्राप्त कर सकते जब तक पीठासीन अधिकारी हंगामा मचाने वाले सदस्यों के साथ कड़ाई से पेश नहीं आयेंगे ।
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इन मुद्दों पर पहले भी कई बार खुलकर बोल चुके लोकसभा अध्यक्ष ने एक बार फिर अपनी नाराजगी का इजहार किया । उन्होंने कहा कि संसद की कार्रवाई में बाधा डालना करदाताओं के पैसे की बर्बादी है । जनता का विश्वास खोने से लोकतांत्रिक राज्यव्यवस्था को आघात पहुंचेगा ।
ये विचार स्वागत योग्य हैं, लेकिन इन दोनों से यह भी पूछना चाहिए कि इन्हें अमलीजामा पहनाने के लिए उन्होंने क्या कदम उठाए? पहल करने के लिए वे कम से कम यह मांग तो रख ही सकते थे कि भारत की स्वतंत्रता की स्वर्ण जयंती के अवसर पर एक सितंबर, 1997 को हुए संसद के ऐतिहासिक अधिवेशन में पारित किये गये प्रस्ताव के अनुरूप दोनों सदन चलें ।
अंसारी ने उस अधिवेशन में लिए गये संकल्प की ओर सांसदों का ध्यान खींचा । उन्होंने प्रश्नकाल में व्यवधान न डालने और आचार संहिता का पालन करने की बात कही । उस ऐतिहासिक अधिवेशन में सांसदों ने सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित किया था कि वे न तो सदन के कूप में जायेंगे और न ही राष्ट्रपति के अभिभाषण के दौरान नारेबाजी या अभद्र व्यवहार करेंगे, लेकिन पिछले 11 वर्षो के दौरान सांसदों ने अपने आश्वासनों और संकल्पों का उल्लंघन कर संसदीय तंत्र और खुद की साख गिराने का कार्य किया है । सांसदों से उनकी शपथ के अनुसार व्यवहार की अपेक्षा कर क्या हम उनसे कुछ अधिक मांग रहे है?
यह ऐतिहासिक शपथ सदन के भीतर व्यवहार से ही संबंधित है, किंतु लोगो को तो अपने प्रतिनिधियों से इससे काफी अधिक अर्थात सदन के बाहर भी संयमित व्यवहार का आश्वासन दिया गया था । इस संदर्भ में संकल्पों और प्रस्तावों की कोई कमी नही है, लेकिन यथार्थ के धरातल पर उनका उतरना अभी बाकी है । इस ऐतिहासिक अधिवेशन के बाद नवंबर 2001 में एक और अखिल भारतीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया । इसमें पीठासीन अधिकारियों, संसदीय कार्य मंत्रियों, मुख्य सचेतकों और मुख्यमंत्रियों ने भाग लिया था ।
सम्मेलन में यह प्रस्ताव पारित किया गया कि देश में विधायी निकायों के सदस्यों के लिए एक आचार संहिता लागू की जानी चाहिए । इसके अनुसार समस्त विधायी निकायों में इस आशय की आचार संहिता लागू करने के लिए नियम प्रक्रिया में आवश्यक परिवर्तन किया जाना चाहिए । इसके साथ ही सभी सदनों में आचार समिति के गठन की बात भी प्रस्ताव में थी ।
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विधानसभाओं और संसद में आचार संहिता लागू करने की दिशा में पहला ठोस कदम तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष शिवराज पाटिल ने उठाया था । उन्होंने आचार संहिता का मसौदा तैयार किया और सितंबर 1992 में संसद और विधानसभा में अनुशासन और सदाचरण विषय पर आयोजित संगोष्ठी में इसे विचार-विमर्श के लिए पीठासीन अधिकारियों और मुख्य सचेतकों के सम्मुख रखा । संगोष्ठी में आचार संहिता को समर्थन मिला । इसके बाद होने वाली संगोष्ठियों में भी शिवराज पाटिल राजनीतिक पार्टियों और पीठासीन अधिकारियों पर लगातार दबाव डालते रहे कि इन प्रस्तावों को पारित किया जाये ।
