सूक्ष्मजीवों पर निबंध! Here is an essay on ‘Microorganisms’ in Hindi language.

Essay # 1. सूक्ष्मजीवी का अर्थ (Meaning of Microorganisms):

कुछ लोगों के लिए संसार में केवल बड़े पौधों व प्राणियों का ही अस्तित्व होता है । वे उन सूक्ष्म जीवों के बारे में सोचते ही नहीं है जो बड़े प्राणियों से संख्या में कई गुना अधिक हैं । इनका अध्ययन करना रोचक हो सकता है । हम एक कदम और आगे बढ्‌कर उन सब विभिन्न प्रकार के असंख्य जीवों का अध्ययन करेंगे जिन्हें हम अपनी आंखों से नहीं देख सकते । हम इसका भी अध्ययन करेंगे कि ये जीव किस प्रकार पृथ्वी के जीवों के अस्तित्व के लिए महत्वपूर्ण हैं ।

इन सूक्ष्म जीवों, जिन्हें सूक्ष्मजीव कहते हैं, में से अधिकांश को हम किसी मध्यम क्षमता वाले सूक्ष्मदर्शी यंत्र की सहायता से देख सकते हैं । इस प्रकार के सूक्ष्मदर्शी यंत्र आजकल विद्यालयों में तथा सभी कालेजों व अस्पतालों में उपलब्ध रहते हैं । इसलिए यदि हम थोड़ा पूर्व नियोजन व प्रयत्न करें तो इन आकर्षक सूक्ष्म जीवाणुओं की दुनिया में झांकना संभव हो सकेगा ।

सस्ते प्रक्षेपक सूक्ष्मदर्शी यंत्र जो वस्तु के प्रतिरूप को कांच के पर्दे पर प्रक्षेपित करते हैं, सुगमता से उपलब्ध हो सकते हैं । ये सूक्ष्मदर्शी यंत्र वस्तु की 100 गुना से 400 गुना बड़ा प्रतिरूप प्रक्षेपित कर सकते हैं । ये यंत्र कुछ बड़े सूक्ष्मजीवों को स्पष्ट रूप से तथा उनके जीवंत रूप में हमें दिखा सकते हैं ।

सूक्ष्मजीवी को कहां से प्राप्त करना?

सूक्ष्मजीव जो जीव जगत के सबसे सुगम रूप है, प्राय: प्रत्येक स्थान पर पाए जाते हैं । ये सभी प्रकार के पर्यावरण में तो पाए ही जाते हैं बल्कि हमारे आसपास की भूमि, जल, वायु तथा हमारे शरीर के अन्दर व शरीर के ऊपर भी पाए जाते हैं ।

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इनमें से कुछ के रोचक नमूने निम्नानुसार एकत्र किए जा सकते हैं:

(1) किसी भी स्थिर पानी में जिसका रंग हरा अथवा भूरा हो, बहुत बड़ी संख्या में सूक्ष्मजीवों के रहने की संभावना रहती है । इस पानी की एक बूंद को सूक्ष्मदर्शी यंत्र में देखना लाभप्रद होगा । यदि उस बूंद में थोड़े ही सूक्ष्मजीव दिखें तो प्लैंकटन जाली जो बहुत बारीक हो, उसमें से पानी को अनेक बार गुजारकर एक बोतल में सान्द्र नमूना वाला पानी एकत्र किया जा सकता है ।

(2) किसी खाली गमले को खोजिए जिसमें थोड़ा पानी भरा हो व उसमें कुछ घास व लकड़ी सड़ रही हो । उस पानी की एक बूंद लेकर उसे सूक्ष्मदर्शी यंत्र में देखें ।

(3) किसी पोखर में पड़ी हुई कुमुदिनी की अथवा किसी अन्य पौधे की सड़ती हुई पत्नी लें । उस पली के अंदर के भाग को किसी चाकू अथवा ब्लेड से कुरेदें । कुरेदने पर निकले हुए भाग को पानी में झटकें तथा उस पानी की बूंद को सूक्ष्मदर्शी यंत्र में देखें ।

(4) पानी में उगने वाली घास का एक गुच्छा लें व उसकी जड़ों को एक कटोरे में रखे पानी में डालकर हिलाएं । पानी में कुछ घास के टुकड़े गिरने दें तथा पानी को कुछ देर के लिए स्थिर रहने दें । फिर कटोरे के नीचे की कीचड़ युक्त सतह का परीक्षण करें ।

