साफ-सुथरी दुनिया की चाह में (निबंध) | Essay on In Search of a Clean World in Hindi!

एक इंटरनेशनल एनजीओ वॉटर ऐड के मुताबिक सैनिटेशन (स्वच्छता) के मामले में भारत दुनिया का दूसरा सबसे गंदा देश है । पहले नबर पर चीन का नाम आता है । इस सूचना पर आपको शायद ही हैरानी हुई हो । इकोनॉमी में बूम की तमाम हलचलों के बीच हमारे देश में 70 प्रतिशत से ज्यादा आबादी को सैनिटेशन की सुविधाएं उपलब्ध नहीं है ।

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पूरी दुनिया में ऐसे लोगों की तादाद 2.6 अरब है और उनमें से आधे भारत और चीन में रहते है । यही वजह है कि गंदे पानी से होने वाली बीमारियां हर वर्ष पांच लाख बच्चों की जान ले लेती हैं । बाल मृत्यु का यह एक सबसे बड़ा कारण है । किसी भी वक्त अस्पतालों के आधे बिस्तर मरीजों से भरे रहते हैं ।

हमारे किसी भी शहर में कुछ घंटों से ज्यादा पानी नहीं आता, जबकि पानी के बिना सैनिटेशन की कल्पना ही नहीं की जा सकती । शहरों में ही ऐसे इलाके भी हैं, जहां पानी कभी आता ही नहीं । सैनिटेशन हमारे लिए कितना अहम है, इसका एक सबूत यह है कि वैज्ञानिकों ने सैनिटेशन को सन् 1840 के बाद की सबसे महान चिकित्सकीय खोज माना है । अगर मल को सही तरीके से नहीं निपटाया गया तो उसके एक ग्राम में एक करोड़ वायरस, एक करोड़ बैक्टीरिया और सौ पैरासाइट अंडे विकसित हो सकते हैं ।

14 जनवरी, 2003 को सुप्रीम कोर्ट ने बड़े शहरों में ठोस कचरे के निपटान के मुद्दे पर केंद्र से जवाब मांगा था । अदालत ने यह भी पूछा कि क्या एक्सपर्ट कमिटी की सिफारिशों के मुताबिक फंडिंग के लिए सरकार तैयार है? सार्वजनिक सुविधाओं का हाल यह है कि हमारे शहर एक खुले टॉयलेट में तब्दील होते जा रहे हैं । लेकिन यह सचमुच एक बड़ी विडंबना है कि लोग खुद को साफ रखना तो पसंद करते है, लेकिन अपने आसपास को नहीं ।

इस समस्या के हल के रास्ते में एक बड़ी दिक्कत यह है कि गंदगी की चर्चा करना सही नहीं माना जाता । हम महिलाओं की आजादी, सेक्स एजुकेशन, समलैंगिकता, कामगारों की दशा और दूसरे तमाम मुद्दों पर चर्चा कर सकते हैं, लेकिन साफ-सफाई पर नहीं । गंदगी की बात करना गदा माना जाता है । लेकिन अगर हमें सफाई चाहिए तो गंदगी की बात उठानी ही होगी ।

लेकिन किसी भी पब्लिक फोरम को देखिए, हमारी जिंदगी को सबसे प्रभावित करने वाला यह विषय सबसे ज्यादा उपेक्षित है । दुनिया की महान समस्याओं के सामने इसे छोटा और स्थानीय माना जाता है, जिस पर बड़े लोग वक्त नहीं दिया करते । महात्मा गांधी के बाद कोई नेता नहीं हुआ, जिसने स्वच्छता को एक मिशन के रूप में बदला हो । लेकिन इस मुद्दे से महात्मा गांधी का जुड़ना ही बता देता है कि इससे नजरें चुराकर काम नहीं चलने वाला है ।

अगर आप विदेश जायें, तो सबसे पहली चीज जो चौंकाती है, वह वहां की साफ-सफाई ही है । चमकते टॉयलेट देखकर हम हिंदुस्तानी हैरान रह जाते है । यह सही है कि हमारे यहां आम आदमी वर्ल्ड क्लास टॉयलेट नहीं बना सकता, लेकिन सरकार तो इतना कर सकती है कि पर्याप्त पानी और सामुदायिक शौचालयों का इंतजाम कर दे ।

