सांस्कृतिक राष्ट्र बनाम राजनीतिक राष्ट्रराज्य पर निबंध | Essay on Cultural State Vs. Political National State in Hindi!

पिछले दिनों राष्ट्रीय समाचार-पत्र में ‘देखो, वे खामोश हैं’ शीर्षक से लिखी गयी सम्पादकीय टिप्पणी में मुबई में चल रहे राज ठाकरे के तांडव पर एक अति महत्त्वपूर्ण इशारा यह था कि भारत की आर्थिक राजधानी में राज ठाकरे के समर्थक सरेआम लोगों को, जिन्हें वे उत्तर भारतीय कहते थे, पीट रहे थे । इस न्तु की खबरें सारे देश में छपने वाले हर भाषा के अखबारों में छप रही थी ।

पिटाई की तस्वीरें हर टीवी न्यूज चैनल पर प्रमुखता से दिखाई जा रही थी, पर कांग्रेस और भाजपा दोनों ही इस पर अपनी कोई प्रतिक्रिया नहीं दे रहे थे, वे खामोश थीं । और ये ही वे दो पार्टियां है जो देश की अकेली अखिल भारतीय पार्टियां हैं, देश की एकता और राष्ट्रवाद की बातें करने के लिए हाथों में माइक्रोफोन लेकर छत पर जाकर चिल्लाने का मौका वे कभी नहीं छोडती । पर वे खामोश थीं । क्यों?

इस सवाल के जवाब में हर कोई अपनी-अपनी कारणमीमांसा देने को स्वतंत्रं है । चूंकि वह आजादी हमें भी हासिल है, इसलिए हमें जो नजर आ रहा है, उसे बताने में कोई हर्ज नहीं । भारत नामक महादेश, जिसे हमारे पुराने इतिहासग्रंथों में, पता नहीं क्यों, भारतवर्ष कहा गया है, हजारों सालों से एक राष्ट्र तो रहा है, पर उसे एक राज्य के रूप में बदलने का स्वभाव अभी कुछ सदियों से ही होना शुरू हुआ है ।

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इस तरह के भारत नामक इस राष्ट्र में, या कुछ सदियों से क्रमश: विकसित हो रहे भारत नामक इस राष्ट्र-राज्य में अच्छाइयां हैं और बुराइयां भी हैं और दोनों ही काफी हैं । हम उन महाब्राह्मणों से कभी सहमत हो ही नहीं सकते जिन्हें इस देश में सिर्फ बुराइयां ही बुराइयां नजर आती हैं, और उन प्रज्ञाचक्षुओं से तो सहमत होने का सवाल ही नहीं उठता जिन्हें इस देश में अच्छाइयों और श्रेष्ठताओं के अलावा कुछ नजर ही नहीं आता ।

क्यों ये महाब्राह्मण और क्यों ये प्रशाचक्षु हमें खास समझदार नजर नहीं आते और क्यों कांग्रेस और भाजपा जैसी राष्ट्रीय कही जाने वाली पार्टियों की देश के सामने आ पड़ने वाले ऐसे संगीन मौकों पर घिग्घी बंध जाती है, इसे समझना तो पड़ेगा ही ।

आइए, इस देश पर जरा दृष्टि डाल ली जाये । आप राजस्थान की सीमा पार कर गुजरात पहुंच जाइये तो आप पाएंगे कि अचानक आप एक नए और अलग इलाके में आ गये हैं, मानों किसी अलग देश में ही आ गए हैं । गुजरात से महाराष्ट्र में जाते ही आपको फिर से वही अनुभूति होगी कि मानो आप फिर से एक नए देश में आ गए हैं, जहां खान-पान अलग है, पहनावा जुदा है, भाषा एकदम नयी है, मुहावरे बदल गये हैं, नमस्कार और आशीर्वाद के तरीके तक बदल गये हैं ।

आप राजनीतिक दृष्टि से थोड़ा अधिक सतर्क और संवेदनशील हैं तो आपको समझने में देर नहीं लगेगी कि क्यों नेहरू ने देश का भाषाई राज्यों के आधार पर पुनर्गठन करते वक्त गुजरात और महाराष्ट्र को एक ही बॉम्बे नामक बड़े प्रांत में एकसाथ रखकर देश से अपनी निपट अज्ञान का परिचय दिया था, क्यों दोनों राज्यों को एक-दूसरे से अलग पहचान देने के लिए बॉम्बे नामक प्रात को उग्र और हिंसक आदोलन का शिकार होना पड़ा और क्यों अन्तत: दो अलग इलाकों यानी गुजरात और महाराष्ट्र को अलग राज्यों की पहचान देने का सकारात्मक और निश्चयात्मक कदम उठाना ही पड़ा ।

बेशक कथित द्रविडवाद का झूठ फैलाकर परियार और उनके चेले करूणानिधि सारे भारत को कभी बरगलाते रहे हों, पर अब देश को समझ आ गया है कि दक्षिण भारत में कर्नाटक, आध्र, तेलंगाना, तमिलनाडु और केरल वैसी ही एक दूसरे से अलग पृथक प्रादेशिक पहचाने हैं, जैसे पश्चिमोत्तर में महाराष्ट्र, गुजरात, सिंध, राजपुताना, पंजाब, कश्मीर और हरियाणा अलग प्रादेशिक पहचानें हैं और पूर्व में उड़ीसा, बंगाल, असम वगैरह अलग प्रादेशिक पहचानें हैं ।