उपरोक्त प्रकार से एकत्र किए गए नमूनों का परीक्षण करते समय सूक्ष्म जीवों के रूप, आकार उनकी हलचल आदि को ध्यान से देखे व प्रत्येक नमूने में इस संबंध में क्या भिन्नता है, इसे भी नोट करें । इसी संबंध में किसी जानकार की सहायता से उन जीवों की पहचान करें जो आमतौर पर सभी जगह पाए जाते हैं ।

सूक्ष्मप्राणी जो, सरकते हैं, रेंगते हैं, कूदते हैं, उड़ते हैं:

अभी तक हम उन प्राणियों की चर्चा कर रहे थे जिन्हें हम आसानी से देख सकते हैं, किन्तु जैसा कि हमने पूर्व में बताया कि ये प्राणी संपूर्ण प्राणी जगत के एक बहुत कम भाग का प्रतिनिधित्व करते हैं, यद्यपि हम इन्हें सूक्ष्म आकार के कारण देख नहीं सकते तथा उनकी आदतों का अध्ययन करना कठिन है फिर भी ये प्राणी बहुत बड़ी संख्या में तथा विस्तार से फैले हुए हैं । उनके बारे में बहुत रोचक बाते हैं तथा वे बहुत महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं ।

इन प्राणियों को जो 0.5 मिमी से लेकर एक केंचुए के आकार के बराबर होते हैं, तकनीकी रूप से इन्हें सूक्ष्म जन्तु (माइक्रो फीना) अथवा सूक्ष्म अमेरूदण्डी कहते हैं । अवमाननापूर्ण भाषा में इन्हें सूक्ष्म जानवर अथवा रेंगने वाली कीड़े कहते हैं । यहां हम इन रोचक जीवों को केवल सूक्ष्म प्राणी के नाम से संबोधित करेंगे । इन सूक्ष्म प्राणियों में से अधिकांश कीट होते हैं जो इस पृथ्वी पर रहने वाले जीवों में सबसे अधिक संख्या में होते हैं । इनकी लगभग 10 लाख प्रजातियां ज्ञात हैं, तथा ये ज्ञात प्राणियों का 80 प्रतिशत हैं । ये आकार में भिन्न होते हैं ।

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ये लगभग न दिखने वाले आकार से लेकर 15 से.मी. तक के आकार में पाये जाते हैं । ये जीवित बचने वाले प्राणियों में सबसे पुराने हैं तथा उड़ने वाले सबसे पहले प्राणी हैं । कीट तथा उनके संबंधी जैसे मकड़ी, बिच्छू, शतपादी तथा कवचधारी (जैसे केकड़े) आदि सभी प्राणी एक विस्तृत समूह (फाइलम) के होते हैं जिन्हें आर्थोपोडा अथवा संधिपाद प्राणी कहते है जिनके पैरो में जोड़ होते हैं ।

जिन प्राणियों का हम आगे चलकर अध्ययन करने वाले हैं उनमें से अधिकांश आर्थोपोडा समूह के हैं । किन्तु हमें दूसरे सूक्ष्म जीव जो अधिक विकसित होते हैं, भी मिलेंगे व उन्हें हम अपने अध्ययन में शामिल कर लेंगे ।

घरों में पाये जाने वाले प्राणी:

हम चाहें अथवा न चाहें हमारे घर में अनेक छोटे प्राणी रहते हैं । हमें कीटों को पकड़ने वाली छिपकलियां अथवा इधर-उधर फुदकने वाले मेंढको से कोई एतराज नहीं है, किन्तु चूहे, झिंगुर, खटमल, मक्खियां, मच्छर, मकड़ियां, दीमक, चींटियां, ततैया तथा अन्य कीट जो हमारे घर में आते हैं, वे स्वागत योग्य नहीं हैं ।

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फिर भी इन्हें हम सब तरफ देखते हैं. हमें हमारे घर में भंडारित आटे व चावल में सूक्ष्म मृग मिल जाते हैं हमारे पालतू बिल्ली व कुत्तों के शरीर पर पिस्सू व किलनी (टिक) मिलते हैं तथा हमारे बालों में जुएं भी होती हैं ।

इन्हें खोजना तथा इनको सचित्र तालिका बन ना एक अच्छी गतिविधि हो सकती है । इन सूक्ष्म प्राणियों का लंबे समय तक अवलोकन करने के पश्चात् इनके संबंध में रोचक जानकारी एकत्र की जा सकती है जैसे- इनके आने का समय व मौसम, घर में इनके आराम करने का स्थान, भोजन संबंधी प्राथमिकताएं तथा अन्य विशेषताएं । आप इसे एक समूह की गतिविधि भी बना सकते हैं ।

