समकालीन समाज में बुद्धिजीवियों का प्रभाव पर निबन्ध | Essay on Effect of Intellectuals in Contemporary Society in Hindi!
किसी भी समाज के बुद्धिजीवी उस समाज की चेतना के प्रतिबिंब होते हैं । बुद्धिजीवी तत्कालीन समाज की दशा और दिशा निर्धारित करने में निर्णायक भूमिका निभाते हैं ।
राजनीति के क्षेत्र में बुद्धिजीवियों का प्रभाव क्रांतिकारी सिद्ध हुआ है, हम यदि संसार के इतिहास का अवलोकन करें तो विदित होगा कि बुद्धिजीवियों ने यथा-स्थिति को भंग करने के लिए प्राण-पण से अपनी भूमिका का निर्वाह किया है । फ्रांस की राज्य-क्रांति की सफलता के मूल में वहाँ का उत्तेजनापूर्ण साहित्य ही था ।
फ्रांसीसी जनता राजतंत्र से बुरी तरह त्रस्त थी । प्रत्येक व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अपहरण कर लिया गया था और इस स्वतंत्रता के अभाव ने देश की आर्थिक और सामाजिक उन्नति को खतरे में डाल दिया था; जनता शिथिल पड़ गई थी, परंतु वहाँ के बुद्धिजीवियों ने उस संक्रमण-काल में अपने समय की परिस्थितियों का गहन अध्ययन किया था ।
फलत: उन्होंने देश की दशा के अनुरूप, देश की भक्ति और स्वतंत्रता के महत्व को दरशाने वाले काव्य की रचनाएँ की थी । उस उत्तेजनावर्द्धक साहित्य ने संपूर्ण फ्रांस में क्रांति की ज्वाला भड़का दी और अंत में सत्य (क्रांति) की विजय हुई । इस प्रकार फ्रांस में प्रजातंत्र की स्थापना हो सकी ।
बुद्धिजीवियों को राजनीतिक आईने में देखना मात्र कुचक्र को रेखांकित करना है । यद्यपि यह सत्य है कि बुद्धिजीवी को देश-काल एवं परिस्थितियों के अनुरूप ही स्वयं को ढालना चाहिए तथापि इस संकीर्ण दृष्टिकोण में उलझकर बुद्धिजीवी की स्वतंत्रता का अपहरण नहीं होना चाहिए ।
बुद्धिजीवी को एक राजनीतिक व्यक्ति बनाकर छोड़ देना उसकी भावना से छल-कपट करना होगा । विश्वकवि रवींद्रनाथ टैगोर ने इस संबंध में अपने विचार बड़े ही विस्तृत रूप में प्रकट किए हैं । उन्होंने बताया है कि साहित्यकार की भावना एक पुष्प की भांति कोमल और सुगंधमय होती है ।
जिस प्रकार एक पुष्प अपने पूर्ण रूप में पल्लवित हो जाने पर समस्त दिशाओं में अपनी सुगंध जिसे देता है और उसकी आभा से समस्त दिग्दिगत सुशोभित हो उठती है, उसी प्रकार एक साहित्यकार अपनी कल्पना से कितनी ही असाध्य वस्तुओं को साध्य बना देता है ।
एक साहित्यकार की लेखनी को यदि उम्मुक्त कर दिया जाए तो वह ऐसे दुष्कर कार्य भी सहज ही साकार कर सकता है, जिन्हें आम व्यक्ति अपने यथार्थ जीवन में प्राप्त करने की कल्पना भी नहीं कर सकते । इसीलिए बुद्धिजीवियों पर समाज को नई दृष्टि प्रदान करते रहने का गुरुतर भार सौंपा गया है ।
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बुद्धिजीवी का दायित्व है, मानव जीवन में आनंद-रश्मियों को संपूरित करना तथा निराशा के अंधकार में आशा-ज्योति जलाए रखना । सच, लोकजीवन में बुद्धिजीवी एक प्राणदायिनी बूँद-सदृश है । जीवन में इस अलौकिक आनंद की प्राप्ति रचनाधर्मियों की स्वतंत्र कलाकृति से ही होती है, जो बंधनों और सीमाओं से परिमुक्त अपने स्वच्छंद- भावों के प्रवाह में बही जा रही है ।