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ये पहचानें हैं । जब नगा नेता मुइबा अपनी किसी विलक्षण नगा संस्कृति की बात कर रहे होते है तो अपनी पहचान का उनका यह आग्रह वैसा ही होता है जैसा अपनी अलग, विलक्षण पहचान का आग्रह कोई बुंदेलखंडी, कोई रूहेलखंडी, कोई झारखंडी या कोई उत्तराखंडी कर रहा है ।

भारतवर्ष नामक विराट भूखण्ड की ये तमाम स्वाभाविक पहचाने हैं जिन्हें हमें आधुनिक राजनीतिक शब्दावली में चाहे तो उपराष्ट्रीयताएं भी कह सकते हैं । ये प्रादेशिक क्षेत्रीय पहचानें भारत नामक महादेश का अभिन्न हिस्सा हैं, भारत नामक शरीर के अंग-उपांग हैं, जैसा कि कभी स्वामी रामतीर्थ ने अपनी अद्‌भुत शब्दावली में बखान किया था ।

पर ये भारत नामक आत्मा के साथ एक शरीर का हिस्सा बनकर तभी रह पाती हैं, जब तक उन्हें इनकी अपनी पहचान का, अपने अस्तित्व का, अपने होने का सुख मिलता रहेगा । जहा यह सुख उनसे छिना, जहाँ उन्हें यह अनुभूति हुई कि वे भारत नामक महासमुद्र में विलीन होकर अपना नाम पता तक गंवा चुके हैं, फिर उनमें एक उल्टी धारा बहना शुरू होती है, समुद्र में जाकर उसे समृद्ध करने के बजाय, फिर ये नदियां समुद्र से बाहर वापस अपनी तटीय सीमाओं में बहने की अस्वाभाविक और अजीब सी आकांक्षाएँ पालने लगती हैं ।

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राज ठाकरे के तांडव पर अगर कांग्रेस और भाजपा खामोश थीं तो उनके निहित राजनीतिक स्वार्थों का हरेक को पता है । पर इसके आगे जाकर जो बात है, वह यह है कि इन दोनों पार्टियों को पता ही नहीं चल रहा था कि इन्हें प्रतिक्रिया क्या देनी है, कैसी देनी है, किस भाषा में देनी है ।

उपराष्ट्रीयताओं से समृद्ध इस भारतवर्ष नामक महादेश को अगर हमारे पूर्वज एक विराट संस्कृति-साफ बना पाने में राजनीतिक एकता जैसी जरूरतें पूरा न हो सकने की स्थितियों के बावजूद, एक विराट सारकृतिक राष्ट्र बना पाने में सफल हो पाए, तो हम अपने-अपने दिलों में झांक कर देखें कि क्यों हम इस विराट महादेश को आज की जरूरतों के हिसाब से राजनीतिक राष्ट्रराज्य बना पाने में सफल नहीं हो पा रहे हैं? भारत की विदेशी चश्मे से खोज करने वाले नेहरू ऐसी कोई दृष्टि थी ही नहीं, इसका जीवन्त नमूना वह कश्मीर है जिसका समाधान करने का जिम्मा नेहरू ने लिया था, और हालात क्या है, हमारे सामने है ।

महात्मा गांधी के पास भी यह राजनीतिक दृष्टि, यकीनन नहीं थी, क्योंकि अगर होती तो उन्हें इस बात का स्वत: अहसास हो जाता कि उनके द्वारा चलाया गया खिलाफत आदोलन अंतत: पाकिस्तान सरीखे अलगाववाद की शक्ल ही ले सकता है । नेहरू और गांधी की कांग्रेस, संघ और विहिप की भाजपा के पास भी वह दृष्टि नहीं है तो कोई हैरानी नहीं ।

इसलिए कि ये तमाम नेता, सगठन और पार्टियां अभी तक भी उपराष्ट्रीयताओं से समृद्ध इस सांखातिक भारत राष्ट्र को राजनीतिक राष्ट्रराज्य बना देने के विचार से जुड़ सके, इसलिए भारत को वैसी शक्ल देने की इच्छा से ही वंचित हैं तो फिर वैसा बनाने की सोचें भी तो कैसे? अगर इन तमाम विसंगतियों के बावजूद और मजहबी अलगाववाद की वजह से तीन-तीन बार हुए विभाजनों के बावजूद भारत नामक बची-खुची राजनीतिक इकाई दुनिया के नक्यो पर मौजूद है तो कृप्या इसका श्रेय भारत को एक विराट सांस्कृतिक राष्ट्र बनाकर हमें विरासत में देने वाले उन पूर्वजों को ही दीजिए जिन्हें कोसने का कोई मौका हमारे देश के महाब्राह्मण छोड़ते ही नहीं ।

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पर याद रहे, बिना सांस्कृतिक एकात्मकता के राजनीतिक इकाइयां बन या टिक नहीं पाती और सांस्कृतिक एकात्मकता बिना राजनीतिक दर्शन के स्थिर नहीं रह पाती ।

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