Essay # 2. सूक्ष्म जीवों के जीवन में भिन्नताएं (Differences in the Life of Microorganisms):

पोखर से लिए गए पानी की एक छ का सूक्ष्मदर्शी यंत्र में परीक्षण करने पर हम पाएंगे कि उसमें बहुत बड़ी संख्या में सूक्ष्मजीव होंगे तथा इनके रूप व आकार में बहुत अधिक भिन्नताएं होंगी । यह भिन्नताएं उनके कार्यों तथा जीवन प्रक्रिया में भी पाई जाती हैं ।

वास्तव में यही विज्ञान की एक शाखा के अध्ययन का आधार है जिसे हम सूक्ष्मजीव विज्ञान (माइक्रोबॉयलॉजी) कहते है । सूक्ष्मजीवी के बहुत छोटे आकार के कारण इसमें अधिक शौकिया गतिविधियों का संचालन करना कठिन है । फिर भी आगे के भाग में हम इनसे परिचित होने का प्रयत्न करेंगे ।

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i. जीवाणु (बैक्टीरिया):

एक माइक्रोमीटर (एक मिलीमीटर का एक हजारवां भाग) की श्रेणी के आकार के ये जीवाणु स्वतंत्र रूप से जीवित रहने वाले सबसे छोटे जीव हैं । वे पृथ्वी पर विकसित होने वाले सबसे पहले जीव हैं तथा इनकी शारीरिक संरचना तथा कार्यों की दृष्टि से यह सबसे सरल जीव हैं । फिर भी ये जीव जिन्हें एक पृथक जीवित कोशिका के रूप में सोच सकते हैं, हमारे आस-पास पाये जाने वाले सबसे सामान्य जीव होते हैं ।

जीवाणु हवा, पानी, मिट्टी, भोजन सामग्री, अन्य जीवों के शरीर अथवा मृत जीवों में पाए जाते हैं । हमें किसी प्रकार से प्रभावित किए बिना जीवाणु अस्तित्व में रहते हैं । कुछ जीवाणु हमारे लिए सहायक होते हैं तथा अपरिहार्य भी होते हैं । वहीं कुछ जीवाणु हमारे लिए हानिकारक भी होते हैं ।

यद्यपि ये इतने छोटे होते हैं कि इन्हें हम देख नहीं सकते और न ही इन्हें प्रत्यक्ष रूप से महसूस कर सकते हैं किन्तु इनकी उपस्थिति का एहसास हमें इनके कार्यों से होता है । जीवाणुओं के कुछ कार्यों से हम भली-भांति परिचित हैं, जैसे दूध का दही के रूप में जमना, भोजन सामग्री का सड़ना, जैविक अवशेषों का अपघटित होना, घावों का पकना तथा कॉलरा, तपेदिक जैसी बीमारियों का होना आदि ।

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ii. प्रोटोजोआ:

आकार व जटिलता की दृष्टि से अगले पायदान के रूप में प्रोटोजोआ आते हैं, जिन्हें पूर्व में प्राणी समझा जाता था । अब इन विभिन्न प्रकार के एक कोशिका वाले जीवों को एक पृथक श्रेणी में रखा गया है जिसे किंगडम ऑफ प्रोटिस्टा कहते हैं वे किस प्रकार विचरण करते हैं । इस आधार पर उन्हें और श्रेणियों में बांटा गया है ।

इनमें से कुछ अधिक परिचित प्रोटोजोआ हैं- अमीबा, पैरामिशियम, यूग्लीना, ट्रिपैनोसोमा तथा प्लासमोडियम । अधिकांश प्रोटोजोआ हानिकारक नहीं होते । कुछ तो मानव के लिए सहायक होते हैं, किन्तु कुछ प्राणियों पर रोगजनक परजीवियों (पैथोजेनिक पैरासाइट) के रूप में रहते हैं ।

मलेरिया उत्पन्न करने वाले प्लासमोडियम तथा एंटामिबा हिस्टोलिका जिनसे आमातिसार (अमीबिक डिसैन्ट्री) होती है, के बारे में इस देश के लोगों को भली-भांति मालूम हैं । ट्रिपैनोसोमा अफ्रीकन सोने के रोग के रोगमूलक प्रोटोजोआ होते हैं । उपयोगी प्रोटोजोआ में वे प्रोटोजोआ आते हैं जो मवेशियों व दीमक की आतीं में रहते है जो इन प्राणियों द्वारा खाए गए घास व लकड़ी के सेलुलोज को पचाते हैं ।

iii. यूग्लीना तथा पैरामिशियम:

यूग्लीना व पैरामिशियम दो रोचक प्रोटोजोआ होते हैं । अधिकांश यूग्लीना प्रकाश संश्लेषण के माध्यम से स्वयं का भोजन बनाते हैं । फिर भी इनमें यह क्षमता होती है कि प्रकाश उपलब्ध न होने पर भी ये अपने परिवेश से भोजन आत्मसात कर लेते हैं । इस प्रकार इनमें पौधों व प्राणियों, दोनों के लक्षण होते हैं ।

यूग्लीना उस पानी में बड़ी संख्या में उत्पन्न होते हैं जो समृद्ध जैविक वस्तुओं जैसे खाद द्वारा दूषित होता है । कभी-कभी कृषि फार्म के अंदर के पोखर का पानी हरा सा लगता है यह इन्हीं यूग्लीना के कारण होता है जिनमें हरा प्रकाश संश्लेषणात्मक वर्णक (फोटोस्यिन्थेटिक पिग्मेंट) क्लोरोफिल रहता है ।

पैरामिशियम अपने एक कोशिकीय ढाचें के होते हुए भी एक जटिल जीव होता है ये कीचड़ युक्त पानी में बड़ी संख्या में पाए जाते हैं । विशेष कर उस झाग में जो पानी की सतह पर तैरता है । उसके चप्पल समान ढांचे तथा पलटने के लक्षण के कारण हम पैरामिशियम को एक सूक्ष्मदर्शी यंत्र के नीचे आसानी से पहचान सकते हैं इसके सामने जब बाधा आती है तो यह विपरित दिशा में पलट जाता है ।

यूग्लीना पर प्रकाश का प्रभाव:

यूग्लीना युक्त पानी के प्रकाश के प्रति आकर्षण को दिखाने के लिए एक रोचक गतिविधि की जा सकती है । एक पारदर्शी जार में हरा सा पानी लें । जार के मुंह को काले मोटे कागज से ढक दें । एक ओर थोड़ी सी दरार छोड़ दें । इसे किसी प्रकाशयुक्त कमरे में रख दें । एक या दो दिन बाद बिना पानी के हिलाए कागज को निकाल लें । फिर बाजू से देखे । आपको यूग्लीना का हरा रंग भिन्नता लिए दिखाई देगा ।

पैरामिशियम विकसित करना:

कुछ भूसा व सुखी घास लें व उसके छोटे-छोटे टुकड़े करें इन्हें पानी में भिगोएं तथा उस पर किसी पोखर या नाली का कुछ कीचड़ युक्त पानी डालें कुछ दिनों बाद पानी को सूक्ष्मदर्शी यंत्र के नीचे देखें पानी में बहुत बड़ी संख्या में आपको पैरामिशियम दिखेंगें ।

iv. फफूंद:

फफूंदों के आकार में अत्यधिक भिन्नता पाई जाती है । इनमें एक कोशिकीय खमीर (यीस्ट) भी शामिल है जिन्हें सूक्ष्मदर्शीय यंत्र की सहायता से देखा जा सकता है और इनमें एक किलोग्राम वजन के बड़े मशरूम भी शामिल हैं । यद्यपि अधिकांश फफूंद कोशिकीय होते हैं परन्तु उन्हें उनकी सरल संरचना व कम विकसित चयापचयी (मेटाबॉलिक) प्रक्रिया के कारण सूक्ष्मजीव ही माना जाता है ।

फफूंद अपना भोजन स्वयं बनाते हैं और बाहर से भी आत्मसात करते हैं । चूंकि वे विचरण नहीं कर सकते इसीलिए उन्हें अपने भोजन स्रोतों के पास ही उगना होता है । वास्तव में अधिकांश फफूंद अपनी भोजन सामग्री पर या उसी में उगते हैं ।

एक फफूंद के शरीर की प्रारंभिक इकाई कवक तंतु (हाइफा) होती है । कवक तंतु डोरे के आकार के होते हैं और वे शाखाओं के रूप में तीव्र गति से बढ़ते हैं । वे एक ढेर सा बना देते हैं जो रुई के गद्दे के समान दिखता है । यह रुई के समान दिखने वाला ढेर जिसे कवकजाल (माइसीजियम) कहते हैं, उस पदार्थ पर फैल जाता है जिस पर फफूंद उगा रहता है । यह प्राय: मृत जीव होते हैं । कवकजाल के विशेष भाग भोजन सामग्री में प्रवेश कर जाते हैं तथा उनके पौष्टिक तत्व आत्मसात कर लेते हैं । ये टुकड़ी में विभक्त हो सकते हैं तथा प्रत्येक टुकड़ा नए फफूंद के रूप में बढ़ सकता है ।