राजनीतिक दलों ने इन प्रस्तावों पर उत्साह नहीं दिखाया, क्योंकि वे जानते थे कि उनके विधायक और सांसद किस तरह के हैं । चूंकि एक बड़ी संख्या में सांसद और विधायक आपराधिक पृष्ठभूमि के है इसलिए आचार संहिता के इन प्रस्तावों से उन्हें बेचैनी होने लगती है । पार्टियों के नेता भी इन्हें लागू करने के अनिच्छुक है, क्योंकि ऐसा करने पर वे और उनके सहयोगी आचार संहिता के जाल में फंस जायेंगे । इस रूकावट को दूर करने का श्रेय लोकसभा की विशेषाधिकार समिति को जाता है ।
समिति के प्रयास रंग लाए और लोकसभा ने नीति और आचार संहिता लागू करने पर विचार करने के लिए एक समिति का गठन कर दिया । सदन की नीति संहिता समिति ने कहा कि जनप्रतिनिधियों के अनैतिक आचरण की शिकायत करने का अधिकार नागरिकों को दिया जाना चाहिए, स्पीकर इन मामलों को जांच के लिए समिति के पास भेजें ।
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दूसरे, अमेरिका और इंग्लैंड की संसदीय व्यवस्था के अनुरूप सदस्यों के हितों से संबंधित एक रजिस्टर बनाया जाये और प्रत्येक सदस्य इसमें अपनी संपत्ति, जिम्मेदारियों और हितों का खुलासा करे । इसी संदर्भ में ससद ने जन प्रतिनिधि अधिनियम (तीसरा संशोधन) भी पारित किया ।
2002 में इसे अधिसूचित कर दिया गया । राज्यसभा में भी नीति संहिता समिति है, किंतु उद्दंड सदस्यों के खिलाफ इन समितियों की कठोर कार्रवाई का अभी भी इंतजार है । यह भी जरूरी है कि दोनों सदनों में सांसदों द्वारा दिये गये विवरण को प्रकाशित किया जाये ।
सांसद की संपत्ति और जिम्मेदारियों से अधिक लोगों का यह जानना महत्वपूर्ण है कि उनके हित क्या हैं? यानी उन्होंने कितने शेयर खरीदे है और वे किन-किन कंपनियों में निदेशक या अन्य महत्वपूर्ण पदों पर तैनात है? इन खुलासों से संबंधित सख्त नियमों की अनुपस्थिति में सांसद अपने हितों को विशेषाधिकारों की आड़ में छिपा लेते हैं । यह मंत्रियों पर भी लागू होता है । यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आतरिक लेन-देन को आपराधिक कृत्य ठहराने वाले कानून के अभाव में केंद्रीय मंत्री ऐसे निर्णय लेने तक में समर्थ हैं जो अर्थव्यवस्था और पूंजी बाजार को प्रभावित करते हैं । इसे रोकने के लिए कडे कानूनों की जरूरत है ।
लोगों को यह जानने का हक है कि उनके मंत्रियों और सांसदों के व्यावसायिक हितों के तार कहां जुड़े हैं ? स्वाधीनता की स्वर्ण जयंती पर आयोजित ऐतिहासिक सम्मेलन के प्रस्ताव का उल्लेख करते हुए उपराष्ट्रपति ने कहा कि रिकार्ड बताता है कि इसमें दिए गए प्रत्येक आश्वासन का उल्लंघन हुआ है । अंसारी के अनुसार- “जनता की निगाह में यह निदंनीय अपराध है ।
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सिविल सोसायटी और मीडिया का भी ऐसा ही मानना है ।’’ चूंकि यह निष्कर्ष संसद के पीठासीन अधिकारियों का है इसलिए हमें आशा करनी चाहिए कि वे सांसदों के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई करके अपनी इस जांच-पड़ताल को तार्किक परिणति तक पहुंचाएंगे । सांसदों को भले ही यह अप्रिय लगे, लेकिन अंतत: सासद नहीं, जनता ही मायने रखती है ।