स्वच्छता को भगवान के बराबर बताया गया है, लेकिन सबके लिए सैनिटेशन अब भी दूर की कौडी है । इसके लिए पैसा दिया जाता है, लेकिन इसमें जबर्दस्त धांधली हो रही है, योजनाओं की निगरानी और एजेंसियों के बीच तालमेल में भी नाकामी का आलम है । सैनिटेशन के कानून महज कागज पर रह गये है । किसी भी बड़े शहर में आप चले जाइए, सुबह के वक्त खुले में निपटते लोगों की कतार नजर आ जायेगी ।

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जहां पब्लिक टॉयलेट हैं भी, उनकी हालत बेहद बुरी है । शायद ही कोई उनमें जाने की हिम्मत करेगा । इस मामले में भी महिलाओं के लिए दिक्कत पुरुषों से बड़ी है । दिल्ली हाईकोर्ट की तरफ से गठित एक कमिटी ने दिसम्बर 2006 में बताया था कि दिल्ली में 3,192 यूरिनल्स हैं, जिनमें से महज 132 (चार प्रतिशत) महिलाओं के लिए हैं । पुरुषों की तरह महिलाएं खुले में नहीं निपट सकतीं, लेकिन इस परेशानी पर कभी गौर नहीं किया जाता ।

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दिल्ली नगर निगम अपने सफाई कर्मचारियों पर 400 करोड़ रुपये खर्च करता है । कर्मचारियों को छह से आठ हजार रुपये वेतन मिलता है, लेकिन बहुत से कर्मचारी अपना काम दूसरे लोगों से सस्ते में करवा लेते हैं । यानी उन्हें बिना काम किये कमाई हो जाती है ।

कुछ तो बिना काम किये फर्जी हाजिरी लगाते रहते हैं । भ्रष्टाचार और काहिली के इस माहौल में वही हो सकता है, जो हो रहा है । एमसीडी ने खुले में शौच पर रोक लगाने और यमुना को साफ रखने के मकसद से पब्लिक टॉयलेट बनाए और इस काम के लिए एक जापानी बैंक से 166 करोड़ रुपये का लोन लिया । बाद में जापानी बैंक ने 959 शौचालयों का सर्वे किया, तो पाया कि 350 बंद पड़े थे ।

हम दुनिया के दूसरे नंबर के सबसे गंदे देश के रहने वाले हैं और इस सच्चाई को छिपाया नहीं जा सकता । इसकी वजह यही है कि जनता की भलाई को लेकर निपट उदासीनता फैली हुई है । हर किसी को सरकारी पैसे में से अपना हिस्सा चाहिए, चाहे वह टॉयलेट के ही क्यों न हो । शहरों की टनों गंदगी नालों, नदियों और समुद्र में मिल रही हैं । दशकों पहले सीवरेज सिस्टम खस्ताहाल पड़े हैं । वृहत् स्तर पर उन्हें सुधारने की कोई मुहिम नहीं चल रही ।

सरकार इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिए ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में 20,18,709 करोड़ रुपये और बारहवीं योजना में 40,55,235 करोड़ रुपये खर्च करना चाहती है । सैनिटेशन और हाइजीन को भी इस मद में शामिल किया जाना चाहिए, क्योंकि उनके बिना कोई भी सुविधा लोगों का भला नहीं कर सकती । खेद की बात है कि शिक्षा में भी हमने सैनिटेशन को ज्यादा अहमियत नहीं दी है ।

हमारे नेता भी इस मुद्दे से इतने बेखबर हैं कि संसद या किसी असेम्बली में कभी सैनिटेशन पर बहस होती नहीं देखी गयी । अपने परिवेश को हम बेहतर बना सकते हैं और कतई जरूरी नहीं कि गंदगी से घिरे रहें । कुछ काम सरकार को करने होंगे और कुछ हमें । क्यों नहीं हम अपने हिस्से का काम शुरू कर दें और अपने आसपास को साफ रखने लगें ।

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