फफूंद के प्रकार:

i. फफूंदी:

वह फफूंद जिससे हम सबसे अधिक परिचित हैं वह हैं वह हैं फफूंदी- जो रुई अथवा एक धब्बे के रूप में सड़ते फलों अथवा खराब भोजन पर विकसित हो जाती है । फफूंदी अनेक प्रकार के जैविक सामग्री पर उगती है । इनमें लकड़ी, कागज, चमड़ा तथा कपड़े शामिल हैं । अधिकांश फफूंदी गरम वातावरण पसंद हैं किन्तु कुछ लगभग जमाव-बिन्दु के तापमान पर भी विकसित हो सकती है ।

सबसे सामान्य फफूंदी ब्रेड पर लगने वाली फफूंदी होती है जो किसी बासी ब्रेड के टुकड़े पर या नमी वाले स्थान पर रखने से रजत माइसीलिया के रूप में विकसित होती है । इसे राइजोपस नाइग्रिकेन्स भी कहते हैं । इस फफूंदी को सूक्ष्मदर्शी यंत्र के नीचे रखने पर हम पाएंगे कि इसमें विभिन्न प्रकार के कवक तंतु होते हैं । ब्रेड पर पाई जाने वाली नीले-हरे रंग की फफूंदी पेनिसीलियम प्रकार की होती है ।

यह सड़ते हुए सत्तरों, नींबुओं तथा अन्य फलों के साथ-साथ मांस, चमड़ा व कपड़ों पर भी पाई जाती है । भोजन सामग्री पर पाई जाने वाली फफूंद का एक और प्रकार होता है जिसे ऐस्पर्जिलस कहते हैं । यह पीले अथवा काले छल्लों के रूप में विकसित होती है ।

ब्रेड पर दो और प्रकार की फफूंदी विकसित होती है – न्यूरोस्पोरा (लाल) तथा शूकर (भूरा) । फफूंद के ये रंग बिरंगे दिखने वाले भाग वास्तव में उसके प्रजनन अंग होते हैं । इन भागों में विकसित तथा उनसे गिरने वाले बीजाणु फफूंद को फैलने में मदद करते हैं ।

फफूंदी विकसित करना:

विभिन्न प्रकार के फफूंद के बीजाणु (स्पोर) हवा में हमेशा पाए जाते हैं । ये मिट्टी तथा घर की धूल में अधिक संख्या में होते हैं । इसलिए जब भी कोई नम जैविक पदार्थ हवा में खुला छोड़ दिया जाता है तो कुछ बीजाणुओं को उस पर बैठने का अवसर मिल जाता है । यदि वातावरण में पर्याप्त नमी व ऊष्मा होती है तो ये बीजाणु कवक ततुओं में विकसित हो जाते हैं, जैविक पदार्थ को खाने लगते हैं तथा कवकजाल (माइसीलियम) के ढेर के रूप में विकसित हो जाते हैं ।

ब्रेड की फफूंदी विकसित करने में सबसे सरल होती हैं । इसे विकसित करने के लिए ब्रेड का एक टुकड़ा लें । उसे कुछ गीला कर एक प्लेट में रखें व उस पर घर की कुछ धूल डाल दें । इसे किसी पारदर्शी बर्तन में ढककर गरम व अंधेरे स्थान पर रख दें । कुछ दिन बाद इसे देखें ।

यह सुनिश्चित करें कि ब्रेड सूख न पाये । आप ब्रेड पर सफेद रुई समान फफूंद माईसीलिया पाएंगे । ब्रेड पर एक से अधिक प्रकार के फफूंद विकसित हो सकते हैं जिन्हें उनके रंग व आकार के अनुसार पहचाना जा सकता है ।

जिस प्रकार आपने ब्रेड के टुकड़े को प्लेट पर रखा, उसी प्रकार फलों, सब्जियों व अन्य आर्द्र भोजन सामग्री के टुकड़े प्लेट पर रखें । कुछ दिन बाद उन पर विभिन्न प्रकार की फफूंद विकसित हुई आप को दिखेंगी ।

ii. मशरूम:

सबसे अच्छी तरह ज्ञात फफूंद के समूह मशरूम यानी खुंभी होते हैं । यद्यपि इन्हें शायद ही फफूंद माना जाता है । मौसम की पहली वर्षा के बाद मशरूम तथा उनके विषैले प्रतिरूप-कुकुरमुते-सड़ती जैविक सामग्री अथवा जमीन पर बड़ी संख्या में अंग आते हैं । ये अपनी छातानुमा संरचना के कारण आसानी से पहचाने जा सकते हैं । ये छाते वास्तव में इनके प्रजनन अंग अथवा फलदायी भाग होते हैं । शेष फफूंद या तो जमीन के अंदर अथवा जैविक सामग्री के अन्दर विकसित होता है ।

मशरूमों में छिपे हुए कवक तंतुओं को ढेर तथा सदृश्य फलदाई शरीर दोनों का समावेश होता है । सदृश्य भाग में एक उभरा हुआ आधार, एक लंबा वृत व एक टोपी होती है । एक बार जब जमीन के अंदर पर्याप्त मात्रा में माइसीलिया विकसित हो जाता है तथा यदि बाहर गरम व नम वातावरण है तो माइसीलिया पर कवक तंतु के छोटे-छोटे गुमटे उभर आते हैं ।

कवक तंतु के ये उभरे हुए देर जमीन के स्तर तक निकल आते हैं । एक बार जब इनका संपर्क नम हवा से आता है तो इनका डंठल वाला भाग बड़ी मात्रा में नमी आत्मसात कर लेता है तथा फूल जाता है ।

परिणामस्वरूप यह लंबा होता जाता है व टोपी को जमीन से काफी ऊपर धकेल देता है । एक पूर्ण रूप से विकसित टोपी के अन्दरूनी भाग में अनगिनत कटक अथवा गिल (Gills) होते हैं जिनमें बीजाणु समाए होते हैं । इन खुली हुई टोपियों से बीजाणु छोड़े जाते हैं जो फैलकर नए मशरूम विकसित करते हैं ।

अनेक प्रकार के मशरूम खाने में स्वादिष्ट व पौष्टिक तत्वों के स्रोत होते है किन्तु अनेक खाने योग्य नहीं होते व उनमें दुर्गंध आती है । कुछ और प्रकार के मशरूम अत्यधिक विषैले होते है सामान्यत वे मशरूम जो प्राणियों के अवशेषों पर उगते हैं तथा जिनके रंग चमकीले होते हैं वे विभिन्न मात्रा में विषैले होते हैं । एक विशेषज्ञ के लिए भी विषैले मशरूमों की निश्चित रूप से पहचान करना प्राय: कठिन होता है । इसलिए बीहड़ों में मशरूमों के साथ कार्य करते समय अत्यधिक सावधानी रखनी चाहिए । आप जिन प्रजातियों के बारे में निश्चित न हों उन्हें हाथ नहीं लगाना चाहिए ।

बीजाणु की छाप लेना:

कुछ पूर्ण रूप से खिले हुए किन्तु ताजे मशरूम एकत्र करें तथा सावधानी से उनकी टोपी हटा दे । टोपियों के अन्दरूनी बाजू में विद्यमान गिल का अब ध्यान से परीक्षण किया जा सकता है । इन टोपियों को गलफड़ों के साथ एक नमी युक्त सीखते कागज के फलक पर रखें तथा उसे एक तश्तरी से ढक दें जिससे वह सूखने से बच सके । एक दिन बाद ढक्कन व टोपियां कागज से हटा दें । नमीयुक्त कागज पर छोड़े गए बीजाणुओं के द्वारा गलफडी की एक सुन्दर छाप बन जाएगी ।

बीजाणुओं के छाप को सुखाकर सुरक्षित रखा जा सकता है । इनके रंग व डिजाइन, मशरूम के अनुसार भिन्न-भिन्न होंगे । आसानी से उपलब्ध मशरूमों को बीजाणुओं के छापों का एक संग्रह तैयार करें तथा इसका प्रयोग नए मशरूमों की पहचान करने में करें ।

iii. ब्रेकेट फफूंद व फुल्ल कंदूक (पफ बॉल):

अनेक जीवित अथवा मृत वृक्षों पर हमें मशरूम के समान कुछ उगता हुआ दिखेगा । ये ब्रेकेट फफूंद होती हैं तथा यह मशरूम से भिन्न होती हैं । इनमें डंडी नहीं होती तथा टोपी के समान संरचना केवल अर्द्धवृत्त ही होती है जो कि लकड़ी के साथ दृढ़ता से चिपका होता है ।