युद्धकाल में इस वर्ग का दायित्व और भी गंभीर हो जाता है । युद्ध में वीर-गति प्राप्त करनेवाले एक सैनिक-जीवन का वर्णन और अपूर्व त्याग-बलिदान में उसके चरित्र की उत्कर्षता को जनता के सम्मुख कुछ ऐसे बिंबों के माध्यम से प्रस्तुत करता है कि देश का हर नौजवान स्वयं को कर्तव्य-वेदी पर निछावर कर देने में किंचित् नहीं हिचकिचाता । वह अपने देश के लिए और समाज के लिए उसकी हर आह और हर संवेदना में एकान्वित हो जाता है, एकरूप हो जाता है ।
बुद्धिजीवी वर्ग का यदि गहराई के साथ अध्ययन किया जाए तो विदित होगा कि अपने बुद्धि के बल पर इन बुद्धिजीवियों ने संसार के प्रत्येक आवरण को बेधने का सफल प्रयास किया है : ‘सर्वतोमुखी जागृति’ का शंखनाद भी इन्हीं बुद्धिजीवियों द्वारा किया गया था ।
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इस जागरण-अभियान का उद्देश्य पश्चिम के बौद्धिक प्रभाव को समाप्त करना था । अंग्रेजों के भारत पर अनेक प्रभावों का परिणाम घातक दृष्टिगोचर होने लगा था, बुद्धिजीवीवर्ग ने जब उस परिणाम को समीप से देखा, तब वह वर्ग काँप उठा ।
इससे स्पष्ट हो जाता है कि वह परिणाम निश्चित रूप से किसी भयंकर विनाश का एहसास कराने वाला था । बुद्धिजीवियों ने समाज के प्रति अपने दायित्व को पहचाना । क्रमिक रूप में समाज-सुधारकों ने भारत के अतीत की गौरवगाथा का रस ‘किंकर्तव्यविमूढ़’ भारतीय जनमानस में घोलकर विनाशकारी संकट से उबार लिया ।
उस समय लोक-चेतना पूरी तरह विकसित नहीं हो पाई थी । अनेक दूर-दर्शियों और सुधारक जन-नेताओं के सद्प्रयत्नों के फलस्वरूप भारतीय संस्कृति की अनुपम धरोहर चटख-चटखकर टूटने से बचा ली गई थी । प्रारंभ में पश्चिमी बुद्धिजीवियों ने भारत को अपने राजनीतिक और आर्थिक शिकार के रूप में देखा और एक समय ऐसा आया, जब प्रतीक्षित शिकार पश्चिमी बुद्धिवादियों के अधिकार-क्षेत्र के अंतर्गत आ गए ।
निम्न और गौण रूप में स्वीकार करनेवाले उन तथाकथित बुद्धिवादियों की दृष्टि ने जब भारतवासियों का साक्षात्कार किया, तब उनकी वही दृष्टि पलकें झपकाने लगी । उनको स्वीकार करना पड़ा कि भारतवासियों का इतिहास उच्चल है और उनके पास ऐसी साहित्यिक विधियाँ हैं, जो अन्यत्र दुष्प्राप्य हैं । बस, वहीं से पश्चिमी बुद्धिवादियों की दृष्टि बदलने लगी ।
संक्षेप में, पश्चिमी बुद्धिवाद को समझने का प्रयास करें । जिस समय भारत में पश्चिम के विवेकपूर्ण अनुकरण की प्रवृत्ति उत्पन्न हो रही थी, उस समय विशेष रूप से इंग्लैंड में और सामान्य रूप से यूरोप में बुद्धिवाद का दौर चल चुका था ।
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इस बुद्धिवाद की विशेषता यह थी कि वह ईसाइयत की भ्रांत धारणाओं का आलोचक था तथा विज्ञान पर आश्रित तत्त्वज्ञान का सर्मथक । उन दिनों का पाश्चात्य बुद्धिवाद एक पैना कुल्हाड़ा था, जो सदियों से चले आ रहे भ्रमपूर्ण विचारों के कँटीले जंगलों को काटता जा रहा था । यह ठीक है कि उस कँटीले जंगल के बीच-बीच में जो फलदार वृक्ष और फूलदार पौधे थे, वे भी कटते जा रहे थे, परंतु कँटीले जंगलों के नष्ट हुए बिना बाग का पनपना भी संभव नहीं था ।