ये कतार में अथवा एक के ऊपर एक खांचे के समान विकसित होते हैं । ये फलदायी भाग वृक्ष के बाहर प्राय: कई साल तक रहते हैं, परन्तु माइसीलिया वृक्ष के अंदर विकसित होते रहते हैं तथा लकड़ी को नष्ट करते रहते हैं । पुरानी ब्रेकेट फफूंद लकड़ी के समान कड़ी हो जाती है तथा उस पर विकास के छल्ले देखे जा सकते हैं ।

फुल्ल कंदूक भी फलदायी भाग होते हैं । ये नर्म, प्राय: सफेद व गोल होते हैं तथा इनमें भी डंडी नहीं होती । ये जमीन के नीचे से निकलते हैं । जब ये फुल्ल कंदूक सूखकर फट जाते हैं तो इनके अंदर के बीजाणु बाहर निकलकर फैल जाते हैं । छोटे ताजे फुल्ल कंदुक प्राय: खाने योग्य होते है तथा इनसे हानि नहीं होती ।

Essay # 3. सूक्ष्मजीवों का कार्य-अपघटन (Functions of Microorganisms):

सभी जीवित जीव अपने पौष्टिक पदार्थों को पर्यावरण से प्राप्त करते हैं तथा जीवन प्रक्रिया के उपोत्पाद के रूप में कूड़ा-करकट पैदा करते हैं । अंततोगत्वा जब वे मर जाते हैं तो उनके मृत शरीर इस कूड़ा-करकट को और बढ़ाते हैं ।

यदि यह कूड़ा-करकट इसी प्रकार एकत्र होता रहता, तो एक ऐसा समय आता जब पृथ्वी पर किसी जीव का रहना असंभव हो जाता । इस कूड़े-करकट का अन्य जीवंत जीवों पर विषैला प्रभाव पड़ता । इससे महत्वपूर्ण यह बात होती कि जीवन के लिए आवश्यक अकार्बनिक पदार्थ समाप्त हो जाते ।

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कार्बन डाइऑक्साइड, नाइट्रेट तथा फास्फेट जैसे पदार्थ कूड़े-करकट से संबंधित रहते हैं तथा अन्य जीवों को वे उपयोगी अवस्था में उपलब्ध नहीं हो पाते हैं । इससे उत्पादकों के कार्य में बाधा आती है तथा अन्य जीवों को जीवित रहने हेतु भोजन उपलब्ध नहीं होता ।

हमारे लिए यह एक सौभाग्यपूर्ण बात है कि जीवित जीवों का एक समूह ऐसा भी है जो इस कूड़ा-करकट तथा जीवों के मृत अवशेषों पर कार्य करता है तथा उनका सरल अकार्बनिक रूप में अपघटन करता है । इन पुन: चक्रित पदार्थों को उत्पादक भोजन बनाने हेतु उपयोग में लाते हैं । इन जीवी को हम अपघटक (डिकंपोजर) कहते हैं तथा इनकी भूमिका उतनी ही महत्वपूर्ण है जितनी की उत्पादकों की ।

कूड़े-करकट अपघटन के कार्य में विभिन्न प्रकार के जीव-छोटे व बड़े दोनों सहभागी होते हैं । बड़े सफाई करने वाले जीव जैसे कौवे, गिद्ध, सियार एवं केकड़े आदि मृत अवशेषों को छोटे टुकडों में विभाजित कर देते हैं । कृमियां व कीट इसे और छोटे अवयवों में बदल देती हैं । किन्तु सूक्ष्मजीव ही विशेषत: जीवाणु व फफूंद, इन अवशेषों को पचाकर उन्हें सरल व पुन: उपयोग में आने वाले रूप में बदल देते हैं ।

जीवाणु व फफूंद विभिन्न पर्यावरणीय परिस्थितियों में कार्य करते हैं । अधिकांश जीवाणु अधिक सान्द्रित नमक व शक्कर में मर जाते हैं जबकि अनेक फफूंद इन परिस्थितियों में फलते-फूलते हैं । अनेक फफूंद अम्लीय पर्यावरण को सहन कर लेते हैं तथा तेल-बहुल अचारों में भी विकसित होते हैं ।

अनेक जीवाणु में एक विशेषता होती है जो फफूंद में नहीं होती, वह है प्राणवायु के अभाव में विकसित होना । दूसरी ओर अनेक फफूंद बिना तरल पानी के विकसित हो सकते हैं क्योंकि वे हवा की नमी से पर्याप्त पानी को आत्मसात कर सकते हैं ।

पौधों के अवशेषों के विघटन में फफूंद विशेषत: महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं । अधिकांश प्राणियों का कचरा तथा उनके मृत शरीर दिनों अथवा सप्ताहों में अपघटित हो जाते हैं । किन्तु मृत पेड़ों के तनों को मिट्टी में पुन: अपघटित होने में वर्षों लग सकते हैं ।

लकड़ी वाले पौधों के विघटन में फफूंद द्वारा छोड़े गए सैक्यूलेस के द्वारा आरंभ में लकड़ी को नर्म बना देने के बाद, अन्य कीटों को मृत पौधे पर हमला करने में मदद मिलती है । लकड़ी का एक प्रमुख घटक लिगलिन जो एक दृढ़ बंधक का कार्य करता है, का विघटन केवल फफूंद ही कर सकती है ।

फफूंद के इन्हीं आक्रामक चयापचयी लक्षणों के कारण ही वे अपघटक कारकों के रूप में बहुत महत्वपूर्ण हैं तथा यह लगभग सभी सांसारिक पारितंत्रों के प्रमुख सदस्य हैं । इस प्रकार सबसे सूक्ष्म जीवित जीव-सूक्ष्म जीवाणु-कूड़ा-करकट को साफ कर तथा मूलभूत पौष्टिक तत्वों को सतत चलन में रखकर पृथ्वी पर सभी प्रकार के जीवन को बनाए रखने में एक प्रमुख भूमिका निभाते हैं ।

Essay # 4. सूक्ष्म प्राणियों का बगीचे में अवलोकन (Observation of Microorganisms in Garden):

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बगीचे में एक नजर डालने पर हमें पंख फड़फड़ाती तितलियां नजर आ जाएंगी । यदि हम ध्यान से देखे तो मधुमक्खियां व भंवरे फलों के आस-पास मंडराते दिख जाएंगे । ऊंची घास में चलने पर उसमें से झिंगुर व टिड्डे उड़ते हुए दिखेंगे जो अपने प्रिय पत्तों पर बैठे होते हैं । किसी सुदूर कोने में मकड़ियां जाल बुनते हुए अथवा शिकार की घात में बैठी नजर आयेंगी । इन कीटों को पकड़ कर भोजन बनाने की ताक में छिपकलियां व मेंढक भी हम देख सकते हैं ।

जिस अन्य जगहों पर कीट तथा सूक्ष्म जीव जाते हैं, वह गीली छायादार जमीन होती है । इसलिये इनमें से कुछ प्राणियों को हम पत्थरों अथवा सड़ी हुई पत्नियों के नीचे पा सकते हैं, ये प्राय: छायादार वृक्ष के नीचे अथवा पानी के स्रोत के पास मिलते हैं ।

एक सड़ी हुई लकड़ी का टुकड़ा भी इनके लिये एक अच्छा घर साबित हो सकता है और यदि हम उस लकड़ी के टुकड़े को पलटे तो हमें अनेक प्रकार के जीव देखने को मिल सकते हैं । बेहतर होगा कि हम उठाये हुए पत्थर अथवा लकड़ी के टुकड़े को पुन उसी स्थान पर रख दे जिससे ये कीट अबाधित रूप से वहां रह सकें ।

खाद का गड्ढा, एक बगीचे का स्वाभाविक हिस्सा होता है । इस गड्‌ढे में सूखे हुए पौधे व पत्तियां, जानवरों के अवशेष तथा रसोईघर के बचे हुए पदार्थ भी डाले जाते हैं, इस प्रकार यह कीटों के लिये भोजन का एक अच्छा स्रोत होता है तथा उन्हें आराम से रहने के लिये गर्मी व नमी भी मिल जाती है, इसलिये सूक्ष्म प्राणियों की तलाश में एक खाद के गड्‌ढे को छानना एक अच्छा विचार हो सकता है । यदि साधारण खाद का गड्‌ढा उपलब्ध न भी हो तो हम एक छोटा गड्‌ढा जमीन में बना सकते हैं, अथवा एक लकड़ी के खोके का प्रयोग भी खाद बनाने हेतु कर सकते हैं ।

यदि एक बड़ा बगीचा उपलब्ध हो तो उसका एक सुदूर कोना हम जंगल के रूप में विकसित कर सकते हैं । पानी के एक झरने को हम उस स्थान से गुजार सकते हैं अथवा वहां एक कृत्रिम पोखर बना सकते हैं । इस स्थान को पानी से सींचते रहें जिससे वहां वनस्पति शीघ्र बढ़ सकें । यदि यह स्थान बड़ी झाड़ियों के लिये भी पर्याप्त है तो यहां अन्य बड़े प्राणी भी आ सकते है जैसे पक्षी, सांप, खरगोश आदि ।

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