उन दिनों इंग्लैंड में स्पेंसर, हक्स्ले, डारविन, हरबर्ट और मिल जैसे तत्त्ववेत्ताओं का प्रभाव बढ़ रहा था । उस प्रभाव का क्षेत्र इतना विस्तार ले चुका था कि शनै:-शनै: सभी वर्गों में यह भावना फैल गई थी कि केवल वर्तमान स्थिति से संतुष्ट होकर बैठे रहना भूल है ।
जो लोग सुधारकों तथा सुधारक-संस्थाओं के प्रभाव में आ गए थे, उनके अतिरिक्त पुरानी लीक के फकीरों के विचारों में एक तरह का आदोलन आरंभ हो गया था, जो प्राचीनतम रूढ़ियाँ थीं, उनके या तो विग्रह-परिवर्तन होने लगे अथवा उनके समर्थन के लिए वैज्ञानिक और काल्पनिक आधार ढूँढ़े जाने लगे ।
अनेक पौराणिक कथाओं, आख्यानों को तर्कसंगत बनाने के लिए कल्पना की डोरी को बेतरतीब खींचा जाने लगा । उसका मूल कारण यह था कि उन कथानकों और आख्यानों को ऐतिहासिक सत्य मानना संभव नहीं था । भारतीय सामाजिक परिप्रेक्ष्य में राजा राममोहन राय की भूमिका निःसंदेह श्लाधनीय है । राजा राममोहन राय और समकालीन समाज-सुधारकों ने नारीस्थिति का सम्यक् परिशीलन किया था ।
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परिशीलनोपरांत इन समाज-सुधारकों ने नारी की हीन दशा को नए-नए श्लाध्य प्रतिमान-आयामों में ढाला, जिन्हें देश के लोकमत ने अंगीकार किया । विधवाओं के पुनर्विवाह का चलन और बाल-विवाह का विरोध लगभग सर्वसम्मत हो रहा था ।
इसका अर्थ यह नहीं कि वे सब सुधार एकदम व्यवहृत होने लगे, किंतु यह निर्विवाद रूप में कहा जा सकता है कि भारतीय लोक-मानस ने इसे दस कदम आगे निकलकर गले से लगा लिया । अश्पृश्यता, वर्गभेद आदि कुरीतियों की जड़ों को सुधारकों ने अपने प्रयत्नों से हिला दिया था । उन्नीसवीं शताब्दी को सुधारकों का ‘स्वर्ण-युग’ कहा ज्रा सकता है ।
वस्तुत: उन्नीसवीं शताब्दी में ही भारतीय संस्कृति में सर्वागीण जागरण-चेतना उत्पन्न होकर देश-व्यापिनी बनी थी । उन्नीसवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध और बीसवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध भारत के साहित्यिक उत्थान के लिए सदैव स्मरणीय रहेंगे ।
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राजा राममोहन राय जैसे विलक्षण व्यक्तित्व ने भारतीय समाज को नई दृष्टि दी थी । बँगला-साहित्य में ‘नवयुग’ लाने का श्रेय राजा राममोहन राय को ही जाता है । उनके धर्म-संबंधी ग्रंथों ने बँगला में अर्वाचीन गद्य का सूत्रपात किया था । उनके समय में ही बँगला में पत्रिकाओं का प्रकाशन-कार्य प्रारंभ हो गया था । परंतु उसे देशव्यापी गौरव उस समय प्राप्त हुआ था, जब बंकिमचंद्र चटर्जी ने उपन्यासों की रचना प्रारंभ की थी ।
उनके उपन्यासों से न केवल बँगला भाषा का साहित्य समृद्ध हुआ था, प्रत्युत सामाजिक जागृति को भी बहुत सहायता मिली थी । उनमें अंग्रेजों ने भारत को जीतने के समय जो-जो अत्याचार किए थे, उनका मर्मोद्रावक वर्णन भी था । राष्ट्रीयता उनमें कूट-कूटकर भरी थी । इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि राष्ट्र-निर्माण में बुद्धिजीवियों की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है ।